कांग्रेस का इतिहास

कांग्रेस का इतिहास | कांग्रेस का प्रारम्भिक स्वरूप | कांग्रेस के प्रारम्भिक संगठन तथा लक्ष्य | भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास

कांग्रेस का इतिहास | कांग्रेस का प्रारम्भिक स्वरूप | कांग्रेस के प्रारम्भिक संगठन तथा लक्ष्य | भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास

कांग्रेस का इतिहास

सन् 1885 से लेकर 1905 तक के 20 वर्षों में कांग्रेस की बागडोर उदारवादी नेताओं के हाथ में रही। इन नेताओं का संवैधानिक साधन में विश्वास था, इस प्रकार प्रारम्भिक कांग्रेस की नीति और कार्य प्रणाली उग्र नहीं थी। अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रारम्भिक नेता सार्वजनिक भाषणों, प्रस्तावों, प्रचार और प्रार्थनाओं में ही विश्वास करते थे।

विकास की चार अवस्थायें

(1) उदारवादी युग (1885-1905)

(2) उग्रवादी युग (1906-1917)

(3) तीसरा युग (1919-1929)

(4) चौथा युग (1929-1947)

(1) उदारवादी युग (1885-1905)- प्रथम युग उदारवादी युग के नाम से विख्यात है क्योंकि इस काल में उदार अथवा नरम राष्ट्रीयता की प्रधानता रही। इस काल में कांग्रेस आन्दोलन का नेतृत्व ह्यूम, विलियम बैडरवर्न, दादाभाई नौरोजी, सर फिरोजशाह मेहता, वोमेशचन्द्र बनर्जी, सुरेद्रनाथ बनर्जी, रानाडे, रासबिहारी घोष, पं० मदन मोहन मालवीय, पं० मोतीलाल नेहरू, गोपालकृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय जैसे उदारवादी नेताओं के हाथ में रहा। यह उल्लेखनीय है कि 1905 में बंगाल विभाजन के बाद लाला लाजपत राय के उग्रवादी आन्दोलन का नेतृत्व दिया। अपने प्रथम युग में कांग्रेस का विश्वास पूर्णतया संवैधानिक साधनों में रहा। हिंसा व क्रांतिकारी साधनों से इन नेताओं को घृणा थी। ये नेतागण अंग्रेजों को न्याय प्रिय व्यक्ति समझते थे। इस युग की मुख्य सफलता 1892 का भारतीय परिषद् अधिनियम (Indian Council Act 1892) है, जो कांग्रेस के प्रयत्नों से पारित हुआ। इस अधिनियम द्वारा परोक्ष रूप से भारत में संसदीय शासन की नींव रखी गई। गवर्नर जनरत्न की परिषद् में और बम्बई व मद्रास की परिषदों में भारतीय सदस्यों की वृद्धि की गई। सदस्यों को बजट पर वाद-विवाद करने और प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।

(2) कांग्रेस का द्वितीय काल (1907 से 1917)- यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने उग्रवादियों के दमन का पूरा प्रयत्न किया परन्तु वह सफल न हो सकी। अतः उसने एक दूसरी चाल चली। अब अंग्रेजों ने शासन में कुछ दिखावटी सुधार करके भारतीयों को सन्तुष्ट करने की नीति अपनाई। इस नीति के फलस्वरूप उन्होंने सन् 1909 में मिन्टो मार्ले सुधार कार्यान्वित किया, परन्तु इन सुधारों से जनता को सन्तोष नहीं हुआ और कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में इन सुधारों का विरोध किया गया, परन्तु फिर भी नरम दल के नेताओं ने शांति और सद्भावना की नीति अपनाई। इसी समय सन् 1913 में मुस्लिम लीग की बैठक हुई। लीग ने भी स्वराज्य को अपना लक्ष्य बनाया। इस प्रकार कांग्रेस और लोग के विचारों में साम्यता आ गई। सन् 1916 में उग्रदल पुनः कांग्रेस में सम्मिलित हो गया तथा लीग और कांग्रेस में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार दोनों संस्थाओं ने मिलकर सहयोग से कार्य करने का निश्चय किया।

इसी समय लोकमान्य तिलक और श्रीमती एनी बेसेन्ट ने पूना और मद्रास में होमरूल लीग की स्थापना की जिसका उद्देश्य देश के भीतर स्वराज्य की माँग को प्रबल करना था। सरकार ने यहाँ पर भी दमन का सहारा लिया, होमरूल पर प्रतिबंध लगा दिया गया और इसके नेताओं को जेल में डाल दिया गया। इस दमन नीति से जनता में असन्तोष फैला और आन्दोलन में तीव्र गति आ गई। इसी समय गाँधी जी ने कांग्रेस का नेतृत्व करना आरम्भ कर दिया।

