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पारिभाषित शब्द | पारिभाषिक शब्द के प्रकार | पारिभाषित शब्दों की आवश्यकता

पारिभाषित शब्द | पारिभाषिक शब्द के प्रकार | पारिभाषित शब्दों की आवश्यकता

पारिभाषित शब्द

भारतीय भाषा वैज्ञानिकों ने भी परिभाषिक शब्दों को समझने की कोशिश की है। मशहूर कोश विज्ञानी डॉ. रघुवीर ने पारिभाषिक शब्द को परिभाषित करते हुए लिखा है- “पारिभाषिक शब्द किसको कहते हैं, जिसकी परिभाषा की गयी हो। पारिभाषिक शब्द का अर्थ है जिसकी सीमाएं बाँध दी गयी हों। जिन शब्दों की सीमा बाँध दी जाती है, वे पारिभाषिक शब्द हो जाते हैं और जिसकी सीमा नहीं बांधी जाती, वे साधारण शब्द होते हैं।” यानी डा. रघुवीर के अनुसार पारिभाषिक शब्दों की तीन विशेषताएँ हैं-

(1) परिभाषिक शब्द वह है जिसकी परिभासा की गयी है। (2) पारिभाषिक शब्द वह है जो विशिष्ट अर्थ में बांध दिया गया है। (3) पारिभाषिक शब्द वह है जो सामान्य से अलग अपनी पहचान रखता है। लकिन मशहूर भाषा वैज्ञानिक डॉ. भोलानाथ तिवारी ने पारिभाषिक शब्द को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है-

“पारिभाषिक शब्द ऐसे शब्दों को कहते है, जो रसायन, भौतिकी, दर्शन, राजनीति आदि विभिन्न विज्ञानों या शास्त्रों के साथ होते है। अर्थ और प्रयोग की दृष्टि से निश्चित रूप से परिभाषित होने के कारण ही ये शब्द पारिभाषिक शब्द कहे जाते हैं।”

पारिभाषिक शब्द के प्रकार

प्रयोग के आधार पर पारिभाषिक शब्द तीन प्रकार के होते हैं-

  1. 1. सामान्य इसके अन्तर्गत साधारण व्यवहार में किये गये शब्दों के प्रयोग को लिया जा सकता है, जैसे पंतग, दाँत, बुखार, हृदय, सत्य आदि।
  2. अर्द्ध पारिभाषिक- इसके अन्तर्गत वे शब्द आते हैं जो पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त होते हैं और सामान्य अर्थ में भी। जैसे, संधि। संधि सुलह भी है और वर्गों की संधि की।

3.पूर्ण पारिभाषिक- इसके अन्तर्गत वे शब्द आते हैं जो पूर्ण रूप से पारिभाषिक होते हैं, जैसे-ध्वनि, ग्राम, दशमलव, हिमोग्लोबीन।

यहाँ पारिभाषिक शब्दो की चुनिंदा विशेषताएँ दी जा रही हैं-

  1. उच्चारण की दृष्टि से पारिभाषिक शब्दों को सरल होना चाहिए, ताकि इनके प्रयोग में प्रयोगकर्ताओं को कोई परेशानी न हो।
  2. यदि पारिभाषिक शब्द किसी दूसरी भाषा से लिया जाये तो ‘अनुकूलन पद्धति के तहत उसे अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेने में कोई बुराई नहीं, जैसे अंग्रेजी के ‘एकेडमी’ शब्द को हिन्दी में ‘अकादमी’ लिखने और बोलने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।
  3. परिभाषिक शब्द का अर्थ सुनिश्चित होना चाहिए यानी उसका एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाना चाहिए।
  4. मूल पारिभाषिक शब्दों में जनन शक्ति अनिवार्य है, ताकि आवश्यकतानुसार उनमें उपसर्ग, प्रत्यय या शब्द जोड़कर अन्य सम्बद्ध शब्द बनाये जा सकें।
  5. समान श्रेणी के शब्दा में एकरूपता रहनी चाहिए जैसे ताप के साध तापमापी का प्रयोग ताप के साथ थर्मामीटर से बेहतर लगता है, बशर्ते प्रचलन में लाया जाये।
  6. पारिभाषिक शब्दों में संक्षिप्तता के साथ-साथ सांकेतिकता का गुण भी होना चाहिए ताकि थोड़े संकेत में भी उस शब्द का पूरा अर्थ निकल सके उदाहरण भारत टाइम्स के लिए नयाटा।

