जे. कृष्णामूर्ति के दार्शनिक विचार | जे. कृष्णामूर्ति के दार्शनिक विचारों का वर्णन
जे. कृष्णामूर्ति के दार्शनिक विचार | जे. कृष्णामूर्ति के दार्शनिक विचारों का वर्णन
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कृष्णामूर्ति के जीवन आदर्श अनेक परिस्थितियों और महापुरुषों से प्रभावित हुए। प्रकृति ने उन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उनका मानना था कि संसार का हर मनुष्य प्राकृतिक सौन्दर्य से अवगत हो और उसे नष्ट करने के स्थान पर उसे सजोकर रखने का प्रयास करें। उनका मानना था कि शिक्षा न केवल किताबों से सीखना या तथ्यों को याद (कठस्थ) करना मात्र नहीं है बल्कि शिक्षा का अर्थ है योग्य व्यक्ति बनना जो पक्षियों के कलरव को सुन सके, वृक्षों एवं पहाड़ों के सौन्दर्य का अवलोकन करके आनन्दमय हो सके। कृष्णामूर्ति पर यूरोप और इंग्लैण्ड के सामाजिक वातावरण का भी गहरा प्रभाव पड़ा। भगवान कृष्ण, प्रभु मेमेय और बुद्ध के विचारों से वह प्रेरित थे। इनके साथ ही वह एनी बेसेन्ट के विचारों से बच न सके क्योंकि एनी बेसेंट भी उदार महिला थीं और आध्यात्मिक उन्नति के लिए समर्पित थी। कृष्णामूर्ति के दार्शनिक विचार इन बिन्दुओं से स्पष्ट होते हैं-
दर्शन-
कृष्णामूर्ति ने वास्तविक दर्शन के लिए बताया कि दर्शन वही है जो मनुष्य को सत्य के लिए प्रेम, जीवन के लिए प्रेम तथा प्रजा के लिए प्रेम उत्पन्न करता है। दर्शन से ही व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है कि मैं कौन हूँ। बाह्य तथा आन्तरिक जगत में होने वाले स्पंदन का हर पल ज्ञान होना ही वास्तविक दर्शन है। कृष्णामूर्ति के अनुसार आत्मज्ञान अथवा आत्मबोध का होना ही वास्तविक दर्शन है। उनका कहना है कि शिक्षण शालाओं में दर्शन के नाम पर जो कुछ भी अध्ययन कराया जाता है वह मात्र विचारों एवं सिद्धान्तों की व्याख्यायें होती हैं जिससे सत्य के वास्तविक स्वरूप को देखने की क्षमता प्रायः समाप्त हो जाती है।
सत्य-
कृष्णामूर्ति का मानना है कि जीवन को उसकी समग्रता में जीने से ही जीवन के मूल्यों का अनुभव प्राप्त होता है। वास्तव में जीवन अखण्ड होता है, उसे खण्डों में विभाजित नहीं करना चाहिए, लेकिन समस्त जीवन को अखण्डित जीवन जीने का आभास हो चुका है। इसीलिए हमें अखण्ड जीवन ज्योति का दर्शन नहीं हो पाता है। जीवन हमारे-तुम्हारे के रूप में विभाजित नहीं है लेकिन वह तो एक अनन्त प्रवाह है, यही वास्तविकता है, यही सत्य है और इसी की सत्ता है। कृष्णामूर्ति मानते हैं कि अज्ञानी व्यक्ति वह नहीं है जो शिक्षित नहीं है बल्कि अज्ञानी व्यक्ति वह होता है जो स्वयं की सत्ता से अनभिज्ञ है। इस प्रकार के जीवन की खोज करना ही जीवन का लक्ष्य है हमारे जीवन की ऊर्जा की सार्थकता इसी में है कि हम अपनी अनन्त शक्ति को खोज में लगायें, वरना इस शक्ति के द्वारा किया गया कोई भी कार्य विनाश और पीड़ा का कारण बन सकता है।