1917 में विश्व का प्रथम युद्ध आरम्भ हुआ। कांग्रेस और महात्मा गाँधी के प्रयत्नों के फलस्वरूप भारत ने युद्ध में ब्रिटिश सरकार की पूरी सहायता की, इस आशा से कि ब्रिटिश सरकार भारत में स्वराज्य की ओर महत्वपूर्ण कदम उठायेगी, परन्तु यह आशा पूर्ण न हुई। भारतीय जनता को शांत करने के लिये अंग्रेजों ने सन् 1917 में एक घोषणा की, जिसमें आंशिक स्वराज्य देने का वचन दिया परन्तु जनता पर इसका प्रभाव न पड़ा।

भारतवासियों के असंतोष से व्याकुल होकर सरकार ने मान्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार की एक योजना बनाई जिसे 1919 में पास किया गया। इन सुधारों का भारत की साम्प्रदायिक एकता पर व्यापक प्रभाव पड़ा। मुस्लिम लीग को कांग्रेस से कोई सहानुभूति न रही। कांग्रेस में भी फूट पड़ गई। नरम दल वालों ने कांग्रेस से पृथक होकर इण्डियन लिबरल फेडरेशन की स्थापना की।

रौलट एक्ट जलियाँवाला बाग कांड- कांग्रेस की दुर्बलता का अंग्रेजों ने लाभ उठाया। उन्होंने तीव्रता से भारतीयों के राष्ट्रीय आंदोलन का दमन प्रारम्भ किया। इसी लक्ष्य से उन्होंने रौलट एक्ट पास किया और सरकारी प्रशासकों को बड़े-बड़े अधिकार दे दिये। अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एकत्रित हजारों स्त्री-पुरुषों को सैनिक कानून के अधीन बिना किसी पूर्व सूचना के गोली का निशाना बना दिया। इस घटना से देश में असंतोष की लहर दौड़ गई।

कांग्रेस का तृतीय काल (सन् 1919 से 1928 तक) असहयोग आन्दोलन- जलियाँवाले बाग के हत्याकाण्ड से गाँधी जी को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने सन् 1920 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित किया। इसके अंतर्गत यह निश्चित किया गया कि भारतीय लोग सरकार को शासन में सहयोग न दें, सरकारी उपाधियों का त्याग कर दें, विदेशी वस्त्रों और वस्तुओं का बहिष्कार करें और स्वदेशी का प्रचार करें। यह गाँधी जी के नेतृत्व में बड़े जोरों से चला, परन्तु सरकार ने इसके विरुद्ध भी दमन–नीति को अपनाया। परन्तु सन् 1922 में कुछ हिंसात्मक घटनायें होने के कारण इस असहयोग आंदोलन को गाँधी जी को बन्द करना पड़ा।

इसी मध्य प्रिन्स आफ वेल्स भारत में व्यवस्थापिका सभा का उद्घाटन करने आये। उनके आगमन पर देश में हड़ताले हुईं तथा साम्प्रदायिक दंगे हुए, परन्तु कुछ समय बाद राष्ट्रीय आंदोलन धीमा पड़ गया।

स्वराज्य दल- इसके बाद कांग्रेस में दो दल हो गये। प्रथम कौंसिलों के बहिष्कार के पक्ष में था और दूसरा कौसिलों में जाकर सरकारी कार्यों में बाधा प्रस्तुत करने के पक्ष में विश्वास करता था। इस दूसरे दल का नाम स्वराज्य दल पड़ा।

सन् 1922 में अंग्रेजी सरकार ने सन् 1919 के सुधारों की जाँच करने के लिये साइमन कमीशन की नियुक्ति की। परन्तु इसके सभी सदस्य अंग्रेज थे और यह जहाँ भी गया उसका बहिष्कार किया गया तथा साइमन कमीशन वापस जाओ के नारे लगाये गये।

नेहरू रिपोर्ट- मई सन् 1930 में साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सरकार के सम्मुख पेश की। इस रिपोर्ट में भारतीय जनता सन्तुष्ट न हुई। इस पर सरकार ने भारतीयों को यह चुनौती दी कि भारत के नेता भारत के लिये सर्वसम्पत संविधान तैयार करके संसद के समक्ष प्रस्तुत करें। देश ने इस चुनौती को स्वीकार किया और फरवरी 1928 के सम्मिलित अधिवेशन में पं० मोतीलाल जी के नेतृत्व में एक सम्मिलित समिति नियुक्त की गई और उनको संविधान की रूपरेखा तैयार करने का कार्य सौंपा गया। समिति ने अपना कार्य बड़ी तेजी से किया और अगस्त सन् 1928 में ही लखनऊ के सर्वदलीय सम्मेलन के समक्ष अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट को सबने सर्वसम्मति से स्वीकार किया।