पारिभाषित शब्दों की आवश्यकता

ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में निरन्तर चिंतन एवं अनुसंधान के परिणामस्वरूप नये-नये सिद्धान्तों और संकल्पनाओं का जन्म होता रहता है। साथ ही साथ विज्ञान और तकनीक के विकास के कारण नई-नई वस्तुओं का निर्माण भी होता रहता है। इन संकल्पनाओं और वस्तुओं को, इनकी निश्चित अर्थवत्ता के साथ व्यक्ति करने के लिए पारिभाषिक शब्दों की आवश्यकता पड़ती है। ज्ञान-विज्ञान का यह चिंतन जिस भाषा में मूल रूप से होता है वहाँ तो उसे व्यक्त करने वाले पारिभाषिक शब्द भी सहज रूप में विकसित होते रहते हैं, किन्तु जहाँ चिंतन किसी अन्य भाषा में ग्रहण किया जाता है, वहाँ यह समस्या उत्पन्न होती है कि उसे यथावत् रूप में व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द कहाँ से लाये जाएँ। आधुनिक काल में अब हिन्दी ने, अंग्रेजी में विकसित, शास्त्रीय ज्ञान को ग्रहण करना आरम्भ किया, तो उसके सामने भी पारिभाषिक शब्दावली के अभाव की यही समस्या आई। नई संकल्पनाओं एवं वस्तुओं आदि से सम्बद्ध पारिभाषिक शब्दों के इस अभाव को हमने अनेक स्त्रोतों से पूरा किया है, जिनमें प्रमुख निम्नांकित हैं-

(क) अपनी प्राचीन भाषाओं से सम्बद्ध शब्द लेकर- जैसे तस्कर (स्मगलर) तथा मन्त्री (मिनिस्टर) आदि। ऐसे शब्दों में कुछ तो नया अर्थ भरा गया है (जैसे आकाशवाणी) तथा कुछ के अर्थ को सीमित (जैसे-संसद) कर दिया गया है।

(ख) आम बोलचाल की भाषा में प्रचलित (या निर्मित) शब्दों को लेकर- जैसे दलबदलू (डिफेण्टर), घुसपैठिया (इनफिल्ट्रेटर) तथा फिरौती आदि।

(ग) प्रान्तीय भाषाओं के शब्द ग्रहण करके- उदाहरण के लिए ग्रीनरूम तथा इस्टेब्लिशमेंट के लिए हिन्दी में औत्साहिक, साजगृह तथा प्रतिष्ठान क्रमशः तेलगू, बंगला तथा कन्नड़ में लिये गये हैं।

(घ) विदेशी भाषाओं के शब्द ग्रहण करके- किसी संकल्पना या पदार्थ के लिए अपनी भाषा में पारिभाषिक शब्द न होने पर विदेशी भाषाओं से भी शब्द ग्रहण कर लिये जाते हैं। ये शब्द कभी तो ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिये जाते हैं, जैसे-वाट, वोल्ट, मीटर, लीटर पेट्रोल, विटामिन, एक्स-रे, बोनस, बनाकर (जैसे त्रासदी अकादमी, तकनीक तथा अन्तरिम आदि)।

हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली के अभाव में केवल एक छोटे से अंश की ही पूर्ति, उपर्युक्त स्त्रोतों से हो सकी है। शेष के लिए हमें विभिन्न आधारों पर नये शब्द बनाने पड़े हैं।

