राजनीति विज्ञान / Political Science

मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त | मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य और वर्ग संघर्ष के सिद्धान्तों की समालोचना | मार्क्स के पूँजीवाद के विनाश के कारण

मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त | मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य और वर्ग संघर्ष के सिद्धान्तों की समालोचना | मार्क्स के पूँजीवाद के विनाश के कारण

मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त

(Theory of Class Struggle)

मार्क्स ने अपनी इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयल किया है कि मानव समाज में हमेशा से ही दो विरोधी वर्ग रहे हैं-शोषक वर्ग एवं शोषित वर्ग | आदिम युग के पश्चात् जब दास युग आया तो ये वर्ग बने और समाज में शोषण आरम्भ हुआ। तब से लेकर अब तक किसी न किसी रूप में ये दोनों वर्ग समाज में रहे हैं। इन वाँ के परस्पर विवाद एवं संघर्ष के द्वारा ही इतिहास के विकास का क्रम आगे बढ़ा है। मार्क्स का वर्म-संघर्ष का सिद्धान्त उसकी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism) की धारणा के अन्तर्गत ही आता है। वह अपने वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त के आधार पर ही समाज में विरोधी वर्गों के अस्तित्व, साम्यवादी कार्यक्रम एवं भावी युग का चित्र उपस्थित करता है। उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘साम्यवादी घोषणा पत्र’ (Communist Manifesto) में लिखा है, “अब तक का मानव समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है। स्वामी तथा दास, पेट्रोशियन तथा प्लेवियन, बैरन तथा सर्प-गिल्ड कास्टर तथा जनीमैन, अर्थात् शोषक तथा शोषित सदा से. ही एक-दूसरे के विरुद्ध रहे हैं। उनमें निरन्तर रूप से संघर्ष जारी रहा है तथा इसी संघर्ष के परिणामस्वरुप क्रान्तिकारी समाज का पुनः निर्माण होता आया है अथवा दोनों विरोधी वर्ग का विनाश हुआ है।”

मार्क्स ने अपने इतिहास के आध्ययन के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्ल किया है कि समाज में हमेशा से दो विरोधी वर्ग रहे हैं जिनके हित परस्पर विरोधी हैं। एक वर्ग का उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार रहा है। दूसरा श्रमिक वर्ग रहा है जिसका प्रथम वर्ग ने शोषण किया है। प्रथम वर्ग को मार्क्स ने शोषक वर्ग की संज्ञा दी है। इस वर्ग के पास सभी साधन होते हैं। मार्क्स के अनुसार ‘व्यक्तिगत सम्पत्ति’ के विकास से लोगों में आर्थिक विषमता’ बढी। सर्वप्रथम जो लोग अपने-अपने कबीलों के सरदार पे उन्होंने सम्पत्ति तथा उत्पादन के साधनों पर अधिकार कर लिया तथा दूसरे लोगों को कार्य करने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार सर्वप्रथम समाज का विघटन आरम्भ हुआ और वर्ग बनने शुरू हुए। यह प्रक्रिया तब से लेकर अभी तक चलती रही है तथा इसने सम्पत्ति एवं साधनों वाले वर्ग को शोषण करने का अवसर दिया है।

मार्क्स के अनुसार वर्ग-व्यवस्था का आरम्भ उस समय हुआ जबकि आदिकालीन सामाजिक व्यवस्था भंग हो रही थी तथा उसके स्थान पर दास-व्यवस्था का उदय हो रहा था। समाज में वर्गों की इस विरोधी स्थिति के परिणामस्वरूप उनमें संघर्ष आरम्भ हुआ। यह वर्ग- संघर्ष समाज की प्रमुख विशेषता शताब्दियों से मानव जाति के विकास का प्रमुख कारण रही है। दास व्यवस्था के पश्चात् सामन्तवादी व्यवस्था का उदय हुआ। इस युग में भी समाज में दो ही वर्ग रहे-शोषक वर्ग तथा शोषित वर्ग। इन विरोधी वर्गों में संघर्ष और अधिक तीव्र हुआ। सामन्तवादी व्यवस्था के पश्चात्. आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था का जन्म हुआ। पूँजीवादी-व्यवस्था में भी दो विरोधी वर्गों का अस्तित्व था जिनमें एक वर्ग तो शक्ति तथा अधिकारों से युक्त तथा दूसरा वर्ग साधनहीन हैं। शक्तिः एवं अधिकारों से युक्त वर्ग. द्वारा साधन हीन वर्ग का शोषण किया जाता है। इन विरोध वर्गों में विरोधी हितों के कारण संघर्ष होता रहता है। मार्क्स के अनुसार यह संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक कि पूँजीपति वर्ग का विनाश तथा समाजवाद की स्थापना नहीं हो जायेगी।

