इतिहास / History

उदारवादी राष्ट्रीयता | अरविन्द घोष | 1885 से 1905 तक कांग्रेस के कार्य

उदारवादी राष्ट्रीयता | अरविन्द घोष | 1885 से 1905 तक कांग्रेस के कार्य

उदारवादी राष्ट्रीयता

“एक पराधीन राष्ट्र स्वतंत्रता के द्वारा ही उन्नति के द्वार खोल सकता है, और स्वतंत्रता के लिये बलिदान की आवश्यकता है। राजनीति की आरामकुर्सी पर बैठ कर विदेशी सत्ता नहीं हिलाई जा सकती। भारत अपने पराक्रम और शक्ति से ही विदेशी शासन का विरोध कर सकता है।’

अरविन्द घोष

वस्तुतः कांग्रेस की प्रगति के इतिहास को हम तीन काल में विभाजित कर सकते हैं। पहला काल 1885 से 1905 तक का है। इस काल में कांग्रेस की नीति उदारवादी रही। दूसरा काल 1906 से 1919 तक का है। इस काल में कांग्रेस के अन्दर उग्रवाद तथा धार्मिक पुनरुत्थान की जागृति हुई। तीसरा काल 1920 से 1942 तक है। यह काल ‘गाँधी युग’ कहलाता है क्योंकि इस काल में गाँधी जी राजनीतिक क्षेत्र के प्रमुख नेता रहे।

1885 से 1905 तक कांग्रेस के कार्य

(1) कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन- 1885 में बम्बई में कांग्रेस की स्थापना हुई। इसके सभापति उमेश चन्द्र बनर्जी और मन्त्री मि० ह्याम थे। इस अधिवेशन में भाग लेने वालों में प्रमुख थे, दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, श्री सीताराम हरि, लाला मुरलीधर, श्री गंगा प्रसाद वर्मा, एस० सुब्रह्मण्यम आदि। इसमें सरकारी अधिकारियों ने भी भाग लिया।

कांग्रेस ने अपने ध्येयों की उद्घोषणा की :-

(1) साम्राज्य के विभिन्न भागों में रहने वाले कार्यकर्ताओं में आपसी सम्पर्क तथा मित्रता को प्रोत्साहन देना।

(2) राष्ट्रीय एकता की भावना का विस्तार करना तथा भारत के देश-प्रेमियों में वर्ग, धर्म और प्रान्तीय मतभेदों को सीधे सम्पर्को द्वारा दूर करना।

(3) सार्वजनिक समस्या के प्रति शिक्षित भारतीयों के मत संग्रह करना, और

(4) देशहित के कार्य करने हेतु नीतियाँ व उपाय निर्धारित करना।

कांग्रेस ने प्रस्ताव भी पारित किया :-

(1) भारतीय शासन की जाँच हेतु रायल कमीशन नियुक्त किया जाए।

(2) विधान परिषद का विस्तार किया जाए।

(3) सिविल सर्विस की परीक्षा एक साथ इंगलैण्ड और भारतवर्ष में हो।

(4) सैनिक व्यय कम किया जाय। अध्यक्षीय भाषण में बनर्जी ने कहा कि “भारत की भलाई के लिए इंगलैण्ड ने बहुत कुछ किया है। उसके लिए सारा देश इंगलैण्ड का आभारी है।’

(2) दूसरा अधिवेशन (Second Session)1886- कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 28 दिसम्बर सन् 1886 को दादा भाई नौरोजी के सभापतित्व में कलकत्ते में हुआ। इसमें 406 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। दादा भाई नौरोजी ने इस अधिवेशन में घोषणा कि आओ, हम मर्दो की तरह घोषणा कर दें कि हमारा रोम-रोम राजभक्त है। इसमें निम्नलिखित प्रस्ताव स्वीकृत हुए-

