राजनीति विज्ञान / Political Science

व्यवस्था-सिद्धान्त का अभिप्राय | व्यवस्थाओं की प्रमुख विशेषताएँ

व्यवस्था-सिद्धान्त का अभिप्राय | व्यवस्थाओं की प्रमुख विशेषताएँ

व्यवस्था-सिद्धान्त का अभिप्राय

(System Theory-Meaning of)

सन् 1953 में डेविड ईस्टन ने व्यवस्था-सिद्धान्त के समाजशास्त्रीय अध्ययनों में उपयोगी प्रयोग से प्रभावित होकर ‘दी पोलिटिकल सिस्टम’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की। उन्होंने राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा करते हुए कहा कि “किसी समाज में पारस्परिक क्रियाओं की एक ऐसी व्यवस्था को, जिससे उस समाज में बाध्यकारी अथवा अधिकारपूर्ण नीति के निर्धारण होते हैं, राजनीतिक व्यवस्था कहा जाता है।”

ऑलमण्ड तथा पॉवेल ने लिखा है कि, “राजनीतिक व्यवस्था से इसके अंगों की अन्तर्निर्भरता और इसके पर्यावरण में किसी न किसी प्रकार की सीमा का बोध होता है।” वस्तुतः व्यवस्था का अभिप्राय किसी भी महत्वपूर्ण और निरन्तर चलने वाली पहचान योग्य प्रक्रिया से है। प्रत्येक व्यवस्था का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। यह उद्देश्य अथवा प्रयोजन स्वाभाविक अथवा कृत्रिम हो सकता है। इस प्रकार कोई भी व्यवस्था उद्देश्यविहीन नहीं होती। व्यवस्था मूर्त्त, अमूर्त, आनुभाविक अथवा पदानुभविक, प्रेक्षणीय अथवा वैचारिक हो सकती है।

परिभाषा-

(1) हाल एवं फगन (Hall and Fagen) के अनुसार- “व्यवस्था वस्तुओं का सेट है। (a set of objects together with relations between the objects and their attitudes).

(2) कोलिन वैरी (Collin Cherry) के अनुसार- “व्यवस्था” एक पूर्ण है जिसके अंग अनेक हैं।” (…is a whole which is compounded of many parts).

(3) कापलॉन (Mortan A. Kaplan) के अनुसार- “व्यवस्था एक ‘अन्तः क्रियात्मक परिवर्तनों का अध्ययन’ है।”

परिभाषाओं से निष्कर्ष

उपर्युक्त परिभाषाओं से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलता है:-

(1) व्यवस्था का अर्थ अन्त अनुशासनात्मक उपागम (Inter-disciplinary approach) से भी होता है।

(2) व्यवस्था में सजातीयता (Homogenies) एवं परस्पर-सम्बद्धता (Inter-locking) पायी जाती है।

(3) प्राकृतिक विज्ञानों में प्रयुक्त व्यवस्था सिद्धान्तों को अन्यत्र प्रयुक्त नहीं किया जा सकता।

(4) यह आवश्यक है कि सामाजिक विज्ञानों में व्यवस्था-सिद्धान्त को सावधानीपूर्वक प्रयुक्त किया जाये।

(5) शोधकर्ता को चाहिये कि वह मध्यमार्ग (Golden-mean) को प्रयुक्त न करे। यदि चाहे तब वह प्राकृतिक विज्ञान पर बल दे सकता है तथापि उसे सामाजिक विज्ञानों की सीमाओं को विस्तृत नहीं करना चाहिये।

व्यवस्थाओं की प्रमुख विशेषताएँ

(Characteristics of Systems)

व्यवस्था की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित प्रकार हैं :-

(i) स्वरूप- व्यवस्था मूर्त, अमूर्त, आनुभाविक अथवा परानुभविक तथा प्रेक्षणीय और वैचारिक हो सकती है। मूर्त व्यवस्था का एक उदाहरण रेल-व्यवस्था है। यह व्यवस्था मूर्त्त होने के साथ-साथ आनुभविक और प्रेक्षणीय भी है। अमूर्त, परानुभविक और वैचारिक व्यवस्था का उदाहरण नैतिक व्यवस्था है। कुछ व्यवस्थाएँ इनका मिश्रित रूप भी हो सकती हैं। जैसे वे अधमूर्त और अर्धमूर्त भी हो सकती हैं। इसका उदाहरण आर्थिक व्यवस्था और राजव्यवस्था है।

(ii) गतिविधियाँ- प्रत्येक व्यवस्था में गतिविधियाँ होती हैं। यह अन्य बात है कि किसी व्यवस्था में ये गतिविधियाँ कम मात्रा में हों और कुछ अन्य कृत्रिम अथवा अनुप्रेरित हो सकती है। ऋण व्यवस्था स्वाभाविक गतिविधि का उदाहरण है। राजकीय शिक्षा व्यवस्था कृत्रिम गतिविधि का उदाहरण है।

(iii) केन्द्रीय तत्व- प्रत्येक व्यवस्था में केन्द्रीय तत्व विद्यमान होते हैं। इसी केन्द्रीय तत्व के चारों ओर उस व्यवस्था के अंग-उपांग, घटक एवं गतिविधियाँ घूमते रहते हैं।

(iv) अन्तर्सम्बन्ध- प्रायः सभी व्यवस्थायें एक अथवा एक से अधिक व्यवस्थाओं से अवश्य सम्बद्ध होती हैं। ये सम्बन्ध स्वतन्त्र अथवा आश्रित ही नहीं होते अपितु इन सम्बन्धों में समय के अनुसार परिवर्तन भी आते रहते हैं। इस प्रकार समय के अनुसार ये सम्बन्ध स्वतन्त्र, अर्ध-आश्रित, जटिल तथा संश्लिष्ट हो सकते हैं।

(v) समरूपता तथा विविधता- इन व्यवस्थाओं के अंग-उपांग, प्रक्रियाओं एवं विशेषताओं, प्रयोजनाओ तथा अभिप्रायों आदि के स्वरूप में समानता पायी जाती है तथापि कभी-कभी विविधता भी होती है।

(vi) मापन- कभी-कभी मूर्त व्यवस्थाओं के बल, क्षमता, गतिविधियों आदि को मापने में कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं। अमूर्त व्यवस्थाओं के बल, क्षमता, गतिविधियों के मापन में कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं। इस सन्दर्भ में सदैव ही विवादपूर्ण मतभेद रहता है। इसका परिणाम हमें नैतिकता के क्षेत्रों जैसे आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, भाग्य और कर्म आदि में मत-मतान्तरों के रूप से स्पष्ट होता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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