शिक्षाशास्त्र / Education

ओशो का शैक्षिक योगदान | ओशो के शैक्षिक योगदान पर संक्षिप्त लेख

ओशो का शैक्षिक योगदान

ओशो का शैक्षिक योगदान | ओशो के शैक्षिक योगदान पर संक्षिप्त लेख

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शिक्षा का अर्थ-

शिक्षा द्वारा हमारे संशय का उन्मूलन एवं कठिनाइयों का निवारण होता है तथा विश्व को समझंने की क्षमता प्राप्त होती है। बिना विद्या के मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं होता। अर्थात् विद्या से ही मानवता के गुणों का विकास सम्भव है नहीं तो पशु का पशु ही रह जायेगा। जिसका उद्देश्य मात्र उदरपूर्ति होता है। “मानव के नाते भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति किसी भी अर्थ व्यवस्था का न्यूनतम स्तर है रोटी कपड़ा और मकान मोटे रूप में इन आवश्कयताओं की अभिव्यंजना करते हैं। इसी प्रकार व्यक्ति को समाज के प्रति कर्तव्यों का निर्वाह करने में सक्षम बनाना भी समाज का आधारभूत कर्तव्य है।

इसलिए कहा गया है कि- “जो माता-पिता अपने पुत्र को शिक्षा नहीं दिलाते वे शत्रु और बैरी की तरह होते हैं क्योंकि उनका पुत्र हंसों के बीच बगुले की तरह शोभायमान नहीं होता।

हमारे यहां विद्या विहीन पुरुष को सुगन्ध रहित फूल की तरह ही व्यर्थ माना गया है चाहे वह कितना भी सुन्दर बलशाली और धनाड्य परिवार में क्यों न उत्पन्न हुआ हो।”

ओशो के अनुसार शिक्षा का स्वरूप प्रतिस्पर्धात्मक नहीं होना चाहिए। शिक्षा का यह वर्तमान ढाँचा कही गलत तो नहीं है निश्चत ही यह ढांचा गलत होना चाहिए क्योंकि परिणाम गलत है और परिणाम की परीक्षा देते हैं परिणाम ही बताते हैं किं जो हम कर रहें हैं वह ठीक है या गलत है और ये बच्चे जो शिक्षित होकर निकालते हैं। ये विकृत मनुष्य होकर निकलते हैं और पीछे भी बुनियादी रूप से शिक्षा ठीक नहीं है अन्यथा यह गलत शिक्षा पैदा ही नहीं होती क्योंकि ठीक से गलत कभी पैदा नहीं होता। गलत से ही गलत पैदा होता है पीछे भी गलत था आज भी गलत है। यह हमारी पूरी की पूरी शिक्षा जिस केन्द्र पर घूमती है वह केन्द्र ही गलत है उस केन्द के कारण सारी तकलीफ पैदा होती है वह केन्द्र है एम्बीशन हमारी यह सारी शिक्षा एम्बीशन पर घूमती है महत्वाकांक्षा पर घूमती है। “

हमें सिखाई जाती है महात्वाकांक्षा हमें सिखाई जाती है एक दौड़ कि आगे हो जाओं। छोटा या बच्चा छोटे से स्कूल में पढ़ने जाता है उसके मन में भी हम चिन्ता का भूत भर देते हैं कि उसे भी आगे होना है वह भी पुरस्कृत होगा अगर आगे आयेगा सफल होगा तो सम्मानित होगा शिक्षक आदर करेंगे घर में आदर मिलेगा और अगर असफल रहा तो आपमानित होगा और प्रतियोगितायें एक प्रकार का ज्वर बन जाती है एक तरह का बुखार बन जाती हैं और अगर आप बुखार में है तो आप ज्यादा तेजी से दौड़ सकते हैं आप अधिक तेजी से गालियाँ बक सकते हैं। अगर आप बुखार में हैं तो आप ऐसी बातें कर सकते हैं जो सामन्य तथा नहीं कर सकते बुखार में एक त्वरा आ जाती है एक शक्ति आ जाती है और ऐसी शिक्षा का परिणाम यह निकलता है कि व्यक्ति जब पढ़ लिखकर बाहर आता है तो उसे सब जगह एक प्रतिस्पर्धा दिखाई देती है बड़ा मकान बनाना है दुकान बड़ी होनी चाहिए उससे आगे रहना चाहिए। अत: शिक्षा के स्वरूप को प्रतिस्पर्धा से मुक्त रखकर ही विद्यार्थी में उत्तम संस्कार की संरचना संभव है।

प्राथमिक शिक्षा-

ओशो ने शिक्षा को समाज का सबसे सशक्त माध्यम स्वीकार करते हुए उसे समाज के लिए सही अर्थो में स्थापित करने की सलाह दी है। न कि उसे तोड मरोड़ कर उसको विकृत करके उसका रूप ही परिवर्तित कर दे ऐसा करने का पुरजोर विरोध किया है और कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का सब कुछ स्वयं ही सीखना पड़ता है तो शिक्षा ऐसी हो जो प्रत्येक व्यक्ति को सब कुछ खोजने के लिए सिर्फ पुकार देती हो। कोई बंधी धारणाएँ देकर उसे घर न भेज देती हो कि तुम यह लेकर चले आओ तुम्हें जीवन मिल गया अभी तक ऐसा ही हो रहा है। हम सब बातें सिखा देते हैं कोई कोना ऐसा नहीं रहता जिसे अनसीखा छोड़ दें कि दायें चलना सिखाना पड़ेगा रसायन, भौतिक और गणित सिखाने पड़ेंगे भूगोल और इतिहास सिखाने पड़ेंगे। यह कोई व्यक्ति अपने लिए खोज नहीं लेगा यह सब सिखाया जाय पर जीवन नहीं सिखाया जाय जीवन के बावत् धारणा ही न दी जाय जीवन के बावत सिर्फ खोज की अन्वेषण की जिज्ञासा दी जाय।