आधुनिक पूँजीवादी समाज में वर्ग-संघर्ष-

मार्क्स के अनुसार आधुनिक पूँजीवादी समाज के अन्तर्गत भी दो विरोधी वर्ग पाये जाते हैं-पूँजीपति वर्ग तथा सर्वहारा अथवा श्रमिक वर्ग । पूँजीपति वर्ग ने उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार कर रखा है। राज्य सत्ता तथा उत्पादन के साधन पूँजीपति वर्ग के हाथों में हैं जिनके द्वारा वह श्रमिक वर्ग का शोषण करता है। मार्क्स कहता है कि पूँजीपति वर्ग लाभ के उद्देश्य से श्रमिक वर्ग का शोषण करता है तथा ज्यों-ज्यों पूँजीवाद बढ़ता है त्यों-त्यों यह शोषण अधिक होता जाता है। पूँजीवाद के साथ श्रमिक के श्रम में वृद्धि होती जाती है तथा वह मशीनों का दास बनकर रह जाता है। इस प्रकार श्रमिक पूँजीवाद की बुराइयों का शिकार होता है। पूँजीवाद के कारण बेकारी तथा युद्ध होते हैं। जिनके परिणामस्वरूप श्रमिक को कष्ट भोगना पड़ता है। वह आर्थिक तेजी का शिकार होता है।

मार्क्स का कहना है कि श्रमिक वर्ग इस स्थिति को सहन नहीं कर सकता। पूँजीवाद में श्रमिक अपने परिश्रम का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता; अतः समाज में उसकी यह स्थिति उसे पूँजीवाद का विरा करने के लिये प्रेरित करती है। मार्क्स कहता है कि इसलिये मानव इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है। पूँजीवादी तथा समाजवादी युग में वर्ग-संघर्ष और भी तीव्र होता है जिसके परिणामस्वरूप श्रमिक वर्ग भी संगठित हो जाता है।

वर्ग-संघर्ष के तीन रूप-

मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी युग में श्रमिक वर्ग तथा पूँजीपति वर्ग के मध्य संघर्ष तीव्रतर होता जाता है। यह संघर्ष तीन रूपों में होता है-आर्थिक संघर्ष, राजनीतिक संघर्ष एवं वैचारिक संघर्ष ।

(1) आर्थिक संघर्ष (Economic Struggle)

मार्क्स के अनुसार श्रमिक वर्ग अपनी भौतिक स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष करता है। वह पूँजीपति से अधिक मजदूरी मांगता है तथा काम करने के घन्टों में कमी करने के लिये संघर्ष करता है। दूसरी ओर पूंजीपति   वर्ग श्रमिक वर्ग से अधिक से अधिक काम लेकर कम से कम वेतन देना चाहता है। परिणामस्वरूप दोनों में संघर्ष होता है। श्रमिक वर्ग अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिये हड़ताल आदि करता है।

मार्क्स के अनुसार आर्थिक संघर्ष, ऐतिहासिक रूप में श्रमिक वर्ग के संघर्ष का प्रथम कर है तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस आर्थिक संघर्ष के कारण श्रमिक वर्ग अधिक शक्तिशाली तथा संगठित होता जाता है। लेकिन यह आर्थिक संघर्ष पूरे श्रमिक वर्ग का पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संघर्ष नहीं है वरन् श्रमिकों के विभिन्न वर्ग व्यक्तिगत रूप से कारखानों तथा फैक्टरियों में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि यह संघर्ष पूँजीवाद के मुख्य आधार पर चोट नहीं करता और न इसका उद्देश्य पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक शक्ति को ही समाप्त करना है। इसका उद्देश्य शोषण को ससाप्त करना नहीं वरन् उसे कम करना अथवा सीमित करना है।श्रमिक वर्ग की संख्या में वृद्धि तथा उसके संगठित होने के साथ-साथ यह संघर्ष तीव्रतर होता जाता है। धीरे-धीरे यह संघर्ष राजनीतिक संघर्ष का रूप ले लेता है।

