राजनीति विज्ञान / Political Science

व्यवस्था-सम्बन्धी उपागम | व्यवस्था-सिद्धान्त की एक उपागम रूप में व्याख्या

व्यवस्था-सम्बन्धी उपागम | व्यवस्था-सिद्धान्त की एक उपागम रूप में व्याख्या | राजनीति विज्ञान में व्यवस्था-सिद्धान्त का उपयोग | व्यवस्थाओं का वर्गीकरण | राजनीति विज्ञान में व्यवस्था-सिद्धान्त का अनुप्रयोग | व्यवस्था-सिद्धान्त का प्रयोग

व्यवस्था सिद्धांत : एक उपागम (व्यवस्था-सम्बन्धी उपागम)

व्यवस्था-सिद्धान्त का मुख्य प्रतिपादक और उपयोगकर्ता डेविड ईस्टन हैं। उसके अनुसार व्यवस्था-सिद्धान्त में परस्पर सम्बद्ध एवं राजनैतिक गतिविधियाँ एक व्यवस्था के रूप में देखी जाती है। ये राजनैतिक गतिविधियाँ राजनीति, राजनैतिक संस्थाओं, राजनैतिक नेतृत्व, राज संस्कृति अथवा अन्य पूर्ण क्रियाओं के सम्बन्ध में हो सकती हैं। एश्वी ने व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि यह वातावरण से भिन्न अन्तःसम्बन्धित परिवत्यों अथवा चरों का एक समुच्चय है। इसमें वातावरण से सम्बन्धित अनेक बाधाओं के उपस्थित होने पर भी स्वयं को। बनाये रखने का गुण विद्यमान होता है। व्यवस्था वस्तुओं, तत्वों और विचारों का वह समूह है। जो विशिष्ट संरचनाओं द्वारा परस्पर सम्बद्ध रहते हैं तथा जो कतिपय प्रक्रियाओं के द्वारा अपनी सीमा के अन्दर एवं वातावरण के साथ बाहर अन्त क्रियायें करते रहते हैं। पर इन अन्तः क्रिया करने वाले अथवा परस्पर सम्बद्ध चरों को उसी अवस्था में स्वीकार किया जा सकता है जब उनका परस्पर महत्वपूर्ण सम्बन्ध हो और उनमें उच्च स्तर की आत्मनिर्भरता विद्यमान हो।

व्यवस्था-सम्बन्धी उपागम

(Approach concerning System)

व्यवस्था के सम्बन्ध में दो भिन्न उपागम हैं-

  1. प्रथम उपागम उसी अवस्था में व्यवस्था पद को प्रयुक्त करने का सुझाव रखता है. जबकि वस्तुओं के मध्य सम्बद्धता महत्वपूर्ण हो और उनकी अन्तनिर्भरता पर्याप्त रूप से उच्च स्तर की हो। इस उपागम के समर्थकों के अनुसार व्यवस्था में निम्नलिखित तीन गुण विद्यमान होने चाहिए:-

(i) व्यवस्था समय एवं स्थान के सम्बन्ध में द्रष्टव्य हो ।

(ii) व्यवस्था के अस्तित्व को अनेक अनुशासनों द्वारा स्वीकृत किया गया हो।

(iii) समय क्रम में व्यवस्था की संरचनायें और प्रक्रियायें परिवर्तनशील हों। इनका मत है कि व्यवस्था को वस्तुओं का क्रमविहीन समूहीकरण नहीं माना जा सकता। व्यवस्था में परिचालनीयता का होना आवश्यक है। यह आनुभविक होनी आवश्यक है।

  1. द्वितीय प्रकार के उपागमवादियों का विचार है कि व्यवस्था शोध के उद्देश्यों के हेतु तथ्यों के संग्रह से प्रारम्भिक विश्लेषण में सहायता देने तथा निर्देशन देने के रूप में प्रयुक्त की जानी चाहिये । व्यवस्था की वास्तविकता को प्राप्त किया जाना आवश्यक है। व्यवस्था सत्यापन के उपरान्त ही स्वीकार की जानी चाहिये। यह अनुसन्धानों के सन्दर्भ में प्रयुक्त की जानी चाहिए। इस प्रकार इस उपागम के समर्थक व्यवस्था के सृजनात्मक रूप को स्वीकार करते हैं।

व्यवस्थाओं का वर्गीकरण

(Classification of System)

यंग (Young) ने व्यवस्थाओं को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया है:-

  1. व्यवस्था के वर्णन,
  2. व्यवस्था के नियमन एवं संधारण,
  3. व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन,
  4. व्यवस्था से होने वाले उग्र परिवर्तन ।

इस वर्गीकरण का विस्तृत विवेचन अग्रवत किया जा सकता है-

  1. वर्णनप्रधान अवधारणाएँ- इन अवधारणाओं द्वारा विभिन्न व्यवस्था में निहित अन्तर, उपलब्ध तथ्यों का वर्गीकरण और उनकी मौलिक संरचनाओं का अध्ययन किया जाता है। ये अवधारणाएँ पाँच वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं-

