राजनीति विज्ञान / Political Science

रूसो के प्रभुसत्ता एवं शासन पद्धति | रूसो द्वारा प्रतिपादित प्रभुसत्ता के सिद्धान्त एवं शासन-पद्धति के विषय में उसके विचार

रूसो के प्रभुसत्ता एवं शासन पद्धति | रूसो द्वारा प्रतिपादित प्रभुसत्ता के सिद्धान्त एवं शासन-पद्धति के विषय में उसके विचार

(1) प्रभुसत्ता का अर्थ एवं विशेषताएँ (रूसो के प्रभुसत्ता एवं शासन पद्धति)-

रूसो ने संप्रभुता को जनता की सामान्य इच्छा में निहित माना है। सामान्य इच्छा चूँकि लोक कल्याण की भावना का प्रतिनिधित्व करती है। अतः संप्रभुता लोकप्रिय होती है। रूसो की संप्रभुता अनश्वर, अविभाज्य, अप्रतिनिधिमूलक और अमर्यादित है। संप्रभुता अनश्वर है क्योंकि सामान्य इच्छा शाश्वत् है। जब तक सामान्य इच्छा का अस्तित्व रहेगा तब तक संप्रभुता भी नष्ट नहीं हो सकती।

रूसो राज्य और सरकार में अन्तर करता है तथा राज्य को जनता के परस्पर समझौते द्वारा निर्मित मानता है। वास्तव में रूसो के विचार से राज्य के निर्माण की प्रक्रिया व्यक्तिगत सत्ताओं के समर्पण में ही निहित है। ये व्यक्तिगत सत्ताएँ एक सामूहिक सत्ता में मिल जाती हैं जिसे रूसो ने सामान्य इच्छा की संज्ञा दी है। रूसो के विचार से सामान्य इच्छा ही प्रभुता सम्पन्न है। सामान्य इच्छा नागरिकों की लोकहित विषयक इच्छा का ही दूसरा नाम है।

प्रभुता निरंकुश नहीं हो सकती क्योंकि वह जनता के भीतर निवास करती है। रूसो की प्रभुसत्ता की निम्नलिखित सामान्य विशेषताएँ हैं :-

(1) रूसो की प्रभुसत्ता की पहली विशेषता अदेयता है, चूँकि सामान्य इच्छा के रूप में यह जनता में रहती है; अतः यह उससे कभी पृथक् नहीं हो सकती। अन्य अधिकार तो दूसरे को दिये जा सकते हैं, किन्तु जनता अपनी इच्छा तथा प्रभुसत्ता किसी दूसरे को नहीं दे सकती।

(2) इसकी दूसरी विशेषता इसका प्रतिनिधित्व न हो सकना है, क्योंकि यह समूची जनता में सामूहिक रूप में निवास करती है; अतः कोई भी एक व्यक्ति इसका समूचे रूप में प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।

(3) तीसरी विशेषता इसका असीमित और अमर्यादित होना है। यह जनता की सामान्य इच्छा से पृथक् कुछ भी नहीं है। जनहित के अतिरिक्त इसका अपना कोई हित नहीं है। अतः इस पर किसी प्रकार के प्रतिबन्ध की आवश्यकता नहीं है। जनता स्वयमेव अपने ऊपर कोई बन्धन नहीं लगाती है।

(4) चौथी विशेषता इसका सब कानूनों का मूल स्रोत होना है। राज्य की सभी मौलिक विधियाँ और नियम इससे उत्पन्न होते हैं।

(5) पाँचवी विशेषता इसका अविभाज्य होना है। समूची जनता में इसका निवास होने के कारण इसका विभाजन सम्भव नहीं है।

इस प्रकार रूसो ने जनता की असीम, अमर्यादित, अनन्यक्राम्य और अविभाज्य प्रभुसत्ता का प्रतिपादन किया।

(2) राज्य और सरकार सम्बन्धी विचार-

राज्य और सरकार में रूसो ने स्पष्ट भेद किया है। उसके मतानुसार राज्य तो समूचा नागरिक समाज (Body Politic) है, यह सर्वोच्च सामान्य इच्छा को अभिव्यक्त करता है। इस इच्छा को क्रियात्मक रूप देने के लिये समुदाय द्वारा चुने गये व्यक्तियों से सरकार बनती है। हॉब्स यह मानता था कि सरकार का निर्माण सामाजिक समझौते या अनुबन्ध द्वारा होता है। किन्तु रूसो इसे जनता द्वारा बनाया हुआ समझता था। यह केवल जनता की इच्छा को पूरा करने का साधन थी। वह इसके कार्य से असंतुष्ट होने पर इसे बदल सकती है। हॉब्स के मतानुसार इसे न तो बदला जा सकता था और न इसका विरोध हो सकता था। कार्यपालिका (Executive) को जनता की सामान्य इच्छा की पूर्ति का साधन मानने के कारण रूसो अधिनायकवाद (Dictatorship) को बुरा नहीं समझता था। फ्रान्सीसी राज्क्रान्ति के समय सार्वजनिक सुरक्षा समिति ने इसी आधार पर फ्रांस का शासन किया था। रूसो सरकार का काम केवल शासन करना मानता था | कानून के कारण सरकार से शासन के अधिकारों को छीन सकती थी।

