इतिहास / History

मध्य एशिया में साप्राज्य विस्तार की रूस की नीति | यूरोपीय साम्राज्यवाद के सुदूर पूर्व में विस्तार के परिणाम | यूरोपीय साम्राज्यवाद के सुदूर पूर्व में विस्तार के प्रभाव | 19वीं शताब्दी में सम्पन्न किये गए औपनिवेशिक विस्तार के परिणाम

मध्य एशिया में साप्राज्य विस्तार की रूस की नीति | यूरोपीय साम्राज्यवाद के सुदूर पूर्व में विस्तार के परिणाम | यूरोपीय साम्राज्यवाद के सुदूर पूर्व में विस्तार के प्रभाव | 19वीं शताब्दी में सम्पन्न किये गए औपनिवेशिक विस्तार के परिणाम

मध्य एशिया में साप्राज्य विस्तार की रूस की नीति

रूस की नीति और उद्देश्य

(Policy of Russia and its Aims) (मध्य एशिया में साप्राज्य विस्तार की रूस की नीति)-

मध्य एशिया में रूस की नीति साम्राज्य विस्तार तथा वहाँ अपने उपनिवेशों की स्थापना करने की थी। उसकी इस नीति को अनेक उद्देश्यों को निम्न प्रकार से आधारित किया जा सकता है।

(1) साइबेरिया में उपनिवेशों की स्थापना (Establishment of colonies in Siberia)-  रूस ने साइबेरिया के शीतल और उजाड़े खण्ड में अपने उपनिवेशों को बसाने का निश्चय किया। अभी तक इस प्रदेश में रूसी राजनीतिक बन्दियों एवं अपराधियों को वहाँ की भीषण सर्दी में भूख से तड़प-तड़प कर मर जाने के लिये निष्कासित किया जाता था परन्तु अब समय बदल रहा था। रूसी कृषकों, राजनैतिक बन्दियों (Political Sufferes) तथा अपराधियों द्वारा साइवेरिया में अनेक उपनिवेश बसा लिये गये थे। वे लोग वहाँ खेती करके खाद्यान्न एवं शाक-सब्जियाँ उत्पन्न करने लगे थे। अतः रूसी सरकार ने इस कार्य को और अधिक विस्तार देने का प्रयास किया।

(2) सीमा सम्बन्धी झगड़ों का निबटारा- (To settle the contests regarding boundary lines)-  काकेशिया और तुर्किस्तान् (Turkistan) में सीमा सम्बन्धी झगड़े बढ़ते जा रहे थे। रूस की सरकार ने इन झगड़ों को सुलझाने के उद्देश्य से पर्याप्त शक्तिशाली रूसी सेना वहाँ भेज दी । उस सेना ने सीमा सम्बन्धी वाद-विवादों का समाधान करते हुए वहाँ रूसी साम्राज्य का विस्तार किया।

(3) पूर्व की ओर साम्राज्य का विस्तार (Expansion of Russian Empire towards East)-  तुर्किस्तान के साथ सीमा सम्बन्धी वाद-विवाद और झगड़ों का निबटारा करते हुए रूसी सेना ने चीन (China) में भी अपने पैर फैलाने आरम्भ किये। उसे इस कार्य में विशेष कठिनाई नहीं उठानी पड़ी। रूसी सेना ने काकेशिया (Caucacia) के दक्षिण की ओर बढ़ कर काले सागर (Black Sea) के तटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ के पहाड़ी कबीलों को पराजित करके उन्हें अपनी अधीनता में लाने का कार्य सरलतापूर्वक सम्पन्न किया। इससे रूस के लिये तुर्की (Turkey) पर आक्रमण करने के लिये आधार मिल गया। 1878 ई० में रूस ने तुर्क सुल्तान (Porte) से कार्स (Kars) का प्रान्त छीन लिया।

