होम्स का संवहन धारा सिद्धान्त | होम्स की संवहनी तरंगों की संकल्पना की आलोचनात्म परीक्षण
होम्स का संवहन धारा सिद्धान्त | होम्स की संवहनी तरंगों की संकल्पना की आलोचनात्म परीक्षण | Holmes’s Convection Current Theory in Hindi | A critical test of Holmes’s concept of convective waves in Hindi
आर्थर होम्स का संवहन धारा सिद्धान्त
(Convection current theory of Arthur Holmes)
आर्थर होम्स ने 1928-29 में अपने संवहन धारा सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य पर्वत-निर्माण के प्रक्रमों की व्याख्या प्रस्तुत करना है।
किन्तु इसमें पर्वतीकरण से संबंधित ज्वालामुखी क्रिया तथा महाद्वीपीय प्रवाह पर भी प्रकाश डाला गया है। इस सिद्धान्त का महत्व इस लिये है कि यह पर्वत निर्माण तथा महाद्वीपीय विस्थापन संबंधी परस्पर विरोधी संकल्पनाओं में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है।
होम्स के अनुसार ठोस भू-पटल (Crust) और तरल अद्यःस्तर (Substratum) का अन्तर बहुत महत्वपूर्ण है। भू-पटल में ऊपरी परत (सियाल), मध्यवर्ती परत (सीमा का ऊपरी भाग) तथा निचली परत का वह भाग जो रवादार (Crystalline) है, सम्मिलित हैं। इसके नीचे अद्यःस्तर (Substratum) है जो तरल है और निचली परत द्वारा निर्मित है। होम्स का सिद्धान्त अद्यःस्तर में संवहन धारा की संभावना पर आधारित है। अद्यःस्तर में संवहन धारा की उत्पत्ति का कारण वहाँ रेडियोसक्रिय (Radioactive) पदार्थों की उपस्थिति है। इन पदार्थों के विघटन (Disintegration) से उत्पन्न ताप के कारण अद्यःस्तर तरल अवस्था में रहता है और यहाँ संवहन धारायें उत्पन्न होती हैं। अद्यःस्तर से कहीं अधिक मात्रा में रेडियोसक्रिय पदार्थ भू-पटल अर्थात् पृथ्वी के ऊपरी भागों में मिलते हैं, किन्तु ऊपरी परतों से विकिरण (Radiation) तथा संचालन (Conduction) द्वारा ताप का हास होता रहता है और वहाँ पर ताप अधिक नहीं हो पाता है। भू-पटल से विकिरण तथा संचालन द्वारा वार्षिक तापहास लगभग 60 केलौरी प्रतिवर्ग सेन्टिमीटर है। यह लगभग ग्रेनाइट की 14 मिलोमीटर मोटी परत, ग्रनौडायोराइट (Granodiorite) की 16.5 किलोमीटर मोटी परत, पठारी बेसाल्ट अथवा गैब्रो की 52 किलोमीटर मोटी परत, तथा पेरिडोटाइट (Periodotite) की 60 किलोमीटर मोटी परत में वर्तमान रेडियोसक्रिय पदार्थों के विघटन से उत्पन्न ताप के बराबर है। चूँकि धरातल के समीपवर्ती परतों में रेडियोएक्टिवता (Radioactivity) विशेषरूप से केन्द्रित है, यह कहा जा सकता है कि धरातल से औसत ताप- हानि की पूर्ति 60 किलोमीटर मोटी परत द्वारा उत्पन्न ताप से हो जाती है। अतः पृथ्वी की ऊपरी तथा मध्यवर्ती परतों में ताप का संचयन नहीं हो पाता है। यद्यपि अद्यःस्तर में रेडियोसक्रिय पदार्थ अपेक्षाकृत कम हैं फिर भी इनसे उत्पन्न ताप तथा अद्यःस्तर का मौलिक ताप दोनों मिलकर इतना अधिक हो जाता है कि इसमें संवहन धारायें उत्पन्न हो जाती हैं, क्योंकि अद्यःस्तर से विकिरण अथवा संचालन द्वारा ताप का ह्रास नहीं होता है।