(1) एक प्रस्ताव इम्पीरियल कौंसिल तथा प्रान्तीय कौसिल के सम्बन्ध में स्वीकृत किया गया, जिसमें इनके संगठन के सम्बन्ध में विशद् योजना रखी गयी। इस योजना के अनुसार गैर सरकारी सदस्यों के निर्वाचन की माँग की गई जो प्रत्यक्ष रूप से न होकर परोक्ष रीति से होगा। प्रान्तीय कौसिल के आधे सदस्यों का निर्वाचन म्युनिसिपल व लोकल बोर्ड, व्यापार संघों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा किये जायेंगे।

(2) इस अधिवेशन में यह माँग पुनः दुहराई गई कि सिविल सर्विस की परीक्षा इंगलैण्ड तथा भारत में एक साथ हो।

(3) केन्द्रीय सेवाओं के समान प्रान्तीय सेवाओं के लिये भी प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था हो।

(4) मुकदमों की सुनवाई में जूरी की प्रथा को अधिक से अधिक मान्यता दी जाय तथा न्यायाधीश के लिए आवश्यक हो कि वह जूरी के निर्णय के अनुसार अपना निर्णय घोषित करें।

(5) एक अन्य प्रस्ताव द्वारा सरकार से यह प्रार्थना की गई कि भारतीयों को सेना में स्वयं सेवक के रूप में भर्ती होने का अवसर प्रदान किया जाये।

(6) यह भी निश्चित किया गया कि कांग्रेस के सेनापति दादा भाई नौरोजी के नेतृत्व में कांग्रेस का डैपुटेशन इनके सम्बन्ध में वायसराय से भेंट करे।

उपविरचित प्रस्तावों पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि कांग्रेस के सदस्य तत्कालीन शासन व्यवस्था से सन्तुष्ट न थे तथा वे प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना के पक्ष में थे।

(3) तीसरा अधिवेशन, 1887- कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन मद्रास में हुआ। इसका सभापतित्व बदरुद्दीन तैय्यबजी ने किया। इस अधिवेशन में विभिन्न भागों के लगभग 607 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन की स्वागत समिति के अध्यक्ष सर टी० माधवराव थे। उनका कहना था कि काँग्रेस ब्रिटिश शासन की महान विजय तथा गौरव की वस्तु है। इस अधिवेशन के प्रस्ताव निम्नलिखित थे-

(1) सैनिक अफसरों की शिक्षा के लिये भारत में सैनिक विद्यालय की स्थापना की जाये।

(2) शस्त्र कानून (Arms Act) और शस्त्रों को रखने के नियमों में परिवर्तन किया जाये।

(3) उन प्रस्तावों को फिर से दोहराया गया जो इम्पीरियल कौंसिल तथा भारत में स्थापित विभिन्न कौंसिलों के सम्बन्ध में पिछले अधिवेशन में पारित किये गये थे।

(4) चौथा अधिवेशन,1888- कांग्रेस का चौथा अधिवेशन इलाहाबाद में जार्ज यूल के सभापतित्व में हुआ। कांग्रेस की बढ़ती हुई प्रगति के कारण सरकार उसको आशंका की दृष्टि से देखने लगी। लार्ड डफरिन ने भी कहा कि “अब कांग्रेस का झुकाव राजद्रोह की ओर हो गया है और यह संस्था शिक्षित भारतीयों का नाममात्र का प्रतिनिधित्व करती है।’ ब्रिटिश समाचार पत्र में भी कांग्रेस के विरोध के विचार व्यक्त किये जाने लगे। इस अधिवेशन के बाद सरकार ने अपने अधिकारियों को यह आदेश दिया कि वे कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित न हों। इस अधिवेशन में भी पिछले अधिवेशनों की स्वीकृत माँगें दुहराई गईं। एक नई माँग इस अधिवेशन में यह रखी गई थी कि सरकार भारत की औद्योगिक उन्नति, कला-कौशल व शिक्षा के सम्बन्ध में ठोस कदम उठाये।