उधर साइबेरिया के पूर्वी भाग में उपनिवेशों की द्रुतगति से स्थापना की जा रही थी। इस कार्य को करते समय मार्ग में पड़ने वाले आमूर (Amur) आदि कई चीनी प्रांतों पर भी रूस ने अधिकार कर लिया तथा आगे बढ़ती हुई रूसी सेना प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) के किनारे तक जा पहुंची। 18160 ई. में प्रशान्त महासागर के तट पर रूस द्वारा ब्लाडीवास्टक बन्दरगाह (Blodivastak Port) की स्थापना कर दी गई । परन्तु यह बन्दरगाह शीत ऋतु में अधिक बर्फ पड़ने के कारण जम जाता था, अतः रूस की सरकार ऐसे बन्दगाह की प्राप्ति के लिये प्रयास करने लगी, जो शरद ऋतु में भी जहाजों के आने-जाने के योग्य बना रहे।

(4) तीन महान् साम्राज्यों की सीमाओं का एक स्थान पर मिलना (To meet the boundaries of three great empires at a point)-  मध्य एशिया में अभी रूस को पूर्वी और पश्चिमी तुर्किस्तान के कबीलों को पराजित करना था। पूर्वी तुर्किस्तान केवल नाम के लिये ही चीन की अधीनता में था । तुर्किस्तान की सीमा से मिले रूसी प्रान्तों के गवर्नर घुड़सवार डाकुओं को पराजित करने के बहाने अपनी सीमायें बढ़ाते रहते थे। 1864 ई० में रूस ने ताशकन्द (Tashkand) पर विजय प्राप्त की। इसके पश्चात् धीरे-धीरे रूस का सम्पूर्ण पूर्वी तुर्किस्तान (Eastern Turkistan) पर अधिकार हो गया। 1873 ई० में खोवा के खान (Khan of Khiva) से पराजित होकर रूस की आधीनता स्वीकार करनी पड़ी। 1880 ई० में तुर्कोमान कबीले को भी रूस ने अपनी अधीनता में लाने का कार्य कर लिया। इस विजय ने रूसी साम्राज्य, चीन साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य की सीमाओं को मिला दिया। अब रूसी साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य के मध्य केवल फारस का मरूस्थल और अफगानिस्तान की पर्वत-श्रेणियाँ ही रह गई थीं। रूस के सेनापति जनरल स्कोविलेव (Gen, Skobilev) द्वारा अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य पर आक्रमण करने को योजना तैयार की गई। 1885 में रूसी सेनापति द्वारा अफगानिस्तान (Afghanistan) के सीमावर्ती भागों पर अधिकार कर लिया गया।

इंगलैण्ड के प्रधानमन्त्री ग्लेडस्टन (Gladstone) द्वारा ब्रिटिश संसद (British Parliament) में रूस को अफगानिस्तान पार आक्रमण करने का दोषी घोषित करते हुए एक करोड़ दस लाख पौण्ड के सैनिक व्यय को स्वीकार करने की प्रार्थना करनी पड़ी इस प्रकार रूस का इंगलैण्ड के साथ युद्ध होना एक प्रकार से निश्चित ही हो गया। परन्तु उसी समय रूस के जार ने भारत-आक्रमण की योजना को अस्वीकृत करते हुए रूसी सेना को चीन की ओर अग्रसर होने के आदेश दिये । उरासे युद्ध संकट टल गया। 1892 ई. में रूस की सरकार ने फ्रांस से ऋण प्राप्त कर के ट्रांस् साइबेरियन रेलवे का निर्माण आरम्भ कर दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार ग्रान्ट एन्ड टेम्परले के अनुसार-“1892 ई० का वर्ष, जब रूसियों ने हिमालय की ओर से हटकर मंचूरिया में बढ़ना आरम्भ किया, रूस और अंग्रेजों के सम्बन्धों का सबसे अधिक महत्वपूर्ण वर्ष है।”

साम्राज्यवाद के परिणाम

(Consequences of Imperialism)-

उन्नीसवीं शताब्दी के समाप्त होने तक यूरोपीय शक्तियों का विश्व के एक बहुत बड़े भाग पर अधिकार हो गया था। साम्राज्य विस्तार की इस भावना में कल-कारखानों के लिए कच्चा माल प्राप्त करने, अपने व्यापार की वृद्धि करने तथा अपने देश को बढ़ी हुई जनता को बसाने के यूरोपीय राष्ट्रों के स्वार्थ निहित थे। साम्राज्यवाद के परिणामों की व्याख्या इस प्रकार है-

