भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण | भारतीय राष्ट्रीयता की उत्पत्ति एवं विकास | भारत में राजनीतिक जागृति के कारण | 19वीं शताब्दी में भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के कारण
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण | भारतीय राष्ट्रीयता की उत्पत्ति एवं विकास | भारत में राजनीतिक जागृति के कारण | 19वीं शताब्दी में भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के कारण
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण
भारतीय इतिहास में उन्नीसवीं शताब्दी से एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ। पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति ने भारतीय जीवन में एक नवीन चेतना का उदय किया। यह चेतना अनेक कारणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई। भारत में सन् 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम हो चुका था। इस आन्दोलन के विषय में चाहे कुछ भी मतभेद हो परन्तु इतना सत्य अवश्य है कि यह संग्राम एक व्यापक आर्थिक तथा राजनीतिक असन्तोष की अभिव्यक्ति था। इसी समय अनेक धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन आरम्भ हुए। इन सुधार आन्दोलनों ने राष्ट्रीय आन्दोलन की उत्पत्ति के लिये उचित परिस्थितियों का निर्माण किया। यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि ‘मानसिक स्वाधीनता के बिना सामाजिक स्वाधीनता तथा सामाजिक स्वाधीनता के बिना राजनीतिक स्वाधीनता असम्भव है। ब्रिटिश शासन ने भारतीयों के हृदय में जागृत हुई राष्ट्रीयता की भावना का समय-समय पर दमन करना चाहा किन्तु उन्हें सफलता उपलब्ध न हो सकी। राष्ट्रीय भावना को जितनी क्रूरता से दबाने की चेष्टा की गई वह उससे द्विगुणित वेग से जागृत होती गई। क्योंकि इसी समय राष्ट्रीयता की भावना के परिणामस्वरूप जर्मन तथा इटली का एकीकरण हो चुका था। टर्की से यूनान को तथा हालैण्ड से बेल्जियम को स्वाधीनता प्राप्त हो चुकी थी। इन अनेक कारणों के परिणामस्वरूप भारत में जो राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई, उसका मुख्य उद्देश्य विदेशी शासन से मुक्ति पाना बन गया। स्मर्तव्य है कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन अनेक तत्वों एवं परिस्थितियों का सामूहिक परिणाम था। इनमें से कुछ ने इसका बीजवपन किया, कुछ ने इसको विकसित और कुछ ने समय-समय पर इसकी रूपरेखा तथा कार्य विधि को प्रभावित एवं निश्चित किया। अतः भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रारम्भ तथा विकास के लिए तथा कांग्रेस के जन्म के लिये कई कारण उत्तरदायी थे।
“दिसम्बर 1885 में जिस इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई, उसका विचार एक अवकाश प्राप्त अंग्रेज अधिकारी हृम्य (A. O. Hume) के मस्तिष्क में अवश्य आया था परन्तु भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के लिए अंग्रेजी सरकार की आर्थिक नीति व राजनीतिक नीतियाँ उत्तरदायी थी, जिसके परिणामस्वरूप भारतवासियों में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति निरन्तर असन्तोष बढ़ रहा था। यही कारण है कि 1885 से पूर्व ही देश के अनेक भागों में राष्ट्रीय संगठन बन चुके थे। 1876 में सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एक ऐसे ही संगठन ‘अखिल भारतीय परिषद’ की स्थापना कर चुके थे।”
19वीं शताब्दी में भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के कारण
Causes of the Birth of Nationalism in India in the 19th Century
(1) राजनीतिक एकता की स्थापना। (Establishment of Political unity)
(2) सामाजिक व धार्मिक आन्दोलन । (Social and Religious Movements)
(3) पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति। (Western Education and Culture)
(4) लार्ड लिटन की प्रतिगामी शासन। (Reactionary Rule of Lord Lytton)
(5) जातीय भेदभाव की नीति। (Policy of Racial Hatredness)
(6) भारत का आर्थिक शोषण। (Economic Exploitation)
