इतिहास / History

राष्ट्रसंघ की असफलता के कारण | Causes of the Collapse of the League of Nations in Hindi

राष्ट्रसंघ की असफलता के कारण | Causes of the Collapse of the League of Nations in Hindi

राष्ट्रसंघ की असफलता के कारण

(Causes of the Collapse of the League of Nations)

राष्ट्रसंघ की असफलता के कारण – अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन विश्व-शांति का पुजारी था और उसी की पहल पर क्लीमेंशी और लायड जॉर्ज भी राष्ट्रसंघ की स्थापना के लिए तत्पर हुए। बड़ी आशा के साथ युद्ध से त्रस्त विश्व की जनता राष्ट्र संघ की ओर देखती थी। लेकिन, 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में ही करीब-करीब यह स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रसंघ शांति-स्थापना में हल्का पड़ रहा है। मुसोलिनी, हिटलर, फ्रांसिस्को, फ्रैंको और तेजो ने राष्ट्रसंघ की अवहेलना करनी शुरू की और अंत में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ।

संयुक्त राज्य अमेरिका का असहयोग- संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन के दवाव में राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई थी विल्सन शांति के दूत थे। लेकिन अमेरिकी सीनेट ने निर्णय लिया कि संयुक्त राज्य अमेरिका राष्ट्रसंघ का सदस्य नहीं बनेगा और इस तरह राष्ट्रसंघ अमेरिका के सहयोग से वंचित हो गया। संयुक्त राज्य अमेरिका का सहयोग न मिलने से अंतर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे में राष्ट्रसंघ उस दृढ़ता का परिचय नहीं दे सका जिसकी उससे उम्मीद थी। किसी राष्ट्र के खिलाफ निर्णय लेते समय राष्ट्रसंघ के सदस्यों को यह आंशका बनी रहती थी कि उनका निर्णय प्रभावी हो पाएगा या नहीं। आक्रमणकारी राष्ट्र को रास्ते पर लाने के लिए धारा 16 थी, जिसको राष्ट्रसंघ में स्थान दिलवाने के पीछे विल्सन की मान्यता थी कि उससे किसी भी राष्ट्र को नियंत्रित किया जा सकेगा। लेकिन आर्थिक प्रतिबंधों को संयुक्त राज्य अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश ही लागू करा सकता था। इंगलैंड इस धारा के पहले भी विरुद्ध था और अमेरिका के राष्ट्रसंघ में शामिल नहीं होने पर उसने अपनी इच्छानुसार इस धारा की व्याख्या कर ली। बाद में स्थिति यह आई कि इटली के अबीसिनिया पर आक्रमण के समय और जापान के चीन पर आक्रमण के समय इस धारा का उपयोग आक्रामक देशों के विरुद्ध नहीं हो सका, जिसके कारण द्वितीय विश्वयुद्ध अवश्यंभावी हो गया।

राष्ट्रसंघ सर्वमान्य नहीं हो सका- विल्सन ने राष्ट्रसंघ के महत्व को बढ़ाने के लिए पेरिस शांति सम्मेलन की संधियों में राष्ट्रसंघ को जुड़वाया था। लेकिन, दुर्भाग्य यह था कि सोवियत संघ को राष्ट्रसंघ से अलग रखा गया और जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी और तुर्की को प्रारंभ में सदस्य नहीं बनाया गया। इससे आम धारणा यह बनी कि पेरिस शांति सम्मेलन की संधियों को लागू करवाना ही राष्ट्रसंघ का मुख्य उद्देश्य है। चूंकि कुछ निष्पक्ष एवं शक्तिशाली देश राष्ट्रसंघ के सदस्य नहीं बने, अतः इंगलैंड और फ्रांस की लोलुपता बढ़ गई और राष्ट्रसंघ को उन्होंने एक खिलौने के रूप में जब जैसा चाहा वैसा इस्तेमाल किया।

राष्ट्रसंघ के सदस्यों के परस्परविरोधी हित- राष्ट्रसंघ सामूहिक सुरक्षा से प्ररित होकर बनाया गया था इसके लिए आवश्यक था कि सभी सदस्य-राष्ट्रों के हित समान हों। परंतु पेरिस शांति सम्मेलन की संधियों में पराजित राष्ट्रों को दंडित होना पड़ा और विजयी राष्ट्रों को, विशेषकर इंगलैंड और फ्रांस को, क्षतिपूर्ति की बड़ी रकम मिली। ऐसी स्थिति में पहले वर्ग के राष्ट्र असंतुष्ट थे और उनका मानना था कि राष्ट्रसंघ केवल इंगलैंड और फ्रांस के हितों की सुरक्षा के लिए है और उन्होंने कभी राष्ट्रसंघ पर विश्वास नहीं किया। इसके विपरीत इंगलैंड और फ्रांस राष्ट्रसंघ को अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल करते थे और अपने हितों के अनुकूल ही राष्ट्रसंघ के विधान के प्रावधानों की व्याख्या करते थे।