(2) राजनीतिक संघर्ष (Political Struggle)-

राजनीतिक संघर्ष का उद्देश्य पूँजीवादी व्यवस्था के मुख्य आधारों को नष्ट करना तथा श्रमिक वर्ग की तानाशाही के लिये राज्य की सत्ता पर अधिकार करना है। आर्थिक संघर्ष के द्वारा श्रमिक वर्ग अपनी भौतिक आवश्यकताओं में थोड़ा-सा सुधार कर लेता है तथा पूँजीपतियों से कुछ आर्थिक सुविधायें प्राप्त कर लेता है। परन्तु श्रमिक वर्ग अपने मूलभूत आर्थिक तथा राजनीतिक हितों की प्राप्ति तभी कर सकता है जबकि वह राज्य पर अपना अधिकार करके सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित कर ले। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये श्रमिक वर्ग राजनीतिक संघर्ष आरम्भ करता है।

(3) विचारधारा का संघर्ष (Ideological Struggle)-

सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन में सबसे अधिक संघर्ष, विचारधारा का संघर्ष है। इस संघर्ष के द्वारा श्रमिक वर्ग पूँजीपति वर्ग की विचारधारा के विरुद्ध संघर्ष करता है जो समस्त पूँजीवादी पद्धति की आधारशिला है।

पूँजीवाद के विकास के कारण श्रमिक वर्ग में एकता स्थापित होती है तथा उनका संगठन पहिले से अधिक शक्तिशाली हो जाता है। परन्तु पूँजीवाद को समाप्त करने के लिये श्रमिकों को केवल संगठित होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उन्हें अपने वर्गीय हितों के प्रति जागरूक होना आवश्यक है। उन्हें समाजवाद की स्थापना में अपनी ऐतिहासिक भूमिका (Historical Role) के प्रति सचेत रहना आवश्यक है। इसके लिए क्रांतिकारी विचारधारा (Revolutiorary Theroy) की आवश्यकता है। परन्तु श्रमिक वर्ग समय तथा पर्याप्त शिक्षा के अभाव के कारण क्रान्तिकारी विचारधारा अपना नहीं पाता। इस कार्य को बुद्धिजीवी वर्ग करता है।

विचारधारा के संघर्ष में एक ओर क्रांतिकारी विचारधारा (Revolutionary Theroy) को जन्म देना आवश्यक है और दूसरी ओर यह भी आवश्यक है कि उस विचारधारा को श्रमिकों में लोकप्रिय बनाया जाय तथा उन्हें राजनीतिक शिक्षा दी जाय। इसके पश्चात् इस क़ान्तिकारी विचारधारा की पूँजीवादी विचारकों की आलोचनाओं से रक्षा की जाय।

पूँजीवाद का विनाश अनिवार्य-

मार्क्स का कथन है कि पूँजीवाद का विनाश अनिवार्य है क्योंकि उसके गर्भ में जो अन्तर्विरोध निहित है वे उसके विनाश में सहायक होंगे। मार्क्स ने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत, इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार तथा वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पूंजीवाद का अन्त अवश्यम्भावी है। उसने लिखा है कि “पूँजीवादी समाज स्वयं अपनी कब्र खोदने वालों का निर्माण करता है। पूँजीवाद की समाप्ति तथा सर्वहारा वर्ग की विजय निश्चित है।”

