कृष्ण काव्य की प्रवृत्तियाँ / कृष्ण भक्ति काव्यधारा की प्रमुख विशेषतायें (Krishan Kavay Ki Pravritiitiyan / Krishan Kavay Ki Visheshatayen)
कृष्ण काव्य की प्रवृत्तियाँ / कृष्ण काव्य की विशेषताएँ (Krishan Kavay Ki Pravritiitiyan / Krishan Kavay Ki Visheshatayen)
कृष्ण काव्य की प्रवृत्तियाँ
कृष्ण काव्य की रचना प्राय: उन भक्त कवियों के द्वारा की गई है, जो किसी-न-किसी संप्रदाय से जुड़े हुए थे, अत: कृष्णकाव्य में एकरूपता दिखाई नहीं पड़ती। कृष्णलीला का गान तो प्राय: इन सभी कवियों के द्वारा किया गया, परंतु राधा-कृष्ण के विषय में उनकी अपनी धारणाएँ एवं मान्यताएँ रही हैं, जो उनके संप्रदाय विशेष के अनुसार थीं। युगीन परिस्थितियों ने भी कृष्ण काव्य को किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित किया है। बल्लभाचार्य जी ने तत्कालीन मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से पीड़ित समाज की दुर्दशा के संदर्भ में एकमात्र श्रीकृष्ण को हो शरण-स्थल के रूप में स्वीकार किया। सूफियों के प्रेम तत्व को देखकर कृष्ण भक्त आचार्या ने अपनी भक्ति भावना में माधुर्य भाव का समावेश कर उसे जनता के लिए आकर्षक बनाया संक्षेप में कृष्णभक्ति काव्य की प्रवृत्तियों का विश्लेषण निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है-
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कृष्ण-लीला का वर्णन
कृष्ण भक्त कवियों ने राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अपने काव्य में प्रमुखता से किया है। विभिन्न संप्रदायों में दीक्षित इन भक्त कवियों ने श्रीकृष्ण के मधुर रूप की झाँकी अंकित करते हुए उनकी बाललीला एवं प्रेमलीला का चित्रण अपनी रचनाओं में किया है। मध्यकालीन कृष्णभक्त कवियों ने कृष्ण की लोकरंजनकारी लीलाओं को अपने काव्य का विषय बनाकर जनता को माधुर्य रस में आकंठ निमग्न कर दिया। इन्होंने कृष्ण के बाल जीवन एवं किशोर जीवन की लीलाओं का उन्मुक्त गान किया, यही कारण है कि समूचा भक्तिकालीन कृष्ण काव्य माधुर्यं भाव से ओत-प्रोत है। उस समय गोपाल कृष्ण की प्रेम लीलाओं का श्रवण, चिंतन एवं गायन कवि कर्म समझा जाने लगा था, इसीलिए भजन-कीर्तन करने वाले पद रचना करते हुए अनायास कवि बन गए । सूरकाव्य में कृष्ण की प्रेम लीलाओं का व्यापक वर्णन हुआ है। इनके अतिरिक्त चैतन्य संप्रदाय, हरिदासी संप्रदाय एवं निंबार्क संप्रदाय के कवियों ने भी माधुर्य भाव से ओत-प्रोत कृष्ण लीलाओं का गान करते हुए काव्य रचना की। कृष्ण की प्रेम लीलाएँ ही परवर्ती रीतिकालीन साहित्य में लौकिक शृंगार की प्रचुरता का कारण बनीं, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।
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प्रेमलक्षणा भक्ति
कृष्ण भक्त कवियों की भक्ति प्रेमलक्षणा भक्त है । श्रीकृष्ण की प्रेममयी मधुर रस से ओतप्रोत छवि को अपने काव्य का विषय बनाकर इन कवियों ने प्रेम तत्व का विशद निरूपण किया। संपूर्ण कृष्णकाव्य माधुर्य भाव से ओतप्रोत है। निंबार्क संप्रदाय में जहाँ स्वकीया भाव पर बल देते हुए राधा-कृष्ण के दाम्पत्य प्रेम का चित्रण किया गया है, वहीं चैतन्य संप्रदाय में परकीया-भाव में माधुर्य की चरम परिणति मानी गई है । कृष्णकाव्य में ‘रति’ भाव के तीनों प्रधान रूप-दाम्पत्य रति, वात्सल्य रति और भगवद् विषयक रति- उपलब्ध हो जाते हैं। कृष्ण-प्रेम में मर्यादा का पालन न तो कृष्ण भक्त कवियों को