इतिहास / History

पाषाणकालीन संस्कृति | प्रागैतिहासिक काल में भारत के पाषाणकालीन संस्कृति | निम्न पूर्व पाषाणकाल | मध्य पूर्व पाषाणकाल | उच्च पूर्व पाषाणकाल

पाषाणकालीन संस्कृति | प्रागैतिहासिक काल में भारत के पाषाणकालीन संस्कृति | निम्न पूर्व पाषाणकाल | मध्य पूर्व पाषाणकाल | उच्च पूर्व पाषाणकाल

पाषाणकाल

इतिहास का विभाजन प्रागितिहास (Pre-history), आद्य इतिहास (Proto- history) तथा इतिहास (History) तीन भागों में किया गया है। प्रागितिहास से तात्पर्य उस काल से है जिसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता। आद्य-इतिहास वह है जिसमें लिपि के साक्ष्य तो हैं किन्तु उनके अपठ्य या दुर्बोध होने के कारण उनसे कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। जहाँ से लिखित साक्ष्य मिलने लगते हैं, वह काल ऐतिहासिक है। इस दृष्टि से पाषाण कालीन सभ्यता प्रागितिहास तथा सिन्धु एवं वैदिक सभ्यता आद्य इतिहास के अन्तर्गत आती है। ईसा पूर्व छठी शती से ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है किन्तु कुछ विद्वान् ऐतिहासिक काल के पूर्व के समस्त काल को प्रागितिहास ही कहते हैं।

पाषाणकालीन संस्कृति

भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का अनुसंधान सर्वप्रथम 1863 ई0 में प्रारम्भ हुआ जबकि- भारतीय भूतत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान् राबर्ट ब्रूस फुट ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल का एक पाषाणोपकरण प्राप्त किया। तत्पश्चात् विलियम किंग, बाउन, काकबर्न, सी० एल0 कार्लाइल आदि विद्वानों ने अपनी खोजों के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों से कई पूर्व पाषाण काल के उपकरण प्राप्त किये। सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ई० में डी0 टेरा तथा पीटरसन द्वारा किया गया। इन दोनों विद्वानों के निर्देशन में येल कैम्ब्रीज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसे हुए पोतवार के पठारी भाग का व्यापक सर्वेक्षण किया था। इन अनुसंधानों से भारत की पूर्वपाषाणकालीन सभ्यता के विषय में हमारी जानकारी बढ़ी। विद्वानों का विचार है कि इस सभ्यता का उदय और विकास प्रातिनूतन काल (प्लाइस्टोसीन एज) में हुआ। इस काल की अवधि आज से लगभग पाँच लाख वर्ष पूर्व मानी जाती है।

पूर्वपाषाण काल को उपकरणों में भिन्नता के आधार पर तीन कालों में विभाजित किया जाता है

(क) निम्न पूर्व पाषाणकाल।।

(ख) मध्य पूर्व पाषाणकाल।

(ग) उच्च पूर्व पाषाणकाल।

(क) निम्न पूर्व पाषाणकाल

भारत के विभिन्न भागों से निम्न पूर्व पाषाणकाल से सम्बन्धित उपकरण प्राप्त होते हैं। इन्हें दो प्रमुख भागों में विभाजित किया जाता है-

1.चापर-चापिंग पेबुल संस्कृति—  इसके उपकरण सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान) से प्राप्त हुए। इसी कारण इसे सोहन-संस्कृति भी कहा गया है। पत्थर के वे टुकड़े, जिनके किनारे पानी के बहाव में रगड़ खाकर चिकने और सपाट हो जाते हैं, पेबुल कहे जाते हैं। इनका आकार-प्रकार गोल-मटोल होता है। ‘चापर’ बड़े आकार वाला वह उपकरण है जो पेबुल से बनाया जाता है। इसके ऊपर एक ही ओर फलक निकालकर धार बनाई गयी है। चापिंग उपकरण द्विधारा (Bifacial) होते हैं, अर्थात पेबुल के ऊपर दोनों किनारों को छीलकर उनमें धार बनाई गयी है।

  1. हैण्डऐक्स संस्कृति- इसके उपकरण सर्वप्रथम मद्रास के समीप बदमदुरै तथा अत्तिरपक्कम से प्राप्त किये गये। ये साधारण पत्थरों से कोर तथा फ्लेक प्रणाली द्वारा निर्मित किये गये हैं। इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रेपर आदि है।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों से इन दोनों संस्कृतियों के उपकरण प्राप्त किये गये हैं। इनका विवरण इस प्रकार हैं-