सामान्य स्थिति में भू-पटल के अन्दर औसत ताप प्रवणता (Teperature gradient) प्रति किलोमीटर 30 सेन्टीग्रेड है, किन्तु रेडियो सक्रिय पदार्थों से उत्पन्न ताप के कारण इसमें वृद्धि हो जाती है। फलस्वरूप संवहन परिसंचरण की दर (Race of convective circulation) बढ़ जाती है और अद्यःस्तर से ऊपर की ओर संवहन धारायें चलने लगती हैं। यह परिसंचरण (Circulation) मुख्यतः दो बातों से प्रभावित होता है:-
- विषुवत् रेखा के पास भू-पटल (Crust) की मोटाई ध्रुवीय प्रदेशों से अधिक है। अतः विषुवतरेखीय प्रदेशों में रेडियो पदार्थों से उत्पन्न ताप की अधिकता के कारण ताप प्रवणता (Temperature gradient) ध्रुवीय क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। इसलिए विषुवत् रेखा के नीचे ऊपर उठने वाली संवहन धारायें और ध्रुवों पर नीचे की ओर जाने वाली धारायें पायी जाती हैं। विषुवत् रेखा के पास ये धारायें ऊपर उठकर भू-पटल (Crust) के नीचे क्षैतिज अवस्था में प्रवाहित होकर ध्रुवों के पास नीचे गिरने लगती हैं। इन धाराओं के प्रवाहित होने से भू-पटल के निचले भागों में ऊपरी भागों की तुलना में अधिक तीव्र स्थानान्तरण होता है जिसके कारण ऊपरी भागों में तनाव (Tension) उत्पन्न हो जाता है। कुछ इसी विधि से प्रारंभिक विषुवत्रेखीय भूभाग को संवहन धाराओं ने विखंडित कर दिया और वे दक्षिण तथा ऊपर की ओर हट गये, और उत्तरी दो स्थलखण्डों के बीच टेथिस सागर का निर्माण हुआ। होम्स ने ग्रहीय वायु (Planetary winds) की तरह ही ग्रहीय संवहन धाराओं (Planetary convection current) की कल्पना की है।
भू-पटल में महाद्वीपीय खण्डों में महासागरीय भागों की तुलना में रेडियो सक्रिय पदार्थ अधिक है। इसलिए महाद्वीपों और महासागरों के नीचे एक ही गहराई पर तापमान महाद्वीपों के नीचे अधिक रहता है, और महाद्वीपों के नीचे से उठने वाली धारायें अधिक तीव्र और सक्रिय होती हैं। अतः महाद्वीपों के नीचे अधःस्तर से उठने वाली संवहन धारायें पिघले पदार्थो को
होम्स के संवहन धारा सिद्धान्त के अनुसार सागरों तथा भूसन्नतियों का निर्माण। जहाँ आरोही धारायें दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होती हैं वहाँ सागर का निर्माण होता है। और जहाँ महादेशों की संवहन धारायें विपरीत दिशा में प्रवाहित होनेवाली समुद्र तल की धाराओं से मिल कर नीचे उतरती हैं वहाँ भू-सन्ननति का निर्माण होता है।
उठाती हुई फिर सागर की ओर बहाकर ले जाती हैं। महासागरों के नीचे भी इसी प्रकार की किन्तु कम तीव्र धारायें उत्पन्न होती हैं जो महाद्वीपों के किनारे (महाद्वीपीय छज्जों के क्षेत्र में) महाद्वीपों के नीचे बहने वाली धाराओं से मिलती हैं और फिर नीचे की ओर प्रवाहित होती है। यह उल्लेखनीय है कि संवहन धाराओं की उत्पत्ति एक ही स्थान से नहीं होकर कई स्थानों से होती है और उनके उत्पत्ति केन्द्र बदलते रहते हैं। संवहन धाराओं की प्रक्रिया एक स्थायी प्रक्रिया नहीं होती है बल्कि सामयिक होती है जो कि वेगवती तथा क्षीण होने के बाद पुनः दूसरे केन्द्र से प्रारंभ होती है।
