भूगोल / Geography

डाली की खिसकते महाद्वीपों की परिकल्पना | डेली की महाद्वीपीय फिसलाव की संकल्पना का आलोचनात्मक परीक्षण

डाली की खिसकते महाद्वीपों की परिकल्पना | डेली की महाद्वीपीय फिसलाव की संकल्पना का आलोचनात्मक परीक्षण | Dali’s hypothesis of shifting continents in Hindi | A critical test of Daly’s concept of continental slippage in Hindi

डाली की खिसकते महाद्वीपों की परिकल्पना

(The Hypothesis of Sliding continents by Daly)

डाली R. A. Daly ने खिसकते महाद्वीपों की परिकल्पना का प्रतिपादन अपनी पुस्तक (Our Mobile Earth) में 1926 में किया है। डाली की परिकल्पना महाद्वीपीय भागों के नीचे की ओर फिसलने की गति पर आधारित है जिसका प्रमुख कारण पृथ्वी की गुरुत्व शक्ति (Gravity) रही है। महाद्वीपीय विस्थापन के लिए, गुरूत्व शक्ति के अतिरिक्त, उन्होंने किसी ज्वारीय या अन्य शक्ति का सहारा नहीं लिया है। इस कारण उनकी परिकल्पना सरल तथा स्पष्ट है। उनके विचार रूढ़ियुक्त (Dogmatic) नहीं हैं, और उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है कि इस कठिन समस्या पर कोई निश्चित मत का प्रतिपादन संतोषजनक ढंग से नहीं किया जा सकता है।

डाली की धारणा है कि आदिम काल (Primeval days) में स्थल तथा जल का सुनिश्चित वितरण था। स्थल खण्ड भूमध्यरेखा तथा दोनों ध्रुवों के पास स्थित थे। इन तीन दृढ़ स्थल खण्डों के बीच दो नीचे क्षेत्र अर्थात् सागर थे जिन्हें मध्य अक्षांशीय खाई (Mid-latitude furrows) कहा गया है। उत्तरी गोलार्द्ध में टेथिस सागर मध्य अक्षांशीय खाई था, लेकिन दक्षिण गोलार्द्ध की खाई के बारे में कोई स्पष्ट अनुमान नहीं है। इसके अलावा एक विस्तृत आदिम प्रशान्त महासागर (Primeval pacific ocean) था। इन दृढ़ भू-खण्डों तथा सागरों के तल का निर्माण प्रारंभिक भू-पटल (Primitive crust) द्वारा हुआ था। अतः आदिम काल में ही धरातल का स्थल भाग और जल-भाग अथवा स्थल गोलार्द्ध में विभाजन हो गया था। स्थल-भाग जल- भाग से ऊंचा था और इसलिए भू-मध्यरेखीय तथा ध्रुवीय स्थल भागों का प्रशान्त महासागर की ओर तथा दो मध्य अक्षांशीय खाईयों की ओर ढाल था। प्रशान्त महासागर तथा मध्य-अक्षांशीय खाईयों में महाद्वीपीय गुम्बदों के अपरदन से प्राप्त तलछटों का निक्षेप होने लगा, और इन्हीं को प्रथम भू-सन्नति के रूप में माना जा सकता है। सागरीय तल में दो कारणों से भार बढ़ने लगा- सागरीय जल के भार से तथा भूसन्नतियों में निक्षेपित अवसादीय भार से। इस प्रकार सागरीय तल का नीचे की ओर धंसन होता गया।

कालान्तर में सागरीय तल के निरन्तर नीचे की ओर बढ़ते हुए दबाव तथा धंसन के कारण महाद्वीपीय उच्च भागों की ओर क्षैतिज दबाव पड़ने लगा। इस क्षैतिज दबाव से ऊंचे भू- खण्डों को सहारा (Support) मिला और साथ-साथ इनके आकार में विस्तार होता गया और इनकी ऊँचाई बढ़ती गयी। महाद्वीपीय गुम्बदों के आकार में वृद्धि के कारण भूसन्नतीय अवसादों पर बदाव में वृद्धि होती है, और एक ऐसा समय आता है जब भूसन्नति के नीचे का भू-पटल इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता है और वह टूटने लगता है। सागरीय तल में इस प्रकार की टूटन (Rupture) के कारण गुम्बद के किनारे वाले भाग टूट जाते हैं जिससे गुम्बद का आधार (Support) हट जाता है। फलस्वरूप गुम्बद में भारी तनाव (Tension) की स्थिति आ जाती है। और गुम्बद बड़े-बड़े खण्डों में टूट कर भूसन्नतियों की ओर खिसकने लगता है। इस पक्रम से  भूसन्नतियों की तलछटों पर बहुत दबाव पड़ता है जिससे वे वलित (Folded) हो जाती है, और पर्वत निर्माण की प्रथम अवस्था का अविर्भाव होता है।