मार्क्स पूँजीवाद के अनिवार्य विनाश के लिये निम्न कारण उपस्थित करता है-

(1) उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार- मार्क्स का कहता है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूँजीपति उत्पादन के समस्त साधनों पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लेते हैं। वे इन कारखानों पर एकाधिकार व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से करते हैं। वे बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों की स्थापना करते हैं। इसमें उनका उद्देश्य केवल लाभ कमाना होता है। अतः वे कम से कम वेतन पर श्रमिकों से अधिक से अधिक काम करवाते हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में श्रमिकों का उत्पादन के साधनों पर कोई अधिकार नहीं होता। श्रमिक वर्ग साधनविहीन होता है। परिणामस्वरूप श्रमिक वर्ग अधिक संगठित होता है।

(2) भारी मात्रा में उत्पादन- पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें उत्पादन भारी मात्रा में होता है। पूँजीपतियों का एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। उनकी लाभ की मनोवृत्ति के कारण उद्योगों का तेजी से विकास होता है और साथ ही उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा (Competition) बढ़ती है। इस प्रतिस्पर्धा के कारण श्रमिक वर्ग का शोषण और भी बढ़ जाता है। पूँजीपति अधिक से अधिक मात्रा में उत्पादन करते हैं जिससे कि वे अन्य लोगों के मुकाबले में माल को सस्ता बेच सकें।

इस प्रतिस्पर्धा के दो दुष्परिणाम निकलते हैं-प्रथम श्रमिक वर्ग का शोषण अधिकाधिक बढ़ता जाता है दूसरा, उत्पादन के साधनों पर पूँजीपतियों का एकाधिकार स्थापित हो जाता है; अतः मजदूर के सामने इसके अलावा अन्य कोई मार्ग नहीं रहता कि वह अपने जीवन-निर्वाह के लिए अपना श्रम पूँजीपति को न बेचे। पूँजीपति उसकी इस मजदूरी का पूरा-पूरा लाभ उठाता है और श्रमिक का अधिकाधिक शोषण करता है। विशाल मात्रा में उत्पादन तथा प्रतिस्पर्धा का एक बुरा परिणाम यह निकलता है कि बाजार में वस्तुओं के मूल्य में खुली प्रतिस्पर्धा होती है जिससे बड़ा पूँजीपति विजयी होता है तथा छोटा पूँजीपति धीरे-धीरे श्रमिक वर्ग की श्रेणी में चला जाता है। इस प्रकार पूँजीपति वर्ग सिकुड़ता जाता तथा श्रमिक वर्ग बड़ा होता जाता है।

(3) श्रमिकों में वर्ग चेतना का उदय- पूंजीवादी समाज में भारी मात्रा में उत्पादन के कारण बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों की स्थापना हो जाती है। औद्योगिक नगरों की स्थापना से हजारों लाखों श्रमिक एक स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं। वहाँ उनकी बस्तियाँ स्थापित हो जाती हैं। इससे श्रमिकों में एकता तथा संगठन की भावना उत्पन्न होती है। पूँजीपतियों के विरुद्ध क्रोध तथा घृणा का भाव पनपता है। धीरे-धीरे वे वर्गीय हितों को समझने लगते हैं। इस प्रकार उनमें वर्ग चेतना उत्पन्न होती है जो अन्ततः पूँजीपति वर्ग के लिए घातक सिद्ध होती है। वर्ग चेतना के कारण श्रमिक पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संघर्ष के लिए कमर कसकर तैयार हो जाता है।

(4) यातायात और संचार के साधनों से एकता का आधार- मार्क्स का कहना है कि पूंजीपति वर्ग यातायात तथा संचार के. आधुनिक साधनों का प्रयोग अपने व्यवसाय के प्रसार के लिए करता है। परन्तु इन साधनों का प्रयोग श्रमिक वर्ग अपनी एकता स्थापित करने के लिए करता है। इनसे श्रमिक वर्ग को अपने अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बनाने में सहायता मिलती है।