स्वीकार था और न ही उनकी गोपियों को। इसीलिए लोक और वेदों में वर्णित सामाजिक विधि-निषेध कृष्ण के प्रेम में तिरोहित कर दिए गए हैं। कृष्ण भक्त कवियों ने प्रेम भावना के नबीन आयाम उद्घाटित कर जनता को प्रेम रस में सराबोर कर दिया है। इन कवियों में वात्सल्य, सख्य और माधुर्य के क्षेत्र में कृष्ण लीलाओं का गान करते हुए अपनी भक्ति भावना का परिचय दिया। यद्यपि कुछ कृष्ण भक्त कवियों ने विनय से युक्त दास्य भाव के पद भी लिखे हैं किंतु परिमाण की दृष्टि से माधुर्य भाव के पद ही अधिक लिखे गए। कृष्ण भक्ति काव्य में कांताभाव की भक्ति को विशेष महत्व दिया गया और उसमें भी परकीया भाव को प्रमुखता दी गई, क्योंकि इसे वे आदर्श प्रेम स्वीकार करते हैं ।
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सौंदर्य चित्रण
संपूर्णं कृष्ण काव्य प्रेम, सौंदर्य एवं श्रृंगार रस से ओत-प्रोत है। मानव सौंदर्य, प्रकृति सौंदर्य एवं भाव सौंदर्य से आप्लावित कृष्ण काव्य जन मन को अनुरंजित करने में पूर्ण समर्थ है। कवियों ने कृष्ण के बाल सौंदर्य की झाँकी अंकित करने के साथ-साथ राधा-कृष्ण के किशोर सौंदर्य का भी हृदयग्राही वर्णन किया है । उनकी प्रणय क्रीड़ाएँ अपूर्व सौंदर्य से समन्वित हैं। यही नहीं ब्रज भूमि की सुषमा का चित्रण भी कृष्ण काव्य में किया गया है। राधा-कृष्ण की विहार स्थली, पावन यमुना तट, वृंदावन, मधुवन, कुंज और कछार कृष्ण काव्य में सर्वत्र व्याप्त हैं। कृष्ण के सौंदर्य मंडित शरीर का वर्णन इन कवियों ने बड़ी तन्मयता से किया हैं-
सोभा कहत कही नहिं जावै।
अँचवत अति आतुर लांचनपुट मन न तृप्ति कौं पावै।
प्रति प्रति अंग अनंग कोटि छबि सुनि सखि परम प्रवीन।
सूरदास जहं दृष्टि परति है होत तहीं लव लीन।।
राधा भी अपूर्व सुषमा से मडित हैं और उनकी अनिर्वचनीय शोभा मन को आह्लादित करने में समर्थ है निम्न पंक्तियों में राधा के सौंदर्य को देखा जा सकता है-
काम कमान समान भौह दोउ चंचल नैन सरोज।
अलि गंजन अंजन रेखा के बरसत बान मनोज।।
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प्रकृति चित्रण
कृष्ण काव्य का केंद्र हैं-श्रीकृष्ण और उनकी लीला स्थली है ब्रजभूमि , जो अपने अनंत सौंदर्य के लिए विख्यात रही है। यही कारण है कि कृष्णभक्त कवियों ने जहाँ राधा-कृष्ण के सौंदर्यं का चित्रण किया है. वहीं उनकी विहार स्थली ब्रजभूमि की अनंत सुषमा का निरूपण भी अपनी रचनाओं में किया है। भाव प्रधान होने से कृष्ण काव्य में प्रकृति चित्रण उद्दीपन रूप में अधिक हुआ है आलंबन रूप में बहुत कम, परंतु दृश्यमान जगत का कोई भी सौंदर्य उनकी आँखों से टूटा नहीं है। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा के शब्दों में ” पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश, जलाशय, वन प्रांत, यमुना-कूल तथा कुंजभवन की संपूर्ण शोभा इन कवियों ने प्रत्यय या परोक्ष रूप में नि:शेष कर दी है।” भाव की पृष्ठभूमि में किया गया प्रकृति चित्रण भी अत्यंत हृदयग्राही बन पड़ा है। वियोग व्यथित गोपियों को अब यमुना व्यर्थ में बहते हुए, भौरे व्यर्थ में गुंजार करते हुए तथा कमल व्यर्थ में ही पुष्पित होते हुए जान पड़ते हैं। पहले जो लताएँ अति सुंदर लगती थीं अब मन को दग्ध करती हैं –
तब ये लता लगति अति सीतल,
अब भईं विषम ज्वाल की पुजै।
इन कवियों ने मानव प्रकृति को चित्रण करने में भी अपनी सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का परिचय दिया है।