कांग्रेस का चतुर्थ काल (1929 से 1939 तक)- सन् 1929 के लाहौर के अधिवेशन में कांग्रेस ने अपना उद्देश्य औपनिवेशिक स्वराज्य के स्थान पर पूर्ण स्वराज्य रखा। इसी अधिवेशन में 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस मनाने की घोषणा की गई। फरवरी 1930 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन (Civil Disobedience Movement) का प्रस्ताव पास किया। गाँधी जी के नेतृत्व में इस आन्दोलन ने अधिक बल पकड़ा। सरकार ने आन्दोलन को दमन करने की नीति अपनाई और सत्याग्रहियों को जेल में भरना प्रारम्भ किया। इसी मध्य गांधी और ‘इरविन’ के मध्य समझौता हुआ। सभी राजनीतिक बन्दी मुक्त कर दिये गये। कांग्रेस ने आन्दोलन बन्द कर दिया। दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिये गांधी जी इंगलैण्ड गये, परन्तु वे वहाँ से निराश होकर लौटे। इसका परिणाम यह हुआ कि आन्दोलन फिर आरम्भ हुआ। इसी समय इंगलैण्ड के प्रधानमन्त्री रैमजे मैकडोनल्ड ने साम्प्रदायिक समझौते की घोषणा की। इस घोषणा का ध्येय यह था कि अछूतों को हिन्दुओं से अलग कर दिया जाये। इस समझौते के विरुद्ध महात्मा गाँधी ने नरवदा जेल में अनशन प्रारम्भ कर दिया। परिणामस्वरूप पूना में हरिजनों के साथ एक समझौता किया गया जिसे ‘पूना पैक्ट’ कहते हैं। इस समझौते के अनुसार साम्पदाधिक निर्वाचन समाप्त कर दिया गया और हरिजनों के लिये कुछ स्थान सुरक्षित कर दिये गये। तृतीय गोलमेज सम्मेलन के समाप्त होने के पश्चात् 1935 में सरकार ने एक अधिनियम पास किया, जिसकी कटु आलोचना की गई। इसी अधिनियम के आधार पर सन् 1937 में प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं के लिये निर्वाचन हुआ। इस निर्वाचन में कांग्रेस को आश्चर्यजनक सफलता मिली और उसने सात प्रान्तों में बहुमत द्वारा मन्त्रिमण्डल बना लिये। इसी मध्य द्वितीय महायुद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों ने भारतवासियों को इस युद्ध में खींचा। इसका परिणाम यह हुआ कि अक्टूबर सन् 1939 में कांग्रेस मन्त्रिमण्डल ने त्याग पत्र दे दिया।

कांग्रेस का पंचम काल (1939 से 1947 तक)- सन् 1940 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन फिर आरम्भ हुआ, परन्तु दूसरे वर्ष बन्द कर दिया गया। सरकार ने सर स्टेफर्ड क्रिप्स को एक योजना के साथ सन् 1942 में भारत भेजा। उन्होंने योजना को भारतीय नेताओं के सम्मुख रक्खा किन्तु पारस्परिक मतभेदों के कारण उनकी योजना सफल न हो सकी। क्रिप्स योजना की असफलता के बाद राजनीतिक स्थिति दिन प्रतिदिन विषम होती गई। गाँधी जी ने 9 अगस्त 1943 में बम्बई कांग्रेस में भारत छोड़ो प्रस्ताव पास किया। साथ ही सामूहिक अवज्ञा आन्दोलन को भी स्वीकार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि सभी नेता जेल में बन्द कर दिये गये। सरकार ने दमन चक्र आरम्भ कर दिया। कुछ समय तक उथल-पुथल चलती रही। सन् 1944 में सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का अध्ययन करके सन् 1946 में सरकार ने यह घोषणा की कि विभिन्न राजनीतिक दलों के सहयोग से एक कार्य समिति तथा एक विधान सभा का निर्माण करने के लिये एक कैबिनेट मिशन भारत आयेगा। इस मिशन के प्रयलों से एक अस्थाई सरकार भी स्थापित की गई।