(5) वैज्ञानिक यन्त्रों का विकास- मार्क्स का कहना है कि पूँजीपति अपने व्यक्तिगत लाभ की वृद्धि के लिए हमेशा प्रयतशील रहते हैं। इसलिए वह नई मशीनों का आधिष्कार करते रहते हैं जिससे कि कम से कम मजदूरों के द्वारा अधिक उत्पादन किया जा सके। जैसे-जैसे कारखानों में आधुनिकतम मशीनें प्रयोग की जाती हैं वैसे-वैसे मशीनों को चलाने के लिए कुशल तथा प्रशिक्षित श्रमिकों की आवश्यकता बढ़ती जाती है तथा अप्रशिक्षित श्रमिकों की उपयोगिता कम हो जाती है। फलस्वरूप अधिकांश मजदूरों को काम से निकाल दिया जाता है तथा वे बेकार हो जाते हैं। इससे उनमें असन्तोष-बढ़ता है। पूँजीपति अपने स्वार्थों से प्रेरित होकर धन को एकनित करने में लगा रहता है। इससे समाज में गरीबी, बेकारी तथा भुखमरी बढ़ती है। श्रमिक वर्ग के कष्टों में वृद्धि होती है; अतः वे अधिक सचेष्ट तथा जागरूक होकर पूँजीपति वर्ग का विरोध करने लगते हैं।

(6) आर्थिक संकट- पूँजीपति समाज की एक अन्य विशेषता यह है कि शोषण, भुखमरी एवं बेकारी के कारण श्रमिक वर्ग की क्रय-शक्ति कम हो जाती है। उत्पादित वस्तु के खरीददार नहीं मिलते। मार्क्स कहता है कि पूँजीवादी युग में हर 10-15 वर्ष बाद ‘अति उत्पाद’ (Surplus production) की समस्या उत्पन्न हो जाती है। बाजार- सस्ते माल से भर जाता है परन्तु लोगों के पास उसे खरीदने के लिए पैसे नहीं होते । इस अति उत्पादन के कारण श्रमिकों में भुखमरी, बेरोजगारी तथा बेकारी, फैलती है। इससे श्रमिक वर्ग में और अधिक वर्ग-चेतना जागृत होती है।

पूँजीवाद का प्रतिवाद समाजवाद-

मार्क्स ने द्वन्द्वत्मक भौतिकवाद के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पूँजीवाद में अपने विनाश के बीज निहित होते हैं तथा यह अपनी विरोधी व्यवस्था समाजवाद को जन्म देता है। मार्क्स कहता है कि समाज में वर्ग-संघर्ष समाजवाद की ओर अग्रसर होता है। सर्वहारा वर्ग संगठित होकर क्रांति का अग्रदूत बन जाता है। उसके अनुसार इस संघर्ष में हिंसा अवश्यम्भावी हो जाती है। उसका विश्वास है कि क्रांति की इस लम्बी प्रक्रिया से समाजवादी व्यवस्था स्थापित हो जायेगी।

वर्ग-संघर्ष की समाप्ति-

मार्क्स के अनुसार वर्ग-संघई की स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि समाज से पूँजीपति वर्ग अथवा उसके समर्थकों का पूर्ण रूप से अन्त नहीं हो जाता। श्रमिक वर्ग की तानाशाही के काल में श्रमिक वर्ग राजनीतिक शक्ति का प्रयोग पूँजीपति वर्ग को उखाड़ फेंकने में करेगा। मार्क्स श्रमिक वर्ग की तानाशाही की स्थापना के पश्चात् के युग को संक्रमण काल कहता है। उसके विचार में वर्ग-संघर्ष तब तक बना रहेगा जब तक कि ‘पूर्ण साम्यवाद’ अर्थात् वर्ग विहीन तथा राज्य विहीन समाज की स्थापना नहीं हो जाती है। समाज से ऐसे वर्गों के समाप्त हो जाने के पश्चात राज्य अपने आप समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार साम्यवाद की स्थिति में वर्ग-संघर्ष समाप्त हो जायेगा।

मार्क्स की पद्धति और कार्यक्रम

मार्क्स ने अपनी इतिहास की आर्थिक व्याख्या के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि पूंजीवाद का अन्त और साम्यवाद का आगमन निश्चित है। उसका विश्वास है कि इतिहास की शक्तियां साम्यवाद के पक्ष में हैं और पूंजीवाद समाज जैसे ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त होगा, वैसे ही उसका पतन अनिवार्य हो जाएगा। किन्तु मार्क्स नियतिवादी नहीं है और उसका कथन है कि उसके आधार पर साम्यवाद की प्रतीक्षा में चुपचाप नहीं बैठ जाना चाहिए। उसके लिए सक्रिय प्रयत्न किया जाना चाहिए।