डाली अद्यःस्तर को गर्म शीशनुमा बेसाल्ट का मानते है जो फिसलाऊ (Slippery) है और इस पर भू-पटल आसानी से फिसल सकता हैं किन्तु चूंकि उनके विचार में अद्यःस्तर का घनत्व ऊपर के भू-पटल से कम है, अतः भू-पटल का टूटा हुआ भाग अद्यःस्तर में गिरकर डूब जाता है। साथ-साथ भू-पटल के टूटने के कारण अद्यःस्तर का फिसलाऊ और कम घना पदार्थ ऊपर उठकर भू-सन्नतीय तलछटों के नीचे आ जाता है जिससे फिसलन और भी बढ़ जाती है। किन्तु भू-सन्नति के तल के टूट पर भी भू-सन्नतीय तलछट अद्यःस्तर में डूबती नहीं है, क्योंकि भूसन्नतीय तलछट का घनत्व अद्यःस्तर से कम होता है। अर्थात् महाद्वीपीय खण्डों की फिसलन जितनी अधिक बढ़ती है तलछटों पर उतना ही अधिक संपीडन (Compression) बढ़ता है, और उतना ही अधिक वलन होता है। भूसत्रतीय तलछटें क्षैतिज दबाव के कारण वलित होने के साथ-साथ नीचे अद्यःस्तर की ओर भी दब जाती हैं। इससे तलछटों का निचला भाग गर्म होकर द्रवित हो जाता है और उसमें प्रसरण होता है। अतः वलित तलछटें ऊपर की ओर उठ जाती हैं, और इस प्रकार पर्वत निर्माण का दूसरा प्रक्रम अर्थात् उत्थापन सम्पन्न होता है।

अतः डाली के अनुसार पर्वतों का निर्माण महाद्वीपीय भू-पटल के भू-सत्रतियों (सागरों) की ओर फिसलने से उत्पन्न दबाव द्वारा भू-सन्नतीय तलछटों के वलित होने से हुआ है। इस आधार पर पश्चिम से पूरब की ओर फैली हुई आल्प्स-हिमालय पर्वतमाला का निर्माण महाद्वीपीय भाग के मध्य अक्षांशीय खाई की ओर फिसलने से हुआ है, तथा उत्तर से दक्षिण की ओर फैली हुई राकीज़ और ऐन्डीज पर्वतमालाओं, का निर्माण महाद्वीपीय भाग के प्रशान्त महासागर की ओर फिसलने से हुआ है। इसी प्रकार पूर्वी एशिया के धनुषाकार तटीय पर्वतीय द्वीपों का निर्माण एशिया महाद्वीप के प्रशान्त महासागर की ओर फिसलन के कारण हुआ है, तथा इन द्वीपों द्वारा नीचे की ओर दबाव पड़ने से गहरे अग्रखड्डों (Foredeeps) या ट्रेन्चों का निर्माण हुआ है।

प्रशान्त महासागर एक आदिम महासागर था और इस महासागर की ओर स्थलखण्डों का दबाव अर्थात् संपीडन (Compression) था। किन्तु हिन्द, आर्कटिक तथा अटलांटिक महासागरों का निर्माण बाद में तनाव (Tension) की शक्तियों द्वारा हुआ है। डाली के अनुसार, प्रारंभिक गुम्बदों का, तनाव के कारण कई भागों में विखण्डन हो गया है, और इन भूखण्डों के फिसलने के कारण भूखण्डों के बीच तनाव द्वारा निर्मित दरारें (Tension rifts) बन गयीं जिन्होंने कालान्तर में सागर का रूप धारण कर लिया। मध्य-अटलांटिक कटक (Mid-Altantic ridge) वह क्षेत्र है जहाँ अमेरिका प्राचीन महाद्वीप से फट कर अलग हो गया और दोनों स्थल खण्डों के मध्य का तनाव-खण्ड् अटलांटिक महासागर बन गया। डाली की परिकल्पना से इन बात की भी व्याख्या होती है कि महासागरों में केवल प्रशान्त महासागर ही क्यों पर्वतमालाओं से घिरा हुआ है।