राष्ट्रसंघ की सफलता के लिए आवश्यक था कि सदस्य-राष्ट्र परस्परविरोधी नीतियों का पालन न करें। संयोगवश विश्व को दो तत्कालीन शक्तिया-अमेरिका और सोवियत संघ-राष्ट्रसंघ से अलग रहे। ऐसी स्थिति में फ्रांस और इंगलैंड ही राष्ट्रसंघ के कर्णधार बन गए। संयोग की बात यह भी थी कि लूट के माल में दोनों देश एक साथ थे, परंतु इनके आपसी हित भी टकराते थे और यह कहना असत्य नहीं होगा कि आंरभ में हिटलर के उदय को इंगलैंड ने फ्रांस को नियंत्रित करने का एक उपयुक्त साधन समझा था।

जहाँ फ्रांस राष्ट्रसंघ को यथापूर्व स्थिति बनाए रखने तथा संधियों को पालन करवाने के लिए हथियार समझता था, वहीं जर्मनी राष्ट्र संघ के सदस्य होने पर राष्ट्रसंघ पर वर्साय की संधि के कठोर प्रावधानों को समाप्त कराने का साधन समझने लगा। सोवियत संघ राष्ट्रसंघ को साम्यवाद का विरोधी मानता था। ऐसी स्थिति में राष्ट्रसंघ सामूहिक सुरक्षा प्रदान करने में अक्षम हो गया।

राष्ट्रसंघ की अपनी सेना नहीं- राष्ट्रसंघ के पास अपनी फौज नहीं थी। कौन आक्रामक इसका निर्णय करने के लिए सदस्य राष्ट्र ही सक्षम थे और सदस्य राष्ट्रों के आपसी हित परस्परविरोधी थे। ऐसी स्थिति में किसी देश को आक्रामक घोषित करना कठिन कार्य था। इटली ने इथोपिया पर आक्रमण किया और जापान चीन पर आक्रमण करने के कारण आक्रामक राष्ट्र घोषित हुआ। राष्ट्रसंघ आक्रामक राष्ट्रों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाकर काबू में कर सकता था, लेकिन युद्ध के दौरान भी इंगलैंड गुप्त रूप से इटली को सामान देता रहा और जापान के विरुद्ध भी आर्थिक प्रतिबंध पूर्णरूपेण से लागू नहीं हो सका। ऐसी स्थिति में फौज भेजकर आक्रामक राष्ट्र को पराजित कर नियंत्रित किया जा सकता था। यह तभी संभव था जब सदस्य राष्ट्र अपनी फौज राष्ट्रसंघ के ध्वज के तले युद्ध के लिए भेजे ।

मुसोलिनी और हिटलर के उदय् के बाद सदस्य्-राष्ट्र इन अधिनायकों के विरूद्ध सैनिक कार्रवाई कर इनका कोपभाजन होना नहीं चाहते थे। इस प्रकार, राष्ट्रसंघ की अपनी फौज नही होने के कारण भी यह विश्व शांति कायम करने में सफल नहीं हो सका।

अधिनायकों का उदय- विश्व-शांति के लिए आवश्यक है कि सभी देशों के शासक अपनी जनता की इच्छाओं का आदर करें। लेकिन 20वीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशकों में मुसोलिनी, हिटलर और को जैसे तानाशाहों के उदय से विश्व शांति खतरे में पड़ गई। मुसोलिनी और हिटलर युद्ध को अनिवार्य और आवश्यक मानते थे। मुसोलिनी के दर्शन में विश्व के सभी राष्ट्र अस्तित्व के लिए हमेशा संघर्षरत रहते हैं और जिसको ‘शांति’ कहा जाता है, वह वास्तव में युद्धविराम होता है । हिटलर अपनी प्रसारवादी नीति की धड़ल्ले से कार्यान्वित कर रहा था। युद्ध की अनिवार्यता में विश्वास रखनेवाले इन अधिनायकों के प्रभाव में वृद्धि के साथ-साथ शांति की संभावना दूर होती गई और राष्ट्रसंघ में असीम श्रद्धा और आस्था रखनेवाले भी सामूहिक सुरक्षा की नहीं, अपितु, अपनी-अपनी सुरक्षा की चिंता करने लगे।