जहाँ आरोही धारायें (Ascending currents) महाद्वीपों के नीचे विभाजित होकर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होती है वहाँ पर फैलाव या अपसरण (Divergence) के कारण तनाव (Tension) की स्थिति पैदा हो जाती है और इससे स्थल भाग दो टुकड़ों में विभक्त होकर दो वपिरीत दिशाओं में हट सकते हैं, और साथ-साथ पटलीय पदार्थ (Crustal material) के पतला हो जाने से भी इन दो भागों के बीच अवपतन (Subsidence) के कारण नये सागरीय बेसिन का निर्माण होता है। इस विधि से फाजिल गर्मी (Excess heat) बाहर निकलती है।
जहां समुद्र तल की ओर प्रवाहित होने वाली महादेशों के नीचे की संवहन धारायें विपरीत दिशा से प्रवाहित होने वाली समुद्र-तल के नीचे की धाराओं से मिलती हैं, वहाँ मिलन या अभिसरण (Convergences) के कारण सम्पीड़न (Compression) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यहाँ धारायें नीचे की ओर उतरती हैं अर्थात् अवरोही (Descending) होती हैं। फलस्वरूप ऐम्फिबोलाइट (Amphibolite) पुनः क्रिस्टलन (Recrystallization) द्वारा इक्लोजाइट (Eclogite) में बदल जाता है जिसका घनत्व अधिक है। इसके कारण तथा समस्थिति (Isostasy) के कारण अवतलन (Subsidence) होता है जिससे अवरोही धाराओं (Descending currents) गति और भी तीव्र हो जाती है। और पर्वत निर्माण के लिए भूसन्नतियों का निर्माण होता है। महादेशों के नीचे बाहर की ओर प्रवाह से भी उनके सियाल सीमान्तों (Sial margins) की मोटाई बढ़ जाती है जिससे पर्वत निर्माण में मदद मिलती है। पर्वतों की जड़ों का घनत्व अधःस्तर से कम होगा, इसलिए वे उसमें डूब नहीं पायेंगी। अतः वे ताप से गल जायेंगी और आग्नेय कार्य-कलाप का आविर्भाव होगा।
होम्स की राय में महाद्वीपीय विस्थापन द्वारा पर्वत निर्माण की व्याख्या में एक बड़ी कठिनाई यह है कि यदि अधःस्तर प्रवाहित होने वाले सियाल खण्डों से कमजोर है तो बलन नहीं हो सकता है, और यदि अद्यःस्तर को अधिक मजबूत माना जाय तो फिर विस्थापन का होना मुश्किल है। अतः उनके अनुसार संवहन धाराओं द्वारा उत्पन्न चट्टान-प्रवाह ही पर्यंत निर्माण का कारण है।2 अवरोही धाराओं (Decending currents) के स्थान पर अवपतन (Subsidence) के कारण भूसन्नति का निर्माण होता है। महाद्वीपों के अपरदन से प्राप्त तलछट इसमें जमा होगी। जिससे इसका और भी अवपतन होगा। चूंकि समुद्र तथा स्थल दोनों ओर से भूसन्नति की ओर धारायें प्रवाहित होती हैं, अतः भूसन्नति पर पार्रिवक दबाव (Lateral pressure) पड़ता है। अर्थात् तलछटों के जमाव और भूसत्रति के धंसवा के साथ-साथ ही तलछटों का वलन (Folding) होता है।
संवहन धाराओं की क्रिया चक्रीय होती है, और इसकी तीन अवस्थायें होती है जिनमें भूसन्नति का निर्माण, पर्वत की उत्पत्ति तथा उत्थान होता है :-
(1) प्रथम अवस्था- प्रथम अवस्था की अवधि बहुत लम्बी होती है। यह वह काल है जब संवहन धारायें तेज होती जाती हैं, और दो केन्द्रों से आने वाली धारायें महाद्वीपीय छज्जों के निकट मिलकर नीचे जाती हैं, और भूसत्रति का निर्माण करती हैं। भूसन्नति में तलछटों का जमाव सेहोता है, और भूसन्नति का धंसन होता है। तलछटें भूसन्नति में अधिक गहराई पर पहुँचने पर गर्म और रूपान्तरित हो जाती हैं, और उनका घनत्व बढ़ जाता है। अर्थात् अवरोही धाराओं के स्थान पर भूसन्नतीय धंसन द्वारा पर्वतों की जड़ों का निर्माण प्रारंभ होता है। यह पर्वत-निर्माण की तैयारी की अवस्था है।