(i) मुक्त तथा बन्द अथवा सावयविक और असावयविक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित अवधारणायें।

(ii) पद क्रमित अवधारणायें, जैसे उप व्यवस्था, अन्त क्रियात्मक क्रम अथवा परिणाम अनुमाप से सम्बन्धित अवधारणायें।

(iii) व्यवस्था के आन्तरिक संगठन; उदाहरण के लिए एकीकरण, विभिन्नीकरण, अन्तर्निर्भरता अथवा. केन्द्रीयकरण आदि से सम्बन्धित अवधारणायें।

(iv) व्यवस्थाओं के अपने वातावरण के साथ अन्त क्रिया करने से सम्बन्धित अवधारणायें उदाहरण के लिए सीमाएँ, निवेश, निर्गत आदि।

(v) समय की दृष्टि से उदाहरण के लिये यथास्थितिवादिता, अर्द्धनिर्णयात्मकता आदि से सम्बन्धित अवधारणायें।

व्यवस्था को पदसोपान-क्रम में श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। इन्हें व्यवस्थाओं, उप- व्यवस्थाओं, अन्त क्रियाओं के क्रम और प्रभाव के माप आदि के अनुसार वर्गीकृत भी किया जा सकता है।

  1. नियमन एवं संधारणसम्बन्धी धारणाएँ- इसी वर्ग पर सम्पूर्ण व्यवस्था का ढाँचा आधारित है। इन धारणाओं के कारण व्यवस्था के नियमन तथा संधारण के लिए, आवश्यक साधनों का ज्ञान हो जाता है। इसी सन्दर्भ में किसी व्यवस्था के नियमन अथवा संधारण में महत्वपूर्ण भाग लेने वाली शक्तियों से सम्बद्ध अवधारणायें भी अध्ययन का विषय बन जाती हैं। इसमें व्यवस्थाओं के स्थायित्व, सन्तुलन, अवसमस्थिति आदि तथा प्रक्रियाओं से सम्बन्धित प्रतिसम्भरण, मरम्मत, पुनरुत्पादन, उत्क्रम मापन आदि अवधारणाओं को विकसित किया जा सकता है।
  2. परिवर्तन से सम्बन्धित अवधारणाएँ- ये अवधारणायें गत्यात्मक पर अविघटनात्मक परिवर्तन से सम्बन्धित होती हैं। ये आन्तरिक प्रक्रिया अथवा बाह्य वातावरणात्मक दशाओं से उत्पन्न हो सकते हैं। इनके अन्तर्गत व्यवस्थाओं के अनुकूलन (Adaptation), वृद्धि (Growth) आदि से सम्बन्धित अवधारणायें विकसित की जाती हैं।
  3. विध्वंस-विषयक अवधारणाएँ- इन अवधारणाओं द्वारा विघटन, विलयन, विभंग अथवा निपात आदि को प्रदर्शित किया जाता है। ऐसी परिस्थितियाँ व्यवस्थाओं के संकटग्रस्त होने की अवस्थाओं में, अथवा उन पर दबाव पड़ने की अवस्था में या तनाव पड़ने की अवस्था में भी उत्पन्न होती हैं।

राजनीति विज्ञान में व्यवस्था-सिद्धान्त का अनुप्रयोग

(Utility of General System Theory in Political Science)

राजनीति में व्यवस्था-सिद्धान्त का प्रयोग और विकास राजनैतिक विश्लेषण, वैज्ञानिकता और अन्त: अनुशासनात्मकता के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। कुछ समय पूर्व इस सिद्धान्त को अव्यावहारिक माना जाता था। उस समय इसे उपेक्षा का पात्र बना दिया गया था। पर अब इस सिद्धान्त का विश्वव्यापी व्यावहारिक प्रयोग एवं उपयोग राजनीतिक विचारकों तथा अध्ययनकर्ताओं के सम्मुख आ गया है। इसके महत्व को निम्नलिखित प्रकार से प्रदर्शित किया जा सकता है:

(i) इस सिद्धान्त में निहित सम्भावनायें प्रकाश में आ गई हैं। इसका उपयोग केवल शैक्षिक तथा अनुसन्धानात्मक क्षेत्रों में नहीं वरन् अनेक संस्थाओं और संगठनों में विशालकाय संगणकों को सहायता प्रदान करने हेतु किया जा रहा है।

(ii) अमेरिका तथा यूरोपीय देश उपागम को राष्ट्रीय स्तर पर प्रयुक्त कर रहे हैं।

(iii) राजनीति विज्ञान में प्रयुक्त संस्थात्मक, कानूनी, ऐतिहासिक, दार्शनिक आदि परम्परागत उपागमों में पूर्णता नहीं थी, जिसके परिणामस्वरूप राजनीति विज्ञान अपूर्ण, अविश्वसनीय और अवैज्ञानिक बन गया था। इस अपूर्णता को व्यवस्था-सिद्धान्त द्वारा दूर कर दिया गया।