(7) भारतीय समाचार पत्र और साहित्य। (Indian Press and Literature)
(8) भारतीय संस्कृति और सभ्यता का यशोगान । (Praise of Indian Culture and Civilization)
(9) इल्बर्ट बिल विवाद। (Ilbert Bill Controversy)
(10) राजनीतिक एकीकरण। (Political Unification)
(11) अन्य कारण (Other Factors)
(1) राजनीतिक एकता की स्थापना-
(Establishment of Political unity)
यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि भारत में अंग्रेजी शासन का स्वरूप प्रतिगामी था, परन्तु फिर भी इसने भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की। मुगल सम्राट औरंगजेब के शासन के पश्चात् भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई थी। समस्त भारत पृथक-पृथक् छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित होना आरम्भ हो गया था। दूसरी ओर मरहठों ने भारत को अपने आधीन करना चाहा, परन्तु वे सफलता न पा सके। इसी मध्य भारत में अंग्रेजों का आगमन हुआ। उन्होंने शीघ्र ही समस्त भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया और छोटे-छोटे राज्य समाप्त हो गये। अंग्रेजी शासन के फलस्वरूप देश में एक प्रकार की राजनीतिक एकता की स्थापना हुई, जिसने जनता के हृदय में समान भावनाओं को जन्म देकर मित्रता की भावनाओं को सुदृढ़ किया। अपने दीर्घकालीन शासन में उन्होंने भारत के भिन्न-भिन्न भागों को एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के आधीन संगठित किया और इन प्रदेशों के शासन को एकरूपता प्रदान की। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश भारत में रहने वाले भारतीयों को जो भाषा, धर्म, रंग और देश आदि में एक-दूसरे से अधिक भिन्न थे, शताब्दियों के बाद ही सरकार की छत्रछाया में रहने का अवसर मिला। प्रथम बार भारत में एक ही कानून तथा एक ही न्याय-व्यवस्था की स्थापना हुई। वास्तव में यद्यपि एक केन्द्रीयकृत व्यवस्था तथा यातायात के साधनों का विकास अंग्रेजों ने अपने स्वार्थपूर्ति के लिये किया था जिससे वे भारत का अधिक से अधिक शोषण कर सकें, परन्तु यह एक धोखा मात्र सिद्ध हुआ, क्योंकि अंग्रेजों द्वारा स्थापित राजनीतिक एकता ने सामान्य राष्ट्रीयता की भावना को जन्म दिया। पं० नेहरू के शब्दों में, “ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित भारत की राजनीतिक एकता सामान्य आधीनता की एकता थी लेकिन उसने सामान्य राष्ट्रीय एकता को जन्म दिया।”
(2) सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन-
(Social and Religious Movements)
डा० जकारिया के शब्दों में, “राष्ट्र के राजनीतिक पुनरुत्थान का रूप धारण करने से पूर्व राष्ट्रीय आन्दोलन में अनेक धार्मिक व सामाजिक सुधारों का रूप धारण किया।”
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में धार्मिक पुनर्जागरण ने भारत में कुरीतियों को दूर करके, अन्धविश्वासों को समाप्त करके और अपनी पुरानी संस्कृति व सभ्यता के प्रति लगाव पैदा करके राष्ट्रीय आन्दोलन को बल प्रदान किया। भारतीय जनता के राष्ट्रीय जागरण पर प्रभाव डालने वाले धार्मिक आन्दोलनों में चार निम्नलिखित हैं-
(1) ब्रह्म समाज
(2) आर्य समाज
(3) रामकृष्ण मिशन
(4) थियोसोफिकल सोसाइटी।
ब्रह्म समाज- ब्रह्म समाज के प्रवर्तक राजा राममोहन राय (1772-1833) थे जिन्होंने 20 अगस्त,1828 ई० को ब्रह्म समाज की स्थापना की। ब्रह्म समाज ने अन्धविश्वासों को दूर करने,क्षबाल विवाह, सती प्रथा और विधवाओं की हीन दशा को दूर करने का भरसक प्रयत्न किया। ब्रह्म समाज के मुख्य सिद्धान्त ये थे-
(क) ईश्वर एक है। उसकी शक्ति, प्रेम, न्याय असीमित है।
(ख) जीवात्मा अमर है, वह अपने कार्यों के लिये ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है।
(ग) आध्यात्मिक सुख के लिये प्रार्थना और ईश्वर का आश्रय आवश्यक है।
(घ) ईश्वर व्यापक है और वह किसी निश्चित बनाई हुई वस्तु में ही निहित नहीं है।