(2) द्वितीय अवस्था- इस अवस्था में संवहन धाराओं की गति अत्यधिक तीव्र हो जाती हैं, किन्तु इस अवस्था की अवधि अपेक्षाकृत छोटी होती है। महाद्वीपों तथा महासागरों की ओर से आने वाली धारायें तीव्र गति से नीचे की ओर मुड़ती हैं जिससे भूसन्नति की तलछटों पर अत्यधिक संपीडन (Maximum Compression) पड़ता है और वे वलित हो जाती हैं, और इस प्रकार पर्वत-निर्माण का प्रारंभ होता है।
(3) तृतीय अवस्था- इस अवस्था में संवहन धाराओं का वेग क्षीण होने लगता है, और संवहन धाराओं की प्रक्रिया समाप्त होने लगती हैं। गिरती धाराओं के वेग में कमी के कारण नीचे की ओर दबाव कम हो जाता है, और पर्वतों का उत्थापन शुरू हो जाता है। जो भारी पदार्थ इनीचे दब गये थे वे ऊपर उठने लगते हैं। इक्लोजाइट जो दबाव के कारण बहुत नीचे चला गया था अधिक ताप के कारण पिघल कर फैल जाता है, और ऊपर उठता है। यह पर्वतों के उत्थान का काल है, और उत्थापन उस समय तक होता रहता है जब तक कि समस्थिति साम्यावस्था (Isostatic equilbrium) न हो जाय।
1939 में ग्रिग्स ने अपने प्रयोगों द्वारा संवहन धारा सिद्धान्त द्वारा पर्वत-निर्माण की सत्यता को प्रमाणित करने का प्रयास किया है। उन्होंने पृथ्वी के भू-पटल और अद्यःस्तर का एक मॉडल तैयार किया जिसका निर्माण इन परतों में पाये जाने वाले पदार्थों से मिलते-जुलते पदार्थों से किया गया था। इस मॉडल के अद्यःस्तर में संवहन धारायें पैदा करने के लिए घूमने वाले ढोल (Rotating drums) बनाये गये। जब ढोलों को धीरे-धीरे घुमाया गया तो मॉडल के ऊपरी परत दरका नीचे उतरने वाली धाराओं द्वारा अवतलन (Subsidence) होने लगा, और जैसे-जैसे इन ढोलों का परिभ्रमण (Rotation) तेज किया गया वैसे-वैसे अवरोही धाराओं द्वारा अवतलन तीव्र गति से होने लगा। जब दोनों का परिभ्रमण धीमा कर दिया गया तो धंसा हुआ भाग फिर ऊपर उठने लगा। इस प्रकार प्रिंग्स ने अपने प्रयोगों द्वारा संवहन धाराओं की चक्रीय व्यवस्था की संपुष्टि की है। ग्रिग्स ने इस पर आधारित पर्वत निर्माण का टैक्टोजीन संकल्पना का प्रतिपाद किया हैं जिसे चित्र 78 में दिखलाया गया है।
होम्स अपने सिद्धान्त द्वारा महाद्वीपों तथा महासागरों के वितरण की भी व्याख्या उपस्थित करने का प्रयत्न करते हैं। उनके अनुसार कार्बोनिफेरस युग के हिमानीकरण के वितरण को समझने के लिए महाद्वीपीय विस्थापन आवश्यक है। पैलियोजोयिक काल के अन्त में लारेशिया तथा गौंडवानालैंड दो विशाल स्थल-खण्ड थे जिनके बीच टेथिस सागर था, और इसके अतिरिक्त प्रशान्त महासागर का विस्तृत जलीय खण्ड था। दक्षिणी ध्रुव की स्थिति वर्तमान नेटाल के पास थीं और विषुवत् रेखा की स्थिति ग्रेट ब्रिटेन के पास। होम्स के अनुसार लोरेशिया तथा गौंडवाना लैंड के नीचे से अलग-अलग संवहन धाराओं का अविर्भाव हुआ जिसके कारण स्थलीय भागों का टेथिस सागर तथा प्रशान्त महासागर की ओर विस्थापन शुरू हो