माध्यमिक शिक्षा-  

ओशो माध्यमिक शिक्षा के सरकारीकरण के विरूद्ध हैं वे माध्यमिक शिक्षा को सरकार के विभाग के रूप में स्वीकार करना नहीं चाहते माध्यमिक शिक्षा को मैनेजरों और प्रबन्धा समिति की निजी सम्पत्ति बनाये जाने के विरूद्ध हैं क्योंकि मैनेजमेंट का दखल भी शिक्षक को स्वतन्त्रता पूर्वक अध्यापन में एक बड़ी बाधा के रूप में देखकर वे कहते है। इससे तो जो शिक्षक अपने मन की बात विद्यार्थी के मानस पटल पर रखने में सक्षम नहीं हो सकेगा तथा प्रबन्ध समिति भी शिक्षा का माध्यम न होकर एक व्यापार का माध्यम ही बन पायेगा। “उनका मानना है कि माध्यमिक शिक्षा का अर्थ ही होता है शिक्षक तथा छात्र का माध्यम इसलिए ओशो की शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास किया जाना चाहिए जिसके द्वारा ऐसी युवा पीढ़ी का निर्माण हो सके जो समाज की हर सत्य बात का समर्थन कर सके तथा समाज के बीच में निडर चट्टान की तरह खड़ा होकर देश तथा मानवता को झकझोरने का कार्य कर सके।

विश्वविद्यालयनी शिक्षा-

हमारे देश में विश्वविद्यालयहीन शिक्षा का विकास अंग्रेजों की ही देन है उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद युवक अपने आप का पाश्चात्य सभ्यता के ज्यादा  निकट महसूस करता है और विशेषतया उसे अंग्रेजियत का व्यवहार अधिक पसन्द लगता है। जबकि ओशो के मत के आधार पर ठीक विश्वविद्यालय तो तब होगा जब विश्वविद्यालय में विद्या का मन्दिर नहीं मालूम पड़े विद्या के मन्दिर की सिर्फ सीढ़ियाँ मालूम पड़ेगी विश्वविद्यालय वहाँ छोड़ता है जहाँ-जहाँ सीढियाँ समाप्त होती है और असली ज्ञान का मन्दिर शुरू होता है लेकिन उस ज्ञान का नाम नॉलेज नहीं है, उस ज्ञान का नाम विजडम है, उसका नाम है समझ, उसका नाम है। बुद्धिमत्ता हिन्दुस्तान के युवक के पास लगता है अभी बुद्धिमत्ता पैदा ही नहीं हो पा रही है वह जो भी कर रहा है बुद्धिमान है उसका सारा उपक्रम बुद्धिहीन है। मै बगावत का विरोधी नहीं हूँ। ओशो ने कहा है मुझसे ज्यादा बगावत का प्रेमी खोजना मुश्किल है मै विद्रोह का विरोधी नहीं हूँ वो तो बगावत को धार्मिक काव्य मानते हैं लेकिन जब विद्रोह बुद्धिहीन हो जाता है तो विद्रोह से किसी का हित नहीं होता है सिवाय हित के तो वह दूसरे को कम नुसान पहुँचाता है विद्रोह को ही नष्ट कर डालता है। हिन्दुस्तान का युवक विद्रोह की गति पर जा रहा है एक दिशा पर जहाँ पर बुद्धिमत्ता जगाने के उपाय हैं जिससे ज्ञान पैदा होता। सूचनायें इकट्ठा करने से जैसे ज्ञान पैदा होता है अध्ययन से, मनन से, चिन्तन से वही बुद्धिमत्ता उत्पन्न होती है ध्यान से, मैडिटेशन से एक-एक युवक के पास मैडिटेशन की विधि होनी चाहिये वह जब चाहे ध्यान में उतर सके और जब चाहे अन्दर के द्वारा खोल सके वही विश्वविद्यालय की शिक्षा होगी क्योंकि विश्वविद्यालय का छात्र पूरा युवक होता है और उसे इतना ज्ञान होना चाहिये कि उसे सही गलत का पूर्ण ज्ञान हो सके।

ओशो एवं स्त्री शिक्षा-

समाज के मूलत: दो ही अंग होते हैं नर व नारी तथा दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं एक का अस्तित्व दूसरे के बिना अधूरा है। समाज में परिवर्तन विकास या समृद्धता दोनों के सम्मिलित प्रयास कर निर्भर है। नारी को सृष्टि की जननी कहा गया है। अत: उसके विकास की उपेक्षा किसी दशा में उचित नहीं है। जवाहर लाल नेहरू ने भी स्त्री शिक्षा पर जोर देकर कहा है लड़के की शिक्षा एक व्यक्ति की शिक्षा है परन्तु लड़की की शिक्षा पूरे परिवार की शिक्षा है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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