पहले तो मुस्लिम लीग ने इसे स्वीकार नहीं किया परन्तु कालान्तर में मुसलमान भी आंतरिक सरकार में सम्मिलित हो गये। वह सरकार पं० नेहरू के नेतृत्व से केन्द्र में स्थापित की गई थी। सन् 1947 में लार्ड माउन्ट बेटेन भारत के गवर्नर जनरल होकर भारत आये। उन्होंने यह प्रयत्न किया कि मुस्लिम लीग भी कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार करले परन्तु वह असफल ररहे अन्त में 3 जून सन् 1947 को भारत विभाजन की दुःखद घोषणा की गई।

इस भाँति 20 जून सन् 1947 को भारत के पाकिस्तान तथा भारत दो पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र राज्यों के रूप में परिणित होने की घोषणा की गई। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम में यह भी व्यवस्था की गई कि यह व्यवस्था 15 अगस्त सन् 1947 से क्रियान्वित होगी। परिणामस्वरूप 15 अगस्त सन् 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया।

कांग्रेस का प्रारम्भिक स्वरूप

(Nature of the Early Congress)

एक राष्ट्रीय संगठन- कांग्रेस अपने प्रारम्भिक वर्षों से ही एक राष्ट्रीय संस्था रही है। इसकी कल्पना के समय से ही विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग इसके सदस्य थे। भारत के सभी प्रान्तों के लोग प्रारम्भिक कांग्रेस में थे। कांग्रेस ने कभी भी किसी वर्ग विशेष के हितों के लिए कार्य नहीं किया, वरन् सभी कार्य राष्ट्रीय दृष्टिकोण से किये। कांग्रेस ही भारत में एक मात्र राष्ट्रीय संगठन थी। इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी ने लन्दन में द्वितीय गोलमेज परिषद् में स्पष्ट करते हुए कहा था, “अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय है। यह समस्त भारतीय वर्गों व हितों के प्रतिनिधित्व का दावा करती है।”

जन संगठन- यद्यपि कांग्रेस एक राष्ट्रीय संगठन था, फिर भी प्रारम्भिक कांग्रेस को जन संगठन नहीं कहा जा सकता है। इसका कारण यह है कि आरम्भ में साधारण किसान व मजदूर आदि कांग्रेस में सम्मिलित नहीं थे। कांग्रेस में मुख्यतः उच्च, शिक्षित व मध्यम श्रेणी के ही लोग सम्मिलित थे। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि साधारण जनता का इसमें महत्व नहीं था, उन्हें भी राष्ट्र सेवा के लिए पुकारा जाता था। 1920 में गाँधी जी ने कांग्रेस संगठन को जन संगठन में परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त की।

क्रान्तिकारी संस्था नहीं थी- प्रारम्भिक की प्रकृति क्रांतिकारी नहीं थी। प्रारम्भ में कांग्रेस की बागडोर ऐसे नेताओं के हाथों में थी जो संवैधानिक साधनों में ही विश्वास रखते थे। पूर्ण स्वराज्य का विचार इन नेताओं के मस्तिष्क में कभी नहीं आया। दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, पं० मदन मोहन मालवीय सभी नेताओं को अंग्रेजों की न्यायप्रियता व ईमानदारी में पूर्ण विश्वास था।

कांग्रेस के प्रारम्भिक संगठन तथा लक्ष्य

कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन दिसम्बर 1885 में बम्बई में हुआ। इसमें 73 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अधिकांश लोग अंग्रेजी पढ़े-लिखे थे। कतिपय व्यापारी, जमींदार तथा वकील इसमें सम्मिलित हुए। उमेशचन्द्र बनर्जी प्रथम प्रेसीडेण्ट तथा ह्यूम कांग्रेस के प्रथम सचिव थे। कांग्रेस ने प्रारम्भ में निम्नलिखित माँगें प्रस्तुत की-

(1) विधान परिषदों का विस्तार किया जाए।

(2) परिषद् में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की जाए।

(3) बजट पर वाद-विवाद करने का अधिकार दिया जाय।

(4) उच्च सरकारी नौकरियों में भारतीयों को पूरा अवसर दिया जाए।

(5) सैनिक व्यय में कमी की जाए, और

(6) एक रायल कमीशन भारतीय प्रशासन की जाँच करे।

कांग्रेस के निम्नलिखित ध्येय बताये गए-

(1) विभिन्न भागों और क्षेत्रों में कार्य करने वालों में घनिष्ठता और प्रेम बढ़ाया।

(2) संकुचित मनोवृत्तियों को भुलाकर भारतीयों में मैत्री भाव उत्पन्न करना।

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