शिक्षाशास्त्र / Education

दूरस्थ शिक्षक का स्वरूप | दूरस्थ शिक्षक की विशेषता (गुण)

दूरस्थ शिक्षक का स्वरूप | दूरस्थ शिक्षक की विशेषता (गुण)

दूरस्थ शिक्षक का स्वरूप

दूरवर्ती शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षक एवं अन्य कर्मचारी प्रायः दूसरे विभाग/संस्थाओं से आते हैं तथा अपने ज्ञान एवं पूर्व अनुभवों के आधार पर नये कार्य हेतु आवश्यक कौशल का अर्जन कार्य करते-करते ही कर लेते हैं। इस प्रकार वे स्वयं ही अधिगम-प्रक्रिया से गुजरते रहते हैं। अभी तक देखने में यही आया है कि इनमें से अधिकांश शिक्षक/कार्यकर्ता अपना नया कार्य सफलतापूर्वक करने लगते हैं तथा धीरे-धीरे विशेषज्ञता प्राप्त कर दूसरे नये कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षक की भूमिका प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दूरवर्ती शिक्षा को अपनाने वाले व्यक्ति प्रायः प्रशिक्षित एवं अनुभवी शिक्षक, प्रशासक, तकनीशियन, माध्यम विशेष आदि होते हैं। अतः उनमें दूरवर्ती शिक्षा से सम्बन्धित कुछ कौशलों एवं सूचनाओं का पहले से ही समावेश होता है। अतः ये कौशल एवं सूचनाएँ (भले ही अव्यवस्थित रूप में हों), नये प्रशिक्षणार्थियों एवं पहले से कार्यरत दूरवर्ती शिक्षकों (प्रशिक्षकों) के मध्य अन्तःक्रिया में सहायक होती हैं।

विशेषता/गुण-

एक प्रशिक्षित दूरवर्ती शिक्षक में जिन कौशलों या गुणों का होना आवश्यक है, वे इस प्रकार के होने चाहिए-

(i) चातुर्य या कुशलता (Skill) –

दूरवर्ती शिक्षा में शिक्षण सामग्री का सर्वाधिक महत्त्व होता है जो मुद्रित, श्रव्य या दृश्य माध्यमों से प्रदान की जाती है। अतः इस प्रणाली की विश्वसनीयता के लिए यह उच्च गुणवत्ता वाली होनी चाहिए। इसके साथ ही शिक्षण सामग्री लोगों की सामाजिक एवं शैक्षणिक उपयोगिता की दृष्टि से भी प्रासंगिक होनी चाहिए। ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब इस प्रकार की सामग्रियों के निर्माण में लगे कार्मिक तद्नुसार कुशल अर्थात् कौशलों से युक्त हों । इसके लिए प्रशिक्षकों में उच्चस्तरीय शैक्षिक एवं तकनीकी कौशलों का होना अति आवश्यक होता है।

(ii) सहयोग की भावना (Feeling of Cooperation) –

दूरवर्ती शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत लगभग सभी कार्यों के सम्पादन में एक से अधिक लोगों की भूमिका होती है। इसमें कदाचित ही कोई ऐसा कार्य हो जिसे किसी एक व्यक्ति द्वारा बिल्कुल अलग रहकर किया जाता है। यद्यपि अनेक कार्यों एवं उनके कार्मिकों की भूमिकाओं में बहुत अन्तर होता है किन्तु वे उत्पाद की अन्तिम एवं सफल तैयारी के उद्देश्य से एक-दूसरे से जुड़े हुए एवं सम्बन्धित होते हैं। इस प्रकार यह सफलता एक-दूसरे के सहयोग से ही प्राप्त हो सकती है। इसलिए इसके सभी कार्मिक सहयोगी प्रकृति के होने चाहिए। इसके लिए उन्हें उसी प्रकार का प्रशिक्षण देकर तैयार भी किया जाना चाहिए। अतः शिक्षकों/कार्मिकों में सहयोगी भावना के विकास के लिए प्रशिक्षक में भी सहयोग की भावना का होना अति आवश्यक है।