1833 में राजा राममोहन राय के निधन के पश्चात् ब्रह्म समाज का संचालन महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर व केशव चन्द्र सेन के हाथों में आ गया। परन्तु इन दोनों के विचारों में महत्वपूर्ण अन्तर होने के कारण यह ब्रह्म समाज दो भागों में विभाजित हो गया। देवेन्द्र नाथ टैगोर की विचारधारा संकुचित व पुराणपन्थी थी। उन्होंने शुद्ध हिन्दू धर्म की दिशा में कार्य किया, अतः उनकी विचारधारा को आदि समाज का नाम दिया गया। कोशव चन्द्र सेन की विचारधारा को साधारण समाज का नाम दिया गया। उन्होंने ईसाई धर्म के सिद्धान्तों को भी ग्रहण किया। राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने पर भी बल दिया और यह सर्वविदित है कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे नेताओं ने ही कालान्तर में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व संभाला। डा० आर० सी० मजूमदार के कथनानुसार, “राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे, जिन्होंने अपने देशवासियों की कठिनाइयों तथा शिकायतों को ब्रिटिश सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया और भारतीयों को संगठित होकर राजनीतिक आन्दोलन चलाने का मार्ग दिखाया। उन्हें आधुनिक वैध आन्दोलन का अग्रदूत होने का श्रेय भी दिया जा सकता है।” श्रीमती एनी बेसेन्ट के शब्दों में, “राजा राममोहन राय में एक अद्भुत शक्ति, लगन और दृढ़ता थी। उन्होंने साहसपूर्वक हिन्दू कट्टरपंथी, पल्लवित और फलवान होकर राष्ट्र के जनजीवन को नई चेतना ने अनुप्राणित किया।
आर्य समाज (Arya Samaj)- राजा राममोहन राय के उपरान्त दूसरे महान समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती हुए, जिन्होंने आर्य समाज की स्थापना सन् 1875 ई० में बम्बई में की। स्वामी जी ने हिन्दू धर्म की सोई हुई एवं खोई हुई आत्मा को ढूँढ़ा और जागृत किया तथा इसे राष्ट्रीय जीवन की एक गत्यात्मक शक्ति बना दिया। उन्होंने न केवल हिन्दू समाज और धर्म में आई हुई कुरीतियों को दूर किया, अपितु अपने देशवासियों में राष्ट्रीय प्रेम का भी संचार किया। उनके प्रेरणा से भरे हुए नारे-“भारत भारतीय के लिए, वैदिक सभ्यता को अपनायें’ ने भारतीयों के मन में घर की हुई पश्चिमी सभ्यता के जादू को दूर किया और अपने देश से प्रेम करना सिखाया। अतः देश-प्रेम का अंकुर भारतीयों के हृदय में इस समय घर कर गया। मिसेज एनी बेसेन्ट के अनुसार, “स्वामी दयानन्द पहला महान व्यक्ति था जिसने कहा कि भारत भारतीयों के लिये है। उत्तरी भारत के लोगों के हृदय में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में आर्य समाज का इतना बड़ा हाथ था कि वह संस्था साम्राज्यवादी सरकार की आँखों में अनेक वर्षों तक खटकती रही।
रामकृष्ण मिशन (Ram Krishna Mission)- रामकृष्ण परम हंस और उनके सुविख्यात शिष्य विवेकानन्द ने भारतीयों को अपने देश और संस्कृति पर गर्व करने की शिक्षा दी। रामकृष्ण की रुचि बाल्यकाल से ही आध्यात्म की ओर थी। इनका विश्वास था कि ब्रह्म एक है तथा ईश्वर, अल्लाह, क्राइस्ट आदि एक ही ईश्वर के नाम हैं। वे सब धर्मों के लक्ष्य को समान मानते थे अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति। उनका जीवन आधुनिक नैतिक अन्धकार में शुद्ध भारतीय जीवन का प्रकाश स्तम्भ था। उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द में भी अनोखी प्रतिभा, असाधारण वाक्शक्ति व त्याग की भावना थी। उन्होंने अपने देशवासियों के विश्वास को अपने प्राचीन धर्म तथा परम्पराओं की महानता के आधार पर दृढ़ किया, जिससे राष्ट्रीय भावनाओं को असाधारण बल मिला।
उन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को उच्च ठहराया। उनके अनुसार पाश्चात्य सभ्यता भौतिक मात्र है। यद्यपि स्वामी जी ने राजनीति में प्रवेश नहीं किया, फिर भी उनकी रचनाओं व विचारों ने भारतीयों में आत्मविश्वास, देश-भक्ति, स्वाभिमान जैसी भावनाओं का संचार किया। स्वामी जी कहा करते थे कि एक बार पुनः भारतवर्ष को विश्व विजय करनी होगी। यह मेरे जीवन का स्वप्न है और कामना है कि आप सब जो कि मुझे सुन रहे हैं, मेरे स्वप्न को अपना स्वप्न बना लें और उस समय तक आराम न करें जब तक कि वह स्वप्न पूरान हो जाये। देशवासियों जागो, अपनी आत्मशक्ति से समस्त विश्व को विजित कर लो।” स्वामी रामतीर्थ ने भी भारत के नव जागरण में योगदान दिया।