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रस योजना
कृष्ण काव्य का मूल प्रतिपाद्य है-कृष्ण की बाललीला एवं प्रणय क्रीड़ाओं का चित्रण, अतः विषयवस्तु के अनुसार उसमें वात्सल्य एवं श्रृंगार रस की प्रधानता है। इन दोनों रसों का पूर्ण परिपाक कृष्ण भक्ति साहित्य में हुआ है। सूरदास वात्सल्य के सम्राट कहे जाते हैं, क्योंकि उन्होंने बाल मनोभावों का ऐसा हृदयगाही वर्णन अपने पदों में किया है, जो अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं पड़ता। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूरदास के बात्सल्य वर्णन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है-“बालकृष्ण की चेष्टाओं के चित्रण में कवि कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देता है। न उसे शब्दों की कमी होती है, न अलंकार की, न भावों की और न भाषा की।” ‘मैया मैं नहिं माखन खायो’ तथा ‘मैया कबहि बढ़ैगी चोटी’ जैसे पदां का माधुर्य सूर के वात्सल्य वर्णन की विशेषताओं को उजागर करने में पूर्ण समर्थ है । संयोग और वियोग श्रृंगार की सुंदर योजना भी सूर एवं अन्य कृष्ण भक्त कवियों के काव्य में हुई है। राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं के चित्रण में सूर ने अपनी समस्त प्रतिभा एवं काव्य कुशलता का परिचय दिया है। भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियों के विरह का अत्यंत मनौवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। मीरा, सूर तथा नंददास ने वियोग श्रृंगार के अत्यंत मार्मिक चित्र अपने काव्य में अकित किए हैं।
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रीति तत्व का समावेश
कृष्ण काव्य में श्रृंगार वर्णन के साथ साथ रीति तत्व का समावेश भी हो चला था। कवियों ने नायिका-भेद एवं अलंकार-निरूपण करना प्रारंभ कर दिया था। सूरदास एवं नंददास की कृतियों में रीति तत्व का यह समावेश प्रचुरता से है। सूरदास ने ‘साहित्य लहरी’ में नायिका भेद एवं अलंकार-वर्णन किया हैं जबकि नंददास कृत ‘रस मंजरी’ में नायिका भेद, हाव-भाव, रति आदि का विशद निरूपण किया गया है । नंददास का एक अन्य रीतिपरक ग्रंथ हैं-‘विरह मंजरी’ जिसमें विरह के काव्यशास्त्रीय भेद समझाए गए हैं। श्रीकृष्ण की शोभा को लेकर नख-शिख वर्णन की परंपरा भी चल रही थी और उसी का आधार लेकर ऋतु वर्णन भी आरंभ हो गया था। इस प्रकार कृष्ण भक्ति में ही रीतिशास्त्र का परिशीलन होने लगा। इस संबंध में अपना मत व्यक्त करते हुए
डॉ. रामकमार वर्मा ने लिखा है-“कृष्ण काव्य का वर्ण्य विषय कृष्ण भक्ति में ही सीमित न रहकर नख-शिख, ऋतु वर्णन और नायिका भेद में विस्तार पाने लगा। इस समय भाषा परिमार्जित हो गई थी, अतः अलंकार योजना भी भाषा के साथ होने लगी थी।
रीतिकाल में प्रचुरता से जिस रीति तत्व का निरूपण हुआ उसका बीज निश्चित रूप से कृष्ण भक्ति काव्य में उपलब्ध है।
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काव्य रूप
कृष्ण-काव्य जीवन के एक सीमित पक्ष को लेकर ही चला अत: उसमें महाकाव्योचित उदात्तता एवं व्यापकता दिखाई नहीं पड़ती। कृष्ण के किशोर जीवन एवं बाल-जीवन की लीलाओं का विशद चित्रण तो उसमें हुआ है, परंतु महाभारत के योगेश्वर कृष्ण जो राजनीति विशारद एवं धर्मरक्षक हैं उनका चित्रण कृष्ण भक्ति काव्य में प्राय: नहीं हुआ है। जीवन के प्रेम पक्ष को लेकर लिखे गए इस काव्य में मधुरता, सरसता, रागात्मकता तो है किंतु उदात्तता, गरिमा एवं भव्यता के स्तर पर वह राम काव्य से तुलना नहीं कर सकता। यही कारण है कि रामभक्त कवियों ने जहाँ प्रबंधकाव्य की रचना की वहीं कृष्णभक्त कवियों ने मुक्तक काव्य की रचना की। कृष्णलीला के जिस विषय को लेकर ये कविं अग्रसर हुए बह वस्तुत: गीति एवं मुक्तक शैली के लिए ही उपयुक्त था।