आर्थिक राष्ट्रीयता- प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भीषण आर्थिक मंदी आई, जिससे यूरोप के सभी देश बुरी तरह प्रभावित हुए। अपने-अपने उद्योगों को चलाने के लिए अपना माल खरीदो’ की भावना जोर पकड़ा और चुंगी की ऊंची दीवारें खड़ी की गई। आर्थिक परेशानी से उबरने के लिए आवश्यक था कि संबद्ध देशों के उद्योग-धंधे सुचारु रूप से चलें। ऐसी स्थिति में बाजारों के लिए प्रतिद्वंद्विता शुरू हुई। जर्मनी के आर्थिक दोहन से जर्मन तिलमिला उठे और इससे बचने के लिए वे आसानी से हिटलर के झांसे में आ गए। आर्थिक राष्ट्रीयता प्रथम विश्वयुद्ध-जनित परिस्थितियों और 1929-31 की आर्थिक मंदी के कारण उपजी तथा इसने राष्ट्र संघ की दीवार तोड़कर वैमनस्य की भावना भरी जिसकी छाप राष्ट्रसंघ पर भी दिखाई पड़ी।

राष्ट्रसंघ का दोषपूर्ण संविधान- राष्ट्रसंघ का संविधान दोषपूर्ण था, जिसके कारण उसके द्वारा लगाए गए प्रतिबंध प्रभावी नहीं हो पाते थे। राष्ट्रसंघ के संविधान के अनुसार किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर निर्णय सर्वसम्मति से होना आवश्यक था। पेरिस शांति सम्मेलन की संधियों से कुछ राष्ट्र नाराज थे और कुछ राष्ट्र खुश। इसके अलावा अन्य राष्ट्रों के हित भी परस्परविरोधी थे। ऐसी हालत में किसी निर्णय पर पहुँचने के लिए सभी राष्ट्रों का एक साथ मिलना असंभव था। राष्ट्रसंघ के संविधान में यह भी लिखा हुआ था कि राष्ट्रसंघ उन विवादों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था जिनको कोई राष्ट्र अपना घरेलू मामला घोषित कर देता था। इस प्रावधान का काफी दुरुपयोग किया गया। राष्ट्रसंघ के संविधान में एक अन्य महत्वपूर्ण कमी यह थी कि आक्रांता की कोई सुनिश्चित् परिभाषा नहीं की गई थी। इन दोषों को ‘जेनेवा प्रोटोकोल’ और ‘पैक्ट ऑफ पेरिस’ से दूर करने की कोशिश की गई, परन्तु संभव नहीं हो पाया। राष्ट्रसंघ को सैनिक कार्रवाई के लिए सदस्य राष्ट्रों पर निर्भर होना भी उसकी असफलता का कारण था।

निःशस्त्रीकरण की अवहेलना- राष्ट्रसंघ के निःशस्त्रीकरण आयोग की अवहेलना की गई, जिसके कारण यूरोप में शस्त्रों की होड़ लग गई। कोई भी राष्ट्र अपने अस्त्र-शस्त्र घटाने के लिए तैयार नहीं था। इस कारण प्रतियोगिता एवं प्रतिद्वंद्विता बढ़ी और युद्ध के लिए वातावरण विषाक्त हुआ।

उपनिवेशों की चाह- जर्मनी, जापान और इटली को अपने अहं की भावना की तुष्टि के साथ-साथ उपनिवेश हासिल करना आवश्यक हो गया था। अन्य पाश्चात्य देश अपने उपनिवेशों में इन नवोदित औद्योगिक देशों को अपना माल बेचने की इजाजत नहीं देते थे। फलतः इन देशों ने उपनिवेश के लिए झगड़ना शुरू किया, जिसको रोकने में राष्ट्रसंघ असफल रहा।

उग्र राष्ट्रवाद का उदय- उग्र राष्ट्रवाद का उदय और प्रथम विश्वयुद्ध के पराजित राज्यों पर अन्यायपूर्ण संधि लादना भी राष्ट्रसंघ के पतन के कारण बने। एक राष्ट्र को दूसरा राष्ट्र हीन भावना से देखता था और उसे दबोचने की कोशिश करता था। जर्मनी वर्साय की संधि को तोड़ने के लिए बेचैन था, जिसको रोकने में राष्ट्रसंघ अक्षम रहा।

राष्ट्रसंघ की स्थापना के पहले भी मानव ने कई बार शांति प्रयास में कई संगठनों का निर्माण किया, लेकिन विभिन्न कारणों से ये संगठन असफल हो गए। राष्ट्रसंघ पहली ऐसी संस्था थी जिसका स्वरूप विश्वव्यापी था और जिसके आदर्श बहुत उच्च थे। लेकिन, आरंभ में ही यह स्पष्ट गया था कि यूरोप की कूटनीतिक प्रणाली शांति के क्रियात्मक रूप को अधिक महत्व नहीं देती थी। वास्तव में राष्ट्रसंघ के आदर्श सचमुच बहुत अच्छे थे, परन्तु उसके सदस्य-देशों के मन में खोट था, वे अपने स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ सके। वे सत्य की बात करते थे, परंतु अपने स्वार्थों के मार्ग में सत्य की रुकावट को बर्दास्त नहीं करते थे, जिसके कारण राष्ट्रसंघ जैसा शांति संगठन भी सफल नहीं हो सका।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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