समाज शास्‍त्र / Sociology

ऑगस्ट कॉम्ट का उद्विकास सिद्धान्त | स्पेन्सर का उद्विकास सिद्धान्त | इमाइल दुर्थीम का उद्विकासीय सिद्धान्त

ऑगस्ट कॉम्ट का उद्विकास सिद्धान्त | स्पेन्सर का उद्विकास सिद्धान्त | इमाइल दुर्थीम का उद्विकासीय सिद्धान्त

ऑगस्ट कॉम्ट का उद्विकास सिद्धान्त

कॉन्ट, जिन्हें समाजशास्त्र का जनक कहा जाता है, का सामाजशास्त्रीय योगदान उद्विकास सिद्धांत की पुष्टि करता है। कॉम्ह का विचार था कि मानव का बौद्धि का विकास तीन चरणों से गुजरता है। जैसे-जैसे मानव समाज का एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश होता है वैसे- वैसे समाज में जटिलता बढ़ती जाती है। कॉट के अनुसार ये तीन चरण निम्नलिखित है-

(क) धर्मशास्त्रीय चरण (Theological Stage)

(ख) तात्विक चरण (Metaphysical Stage)

(ग) प्रत्यक्षवादीचरण (Primitivistic Stage)

(क) धर्मशास्त्रीय स्तर – मानव के चिंतन का यह वह स्तर है जिसमें वह प्रत्येक घटना के पीछे अलौकिक शक्ति का हाथ मानता है। कॉट ने इस स्तर की भी तीन स्तरों की चर्चा की  हैं –

वस्तुपूजा-इस स्तर में इंसान ने प्रत्येक वस्तु में जीवन की कल्पना की, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव। बहुदेववाद इस स्तर में विभिन्न देवी देवताओं की कल्पना की गयी और उनका संबंध विभिन्न प्रकार की सम्बद्ध घटनाओं से माना गया है एकेश्वरवाद यह धर्मशास्त्रीय स्तर का अंतिम चरण है। इस चरण में लोग बहुत देवी-देवताओं में विस्वास न कर एक ही ईश्वर में विश्वास  करने लगे।

(ख) तात्विक या अमूर्त स्तर :- कॉस्ट ने इसे धर्मशास्त्रीय एवं वैज्ञानिक स्तर के बीच की स्थिति माना है। इस अवस्था में मनुष्य की तर्क क्षमता बढ़ गयी। इस स्तर में प्रत्येक घटना के पीछे अमूर्त एवं निराकार शक्ति का हाथ माना गया इस स्तर में सत्ता का आधार देनी अधिकार के सिद्धांत होते थे। सामाजिक संगठन के वैधानिक पहलू विकसित होने लगे। राजा की निरंकुश सत्ता की जगह धनिक तंत्र या कुबेरतंत्र की व्यवस्था चलने लगी।

(ग) प्रत्यक्षवादी स्तर- समाज एवं मानव मस्तिष्क के उद्विकास का यह अंतिम चरण है। इस स्तर में हर घटना का विश्लेषण, अवलोकन, निरीक्षण एवं प्रयोग वैज्ञानिक तुलना के आधार पर होने लगता है। समाज में बौद्धिक, भौतिक तथा गैतिक शक्तियों का अच्छा समन्वय देखने को मिलता हैं इस स्तर में ही मानवता के धर्म एवं प्रजातंत्र का विकास होता है। वर्तमान मानव समाज इसी स्तर में है।

इस प्रकार ऑगस्ट कॉम्ट ने उपर्युक्त तीन स्तरों के सिद्धांत (lawat the stage) को सामाजिक जीवन पर लागू कर समाज के उद्विकास की प्रक्रिया को सहज हेग से समझाने का प्रयत्न किया है। वस्तुतः तीन स्तरों का नियम सामाजिक परिवर्तन की आरंभिक व्याख्या है, जिसमें विचार को एक मुख्य कारक माना गया है।

स्पेन्सर का उद्विकास सिद्धान्त

 हरबर्ट स्पेन्सर का विकास-  स्पेसर ने जीवन और समाज के बीच समानता के आधार पर समाज के उद्विकासीय सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार पदार्थ अविनाशी एवं आधार होता है। गत्यात्मकता की उद्विकास के मूल में हैं। समाज बापच की गत्यात्मकता के कारण ही सदा परिवर्तनशील है। प्रारंभ में समाज बहुत ही सरल था। परिवर्तन की प्रकृति के कारण ही सदा परिवर्तनशील है। प्रारंभ में समाज बहुत ही सरल था। परिवर्तन की प्रवृत्ति के कारण ही विभेदीकरण भी बढ़ता गया। मुख्यतः उद्विकास में दो प्रक्रियाएं काम करती है एक विखंडन की ओर दूसरी एकीकरण की इकाइयों के आधार में विस्तार के साथ ही साथ उसकी संरचना में भी वृद्धि होती है। मूलतः स्पेन्सर विकास की प्रक्रिया को एकीकरण की प्रक्रिया मानते हैं।

सामाजिक उद्विकस की प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों से होकर गुजरती है। इस प्रक्रिया के दौरान समाज का सरल स्वरूप जटिलता को प्राप्त कर लेता है। स्पेन्सर के अनुसार आधुनिक समाज तीन चरणों से गुजरा है-

(क) अदिम (Primitive)

(ख) जंगल (Savage)

(ग) औद्योगिक (Industrial)

इमाइल दुर्थीम का उद्विकासीय सिद्धान्त

इमाइल दुर्खीम का विचार – दुर्खीम ने अपनी पुस्तक (Theory of Division of labor) में सामाजिक परिवर्तन के उद्विकासीय परंपरा को स्पष्ट किया। उनके अनुसार समाज का परिवर्तन यांत्रिक एकता (Mechanical solidarity) में सावयवी एकता की ओर होता है।

यांत्रिक एकता प्रचीन एवं सरल समाजों की विशेषता है।ऐसे समाज में व्यक्तियों की स्थिति, भूमिका, मूल्य, विश्वास, जीवन, शैली, नैतिकता आदि से एकरूपता पायी जाती है। व्यक्तियों पर परंपरा, जनमत और धर्म का अत्यधिक प्रभाव पाया जाता है। कानून का स्वरूप दमनकारी (Repressive) होता है। अपराध को साामूहिक भावनाओं का आधार माना जाता है।

दुर्खीम ने दूसरी ओर सावयवी एकता का समाज वैसे समाज को कहा है जो विकास जटिल, उद्योगिकृत और आधुनिक हैं। समाज में ऐसा परिवर्तन श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण में विस्तार के कारण होता है। इसमें व्यक्ति एक दूसरे से स्वतंत्र न होकर आश्रित हो जाता है। कानून का स्वरूप दमनकारी न होकर क्षतिपूर्ति (Restitutire) के सिद्धान्त पर आधृत हो जाता है। अर्थात गलत काम करने वाले लोगों को कानूनी तौर पर घाटे की भरपाई करनी होती है।

यांत्रिक एकता का आधार सामूहिकता की भावना है। तो सावयवी एकता का आधार वैयक्तिक स्वतंत्रा एवं भिन्नता है। यांत्रिक एकता समाज और व्यक्ति के बीच प्रत्यक्ष एवं सीधा संबंध स्थापित करता है, जबकि सावयवी एकता समाज में अप्रत्यक्ष संबंध स्थापित करती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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