गया। इन आरोही धाराओं का केन्द्र गौंडवाना लैंड में केप पर्वत के नीचे तथा लौरेशिया में अपलेशियन-कैलिडोनियन पर्वतों के नीचे था। स्थलभागों के संदर्भ में आरोही धाराओं के केन्द्रों की असमान स्थिति (Asymmetrical position of ascending currents) के कारण स्थल गोलार्द्ध में उत्तर की ओर तथा जल गोलार्द्ध (प्रशान्त महासागर) में दक्षिण की ओर गति होगी। इसके कारण गौंडवानालैंड का विभाजन हो गया, और अफ्रिका यूरोप की ओर खिसकने लगा और भारत का प्रवाह उत्तर की ओर हो गया। दक्षिण अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया प्रशान्त महासागर की ओर प्रवाहित हो गये, और हिन्द महासागर तथा अटलांटिक महासागर का निर्माण हुआ। हिन्द महासागर के नीचे उठने वाली संवहन धाराओं के वेगवती होने के कारण ऑस्ट्रेलिया काफी दूर प्रवाहित हो गया, क्योंकि इसके मार्ग में भारत की तरह कोई स्थल की रूकावट नहीं थी। अंटार्कटिक महादेश अधिक दूर प्रवाहित नहीं हो सका, क्योंकि इसके प्रवाह-मार्ग में प्रशान्त महासागर के नीचे से उठने वाली धाराओं ने अवरोध उत्पन्न किया।
इस प्रकार लौरेशिया तथा गौंडवाना लैंड दोनों का प्रशान्त महासागर तथा टेथिस सागर की ओर फैलाव तथा विस्थापन हुआ है, और इस प्रक्रम में स्थलीय भागों के किनारों पर महान पर्वत श्रेणियों का निर्माण हुआ है। इस विधि से लौरेशिया के किनारे उत्तरी अमेरिका के कॉर्डिलेरा, पूर्वी एशिया के पर्वतीय द्वीप समूह और आल्पस्-हिमालय पर्वत प्रणाली के उत्तरी भाग का निर्माण हुआ। गोंडवाना लैंड के किनारों पर एन्डीज पर्वत, न्यूजीलैण्ड तथा गायना के पर्वत तथा आल्पस् हिमालय पर्वत प्रणाली के दक्षिणी भाग का निर्माण हुआ। होम्स संवहन धाराओं की सहायता से भू-सन्नति, मध्य पिंड, भ्रंश घाटियों तथा ज्वालामुखी क्रिया की भी व्याख्या करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनके कुछ सुझाव अत्यन्त काल्पनिक हैं।.
यद्यपि होम्स का सिद्धान्त रोचक है और इसके कुछ तथ्यों को मान्यता भी मिली है किन्तु यह ऐसे तथ्यों पर आधारित है जिनके बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। संहवन धाराओं की उपस्थिति के बारे में लोगों को संदेह है, किन्तु यदि संवहन धाराओं का वास्तव में अस्तित्व मान भी लिया जाय तो यह असंभाव्य मालूम पड़ता है कि वे महादेशों में विखण्डन और विस्थापन उत्पन्न करने में समर्थ हो सकेंगी। यद्यपि यह सिद्धान्त पर्वत निर्माण की समस्या के समझने में एक नयी दिशा का संकेत करता है, किन्तु यह सिद्धान्त कुछ ऐसे तथ्यों पर आधारित है जिनके बारे में हमारा ज्ञान बहुत ही थोड़ा है। भू-पटल के नीचे संवहन धाराओं का क्षैतिज प्रवाह, उनका उठना तथा गिरना, तथा उनका स्थायी प्रक्रम न होकर सामयिक प्रक्रम होना, नवीन स्थानों पर इस प्रक्रम का पुनः शुरू होना ये सभी ऐसे तत्व हैं जो कल्पना पर आधारित हैं और उनकी सत्यता संदेहात्मक है। किन्तु फिर भी जैसा कि हमने देखा है, ताप संवहन प्रक्रम को प्लेट टेक्टोनिक्स संबंधी अध्ययनों से नयी मान्यता मिल रही है।
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