थियोसोफिकल सोसायटी (Theosophical Society)- इस संस्था ने भी भारतीय नव-जागरण में अधिक सहयोग दिया। यह सोसायटी विश्वव्यापी थी। इसकी स्थापना 1875 में रूसी महिला मैडम लेवेत्सकी और कर्नल आलकाट ने अमेरिका में की थी। ये दोनों स्वामी दयानन्द सरस्वती के निमंत्रण पर भारत आये थे और उन्होंने भारतीयों को उनके पतन ककारणों से परिचित कराया। अन्धविश्वासों और कुरीतियों से भारत को छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से मद्रास में थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की। भारत में इस सोसायटी का नेतृत्व श्रीमती एनी बेसेन्ट में किया। इस सोसायटी ने भी भारतीयों को उनसे धर्म, शिक्षा और संस्कृति में आस्था उत्पन्न की। इसी उद्देश्य से श्रीमती एनी बेसेन्ट ने बनारस में ‘हिन्दू सेट्रल स्कूल’ की स्थापना करायी।
अन्य आन्दोलन (Other Movement)- उपरोक्त संस्थाओं के अतिरिक्त अन्य संस्थाओं ने भी नव जागरण के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किया। महाराष्ट्र में भी श्री महादेव गोविन्द रानाड़े ने सन् 1861 में विधवा-विवाह प्रचार के लिये विडो-रिमैरिज एसोशियेशन’ की स्थापना कराई। उनके प्रयलों के फलस्वरूप दक्षिण शिक्षा सम्बन्धी सोसायटी को जन्म मिला। उनके शिष्य श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने सन् 1905 में सरवेन्ट्स आफ इन्डिया सोसायटी की स्थापना की इस संस्था के सदस्य सादा जीवन व्यतीत कर देश की सेवा करना अपना प्रमुख कर्त्तव्य समझते थे। उपरोक्त सभी संस्थाओं ने देश भक्ति और लोक सेवा का भाव जागृत करने में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
योरोपियन के कार्य- योरोपियन विद्वानों ने भी प्राचीन भारतीय साहित्य का अध्ययन करके प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता की प्रशंसा की। इन विद्वानों में मैक्समूलर, मोनियर, विलियम्स, रौथ, सैशून विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने योरप के समक्ष भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता के गौरव तथा महत्त्व को व्यक्त किया। उन्होंने संस्कृत के अनेक ग्रंथों का अनुवाद भी किया। भारतीयों के ऊपर इन योरोपियन विद्वानों का विशेष प्रभाव पड़ा। उनमें अपने साहित्य और संस्कृति के प्रति अनुराग जागृत हुआ। भारतीयों को यह सहज आभास हो गया कि उनकी सभ्यता और संस्कृति के समक्ष योरोपीय संस्कृति कुछ भी महत्त्व नहीं रखती।
मुसलमानों के धार्मिक आन्दोलन ने भी नव-जागरण विशेष सहयोग प्रदान किया। इस उद्देश्य से अरब के ‘वहाबी आन्दोलन’ का भारत में प्रचार किया गया। इस आन्दोलन द्वारा मुसलमान को कुरान की शिक्षाओं पर चलने का प्रचार किया। इस आन्दोलन की भावना बहुत ही कट्टर थी। उसने उग्र-इस्लामी रूप धारण किया था, फिर भी वह हिन्दू विरोधी नहीं था। हाँ, अंग्रेज अवश्य ही इस आन्दोलन से भयभीत हो गये थे और इसलिए उन्होंने हिन्दुओं के साथ मित्रता बढ़ाना प्रारम्भ किया। मुसलमानों में नव-जागरण पैदा करने में सर सैयद अहमद खाँ का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने ‘अलीगढ़ आन्दोलन’ के माध्यम से मुसलमानों में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार किया। उन्होंने स्त्री-शिक्षा का भी प्रचार किया। वे पर्दा-प्रथा के विरोधी थे।
वास्तव में इन उपवर्णित आन्दोलनों ने राष्ट्रवाद की भावना को धार्मिक क्षेत्र में प्रकट किया। फरकुहर (Farquher) के शब्दों में, “राष्ट्रीय भावना की प्रेरणा के अन्तर्गत, नक्शा बदल गया। केवल धार्मिक ही नहीं, वरन् पूर्व की प्रत्येक बात को आध्यात्मिक और ऊँचा उठाने वाला बताकर गौरवान्वित किया गया जबकि पश्चिम की प्रत्येक वस्तुको अत्यधिक गिराने वाली और भौतिक कहकर निन्दा की गई।”
(3) पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति
(Western Education of Culture)