(iv) यह सिद्धान्त व्यवस्थाओं के आनुभविक विश्लेषण के लिये उपयुक्त है। इस सिद्धान्त के प्रयोग से व्यवस्थाओं के विभिन्न स्वरूपों, अंशों और प्रक्रियाओं आदि के अनुभववादी अध्ययन करने हेतु दिशा का निर्देशन एवं शब्दावली प्राप्त होती है।

(v) राबर्ट सी० बोन का मत है कि राजनीतिक व्यवस्था उपागम से तुलनात्मक विश्लेषण का सर्वश्रेष्ठ साधन प्रस्तुत हुआ है।

(vi) राजनीतिक व्यवस्था विश्लेषण सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था पर ध्यान केन्द्रित करता है। यह केवल उसके भागों या उपभागों पर ही ध्यान केन्द्रित नहीं करता है। इससे तुलनात्मक विश्लेषण सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था के अवलोकन पर आधारित हो जाते हैं।

व्यवस्था-सिद्धान्त का प्रयोग

(Utilisation of System Theory)

व्यवस्था-सिद्धान्त के कतिपय मुख्य प्रयोजन, जिनके लिये यह प्रयुक्त किया जाता है, इस प्रकार हैं-

  1. अमूर्त एवं मिश्रित व्यवस्थाओं का अध्ययन- कई व्यवस्थायें मूर्त, विशिष्ट और स्पष्ट न होकर अमूर्त, मिश्रित तथा अन्य व्यवस्थाओं के साथ संश्लिष्ट होती हैं; जैसे-नैतिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, वैचारिक आदि व्यवस्थायें हैं। इनका अध्ययन व्यवस्था-सिद्धान्त के द्वारा ही सम्भव है।
  2. सृजनात्मक पक्ष- व्यवस्था-सिद्धान्त का एक सृजनात्मक पक्ष भी है। यह संगत तथ्यों के एकत्रीकरण, विश्लेषण तथा सिद्धान्त विकास में सही दिशा का निर्देशन कर सकता है।
  3. व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में ज्ञान- यह व्यवस्थाओं के विनियमन (Regulation), संधारण (Maintenance), स्थायित्व (Stability) के सम्बन्ध में ज्ञान प्रदान करता है। इससे यह भी ज्ञान हो जाता है कि किस प्रकार व्यवस्थायें सन्तुलन अथवा समस्थिति की प्राप्ति करती हैं। इस सन्तुलन को प्राप्त करने हेतु व्यवस्थाओं में पुनर्निवेशन, मरम्मत, पुनरुत्पादन और नियन्त्रण आदि प्रक्रियाओं के परिचालन के सम्बन्ध में भी ज्ञान प्राप्त होता है। इसके द्वारा ही विभिन्न व्यवस्थाओं के मध्य स्थित वास्तविक अन्तः सम्बन्धों के स्वरूप को भी ज्ञात किया जा सकता है।
  4. परिवर्तन का अध्ययन- यह सिद्धान्त व्यवस्थाओं में घटित होने वाले परिवर्तनों को आधुनिक रूप से समझने में भी सहायता प्रदान करता है। इसके द्वारा परिवर्तन की मात्रा, दर, सघनता, दिशा आदि का ज्ञान भी प्राप्त किया जाता है।
  5. विकसित एवं विकासशील- इसके आधार पर विकसित एवं विकासशील व्यवस्थाओं के मध्य स्थित अन्तर को भी ज्ञात किया जा सकता है। ये विश्लेषण व्यवस्थाओं में सुधार, परिवर्तन तथा संशोधन लाने के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं।

आलोचना (Criticism)-

आलोचकों ने व्यवस्था सिद्धान्त उपागम की आलोचना निम्नलिखित प्रकार की है:-

(i) आलमण्ड एवं ईस्टन ने राजनीतिक व्यवस्था को अत्यधिक स्वायत्तता प्रदान कर इसे आलोचना का शिकार बना दिया है। राजनीतिक व्यवस्था को पूर्णरूपेण स्वायत्त मानना व्यवस्थाओं तथा उपव्यवस्थाओं की उपेक्षा करना है।

(ii) राजनीतिक व्यवस्था को मूल व्यवस्था के साथ इतना जोड़ दिया गया है कि इसकी व्यावहारिक उपयोगिता नष्ट हो गयी है।

(iii) इस उपागम में क्रान्तिकारी परिवर्तनों का स्पष्टीकरण देने की क्षमता अत्यल्प है।

(iv) निवेश निर्गत विश्लेषण में केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से सक्रिय व्यक्तियों पर ही बल दिया जाता है, जिससे सम्पूर्ण व्यवस्था विश्लेषण अभिजनों प्रति उन्मुखी बन जाती है। इस कारण यह उपागम राजनीति के सिद्धान्त निर्माण के प्रयास से स्वतः ही हट जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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