(2) शासन-प्रणाली विषयक विचार- रूसो ने चार प्रकार की शासन-प्रणालियाँ मानी हैं-

(1) राजतन्त्र (Monarchy),

(2) कुलीनतन्त्र (Aristocracy),

(3) लोकतन्त्र (Democracy),

(4) मिश्रित शासन (Mixed government) |

रूसो की दृष्टि में राज्य जनता का राजनीतिक सङ्गठन होता है जिसका निर्माण व्यक्तिगत सत्ताओं के समर्पण द्वारा किया जाता है किन्तु शासन-व्यवस्था का इस समर्पण की क्रिया के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

रूसो राज्य को स्थायी तथा शासन को अस्थायी संस्था मानता है। राज्य तो जनता है अतः वस स्थायी है किन्तु शासन समयानुसार परिवर्तित होता रहता है। रूसो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का समर्थक है, अत: उसके विचार से सरकार के भीतर केवल कार्यपालिका और न्यायपालिका के अंग होते हैं, विधायी अंग नहीं। जनता स्वयं कानून बनाती है इसलिये जनता ही विधायिका होती है। सरकार का कार्य जनता द्वारा निर्धारित नीतियों को लागू करना है और उसके आदेशों के आधार पर शासन का संचालन करना है।

शासनतन्त्र राज्य के उन व्यक्तियों का समूह है जिनको यह अधिकार दिया जाता है कि वे सामान्य इच्छा की शक्तियों का समाज के हित में प्रयोग करें। शासन तन्त्र लोकप्रिय सामान्य इच्छा के निर्देशों के पालन करने का साधन है। रूसो ने राजतन्त्र, अभिभाज्यतन्त्र और लोकतन्त्र के रूपों में शासनतन्त्रों का वर्गीकरण किया है। वह मिश्रित शासनतन्त्रों के स्वरूपों को भी मान्यता देता है। उसका मत है कि प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र सर्वोत्तम है।

रूसो का मत है कि शासन पद्धतियों में विविधता होते हुये भी राज्य सदैव लोकतन्त्रात्मक ही होता है क्योंकि उसके भीतर सत्ता का अंतिम अधिष्ठान जनता होती है।

रूसो का विश्वास है कि प्राचीन यूनान नगर राज्य ही सबमें श्रेष्ठ थे। उनके भीतर जीवन सरल था तथा प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के ठीक संचालन में भी सुविधा होती थी। बड़ी जनसंख्या वाले देशों को रूसो ने परामर्श दिया है कि वे जनता की प्रभुसत्ता को व्यावहारिक स्वरूप देने के लिए समय-समय पर जनसाधारण की सभाएँ बुला कर राष्ट्रीय नीतियों की चर्चा किया करें तथा उन सभाओं में प्रकट होने वाली इच्छा को पर्याप्त सम्मान दे।

रूसो का विश्वास था कि लोकतन्त्र केवल छोटे राज्यों में ही सम्भव है। उस समय रूसो के समक्ष अपनी जन्मभूमि स्विट्जरलैण्ड का ही चित्र था और उसी के अनुभव के आधार पर उसने प्रत्यक्ष लोकतन्त्र की संस्थाओं का उल्लेख किया है। यहाँ हम रूसो को सामान्य इच्छा के सिद्धान्त को एक व्यावहारिक आदर्श उल्लेख के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। हमें यह स्वीकार करने में संकोच होता है कि प्रभुता की अदेयता प्रतिनिधि शासन के मार्ग में भी बाधक हो सकती है। प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के सिद्धान्त को अनिवार्यतः मानकर यदि हम चलते हैं तो उसक अर्थ यह होगा कि हमें रूसो के विचारों को अव्यावहारिक, अन्तर्राष्ट्रीय और मानवता के लिए निरुपयोगी कह कर छोड़ देना होगा।

रूसो इन दोनों विचारों में सामंजस्य स्थापित करने में असफल रहा कि अच्छा जीवन केवल समाज में ही सम्भव है तथा अन्त में व्यक्ति का ही महत्त्व है।