कृष्णामूर्ति का मानना था कि सत्य एक पथहीन भूमि है। मनुष्य को इस तक किसी संगठन, किसी पंथ, किसी रूढ़िवादिता, पुरोहित या कर्मकांड द्वारा नहीं पहुँचाया जा सकता है। और न ही किसी दार्शनिक ज्ञान या मनोवैज्ञानिक तकनीक से। सत्य को तो मात्र सम्बन्ध के दर्पण द्वारा अपने मानस विषय वस्तुओं से ही निरीक्षण कर प्राप्त करना होता है। आगे उन्होंने कहा है कि सत्य तक जाने के लिए कोई राजमार्ग नहीं है जिस पर चलकर जाया जा सके। सत्य तो स्वयं के अन्दर छिपा है। सत्य का अनुभव व्यक्तिगत है। सत्य सम्पूर्णता की अनुभूति है।
दुःख और दुःख भोग-
कृष्णामूर्ति का मानना है कि दुख और कष्ट दो पृथक बाते हैं। दुख का सम्बन्ध मानसिक पीड़ा से है तो कष्ट का सम्बन्ध शारीरिक पीड़ा जिसे औषधि के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है। परन्तु मानसिक पीड़ा दूर करने के लिए मनुष्य को स्वयं की मनोवैज्ञानिक स्थितियों को पूरी तरह से जानना होता है। मनुष्य के भूत और भविष्य की यादें ही दुख का कारण होती हैं। शुद्ध वंर्तमान की कोई याद नहीं होती है, इसलिये वह मनुष्य कभी दुख से नहीं घिरता है। कृष्णामूर्ति कहते हैं कि स्वयं की सोच की दुख का अंत है। इसे कोई भी नहीं दे सकता है।
भय-
कृष्णामूर्ति भय को स्वयं व्यक्ति के मन का एक गंभीर रोग मानते हैं जो व्यक्ति के जीवन को पूरी तरह से प्रभावित कर देता है। वास्तव में भय का कारण जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली प्रतियोगितायें और उनसे जुड़ी अनिश्चितायें ही होती हैं। व्यक्ति अपना जीवन एक खिची हुई लाइन पर ही चलाना पसन्द करता है। जब इस लाइन में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न होने का संकेत मिलता है या फिर अनिश्चितंता होने की संभावना का भाव होता है तो वह भयभीत हो जाता है। इस पर कृष्णामूर्ति ने कहा है कि आत्मज्ञान होने पर ही भय से मुक्ति सम्भव है। आत्मज्ञान प्रज्ञा का आरम्भ है औऔर प्रज्ञा भय का अंत।
मृत्यु-
कृष्णामूर्ति का मृत्यु के बारे में कहना है कि मनुष्य मृत्यु से इसलिये भयभींत रहता है कि उसे जीवन के अर्थ का ज्ञान ही नहीं है इसलिये मनुष्य ठीक से मरना भी नहीं सीख पाये हैं। मृत्यु दो प्रकार की होती है- एक मन की मृत्यु, दूसरी शरीर की। शरीर की मृत्यु तो एक अनिवार्य घटना होती है। मन की मृत्यु ही वास्तविक मृत्यु होती है। जब मनुष्य अपने विचारों, वासनाओं, अनुभवों आदि से नाता तोड़ देता है और अपने अहंकार में रहता है वह तो मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार की मृत्यु में ही वास्तविक जीवन का प्रारंभ होता है।
युद्ध और हिंसा-
युद्ध और हिंसा का मनुष्य से उतना ही पुराना सम्बन्ध है जितना कि यह पृथ्वी का उदय। युद्ध प्रायः शक्ति प्रदर्शन, पद की प्रतिष्ठा, धन अथवा वासना के कारण होता है। युद्ध और हिंसा नामक रोग किसी ध्वज के प्रति या राष्ट्रवाद की प्रेरणा से किया गया होता है। उसकी जड़ें मनुष्य के अंतर्मन में गहरी हुई है और मनुष्य अपनी समस्त ऊर्जा इन पुण्य के कार्यों में खर्च कर देते हैं। युद्ध और हिंसा में कार्य कारण का सम्बन्ध बनता है। सभ्यता के इस विकास में आज की हिंसा मनुष्य के अस्तित्व के लिए खतरा बन गयी है। हिंसा का कारण भी मनुष्य के मन का विभाजन ही है जिसके चलते मनुष्य अस्तित्व के साथ एकाकार नहीं हो पाते। वास्तविकता में अहिंसक व्यक्ति वही है जो अपने मन की सभी विभाजनात्मक प्रवृत्तियों को सही प्रकार से जानकर आत्मज्ञानी हो गया है।