राष्ट्रीयता के उदय और विकास में पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति ने भी सहयोग दिया। सन् 1813 के चार्टर एक्ट के अनुसार यह निश्चित हुआ कि भारतीयों में शिक्षा-प्रचार के लिए एक लाख रुपया व्यय किया जायेगा। लार्ड विलियम बैटिंक के 7 पार्च सन् 1815 के प्रसिद्ध प्रस्ताव द्वारा भारत में पश्चिमी शिक्षा और विज्ञान के प्रसार की व्यवस्था की गई और शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा निश्चित की गई। यद्यपि प्रथम कानूनी सदस्य लार्ड मैकाले की नीति यह थी कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार कर “अंग्रेजी की आज्ञा को सर झुका कर पालन करने वाले लोगों का एक नवीन मार्ग बनाया जाय, जिसका अपने देशवासियों से कोई सम्बन्ध न रह जाय”, परन्तु कालान्तर में यह नीति अप्रत्यक्ष रूप में एक वरदान सिद्ध हुई। सरकार का यह पग भारतीयों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ, इसलिए कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार ने भारतीयों में जातीयता की भावना को उत्पन्न किया। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीयों को फ्रांस, जर्मनी, इटली, अमेरिका और यूनान के इतिहास को पढ़ने का अवसर मिला। लार्ड मैकाले का कुछ भी उद्देश्य रहा हो, यह सच है कि सर्वप्रथम अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों ने ही विभिन्न अधिकारों और स्वतंत्रता की मांग प्रारम्भ की। कहा नहीं जा सकता कि यदि अंग्रेजी शिक्षा को ग्रहण न किया गया होता तो स्वशासन प्राप्त करने में और कितने वर्ष लगते? डा० जकारिया का यह मत उल्लेखनीय है कि “अंग्रेजों ने 125 वर्ष पूर्व शिक्षा का जो कार्य प्रारम्भ किया था, उससे अधिक हितकर अन्य कार्य उन्होंने भारतवर्ष में नहीं किया। दादा भाई नौरोजी का मत भी इसी प्रकार का है। उनके मतानुसार, “अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा भारतवासियों को एक नया प्रकाश मिला, उसने यह बताया कि राजा प्रजा के लिए होता है प्रजा राजा के लिए नहीं।
सर अलफ्रेड लायल के कथनानुसार, “अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय मस्तिष्क को राष्ट्रीय चेतना से उद्वेलित किया और भारत की शिक्षित जनता अब यह कैसे स्वीकार कर सकती थी कि विदेशी सत्ता उनके हित में है।”
पाश्चात्य शिक्षा का योगदान
(1) भारतीयों में स्वाधीनता की भावना को जागृत करना- अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से पूर्व भारतीय स्वाधीनता के महत्व को नहीं समझते थे। सर्वप्रथम अंग्रेजी साहित्य ने भारतीयों में स्वाधीनता की भावना को जागृत किया। प्रसिद्ध कवि शैली ने अपनी रचनाओं द्वारा भारतीयों में अन्धविश्वास, निरंकुशता और अत्याचारों के विरुद्ध क्रांति करने की भावना उत्पन्न की। अंग्रेजी साहित्य के पठन-पाठन के परिणामस्वरूप शिक्षित भारतीयों में देश-प्रेम तथा उत्साह बढ़ा और उनमें मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने की इच्छा प्रबल हुई।
(2) अंग्रेजी विचारकों के सम्पर्क में आना- अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीयों ने पाश्चात्य राजनीतिशास्त्र और दर्शन का अध्ययन किया। रैमजे मैक्डोनल्ड का मत है कि पश्चिम की भारत को सबसे बड़ी देन है उसे राजनीतिक स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों से परिचित कराना। उन्होंने लिखा है कि हरबर्ट स्पेन्सर का व्यक्तिवाद तथा मोर्ले का उदारवाद वह शास्त्र है जिन्हें भारत ने हमसे छीन कर हमारे ही विरुद्ध प्रयुक्त करना प्रारम्भ कर दिया। डा० ईश्वरी प्रसाद के मतानुसार, “पश्चिम के राजनीतिशास्त्र विशेषज्ञ लॉक, स्पैंसर, मैकाले, जैम्स मिल और बर्क के लेखों ने केवल भारतीयों से राजनीतिक विचारों को ही प्रभावित किया, अपितु राष्ट्रीय आन्दोलन की रूपरेखा और संचालन पर भी गहरा प्रभाव डाला।”
“The political theory of west especially of Locke and Spencer and writings of Mill, Macaulay and Burke had a profound effect on their political thinking.”
-Dr. Ishwari Prasad.