(अ) सोहन संस्कृति

सोहन, सिन्धु नदी की एक छोटी सहायक नदी है। प्रागैतिहासिक अध्ययन के लिए इस नदी घाटी का विशेष महत्व है। 1928 ई० में डी० एन० वाडिया ने इस क्षेत्र से पूर्व पाषाणकॉल का उपकरण प्राप्त किया। 1930 ई० में के0 आर0 यू० टाड ने सोहन घाटी में स्थित पिन्डी घेब नामक स्थल से कई उपकरण प्राप्त किये। सोहन घाटी में सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ई० में डी0 टेरा के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने किया। इस दल ने कश्मीर घाटी से लेकर साल्ट रेंज तक के विस्तृत क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। उन्होंने हिम तथा अन्तर्हिम (Glacial and Interglacial) कालों के क्रम के आधार पर पाषाणकालीन सभ्यता का विश्लेषण किया। सोहन नदी घाटी की पाँच वेदिकाओं (Terraces) से भिन्न-भिन्न प्रकार के पाषाणोपकरण प्राप्त किये गये हैं। इन्हें सोहन उद्योग (Sohan Industry) के अन्तर्गत रखा जाता है। द्वितीय हिम युग में भारी वर्षा के कारण पुष्वल-शिवालिक क्षेत्र में बोल्डर कांग्लोमरेट (Boulder Conglomerate) का निर्माण हुआ। बोल्डर, वे पाषाण खण्ड हैं जिन्हें नदी की धाराओं द्वारा पर्वतों या शिलाओं से तोड़कर बहा लिया जाता है। ऐसे पाषाण खण्डों द्वारा निर्मित सतह को ही ‘बोल्डर कांग्लोमरेट’ की संज्ञा दी जाती है। डी0 टेरा तथा पीटरसन ने बोल्डर कांग्लोमरेट के स्थलों से ही बड़े-बड़े पेबुल तथा फलक उपकरण प्राप्त किये। इन सभी का निर्माण क्वार्टजाइट नामक पत्थर द्वारा किया गया है। फलक अत्यन्त घिसे हुए हैं। इनका आकार प्रायः कोन (Cone) जैसा है। ये उपकरण सोहन घाटी में मिलने वाले उपकरणों से भिन्न है। इसी कारण विद्वानों ने इन्हें प्राक्-सोहन (Pre-Sohan) नाम दिया है। ये उपकरण सोहन घाटी में मलकपुर, चौन्तरा, कलार, चौमुख आदि स्थानों से मिले हैं।

सोहन घाटी के उपकरणों को आरम्भिक सोहन, उत्तरकालीन सोहन, चौन्तरा तथा विकसित सोहन नाम दिया गया है। जलवायु शुष्क होने के कारण सोहन घाटी में अनेक कगार या वेदिकायें बन गयी। द्वितीय अन्तर्हिम काल में पहली वेदिका का निर्माण हुआ। इससे मिले हुए पाषाणोपकरणों को ‘आरम्भिक सोहन’ कहा गया है। ये निम्न पूर्व पाषाणकाल से संबंधित है तथा इनमें चापर और हैण्डऐक्स दोनों ही परम्पराओं के उपकरण सम्मिलित हैं। चापर उपकरण पेबुल तथा फ्लेक पर बने हैं। इनके लिए चिपटे तथा गोल दोनों ही आकार के पेबुल प्रयोग में लाये गये हैं। इन प्रारम्भिक उपकरणों को अ, ब तथा स तीन कोटियों में विभाजित किया गया है। ‘अ’ कोटि के उपकरण अत्यधिक टूटे-फूटे तथा घिसे हुए हैं। इनके ऊपर काई तथा मिट्टी जमी हुई है। ‘ब’ कोटि के उपकरणों के ऊपर भी काई तथा मिट्टी जमी हुई है तथापि ये कम घिसे हुए हैं तथा टूटे-फूटे नहीं हैं। इनमें कुछ फलक उपकरण भी हैं। ‘स’ कोटि के अन्तर्गत अपेक्षाकृत नये उपकरण हैं जिनके ऊपर काई तथा मिट्टी बहुत कम लगी है। इनमें फलक अधिक संख्या में है।