मार्क्स के अनुसार वर्ग-संघर्ष ही सामाजिक परिवर्तनों की पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों द्वारा निरन्तर शोषित होते रहने से श्रमिक वर्ग में क्रांतिकारी भावनाएं आ जाती हैं। अतः पूँजीवाद का अन्त कर साम्यवाद की स्थापना करने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी इसी वर्ग पर है और वही समाजवादी क्रान्ति का नेतृत्व करेगा।

परिवर्तन की पद्धति के सम्बन्ध में मार्क्स का विश्वास था कि पूंजीवाद का अन्त और साम्यवाद की स्थापना शान्तिपूर्ण तरीकों से नहीं की जा सकती। पूंजीपति वर्ग कभी भी अपनी इच्छा से सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों पर से स्वामित्व छोड़ना नहीं चाहेगा, इन साधनों पर उसका अधिकार समाप्त करने के लिए बल और शक्ति का प्रयोग करना ही होगा। ‘साम्यवादी घोषणा-पत्र’ में मार्क्स और एंजिल्स लिखते हैं, “साम्यवादियों को अपने विचारों और उद्देश्यों को छिपाने से घृणा है। वे खुले तौर पर घोषणा करते हैं कि उनेक लक्ष्य की प्राप्ति वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का बलपूर्वक उन्मूलन करके ही की जा सकती है। यदि शासक वर्ग साम्यवादी क्रान्ति से कांपता है तो उसे कांपने दो। श्रमिकों के पास अपनी बेड़ियों के अतिरिक्त खोने के लिए और कुछ नहीं है और जीतने के लिए सारा विश्व पड़ा है।’

मार्क्स और ऐंजिल्स का कथन था कि क्रान्ति के लिए श्रमिक वर्ग को एक लम्बी तैयारी करनी होगी। सर्वप्रथम, उसके द्वारा अपने आप को एक वर्ग के रूप में संगठित किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से उसके द्वारा श्रमिक संघों के निर्माण में सक्रिय योग दिया गया था। 1848 का प्रसिद्ध ‘साम्यवादी घोषणा-पत्र’ ‘कम्युनिस्ट लीग’ (Communist League) नाम की पार्टी का घोषणा-पत्र था और 1864 ई० में उसके प्रयत्नों से ही ‘अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ’ (International Workingmen’s Association) की स्थापना हुई जो ‘प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय’ के नाम से प्रसिद्ध है। श्रमिक वर्ग के द्वारा चेतना जाग्रत कर विशाल संगठनों की स्थापना कर राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष चलाया जाना चाहिए। उनके द्वारा वेतन वृद्धि, काम के घण्टों में कमी और काम की परिस्थितियों में सुधार के लिए आन्दोलन किया जाना चाहिए। इन आन्दोलनों से श्रमिक वर्ग को कुछ सुविधाएँ तो प्राप्त होंगी ही किन्तु इन आन्दोलनों का महत्व सुविधाएं प्राप्त करने की दृष्टि से नहीं, वरन् इस दृष्टि से है कि इन आन्दोलनों के द्वारा श्रमिक वर्ग को पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध अन्तिम संघर्ष के लिए तैयार करने का कार्य किया जाता है। श्रमिक क्रान्ति की सफलता के लिए मार्क्स का निर्देश है कि प्रत्येक देश में श्रमिकों के द्वारा समाज के अन्य सभी वर्गों का संघर्ष में अपने साथ लेकर चलने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। मार्क्स का यह विचार उसकी व्यावहारिकता का परिचय देता है।