(1) सैनिकों की प्राप्ति (To obtain recruits)- साम्राज्यवाद के विस्तार के कारण यूरोपीय राष्ट्रों ने अपने उपनिवेशों को सैनिकों को भरती करके अपनी सेना की शक्ति में वृद्धि करने का साधन बना लिया। उन्हें वहाँ से धन और जन दोनों की अधिकता के साथ प्राप्ति होने लगी। अतः जिस राष्ट्र के साम्राज्य का जितना अधिक विस्तार होता था, उसे उतनी ही अधिकता के साथ अपने साम्राज्य सैनिक एवं धन की सहायता प्राप्त होने लगी।

(2) कच्चे माल की उपलब्धि (To get raw material)- विभिन्न प्रकार के उद्योगों तथा कारखानों को चलाने के लिये यूरोपीय राष्ट्र अपने उपनिवेशों से भारी मात्रा में कच्चे माल की प्राप्ति करने लगे। यह माल उन्हें सस्ती दर पर मिल जाता था, जिसके कारण उनके उद्योग धन्धों की उन्नति होने लगी तथा राष्ट्रीय आय बढ़ गई।

(3) बाजारों की प्राप्ति (Obtaining of markets)- उपनिवेशों के रूप में यूरोपीय राष्ट्रों को विशाल बाजारों की प्राप्ति हुई जिनमें वे अपने देश के व्यापारिक माल को सरलतापूर्वक ऊंची दुर पर बेच सकते थे। इससे यूरोपीय राष्ट्रों के आर्थिक लाभ की मात्रा में भारी वृद्धि हुई और वे आर्थिक दृष्टि से समृद्ध होने लगे।

(4) बढ़ी हुई जनसंख्या की समस्या का समाधान (Solution of the problem of increased population)- यूरोप के राज्यों की जनसंख्या शीघ्रता के साथ बढ़ रही थी, जिसके पालन-पोषण और बसाये जाने की समस्या ने विकट रूप धारण कर लिया था। इस बढ़ी हुई जनसंख्या को उपनिवेशों में बसाकर उन्होंने इस समस्या का निराकरण कर लिया तथा देश में बढ़ती हुई बेकारी की समस्या का भी समाधान हो गया।

(5) यूरोपीय राष्ट्रों की गुटबन्दियाँ (Alliances)- यूरोपीय राष्ट्रों ने अपनी सुरक्षा के लिये तथा अपने शत्रुओं का प्रतिरोध करने के उद्देश्य से अपने मित्रों एवं सहयोगियों के साथ मित्रता की सन्धियां की। इटली की ट्यूनिस के प्रश्न पर फ्रांस के साथ शत्रुता हो गई थी। अतः उसने जर्मनी और आस्ट्रिया के साथ मिलकर त्रिराष्ट्रीय गुट (Triple Alliance) की स्थापना की। इसके विरुद्ध फ्रांस (France) ने रूस (Russia) और इंगलेण्ड (England) को अपना सहयोगी बनाकर शक्तिशाली त्रिराष्ट्रीय समझौते (Triple Entente) का निर्माण कर लिया। उधर सुदूर पूर्व में अपने हितों की रक्षा के लिये इंगलैण्ड द्वारा 1902 में जापान (Japan) के साथ सन्धि कर ली गई जिसका प्रधान उद्देश्य रूस और जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति पर रोक लगाना था। अत: साम्राज्यवाद के परिणामस्वरूप उन गुटबन्दियों का प्रारम्भ हुआ जिनके कारण यूरोप को प्रथम विश्व युद्ध को ज्वालाओं में झुलसना पड़ा।