  1. सोहन घाटी की प्रथम वेदिका से ही कुछ हैन्ड ऐक्स परम्परा के उपकरण भी मिले हैं। ये दक्षिण की मद्रास परम्परा के समकालीन है। विद्वानों ने इनकी तुलना योरोप के पाषाणकालीन उपकरणों से की है जिनका निर्माण अल्बेबीलियन-अचूलियन प्रणाली के अन्तर्गत किया गया था। सोहन की पहली वेदिका से कोई जीवाश्म (fossil) नहीं प्राप्त हुआ है।
  2. सोहन घाटी की दूसरी वेदिका का निर्माण तीसरे हिमकाल में हुआ, इस वेदिका के उपकरणों को उत्तरकालीन सोहन कहा गया है। इन्हें ‘अ’ तथा ‘ब’ दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है। ‘अ’ श्रेणी के पेबल उपकरण आरम्भिक सोहन पेबुल उपकरणों की अपेक्षा अधिक सुन्दर तथा विकसित हैं। इनमें फलकों की संख्या ही अधिक हैं। उपकरणों में पुनर्गठन बहुत कम मिलता है। फलकीकरण (Flaking) लेवलायजियन प्रकार की हैं। ‘ब’ श्रेणी के उपकरण नये तथा अच्छी अवस्था में है। इनमें फलक तथा ब्लेड अधिक संख्या में मिलते हैं। कुछ अत्यन्त पतले फलक भी मिलते हैं।
  3. तीसरी वेदिका का निर्माण तृतीय अन्तर्हिम काल में हुआ। इससे कोई भी उपकरण नहीं मिलता है। उत्तरकालीन सोहन के अन्तर्गत चौन्तरा से प्राप्त उपकरणों का विशेष महत्व है। इन उपकरणों में प्राक्सोहन के कुछ फलक, सोहन परम्परा के पेबुल तता फलक और मद्रास परम्परा के हैन्ड ऐक्स आदि सभी मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि चौन्तरा उत्तर तथा दक्षिण की परम्पराओं का मिलन-स्थल था। डी० टेरा की धारणा है कि आदि मानव पंजाब में दक्षिण से ही आया तथा उसी के साथ हैन्डऐक्स परम्परा भी यहाँ पहुँची थी। चौन्तरा उद्योग का समय तीसरा अन्तर्हिम काल माना गया है।
  4. सोहन की चौथी वेदिका का निर्माण चौथे हिमकाल में हुआ। इससे मिले हुए उपकरणों को विकसित सोहन’ (Evolved Sohan) की संज्ञा दी गयी 1932 ई० में टाड ने पिन्डी घेब के समीप ढोक पठार से इन उपकरणों की खोज की थी। इनमें ब्लेड पर निर्मित उपकरण ही अधिक है। आकार-प्रकार में ये पूर्ववर्ती उपकरणों से छोटे हैं। सोहन की पांचवीं तथा अन्तिमं वेदिका से मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े मिलते हैं।

डी0 टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने कश्मीर घाटी में भी अनुसंधान किया। उन्होंने यहाँ प्रातिनूतन काल के जमावों का अध्ययन किया किन्तु इस क्षेत्र से उन्हें मानव-आवास का कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका। 1969 ई० में एच0 डी0 संकालिया ने श्रीनगर से कुछ दूरी पर स्थित लिद्दर नदी के तट पर बसे हुए पहलगाम से एक बड़ा फलक उपकरण तथा बिना गढ़ा हुआ हैन्डऐक्स प्राप्त किया। 1970 ई० में संकालिया तथा आर0 वी0 जोशी ने कश्मीर घाटी में पुनः अनुसंधान के फलस्वरूप नौ पाषाणोपकरणों की खोज किया। इनमें स्क्रेपर, बेधक (Borer), आयताकार कोर तथा हैन्डऐक्स वाला चापर आदि है। 1951 ई० में ओलफ रुफर नामक विद्वान् ने सतलज की सहायक नदी सिरसा की घाटी में खोज करके निम्न पूर्व पाषाण काल के उपकरण प्राप्त किया था। तत्पश्चात डी0 सेन को इसी नदी घाटी की वेदिकाओं से क्वार्टजाइंट पत्थर के बने पेबुल तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए। बेलनघाटी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी0 आर0 शर्मा के निर्देशन में अनुसंधान किया गया। बेलन, टोंस की एक सहायक नदी है जो मिर्जापुर के मध्यवर्ती पठारी क्षेत्र में बहती है। इस नदी घाटी के विभिन्न पुरास्थलों से पाषाणकाल के सभी युगों से संबंधित उपकरण तथा पशुओं के जीवाश्म मिले हैं। निम्न पूर्व पाषाणकाल से संबंधित यहाँ 44 पुरास्थल मिलते हैं। बेलन घाटी के प्रथम जमाव से निम्न पूर्व पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनमें सभी प्रकार के हैन्डऐक्स, क्लीवर, स्क्रैपर, पेबुल पर बने हुए चापर उपकरण आदि सम्मिलित हैं। हैन्डऐक्स 9 सेमी0 से लेकर 38.5 सेमी0 तक के हैं। कुछ उपकरणों में मुठिया (Butt) लगाने का स्थान भी मिलता है। ये उपकरण क्वार्टजाइट पत्थरों से निर्मित हैं। बेलन घाटी से मध्य तथा उच्च पूर्व पाषाणकाल के उपकरण भी मिले हैं। उपकरणों के अतिरिक्त बेलन के लोहदा नाला क्षेत्र से इस काल की अस्थि निर्मित मातृदेवी की एक प्रतिमा मिली है जो सम्प्रति कौशाम्बी संग्रहालय में सुरक्षित है। बेलन घाटी की उच्च पूर्व पाषाणकालीन संस्कृति का समय ईसा पूर्व तीस हजार से दस हजार के बीच निर्धारित किया गया है।