डाली की परिकल्पना से विरूद्ध कई आपत्तियाँ उठाई गयी हैं। उनकी परिकल्पना कई स्वतः सिद्ध तथ्यों पर आधारित है जिन्हें कोरी कल्पना या अटकल कहा जा सकता है। डाली पृथ्वी की प्रारंभिक अवस्था में ही असमान धरातल मानते हैं जिसमें स्थल तथा जल का अलग- अलग वितरण था, अर्थात् एक मौलिक महाद्वीप पैन्जिया (Pangaea) तथा एक मौलिक महासागर पैन्थलासा (Panthalassa) था। पैन्जिया का गुम्बद फिसलन के कारण तीन स्थलखण्डों- उत्तरी ध्रुवीय भूखण्ड, दक्षिण ध्रुवीय भूखण्ड तथा विषुवत्रेखीय भूखण्ड में विभाजित हो गया और इनके बीच दो खण्ड या खाईयों का निर्माण हो गया। किन्तु यह सब कैसे संभव हुआ इसके  कारणों में वे नहीं जाते हैं। ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि मौलिक मू-पटल में दो परतें थी जिसमें ऊपर की परत मैनाइट की थी और निचली परत का घनत्व इससे अधिक था। ग्रैनाइट खण्डों की प्रवृत्ति एक जगह इकट्ठा होने की होगी और वह नीचे के अधिक घने भाग के ऊपर तैरने लगेगी और इस प्रकार स्थल तथा महासागरों का निर्माण हो सकता है। किन्तु यह याद रखना आवश्यक है कि दृढ़ भूखण्ड (Rigid Masses) भी अत्यन्त प्राचीन वलित चट्टानों द्वारा निर्मित हैं। अर्थात् इनके निर्माण में भी फिसलन प्रक्रम ने काम किया है। यह मानना होगा कि डाली की संकल्पना में अटकलबाजी का अंश अधिक है, और यह ऐसे स्थल और जल के विवरण की कल्पना करता है जिससे उनके सिद्धान्त के उद्देश्य की पूर्ति हो सके। किन्तु साथ- साथ यह संकेतपूर्ण (Suggestive) भी है ओर स्थल तथा जल के वितरण को समझने का इसमें प्रयास किया गया है। पैन्जिया और पैन्थलासा का अस्तित्व असंभव नहीं है। यदि मौलिक महादेश गुम्बदनुमा था या थे, तो गुरूत्व के प्रभाव से फिसलन, वेगनर द्वारा अपने महाद्वीपीय प्रवाह के लिए प्रस्तावित बलों से कहीं अधिक युक्तिसंगत है। किन्तु डाली द्वारा प्रस्तावित भू- पटलीय संरचना जेफरीज द्वारा भूकम्पीय प्रमाणों के आधार पर निकाली गयी संरचना के अनुरूप नहीं है, और विशेष रूप से डाली यह कथन कि अद्यः स्तर घनत्व ऊपरी भू-पटल कम है स्वीकार करना मुश्किल है।

डाली भूसन्नति के बारे में भी भ्रमात्मक धारणा उपस्थित करते हैं। साधारण रूप में भूसत्रतियाँ लम्बे, संकीर्ण तथा अपेक्षाकृत उथले सागर होती हैं, किन्तु डाली मध्य अक्षांशीय खाई तथा प्रशान्त महासागर को भू-सन्नति के रूप में मानते हैं। साथ-साथ उनका सिद्धान्त महासागरों के विस्तार, गहराइयों तथा उनमें जमा होने वाली तलछटों का विचार न कर प्रत्येक महासागर से पर्वत निर्माण की आशा रखता है।

डाली की संकल्पना गुरुत्वशक्ति के आधार पर पर्वतीकरण की समस्याओं को सरल ढंग से समझाने का प्रयास करती है किन्तु इस समस्या का बहुत तर्कपूर्ण और सुसम्बद्ध विवरण नहीं प्रस्तुत करती है। उल्डरिज तथा मार्गन के शब्दों में डाली की संकल्पना को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता, किन्तु साथ-साथ यह कहना उचित होगा की प्राथमिक उठाव (Primary budges) के कारणों का, जिनसे फिसलन शुरू होती है, संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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