(3) विचार स्वातन्त्र्य की भावना का उदय होना- अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार होने से भारतीयों को पाश्चात्य संस्कृति का ज्ञान हुआ और उनके विचार स्वातन्त्र्य की भावना का उदय हुआ। अंग्रेजी भाषा द्वारा भारतवासियों के पारस्परिक विचार-विनिमय करने के लिए एक माध्यम प्राप्त हुआ, जिसके फलस्वरूप भारतवासी एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में आये। इससे पूर्व भारत में एक राष्ट्र भाषा नहीं थी और इसके अभाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी संस्था की स्थापना असम्भव थी। अतः अंग्रेजी भाषा ने देश की राजनीतिक एकता को और भी सुदृढ़ किया।
(4) भारतीयों का विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने जाना- बहुत से भारतीय विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए गये। वहाँ की स्वतन्त्रता तथा भ्रातृभाव की भावनाओं ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। उनमें विदेशों की प्रजातांत्रिक संस्थाओं के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया और उनके हृदय में भी प्रजातन्त्रात्मक शासन स्थापित करने की भावना दृढ़ हुई। अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा ही भारतीयों का अंग्रेजों से सम्पर्क बढ़ा और दोनों पर एक-दूसरे के विचारों का अत्यधिक प्रभाव पड़ा।
स्मर्तय है कि पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय राष्ट्रवाद को बल प्रदान किया। श्री के० एम० पणिक्कर लिखते हैं, “सारे देश की शिक्षा पद्धति और शिक्षा का माध्यम एक होने से भारतीयों की मनोदशा पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनके विचारों तथा अनुभूतियों में एकरसता होना कठिन न रहा। परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीयता की भावना दिन-प्रतिदिन प्रबल होती गई।’
अंग्रेजों की शासकीय नीति
(Imperialistic Policy of Britishers)
अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति निन्दनीय थी। उन्होंने निम्नलिखित कार्य ऐसे किये जिससे जनता में असन्तोष हुआ।
(1) भारत का आर्थिक शोषण- मिस्टर गैरट का यह विचार कि “राष्ट्रीयता में शिक्षित वर्ग का अनुराग हमेशा ही कुछ हद तक आर्थिक और कुछ हद तक धार्मिक कारणों से हुआ है।” भारत में ऐसा ही हुआ है। अंग्रेजी शासन ने आर्थिक क्षेत्र में जिन नीतियों को लागू किया उन नीतियों ने ही भारतीयों में असन्तोष की वृद्धि की। उन्नीसवीं शताब्दी तक भारत के उद्योग-धन्धे पर्याप्त शक्तिशाली थे। भारत विदेशों को माल भेजता था परन्तु 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में इस क्षेत्र में बड़ा भारी परिवर्तन आ गया। सरकार ने ऐसी आर्थिक एवं व्यापारिक नीतियाँ अपनानी आरम्भ कर दी कि भारतवर्ष को अंग्रेजी कारखानों के लिए कच्चा माल खरीदने तथा इंगलैण्ड की बनी हुई वस्तुओं को बेचने की मण्डी बना लिया गया। भारतीय वस्तुयें जो विदेश जाती थीं उन पर भारी कर लगा दिये गये और विदेश से आने वाले माल पर धीरे-धीरे आयात कर में छूट दे दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि विदेशी मशीन से बने माल के साथ प्रतियोगिता न कर सकने के कारण भारत के उद्योग- धन्धे नष्ट होने लगे। भारत का धन विदेश (इंगलैण्ड) जाने लगा, जिससे इंगलैण्ड को अत्यधिक लाभ हुआ और भारत को विशेष क्षति पहुँची। भारत की प्राचीन दस्तकारियों का भी शनैः शनैः पतन हो गया। डा० पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि शासन की नीतियों ने पुरानी दस्तकारी व कला-कौशल को हानि पहुँचाई, भारत से खद्दर विदेशों में पर्याप्त मात्रा में था, जिसके बदले में जुलाहों आदि को धन मिलता था, पर लंकाशायर के कपड़े आने से यह समाप्त होने लगा तथा लगभग 20 लाख जुलाहे अपने कुटुम्ब के लोगों के सहित बेकार हो गये। तीन करोड़ सूत कातने वाले, जिनके कारण 20 लाख करघे चलते थे, बेकार हो गये। केवल कपड़ा उद्योग में इस प्रकार लगभग चार करोड़ आदमी बेरोजगार हो गये।”
उद्योग धन्धों एवं दस्तकारियों के पतन का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि उद्योग-धन्धों में काम करने वाले व्यक्तियों को कृषि की ओर आकर्षित होना पड़ा, परन्तु कुछ दोषों के कारण कृषि की दशा भी अच्छी न थी। सरकार ने कृषि की उन्नति की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। जमींदारी की प्रथा के कारण लोग भूमिहीन हो गये तथा लगान बढ़ने के कारण उनमें निर्धनता बढ़ती गई। इससे कृषकों की दशा दिन-प्रति-दिन शोचनीय होनी आरम्भ हो गई। इसलिए ड्यूक आफ अर्गिल ने, जो लार्ड नार्थ बुक (1872-76) के समय भारत के सचिव थे, लिखा है कि भारत की जनता में दरिद्रता और रहन-सहन का स्तर जितना तेजी से गिरता जा रहा है, उसका उदाहरण पश्चिमी जगत में नहीं मिलता है।