(ब) दक्षिण भारत की हैन्डऐक्स परम्परा

इस संस्कृति के उपकरण सर्वप्रथम मद्रास के समीपवर्ती क्षेत्र से प्राप्त हुए। इसी कारण इसे ‘मद्रासीय संस्कृति’ भी कहा जाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, सर्वप्रथम 1863 ई० में राबर्ट बेसफुट ने मद्रास के पास पल्लवरम् नामक स्थान से पहला हैन्डऐक्स प्राप्त किया था। उनके मित्र किंग ने अतिरमपक्कम् से पूर्व पाषाणकाल के उपकरण खोज निकाले। इसके बाद डी0 टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने इस क्षेत्र में अनुसंधान प्रारम्भ किया। वी0 डी0 कृष्णास्वामी, आर0 वी0 जोशी तथा के0 डी0 बनर्जी जैसे विद्वानों ने भी इस क्षेत्र में अनुसंधान कार्य किये।

दक्षिणी भारत की कोर्तलयार नदी घाटी पूर्व पाषाणिक सामग्रियों के लिए महत्वपूर्ण है। इसकी घाटी में स्थित वदमदुरै (Vadamadurai) नामक स्थान से निम्न पूर्व पाषाणकाल के बहुत से उपकरण मिले हैं जिनका निर्माण क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है। वदमदुरै के पास कोर्तलायर नदी की तीन वेदिकायें मिली है। इन्हीं से उपकरण एकत्र किये गये हैं। इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है। सबसे नीचे की वेदिका को बोल्डर काग्लोमीरेट कहा जाता है। इससे कई औजार-हथियार मिलते हैं। इन्हें भी विद्वानों ने दो श्रेणियों में रखा प्रथम श्रेणी में भारी तथा लम्बे हैन्डऐक्स और कोर उपकरण है। इन पर सफेद रंग की काई जमी है। इन उपकरणों के निर्माण के लिए काफी मोटे फलक निकाले गये हैं। हैन्डऐक्सों की मुठियों के सिरे (Butt ends) काईफ मोटे हैं। कोर उपकरणों के किनारे टेढ़े-मेढ़े हैं तथा उन पर गहरी फ्लेकिंग के चिह्न दिखाई देते हैं। हैन्डऐक्स फ्रान्स के अबेवीलियन परम्परा के हैन्डऐक्सों के समान हैं। द्वितीय श्रेणी में भी हैन्डऐक्स तथा कोर उपकरण ही आते हैं किन्तु वे कलात्मक दृष्टि से अच्छे हैं। इन पर सुव्यवस्थित ढंग से फलकीकरण किया गया है। कहीं-कहीं सोपान पर फलकीकरण (Step Flaking) के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं। इस श्रेणी के हैन्डऐक्स अश्यूलियन (Acheulean) कोटि के हैं। दूसरे वर्ग के उपकरण कलात्मक दृष्टि से विकसित तथा सुन्दर है। चूंकि बीच की वेदिका लाल रंग के पाषाणों (Laterite) से निर्मित हैं, इस कारण इनके सम्पर्क से उपकरणों का रंग भी लाल हो गया है। इस कोटि के हैन्डऐक्स चौड़े तथा सुडौल हैं। इन पर सोपान पर फलकीकरण अधिक है तथा पुनर्गठन के भी प्रमाण मिलते हैं। इन्हें मध्य अश्यूलियन कोटि में रखा गया है। तीसरे वर्ग के उपकरणों का रंग न तो लाल है और न उनके ऊपर काई लगी हुई है। तकनीकी दृष्टि से ये अत्यन्त विकसित है। अत्यन्त पतले फलक निकालकर इनको सावधानी पूर्वक गढ़ा गया है। हैन्डऐक्स अण्डाकार तथा नुकीले दोनों प्रकार के हैं। वदमदुरै से कुछ क्लीवर तथा कोर उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।