(5) पाँचवाँ अधिवेशन, 1889- यह अधिवेशन सर विलियम वेडरबर्न के सभापतित्व में बम्बई में हुआ। इंगलैण्ड के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ चार्ल्स ब्राडला भी इस अधिवेशन में सम्मिलित हुए। वे भारत में शासन सुधार के प्रबल समर्थक थे। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने भूमिकर सुधार सम्बन्धों नीति में सुधार करने के लिए एक प्रस्ताव स्वीकृत किया।

(6) छटा, सातवाँ, आठवाँ अधिवेशन 1890,91,92- कांग्रेस का छठा अधिवेशन सर फिरोजशाह मेहता के सभापतित्व में कलकत्ते में हुआ। इस अधिवेशन में प्रायः उन सभी प्रस्तायों को दोहराया गया जो पिछले अधिवेशनों में स्वीकृत किये जा चुके थे। सातवाँ अधिवेशन श्री पी० आनन्द चार्ल के सभापतित्व में नागपुर में हुआ और आठवाँ अधिवेशन श्री उमेश चन्द्र बनर्जी के सभापतित्व में इलाहाबाद में हुआ। इस अधिवेशन में सरकार की मुद्रा नीति में सुथार करने के सम्बन्ध में एक नवीन प्रस्ताव स्वीकार किया गया।

(7) नवाँ अधिवेशन 1893- यह अधिवेशन दादा भाई नौरोजी के सभापतित्व में लाहौर में हुआ। दादा भाई नौरोजी ब्रिटिश संसद के प्रथम भारतीय सदस्य भी निर्वाचित हुए थे। इस अधिवेशन में बेगार की प्रथा का उन्मूलन, सूती वस्त्र पर से उत्पादन कर हटाने और स्वतन्त्र सिविल मेडिकल सर्विस की स्थापना संबंधी प्रस्ताव स्वीकृत किये गये।

कांग्रेस के 1893 से 1900 ई० तक के कार्य- कांग्रेस के नवम अधिवेशन के सभापति दादा भाई नौरोजी थे और इस अधिवेशन में बेगार समाप्ति हेतु, एवं मेडिकल सिविल सर्विस के गठन हेतु प्रस्ताव पारित किये गये। कांग्रेस का दसवाँ अधिवेशन 1894 में मद्रास में हुआ तथा सरकार की वस्त्र उद्योग पर उत्पादन कर नीति का विरोध किया गया। ग्यारहवें अधिवेशन 1895 के अध्यक्ष सुरेन्द्र नाथ बनर्जी थे। इस अधिवेशन में लीगल प्रेक्टिशनर्स ऐक्ट का विरोध किया। कांग्रेस का 1897 में अमरावती में अधिवेशन हुआ। कांग्रेस ने सरकार से मद्रास, बंगाल तथा बम्बई रेग्यूलेशन को समाप्त करने की माँग की। 1900 ई० में कांग्रेस का लाहौर में अधिवेशन हुआ तथा दक्षिणी अफ्रीका में भारतीयों के साथ बरती जाने वाली भेदपूर्ण नीति का विरोध किया गया।

1901 से 1905 तक का कांग्रेस कार्यक्रम- 1901 में दीनशा ईदुल जी के सभापतित्व में कलकत्ता कांग्रेस हुई तथा सरकार की दक्षिणी अफ्रीका नीति की आलोचना की गई। 1903 में लालमोहन घोष की अध्यक्षता में अधिवेशन हुआ तथा दक्षिणी अफ्रीका में भारतीय सेना के प्रयोग पर आपत्ति की गई। 1904 में हेनरी काटन की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तथा लार्ड कर्जन की प्रतिगामी नीतियों की आलोचना की गई। 1905 में गोखले के सभापतित्व में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तथा बंग-भंग का विरोध किया गया व प्रवासी भारतीयों की स्थिति सुधारने हेतु प्रार्थना की गई।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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