सरकार की साम्राज्यवादी नीति के कारण भारतीयों की दशा इतनी खराब हो गई कि 75% से अधिक व्यक्तियों को पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता था। अचानक फूट पड़ने वाले अकालों ने तो स्थिति को और भी गम्भीर बना दिया। सरकार ने अकाल पीड़ितों की सहायता के लिये जो पग उठाये वे इतने दोषपूर्ण थे कि उनसे भारतीयों का असन्तोष और अधिक बढ़ा। इन उपरोक्त परिस्थितियों ने भारतीयों के मन में विदेशी राज्य के प्रति बहुत अधिक घृणा भर दी और उन्हें उसकी साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी।
(5) जातीय भेदभाव की नीति-
(Policy of Racial Hatredness)
सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के पश्चात् विदेशी सरकार और शासितों के बीच की खाई अत्यधिक बढ़ती गई। यद्यपि 1852 में महारानी विक्टोरिया को घोषणा में भारतीय जनता को यह आश्वासन दिया गया था कि ब्रिटिश प्रजा की ही भाँति उसके साथ व्यवहार किया जायेगा, परन्तु यह सर्वमान्य तथ्य है कि व्यवहार में इस आश्वासन को पूरा नहीं किया गया। भारतीयों को अंग्रेजों की तुलना में तुच्छ समझा जाता था, इसलिए उच्च पदों से भारतीयों को वंचित रखा गया। यह भी उल्लेखनीय है कि I.C.S.परीक्षा में भारतीयों को सफल होता देखकर प्रतियोगी परीक्षा में प्रवेश की आयु 21 से हटाकर 19 वर्ष कर दी गई। इसका स्पष्ट उद्देश्य यही था कि भारतीय लोग जो शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं, इस परीक्षा में सफलता प्राप्त न कर सकें।
(6) लार्ड लिटन की अन्यायपूर्ण नीति-
1876-1878 तक दक्षिण भारत में भीषण अकाल पड़ा। हजारों लोग इसमें मर गये। पर ऐसे समय में भी गवर्नर जनरल लार्ड लिटन ने अकाल पीड़ितों की सहायता नहीं की। इसी दौरान दिल्ली में एक शानदार दरबार किया गया जिसमें घोषणा की गई कि महारानी विक्टोरिया ने भारत की साम्राज्ञी की उपाधि धारण की है।
भारतीय समाचार पत्रों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए 1878 में लार्ड लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट पारित कराया। इस ऐक्ट के द्वारा समाचार पत्रों पर अनुचित प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें ब्रिटिश शासन की बुराइयों को जनता तक पहुँचाने से रोका गया।
1878 में ही लार्ड लिंटन ने शस्त्र सम्बन्धी ऐक्ट (Arms Act) पारित कराया। इसके द्वारा भारतीय शस्त्र नहीं रख सकते थे।
लिंटन ने अफगानिस्तान युद्ध में ‘अनावश्यक रूप से सरकारी कोष में खर्च करके भारतीय आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। यह युद्ध दीर्घकाल तक लड़ा गया जो आवश्यक था। भारतीयों का इस युद्ध से सीधा सम्बन्ध नहीं था, इसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा करना था।
(7) भारतीय समाचार पत्र और साहित्य-
(Indian Press and Literature)
अंग्रेजों की अविश्वास तथा शोषण की नीति का भण्डाफोड़ भारतीय समाचार पत्रों ने किया । अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के साथ ही भारत में समाचार पत्रों और साहित्य के प्रकाशन में वृद्धि हुई। प्रारम्भ में ये समाचार पत्र अंग्रेजी में ही प्रकाशित होते थे, परन्तु शीघ्र ही वे भारत की विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित होने लगे। समाचार पत्रों व भारतीय साहित्य ने लोगों में किस प्रकार राष्ट्रीयता की भावना पैदा की और ब्रिटिश सरकार की किस प्रकार निर्भीक आलोधना की, यह इसी से स्पष्ट है कि 1878 में लार्ड लिटन ने समाचार पत्रों का मुँह बन्द करने के लिये बर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट पारित कराया। परन्तु भारतीयों के व्यापक विरोध के कारण लार्ड लिंटन ने इस एक्ट को रद्द कर दिया। 1890 से 1900 के मध्य लिखे गये साहित्य ने भी जनता का दृष्टिकोण प्रगतिशील व राष्ट्रवादी बनाया। आनन्द मठ ने भारतीयों को ‘वन्दे मातरम्’ का राष्ट्रीय गीत प्रदान किया। कुछ प्रमुख पत्रों, जिन्होंने कि राष्ट्रीयता के विकास में सहयोग दिया वे निम्नलिखित हैं- ‘अमृत बाजार पत्रिका’ (1868), पायनियर (1889), ट्रिब्यून (1877), केसरी और मराठा।
(8) भारतीय संस्कृति और सभ्यता का यशोगान-
(Praise of Indian Culture and Civilization)
अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करके कुछ भारतीय अवश्य ही अपनी वेशभूषा, संस्कृति और सभ्यता को भूल बैठे थे, परन्तु इसी दौरान यूरोप के अनेक विद्वानों ने भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करके इसे उच्च ठहराया जैसे मैक्समूलर, कीथ, कोलबुक, मोनियर, विलियम्स आदि। इस विद्वानों ने भारत की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की खोज करके भारतीयों में उसके प्रति प्रेम की भावना उत्पन्न की।
(9) इलबर्ट बिल विवाद
(Hibert Bill Controversy)-
विधि के शासन (Rule of Law) की दुहाई देने वाले अंग्रेजों की जाति विभेद नीति का एक स्पष्ट उदाहरण 1883 में देखा गया। लार्ड लिंटन के पश्चात् 1881 में लार्ड रिपन भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। वह एक योग्य और उदारवादी शासक था। वह भारतीयों को सन्तुष्ट करने के लिए अनेक कार्य करना चाहता था। उसने जो स्थानीय स्वशासन संस्थाओं की भारत में नींव डाली वह आज भी मौजूद है। उसने लिंटन के मूर्खतापूर्ण कार्यों को रद्द करके भारतीय जनता की सहानुभूति प्राप्त की। वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट को उसी ने समाप्त किया था। अफगान युद्ध को भी उसी ने समाप्त किया था।
लार्ड रिपन न्यायिक क्षेत्र में भी सुधार का पोषक था। सन् 1883 में अंग्रेजों का उसके प्रति रोष तीव्र हो गया। इसी वर्ष उसने अपनी कौंसिल के कानूनी सदस्य सर पी० सी० इलबर्ट को आदेश दिया कि वह सन् 1873 के दण्ड विधान में परिवर्तन करे। इस परिवर्तन के द्वारा वायसराय महोदय देश के फौजदारी दण्ड विधान में प्रचलित अति खटकने वाले जाति-भेद को समाप्त करना चाहते थे। अतः दण्ड विधान के परिवर्तन करने हेतु पी० सी० इलबर्ट ने एक प्रस्ताव भारतीय कौंसिल में प्रस्तुत किया। इसका उद्देश्य भारतीय न्यायाधीशों को योरोपियन अपराधियों के मुकदमे सुनने का सीमित अधिकार देना था परन्तु भारत में रहने वाले अंग्रेजों ने इसे शासक जाति का महान अपमान समझा और इसका अधिक विरोध किया। इसके विरोध में आन्दोलन का संगठन करने के लिये उन्होंने एक लाख से भी अधिक रुपयों का चन्दा किया। भारत और इंगलैण्ड में आन्दोलन के संगठन के लिये स्थान-स्थान पर सभायें की गईं और यह आवाज उठाई गई कि अब अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिल जायेगी।
यह भी कहा गया कि अंग्रेजों को अपमानित करने के लिए भारतीय काले न्यायाधीश अंग्रेजों को सख्त सजा देंगे। सर हेनरी कॉटन के अनुसार, “कलकत्ते के कुछ अंग्रेजों ने सरकारी भवन के संतरियों को वश में करके लार्ड रिपन को बाँधकर वापस इंगलैण्ड भेजने का षड्यन्त्र रचा।”
शीघ्र ही उनके इस आन्दोलन ने प्रबल रूप धारण कर लिया। रिपन इस आन्दोलन द्वारा बहुत बदनाम हो गये और उन्हें विधेयक के मूल रूप को समाप्त करना पड़ा। केवल भारतीय जिलाधीशों और सेशन जजों को ही योरोपियन अपराधियों के मुकदमों का फैसला करने का अधिकार दिया गया। परन्तु योरोपियन अपराधी अपने मुकदमे में जूरी बैठाने की माँग कर सकते थे, जिसमें लगभग आधे जज योरोपियन होते थे।
इस प्रकार इलबर्ट बिल पारित तो न हो सका परन्तु उससे भारतीयों की आँखें खुल गईं। इस बिल ने भारतवासियों को यह अनुभव करा दिया कि अंग्रेजों के मन में भारतवासियों के लिये बहुत अधिक सीमा तक विष भरा हुआ है। एम० सी० मजूमदार का कहना है कि “इस बिल ने भारतीयों को यह अनुभव करा दिया कि यदि राजनीतिक प्रगति वांछनीय है तो केवल एक राष्ट्रीय सभा द्वारा ही सम्भव है। इस सभा का सम्बन्ध विभिन्न प्रांतों की स्वतन्त्र राजनीति से न होकर देश को एक व्यापक राजनीति से होना चाहिये।”
उपरोक्त तत्वों ने भारतीय राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया और इस चेतना ने अखिल भारतीय कांग्रेस को जन्म दिया।
देश में राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना-
जब भारतीयों के हृदय में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति असन्तोष की भावना तीव्र हो गई तो कुछ भारतीयों के हृदय में एक अखिल भारतीय संस्था की स्थापना के विचार उठे। इससे पूर्व भी देश में विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हो चुकी थी। सन् 1866 में दादा भाई नौरोजी ने ईस्ट इण्डिया एसोसियेशन की स्थापना की तथा सन् 1870 में रानाडे ने सार्वजनिक सभा की स्थापना की। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इण्डियन एसोसियेशन की स्थापना की। इस संस्था ने बंगाल के शिक्षित वर्ग में राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
- भारतीय प्रमुख गवर्नर जनरल एवं वायसराय के कार्यकाल की घटनाएँ
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