आत्मा का स्वरूप-
कृष्णामूर्ति के आत्मा के सम्बन्ध में विचार भारतीय दर्शन में आत्मा के स्वरूप से एकदम भिन्न है। उनका मानना है कि सामान्यत; जिसे मनुष्य आत्मा कहता है वह उसका अहंकार होता है जो देखने के रूप में होता है। आत्मा मनुष्य की सभ्यता, संस्कृति, अपेक्षा और आकांक्षा का ही परिणाम है। आत्मा के बारे में संसार में ऐसा विचार बन गया है कि वह इस भौतिक शरीर जो मरता है, नष्ट हाता है, से अलग कोई अमृत तत् है जो अधिक महान है, व्यापक है, अक्षय है, अमर है। अतः कृष्णामूर्ति की दृष्टि में आत्मा शब्द एक प्रकार का विचार है।
ज्ञान और प्रज्ञा-
सोचने व समझने की क्षमता होने के कारण मनुष्य सभी जीव- जन्तुओं में श्रेष्ठ है। अपनी वेचारिक क्षमता के कारण मनुष्य ने बड़े-बड़े वैज्ञानिक आविष्कारों, गोपनीय सिद्धान्तों और काव्यो की रचना की। इतना ही नहीं अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर विभिन्न देवी-देवताओं की रचना भी कर ली। यह मनुष्य की वैचारिक क्षमता का ही परिणाम है। साधारण मनुष्य से लेकर महान ज्ञानी तक सभी अपने और दूसरों के अनुभवों को हमेशा एकत्र करते रहते हैं। इसी को ज्ञान की श्रेणी में रखा गया है। ज्ञान को परिभाषित करते हुए कृष्णामूर्ति ने कहा कि जब कोई अनुभूति होती है तो ज्ञान उपजता है। ज्ञान अनुभव प्रसूत है जो स्मृतियों के रूप में मुस्तिष्क में संचित रहता है। उन्होंने ज्ञान के तीन रूप निर्धारित किये हैं-वैज्ञानिक ज्ञान, सामूहिक ज्ञान, व्यक्तिगत ज्ञान।
कृष्णामूर्ति का कहना है कि यदि मनुष्य में प्रज्ञा है तो वह ब्रह्माण्ड के सौंदर्य की अनुभूति कर सकता है अतः ज्ञान का उपयोग प्रज्ञा के द्वारा होना चाहिए। ज्ञान का उपयोग उपकरण की भाँति करना चाहिए जिरसे प्रज्ञा के द्वारा उपयोग किया जा सके। जिस प्रकार का चाकू का प्रयोग प्रज्ञा पूर्ण तरीके से किया जाये तो किसी का आपरेशन करकें जान बचाई जा सकती है तथा उसी चाकू से किसी की जान भी ली जा सकती है। यह चाकू पर निर्भर नहीं करता बल्कि प्रयोग कर्ता पर निर्भर करता है। ऐसे ही ज्ञान का उपयोग साधन की तरह प्रयोग किया जाता है तो समाज खतरे में पड़ जाता है और ज्ञान का उपयोग प्रज्ञा के साथ किया जाता है तो इसका लाभ हितकारी होता है।
प्रेम-
वर्तमान परिप्रक्ष्य में ‘प्रेम’ शब्द घोर दूृषित हो गया है, क्योंकि प्रेम व्यक्ति की वासनाओं, आकांक्षाओं, कामवृत्तियों के बोझ में दब कर रह गया है। परन्तु कृष्णामूर्ति ने प्रेम को एक अलग प्रकार से ,परिभाषित किया है। उन्होंने स्वीकार किया है कि प्रेम एक विलक्षण चीज है इसे जब तक विचार और वासना के धागे से न पिरोया जाये तब तक वह प्रेम नहीं है। जब कोई अपने प्रिय के बारे में सोचता है तब वह खूबसूरत स्मृतियों और संवेदनाओं का प्रतीक बन जाता है। परन्तु इसे मात्र विचार संवेदना मात्र ही कहा जा सकता है। प्रेम तो वृह वस्तु होता है जिसमें वासनाओं, घृणाओं और किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता है।
ईश्वर-