मार्क्स की कुछ रचनाओं से यह संकेत मिलता है कि वह हर अवस्था में क्रान्ति और बल प्रयोग को आवश्यक नहीं मानता था। अपने बाद के जीवन में वह यह सोचने लगा था कि शक्ति प्रयोग के बिना भी पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त किया जा सकता है। 1872 ई० में हेग के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में मार्क्स ने कहा था, “हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि विभिन्न देशों की संस्थाओं, आचार-विचार तथा रुचियों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए, और हम इस बात से इंकार नहीं करते कि इंग्लैण्ड और अमरीका की तरह के ऐसे देश हैं, और यदि मैं आपकी व्यवस्था को अच्छी तरह समझता तो मैं हालैण्ड को भी उसमें सम्मिलित कर लेता, जहां कि श्रमिक शान्तिपूर्ण तरीकों से उद्देश्यों को प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु सब देशों में ऐसा नहीं हो सकता है।”

इस प्रकार कुछ देशों में उसके द्वारा शान्तिपूर्ण तरीकों के पूंजीवाद के अन्त की आशा की गयी है किन्तु यह बात अपवादस्वरूप और सामान्यतया उसका विचार यही है कि पूंजीवाद के विनाश हेतु बल प्रयोग और क्रान्ति जरूरी है। मार्क्स के शब्दों में, “बल एक नवीन समाज को जन्म देने वाले प्रत्येक पुराने समाज की दाई है।”

मार्क्सवादी पद्धति की आलोचना

हिंसा तथा रक्तपात का मार्ग अनुचित मार्क्स अपने दर्शन में क्रान्तिवादी पद्धति पर ही अधिक जोर देता है, जिसे आलोचकों द्वारा अत्यधिक अनुचित कहा गया है। यह आवश्यक नहीं है कि क्रान्ति के मार्ग को अपनाने से वांछित लक्ष्य प्राप्त हो ही जाए। हिंसा को अपनाने का परिणाम असभ्यता और बर्बरता होता है और इस बर्बरता के आधार पर एक शान्तिपूर्ण, न्यायपूर्ण तथा व्यवस्थित समाज की स्थापना नहीं की जा सकती है। लास्की कहते हैं कि “पूँजीवाद का अन्त साम्यवाद में होकर ऐसी अराजकता में हो सकता है कि जिससे साम्यवादी आदर्शों से अस्मबद्ध कोई निरंकुशवाद निकले।” पोपर का तो कहना है कि “व्यावहारिक राजनीति के दृष्टिकोण से हिंसात्मक क्रान्ति की भविष्यवाणी मार्क्सवाद का सम्भवतः सबसे अधिक हानिकारक तत्व है।”

मार्क्स की धारणा यह है कि उचित माध्य की प्राप्ति के लिए सभी प्रकार के साधन अपनाए जा सकते हैं, किन्तु राजनीति को नैतिकता से पृथक् करने का यह विचार स्वयं साम्यवादी व्यवस्था के लिए अत्यधिक अनिष्टकर है। जोसेफ ई० डेवीज ने मार्क्स के विचारों की इस त्रुटि के सम्बन्ध में कहा है, “यह एक गम्भीर और मूलभूत त्रुटि है, जिससे वर्तमान सरकार को सदैव ही भय बना रहेगा।”

पद्धति की दृष्टि से तो मार्क्स की विचारधारा निश्चित रूप से दोषपूर्ण है और इसकी तुलना में प्रजातान्त्रिक या विकासवादी समाजवाद का मार्ग निश्चित रूप से श्रेष्ठतर है। प्रो० जोड ठीक ही लिखते हैं कि “यह सोचने का पर्याप्त आधार है कि मन्द गति से प्राप्त सुधारों की नीति जिसका प्रतिपादन विकासवादी समाजवादियों ने किया है, क्रान्ति और वर्ग-संघर्ष की विधियों की अपेक्षा अधिक स्थायी और फलदायक है, भले ही वह उतनी विस्मयजनक न हो।”

मार्क्सवादी कार्यक्रम- अपने लक्ष्य की प्राप्ति अर्थात् पूंजीवाद का अन्त कर उसके स्थान पर साम्यवादी समाज (वर्गविहीन और राज्यविहीन समाज) की स्थापना के लिए कार्ल मार्क्स के द्वारा जो कार्यक्रम बनाया गया है, उसके तीन चरण हैं-

(1) पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध क्रान्ति।

(2) सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद की स्थापना।

(3) राज्यहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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