यद्यपि इस काल में कृष्ण के जीवन को आधार बनाकर कुछ प्रबंध काव्य भी लिखे गए यथा- भंवरगीत , रास पंचाध्यायी, सुदामा चरित, रुक्मिणी मंगल आदि, तथापि प्रधानता मुक्तक काव्य की ही रही है। प्रबंध रचना के लिए जो व्यापक दृष्टि एवं संबंध निर्वाह कवि के लिए अपेक्षित है, उसका अभाव इस काल के कवियों में देखा जा सकता है।
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भाषा शैली
संपूर्ण कृष्ण काव्य ब्रजभाषा में लिखा गया है। भाषा की दृष्टि से कृष्ण भक्त कवि अत्यंत समर्थ एवं सशक्त माने जाते हैं। सूरदास की ब्रजभाषा परिनिष्ठित एवं साहित्यिक है तथा उसमें प्रत्येक मनोभाव को सफलतापूर्वक व्यक्त करने की क्षमता है। उनकी ब्रजभाषा अपनी कोमलता, सरसता, माधुर्य एवं पदलालित्य के कारण व्यापक काव्य भाषा के रूप में प्रतिप्ठित हो चुकी थी और कई सौ वर्षों तक काव्यभाषा के पद पर प्रतिप्ठित रही। ब्रज की लोक प्रचलत भाषा को व्यापक काव्यभाषा बनाकर इन्होंने अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। नंददास को भी ब्रजभाषा का अच्छा ज्ञान था। इसीलिए उनके संबंध में कहा जाता है-‘नंददास जड़िया’। इन कवियों की भाषा की जड़ें लोकभाषा में निहित रही हैं। भाषा में लोक प्रचलित मुहावरों एवं सूक्तियों का भी सुंदर समावेश करते हुए इन्होंने अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान की है।
ब्रजभाषा की व्यापक प्रतिष्ठा हो जाने पर भी इस समय तक उसका कोई परिमार्जित व्याकरण सम्मत स्वरूप स्थिर नहीं हो पाया था। यही कारण है कि कवियों ने मनमाने प्रयोग करते हुए शब्दों को इच्छानुसार तोड़ा-मरोडा है तथा लिंग संबंधी गड़बड़ी कर दी है। मीरा की भाषा पर राजस्थानी प्रभाव है जबकि रसखान की भाषा शुद्ध ब्रजभाषा है।
कृष्ण भक्त कवियों ने प्रायः गीति शैली का प्रयोग किया है । संगीतात्मकता, भावात्मकता, बैयक्तिकता, कोमलकांत पदावली जैसे गीतिं तत्वों का समावेश इनकी रचनाओं में मिल जाता है। सूर आदि समर्थ कवियों के पदों में अनूठी भाव व्यंजकता, बक्रता, लाक्षणिकता के कारण शैलीगत प्रौढृता भी दिखाई पड़ती है।
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अलंकार एवं छंद
सूरदास, नंददास, रसखान एवं मीरा कृष्ण भक्त कवियों में अग्रगण्य हैं। इनके काव्यों में अलंकारों की मनोहारी सुषमा देखी जा सकती है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विभावना, असंगति, प्रतीक आदि अलंकारों का सौंदर्य इनके काव्य में यत्र-तत्र देखा जा सकता है। यह अलंकार निरूपण न तो चमत्कार प्रदर्शन के लिए है और न ही प्रयत्न साध्य है, अपित भाव व्यंजना के लिए आवश्यक होने पर ही अलंकारों का सहारा लिया गया है। इन कवियों का सादृश्य विधान भी अत्यंत सशक्त एवं सुंदर बन पड़ा है।
कृष्ण भक्त कवियों ने प्राय: पद लिखे हैं। सूरसागर में पदों की प्रधानता है। नंददास ने रूप मंजरी तथा रास मंजरी में दोहा-चौपाई का प्रयोग किया है। रसखान ने कवित्त और सबैये लिखे हैं। कुंडलिया, गीतिका, अरिल्ल जैसे कुछ अन्य छंदों का प्रयोग भी कृष्ण काब्य में हुआ है।
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