रूसो के विचारों की आलोचना

रूसो का अत्यधिक प्रभाव होते हुए भी उसके आलोचकों की कमी नही है। उसकी विचारधारा के निम्नलिखित दोष बताये गये हैं :-

(1) उसकी विचारधारा में पहला दोष यह है कि उसके विचारों में अनेक असंगतियाँ, विरोध और अस्पष्टताएँ हैं। वह अपने सामाजिक सगझौते का आरम्भ व्यक्ति पर पूर्ण प्रभुता रखने वाली सर्वाधिकार (Totalitarians) तथा राज्य की समष्टिवादी (Collective) विचारधारा के साथ करता है। रूसो एक ओर तो राज्य का प्रबल पोषक है, दूसरी ओर वह व्यक्ति का उग्र समर्थक है। वह इन दोनों विरोधी आदर्शों को नहीं छोड़ सका। एक ओर वह व्यक्ति की स्वतन्त्रता का समर्थन करता है। दूसरी ओर वह उसे राज्य का दास बना देता है। एक ओर वह सहिष्णुता की नीति का उपदेश देता है, दूसरी ओर गणराज्य से नागरिकों को निष्कासित करता है। इन असंगतियों के कारण मार्ले ने उस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि उसे यद्यपि एक महान् विचारक कहा जाता है, किन्तु वह यह नहीं जानता था कि विचार किस प्रकार किया जाता है।

(2) दूसरा दोष बुद्धिवाद, विज्ञान तथा कला का विरोध है। भावुकतावाद का घोर उपासक होने के कारण वह यह मानता है कि हमें अपने जीवन का संचालन भावनाओं (Emotions) के आधार पर करना चाहिए। बुद्धि भक्ति की भावना का, विज्ञान श्रद्धा का और तर्क अन्तर्दृष्टि का विनाश करने वाली है। इन विचारों का प्रतिपादन करने वाली तथा पुनः प्रकृति की ओर लौटने पर बल देने वाली अपनी पुस्तक जब रूसो ने वाल्तेयर के पास भेजी तो उसने इसकी आलोचना करते हुये कहा था कि “रूसो में और दार्शनिक में उतना ही साम्य है जितना बन्दर और आदमी में है।”

(3) रूसो का तीसरा दोष उसके मानव स्वभाव विषयक और सामाजिक अनुबन्ध सम्बन्धी विचार हैं। वह मानव जाति के अतीत को आदर्श युग के रूप में देखता है, प्रगति के सिद्धान्त का विरोध करते हुए कहता है कि मानव समाज का हास हो रहा है। वस्तुत: मानव जाति का इतिहास प्रगति का इतिहास है, अवनति का नहीं।

(4) चौथा दोष यह है कि रूसो व्यक्ति की स्वतन्त्रता को छीन लेता है। यद्यपि वह अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सामाजिक समझौता’ का आरम्भ व्यक्ति को उसे पराधीन बनाने वाली बेड़ियों से मुक्त कराने की आशा से करता है, किन्तु शीघ्र ही वह उसे सामान्य इच्छा का दास बना देता है।

(5) रूसो के सिद्धांत में अप्रत्यक्ष रूप से अधिनायकवाद का समर्थन किया गया है। यद्यपि रूसो लोकतन्त्र का पोषक और क्रान्तिकारी विचारक समझा जाता है, किन्तु वास्तव में वह केवल छोटे नगर राज्यों के लिए ही प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का समर्थन करता है। वर्तमान काल क बड़े राज्यों के सम्बन्ध में उसकी धारणा यह है कि इनमें लोकतन्त्र कभी सफल नहीं हो सकता क्योंकि इनमें सम्पूर्ण जनता एकत्र नहीं हो सकती। बट्रेण्ड रसेल के कथनानुसार, “इसका पहला ‘रावस पियर का आतंक-राज्य था और बोल्शेविक रूस तथा नाजी जर्मनी के अधिनायकवाद भी रूसो की शिक्षाओं का परिणाम है।”

आलोचकों ने रूसो की निन्दा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वाल्तेयर ने उसे नीमहकीम; जंगली हू हू करने वाले उल्लू आदि के विशेषणों से अलंकृत किया है। लार्ड मार्ले ने यह विचार प्रकट किया है कि “यह संसार के लिए अधिक अच्छा होता कि रूसो का जन्म ही न हुआ होता।” संभवत: यह समझा जाता है कि यदि वह जन्म न लेता तो फ्रांस की राज्य क्रान्ति का भीषण रक्तपात और नरमेघ न हुआ होता। इन आलोचनाओं के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि राजनीतिक विचारों के इतिहास में रूसो का भारी महत्त्व है और. राजनैतिक दर्शन को उसकी मौलिक देन है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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