वास्तव में हिन्दी को समृद्ध बनाने तथा ज्ञान-विज्ञान, चिन्तर, अनुसंधान, नवीन प्रौद्योगिकी व विविध क्षेत्रों में अभिव्यक्ति, शब्द-भण्डार व अर्थबोध वृद्धि से पारिभाषिक शब्दों की आवश्यकता  और महत्व को समझा और आंका गया। फलतः पारिभाषिक शब्दों की रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ और आज की रचना प्रक्रिया निरन्तर है जिसमें फलस्वरूप हिन्दी के क्लेवर में निरन्तर वृद्धि हो रही है और वह आज विश्व की सम्पन्न भाषाओं के रूप में उभरकर सामने आ रही है।

जहाँ तक पारिभाषिक शब्दावली के निर्धारण का प्रश्न है, तो इसके निर्धारण में चार प्रकार की पद्धतियाँ काम में लायी जाती हैं-

(1) ग्रहण, (2) अनुकूलन, (3) संचयन, (4) निर्माण।

  1. ग्रहण (Acceptability)- इस पद्धति के अन्तर्गत यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित पारिभाषिक शब्दों को अपनी भाषा में ज्यों-का-त्यों ग्रहण करने का सुझाव दिया जाता है और बतौर फायदे के पहला तर्क यह दिया जाता है कि इससे नयी शब्दावली गढ़ने में जो अतिरिक्त श्रम, समय तथा व्यय होगा, वह बचेगा साथ ही दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि अंग्रेजी की शब्दावली क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय पारिभाषिक शब्दावली है, इसलिए इसे अपनाने से वैज्ञानिक, औद्योगिक तथा प्राविधिक क्षेत्रों में पूरी दुनिया से हमारा सहज संवाद और सम्बन्ध बन जाएगा, लेकिन भाषा वैज्ञानिकों का एक तबका ऐसा है जो नवीन पारिभाषिक शब्द संरचना की प्रक्रिया में ‘ग्रहण’ करने के नाम पर यूरोपीय शब्दावली को अन्तर्राष्ट्रीय शब्दावली कहकर भारतीय भाषाओं में घुसेड़ने का विरोध करता है, लेकिन ऐसे शब्दों को स्वीकार करने में उसे कोई उज्र नहीं जो हमारी भाषा में वर्षों से प्रयोग के कारण घुल-मिल गये हैं।
  2. अनुकूलन (Adaptability)- अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिसके तहत विदेशी शब्दावली को अपनी भाषा की ध्वनि एवं व्याकरणिक विशेषताओं के अनुकूलन ढाल लिया जाता है, जैसे अंग्रेजी का शब्द है। अंग्रेजी का ‘एकेडमी’ हिन्दी में ‘अकादमी’ खूब चल गया है, अंग्रेजी का ‘अपीलेट’ हिन्दी में अपीलीय सरकारी दफ्तरों के लिए चौंकाने वाला नहीं रहा। ऐसे कितने की शब्द हैं जिनकी लम्बी फेहरिस्त बनायी जा सकती है।
  3. संचयन (Collection)- संचयन से तात्पर्य इकट्ठा करने से है यानी इसके तहत भारतीय भाषाओं, उप-भाषाओं तथा बोलियों के उपयुक्त, अछूते शब्दों का पारिभाषिक रूप में संचय और प्रयोग किया जाना चाहिए।
  4. निर्माण (Creation)- पारिभाषिक शब्दों का निर्माण हिन्दी के लिए सबसे बड़ चुनौती है, क्योंकि आखिर कब तक हम विदेशी शब्दावली पर निर्भर रह सकते हैं या ग्रहण, अनुकूलन व संचयन से काम चला सकते हैं। पारिभाषिक शब्दावली की अपनी सम्पदा तो होनी ही चाहिए, लेकिन इसका निर्माण सरल कार्य नहीं है। बकौल श्री विनोद गोदरे यह सिर्फ चीनी, ग्रीक, लैटिन तथा संस्कृत में ही सम्भव है क्योंकि धातु, उपसर्ग एवं प्रत्यय ही ऐसे महत्वपूर्ण तत्त्व हैं जिनसे शब्द निर्माण की प्रक्रिया सरल हो जाती है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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