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एक दुराशा निबन्ध का सारांश | बालमुकुन्द गुप्त की भाषा-शैली

एक दुराशा निबन्ध का सारांश | बालमुकुन्द गुप्त की भाषा-शैली

एक दुराशा निबन्ध का सारांश

भंग की तरंग में मस्त शिवशम्भु के मानसिक घोड़े वा से कुलांचे भर रहे थे कि उनके कानों में एक सुरीले गाने के बोल ‘चलो-चलो आज खेलें होली कन्हैया के घर’ पड़ गये। गाने की आवाज सुनकर शिवशम्भु बाहर आये तो ज्ञात हुआ कि पड़ोस के धनी सज्जन के घर गीत संगीत की महफिल जमी हुई है। वर्षा की बूंदों में होली का यह गीत सुनकर उनका मन स्थिति के विपरीत होने पर गया परन्तु फिर गीत के बोलों में अटक गया कि होली खेलने वाले साधारणजन ग्वाल-बाल हैं और कन्हैया उनके राजा के पुत्र-राजकुमार हैं। इतना सोचते ही भंग की तरंग में उड़ने वाले उनके मन में एक और विचार आया कि क्या भारत में इतनी आदर्श सामाजिकता थी कि राजा व राजकुमारादि साधारणजनों के साथ होली खेलते थे और आनन्द मानते थे। शर्मा जी ने सोचा कि उनका राजा तो इंग्लैण्ड में है, लेकिन उसका राजा प्रतिनिधि जरूर भारत में है, तो वे उस प्रतिनिधि के साथ होली नहीं खेल सकते क्या? और तुरन्त ही उन्हें ध्यान आया कि यह ख्याल वर्षा में होली खेलने के समान ही बेतुका है। क्योंकि राजा, राजप्रतिनिधि तक जनता की बात ही नहीं पहुंच सकती, स्वयं प्रजा का पहुंचना और फिर होली खेलना एकदम असंभव बातें हैं। राजा, प्रतिनिधि- मार्डलार्ड ने प्रजा की बात समझते हैं न प्रजा उनकी। परन्तु माईलाई को उनके कर्त्तव्य की याद दिलाकर सूर्य को दीपक कौन दिखाये?

जो माईलार्ड भारत का कोना-कोना जानने का, जनता का दुःख, दर्द समझने का और जनता की भावनाओं का सम्मान करने का दावा करते थे वे सम्भवतः कलकत्ता की एक दो सुन्दर सड़कों व ठाट-बाट से भरपूर मोहल्लों के भ्रमण से ज्यादा कुछ नहीं जानते होंगे और बहुत हुआ तो शिकार अथवा दौरे पर की गयी यात्राओं से भारत का कोना-कोना जानने का मिथ्या दावा करते थे। जो साहब जनता के दुखदर्द को समझने की बातें करते थे उन्होंने शायद अपने बेयरा, खानसामा, सईस आदि देशी नौकरों से कभी उनकी स्वयं की ही खैरियत भी न पूछी होगी। जन आकांक्षाओं व भावनाओं के सम्मान की बात का खोखलापन कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में स्पष्ट हो गया था। माईलाई के छः साल के शासन के दौरान लाखों लोगों द्वारा कलकत्ता में ही विकट दारिद्रय में जीवनयापन किया जा रहा है। पशु से भी ज्यादा असम्मानित जीवन जीने को वे बाध्य हैं। लाखों लोगों को भुखमरी के कगार पर जीवन जीना पड़ रहा है, फुटपार्थों पर रहना और सोना पड  रहा है। ऐसे भी मोहल्ले इसी कलकत्ता में हैं जहाँ चीकटों में लिपटे, गंदगी मे जीवनयापन करते हुए लाखों लोग ऐसे भी हैं जो बाढ़, भुखमरी, अकाल, महामारी आदि आपदाओं में मृत्युग्रास बनने को तत्पर रहते हैं। ऐसे लोगों को क्या पता कि उनका कोई राजा है या रानी, और इतना यदि ज्ञात भी रहा तो उनके राजप्रतिनिधि भी हैं ये तो किसी दशा में नहीं ज्ञात हो सकता। तो ऐसे राजा या राज प्रतिनिधि से कौन जायेगा होली खेलने। शर्मा जी सोचते हैं कि अब वे जमाने बीत गये जबकि राजा महाराजा जनता के बीच आते थे उनका हाल-चाल पूछने, दुःख दर्द, दूर करने। आज के युग में प्रजा मात्र गूंगी होकर रह गयी है। अंग्रेजी के दमन और आतंक विरुद्ध कुछ भी नहीं बोल सकती ।

बालमुकुन्द गुप्त की भाषा-शैली –

राजनैतिक विषयों को व्यंग्यात्मक शैली में सजीव और शक्तिशाली चित्रित हुए निबंध ‘एक दुराशा’ में समाज को उद्वेलित करने की पूर्ण शक्ति है। सरल, सुबोध और प्रभावपूर्ण भाषा में उर्दू और हिन्दी के देशज शब्दों का प्रयोग किया गया है। छोटे-छोटे वाक्यों द्वारा भावों की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में लेखक सफल हुआ है। व्यंग्यात्मक शैली होने के कारण भाषा विनोद पूर्ण, सरस होने के साथ ही बोधगम्य है। कनरसिया, खिलैया, लाठों आदि देशज और जाफरानी खयाली ताल अरज, महफिल, सुरीली बेतुका आदि उर्दू (उर्दू शैली के प्रभाव स्वरूप) और माईलार्ड, यूनिवर्सिटी, चांसलर, ड्यूटी, गवर्नमेंट हाउस, मिमोरियल हाल आदि अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भाषा को एक सरस प्रवाह मिलता है जो पाठक को आनन्दित कर देता है। छोटी घटनाओं को हास्य-व्यंग्य की शैली में प्रस्तुत कर लेखक पाठक को मर्माहित कर देता है- “इस देश में करोड़ो प्रजा ऐसी है जिसके लोग जब संध्या-सबेरे किसी जगह पर एकत्र होते हैं तो महाराज विक्रम की चर्चा करते हैं और उन राजा-महाराजाओं की गुणावली का वर्णन करते हैं जो प्रजा का दुःख मिटाने और उनके अभावों का पता लगाने के लिए रातों को वेश बदलकर निकला करते थे। “और” किसी काले प्यादे, चपरासी या खानसामे आदि से कभी आपने पूछा कि कैसे रहते हो?” जीवन और मृत्यु के लम्बे संदर्भ को कितने सरल शब्दों में निरूपित किया गया है कि पाठक हतप्रभ रह जाता है- “सारांश यह कि हरेक वस्तु की तीव्रता में सबसे आगे मृत्यु के पथ का ही अनुगमन करते हैं।” पराधीन भारत के प्राचीन गौरव का विखंडित रूप सहजता से पाठक के मानस पटल पर घूम जाता है। भावाभिव्यक्ति को नया आयाम मुहावरों व लोकोक्तियों द्वारा मिल गया है। यथा-बात की हवा, सूर्य को दीपक दिखाना आदि।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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