ईश्वर की सत्ता को न सिर्फ भारत में बल्कि पाश्चात्य देशों में भी स्वीकारा गया है। जो दर्शन ईश्वर का निषेध करते हैं लेकिन फिर भी उन्होंने ऐसी सत्ता का अस्तित्व स्वीकार किया है जो सृष्टि कर्त्ता हैं। सृष्टिवादी दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कारण बताते हुये उसे सर्वशक्तिमान सत्ता के रूप में स्वीकारा गया है। भाग्यवादी दर्शन का मानना है ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध इस संसार में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता है। वहीं मनुष्यों के कर्मों के अनुसार सुख-दुख का निर्धारण करता है। कृष्णामूर्ति ने ईश्वर की सत्ता को तो नहीं नकारा है बल्कि उन्होंने अनुभूति के विचारों को सम्प्रेषित न करने की बात कही है। वह ईश्वर शब्द को ही ईश्वर मानते हैं। ने कि मंदिरों में ताले के अंदर बंद मुर्तियों को। ईश्वर को मंदिर के ताले में बन्द करने की क्या आवश्यकता है। ईश्वर तो सभी स्थानों पर विद्यमान है। ईश्वर कभी भी दृश्य नहीं बन सकता, वह ता परम मौन की अवस्था में स्वयं ही उपस्थित हो जाता हैं।
स्वतंत्रता-
कृष्णामूर्ति, ने कहा जब हम किसी भी प्रकार से दूसरों अधवा दूसरी चीजों पर निर्मर नहीं होते हैं और अपनी इच्छानुसार चिंतन-मनन करके कार्य करने की अवस्था का स्वतन्त्रता की अवस्था कहते हैं जिसमें ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना काम करता है।
उसी मनुष्य को सच्चे अर्थों में स्वतंत्रता का अनुभव होता है, जो संवेदनशील, मेधावी और अवबाधन की क्षमता अपने पास रखता है। कृष्णामृर्ति के अनुसार स्वतंत्रता के लिये बहुत ही बड़ी विलक्षणता की आवश्यकता होती है। स्वतंत्र होने का अर्थ ज्ञानवान होने से लगाया जाता है। यह तभी आता है जब अपने पूरे वातावरण को चिरसंचित, सामाजिक, धार्मिक, पैतृक और परम्परागत संस्कारों से पूरी तरह से समझ लेते हैं। इन्हें जानने और इनसे छुटकारा पाने के लिए एक गहरी अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है। जो व्यक्ति सम्पूर्णता का अनुभव करके आन्दित होता है वही स्वतंत्रता होती है।
कामवृत्ति, ब्रह्मचर्य और सर्जनशीलता-
कृष्णमूर्ति ने कामवासना को एक ऐसी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकता स्वीकारा है जिसे दूर करना सम्भव नहीं है, फिर भी इसके विरुद्ध व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके इसे और अधिक कठिन बना दिया है। इसी कारण मनुष्यों में अनेक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। दमित कामवासना जीवन के लिए अभिशाप होती है इसलिए सहज जीवन जीने में बाधा डालती है। साधारणतः मनुष्य के सभी कार्य अहंकार को बढ़ावा देते हैं फिर भी जाने-अनजाने अहंकार से मुक्ति पाना चाहता है तभी उसे आनन्द की अनुभूति प्राप्त होगी। अहंकार की मृत्यु के लिए जिन कारयों को करते हैं उसमें काम प्रवृत्ति एक प्रमुख भूमिका अदा करती है। यह एक ऐसी प्राकृतिक क्रिया है। जिसमें क्षण भर के लिए ही अहंकार का पूर्णरूपेण मृत्यु करके आनन्द को प्राप्त किया जा सकता है। कृष्णामूर्ति के अनुसार वास्तविक ब्रह्मचर्य के दमन का परिणाम नहीं है बल्कि विचारकर्ता की समाप्ति का परिणाम है। ऐसा ब्रह्मचर्य ही सर्जनशीलता को जन्म देता है जो मानव जीवन को सुखी एवं आनन्दित करता है।
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