(6) संसार का यूरोपीयकरण (Europeanisation of the world)- साम्राज्यवाद् का एक प्रमुख परिणाम संसार के यूरोपीयकरण के रूप में प्रकट हुआ। जिन भू-भागों में यूरोप को जातियों ने निवास करना आरम्भ किया वहाँ यूरोप (Europe) को सभ्यता और संस्कृति का भी प्रचार हुआ। उनके द्वारा वहाँ यातायात के साधनों का निर्माण किया गया तथा ईसाई पादरियों ने शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करके वहाँ के नागरिकों को यूरोपीय भाषाएं, यूरोपीय देशों के साहित्य, विज्ञान, धर्म, कला-कौशल आदि की शिक्षायें दी जाने लगी जिनके कारण उन देशों का यूरोपीयकरण (Europeanisation) होने लगा तथा उनका रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा आदि यूरोप निवासियों जैसी बनने लगी।

(7) विज्ञान की प्रगति (Progress of Science)- साम्राज्यवाद के कारण विज्ञान की अद्भुत उन्नति हुई। नवीन आविष्कारों ने समय और दूरी के अन्तर को बहुत कम कर दिया। मानव जाति को वैज्ञानिक प्रगति के आधार पर विभिन्न प्रकार की सुविधाओं की प्राप्ति होने लगी। विभिन्न देशों के युवक यूरोपीय देशों एवं विदेशों में भ्रमण करके नवीन आविष्कारों, कला-कौशल उद्योग-धन्धों आदि में कुशलता प्राप्त करके अपने देश को आधुनिकता के रंग में रंगने लगे। वे अपने देश में स्वतन्त्रता, राष्ट्रीयता, समानता आदि की उच्च भावनाओं का प्रसार करने लगे। फलतः जन्ता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने और अपने देश में फैली विषमताओं को दूर करने का प्रयास करने लगी। इसके साथ ही साम्राज्यवाद के कुछ दुःखद परिणाम भी सामने आये। चोरी, डुकेती, स्त्रियों पर अत्याचार, लूटमार और हिंसक कृत्य अधिकता के साथ किये जाने लगे और “विज्ञान का संसार” को विनाश के गर्त में ढकेलने के लिये दुरूपयोग किया जाने लगा।

(8) वर्ण-विभेद की स्थापना (Establishment of caste difference)- साम्राज्यवाद के परिणामस्वरूप वर्ण-विभेद का जन्म हुआ। यूरोपीय राष्ट्रों के निवासी तथा विभिन्न यूरोपीय जातियां स्वयं को उच्च और जिन देशों में उन्होंने अपने साम्राज्य का निर्माण किया था वहाँ की जनता को अपने से नीच, असभ्य और हीन समझने लगीं। इस प्रकार वर्ण-विभेद की स्थापना हुई, जिसने यूरोपीय जातियों तथा उनकी अधीनता में रहने वाली अन्य जातियों के मध्य घृणा और कटुता का प्रसार किया और उनमें संघर्ष होने लगे।

(9) विभिन्न जातियों में संघर्ष (Dispute between different castes)- उपनिवेशों की स्थापना और साम्राज्यवाद के विकास ने विभिन्न यूरोपीय जातियों में स्पर्धा, ईर्ष्या और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न की जिस्के समाधान के लिये उनमें गुटबन्दियों की जाने लगी और अपने पक्ष को पुबल बनाया जाने लगा । यूरोपीय राष्ट्रों की शान्ति भंग हो गई और वे युद्ध की तैयारियां करने लगे।

(10) प्रथम विश्व युद्ध का प्रारम्भ (Beginning of the first World-War)- साम्राज्यवाद् के विस्तार ने यूरोप के राष्ट्रों को विश्व युद्ध के कगार पर खड़ा कर दिया। समस्त यूरोप दो विभिन्न शक्तिशाली गुटों में विभक्त होकर अपनी विजय की कामना लिए हुए युद्ध भूमि में खड़ा हो गया। अतः 1914 ई० में प्रथम विश्व युद्ध का आरम्भ साम्राज्यवाद के प्रसार के परिणामस्वरूप ही हुआ था।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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