(iii) लचीलापन (Flexibility)-

दूरवर्ती शिक्षा को सफल एवं सर्वस्वीकार्य बनाने के मार्ग में कठोर दृष्टिकोण का होना बाधक होता है जबकि लचीला दृष्टिकोण इसमें सहायक होता है। लचीलापन प्रशिक्षणार्थियों को न केवल नवीन परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठाने में सहायता प्रदान करता है अपितु एक-दूसरे से विभिन्न प्रकार के समायोजनों में भी सहायक होता है। दूरवर्ती शिक्षक का लचीलेपन का गुण ही उसे शिक्षक, तकनीशियन, निर्माता तथा प्रशासक आदि विभिन्न भूमिकाओं का निर्वहन करने में सहायता करता है। अतः प्रशिक्षक में भी इस गुण का होना आवश्यक है जिससे वह प्रशिक्षार्थियों को इसकी उपयोगिता से अवगत करा सके।

(iv) धैर्य (Patience)-

धैर्य व्यक्ति के सर्वोत्तम गुणों में से एक है। जहाँ तक दूरवर्ती शिक्षा का सम्बन्ध है, इसके कार्यकर्त्ताओं में तो इसका होना परम आवश्यक है। नये संस्थानों की स्थापना/नये पाठ्यक्रमों का प्रारम्भ, समाज के विभिन्न वर्गों तथा इन्हें पहुँचाना, कम लागत का ध्यान रखना, सामाजिक आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी होना आदि ऐसे श्रम साध्य एवं समय साध्य कार्य है जो दूरवर्ती शिक्षक को तनावग्रस्त, निराशायुक्त, चिंतित एवं उत्तेजित रख सकते हैं। अतः ऐसी कठिनाइयों को समाप्त करने के पीछे समय लगाने के स्थान पर ऐसी कार्य- संस्कृति को विकसित किया जाना चाहिए जो इन कठिनाइयों को प्रक्रिया के चलते-फिरते अंग के रूप में स्वीकार कर सके। इस प्रकार के दृष्टिकोण का मूल आधार धेये हो सकता है। अतः प्रशिक्षकों को स्वयं धैर्यवान होना चाहिए जिससे वे अपने कार्य एवं व्यवहार में इसका प्रदर्शन करते हुए दूरवर्ती शिक्षकों/कार्यकर्ताओं में भी ‘धैर्य’ जैसे गुणों का प्रतिपादन करने में सफल हो सकें।

(v) नव प्रवर्तक या नवाचारी (Innovative) –

दूरवती शिक्षा स्वयं ही एक नव प्रवर्तन है तथा इसकी प्रकृति भी निरन्तर नव प्रवर्तनों को समाहित करते रहने की है। जिन नव प्रवर्तनों को यह प्रणाली अधिक से अधिक स्वीकार करती है, वे कोर्स प्रारूप, सम्प्रेषण माध्यम, लागत-लाभ, छात्र सहायक सेवाओं, प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम विधियों एवं नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप पाठ्यक्रम प्रदान करने से सम्बन्धित होते हैं। अतः दूरवती शिक्षा की इस नव प्रवर्तन प्रहणकारी प्रकृति को बरकरार रखने के लिए इसके शिक्षकों/कार्यकर्ताओं में भी नव प्रवर्तनों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। इस प्रकार की प्रवृत्ति का विकास प्रशिक्षण के माध्यम से किया जा सकता है। किन्तु ऐसा तभी सम्भव है जब प्रशिक्षक स्वय भी इस प्रकृति के हों अर्थात् व स्वयं नव प्रवर्तक हों। अतः दूरवर्ती शिक्षक प्रशिक्षकां का एक महत्त्वपूर्ण गुण उनका नव प्रवर्तक होना है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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