(ख) मध्य पूर्व पाषाणकाल

भारत के विभिन्न भागों से जो फलक प्रधान पूर्व पाषाणकाल के उपकरण मिलते हैं उन्हें इस काल के मध्य में रखा जाता है। इनका निर्माण फलक या फलक तथा ब्लेड पर किया गया है। इनमें विभिन्न आकार-प्रकार के स्क्रेपर, ब्यूरिन, बेधक आदि है। किसी-किसी स्थान से लघुकाय सुन्दर हैन्डऐक्स तथा क्लीवर उपकरण भी मिलते हैं। बहुसंख्यक कोर, फ्लेक तथा ब्लेड भी प्राप्त हुए हैं। फलकों की अधिकता के कारण मध्य पूर्व पाषाणकाल को ‘फलक संस्कृति’ की संज्ञा दी जाती है। इन उपकरणों का निर्माण अच्छे प्रकार के स्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है। इसमें चर्ट, जैस्पर, फ्लिन्ट जैसे मूल्यवान पत्थरों को लगाया गया है।

मध्य पूर्वपाषाणकाल के उपकरण महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, जम्मू-कश्मीर आदि सभी प्रान्तों के विभिन्न पुरास्थलों से खोज निकाले गये हैं। महाराष्ट्र में नेवासा, बिहार में सिंहभूमि तथा पलामू जिले, उत्तर प्रदेश में चकिया (वाराणसी), सिंगरौली बेसिन (मिर्जापुर), बेलन घाटी (इलाहाबाद), मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका गुफाओं तथा सोन घाटी, राजस्थान में बागन, बेरॉच, कादमली घाटियों, गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र, हिमाचल में व्यास-बानगंगा तथा सिरसा घाटियों आदि विविध पुरास्थलों से ये उपकरण उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार मध्य पूर्वपाषाणिक संस्कृति का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है।

(ग) उच्च पूर्व पाषाणकाल

यूरोप तथा पश्चिमी एशिया के भागों में मध्य पूर्व पाषाणकाल के पश्चात् उच्च पूर्व पाषामकालीनसंस्कृति का समय आया। इसका प्रधान पाषाणोपकरण ब्लेड है। ब्लेड पतले तथा संकरे आकार वाला वह पाषाण फलक है जिसके दोनों किनारे समायान्तर होते हैं तथा जो लम्बाई में अपनी चौड़ाई से दूना होता है। प्रारम्भ में पुराविद् भारतीय प्रागैतिहास में ब्लेड प्रधान काल मानने को तैयार नहीं थे किन्तु बाद में विभिन्न स्थानों से ब्लेड उपकरणों के प्रकाश मैं आने के परिणाम स्वरुप यह स्वीकार किया गया कि यूरोप तथा पश्चिमी एशिया की भांति भारत में भी ब्लेड प्रधान उच्च पूर्व पाषाणकाल का अस्तित्व था।

भारत के जिन स्थानों से उच्च पूर्व पाषाणकाल का उपकरण मिला है उनमें बेलन तथा सोन घाटी (उ० प्र०), सिंहभूमि (बिहार), जोगदहा भीमबेटका, बबुरी, रामपुर, बाघोर (म0 प्र0), पटणे, भदणे तथा इनामगाँव (महाराष्ट्र), रेणिगुन्ता, वेमुला, कर्नूल गुफायें (आन्ध्र प्रदेश), शोरापुर दोआब (कर्नाटक), विसदी (गुजरात) तथा बूढ़ा पुष्कर (राजस्थान) का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। इन स्थानों से प्राप्त इस काल के उपकरण मुख्य रूप से ब्लड पर बने हैं। इसके साथ-साथ कुछ स्क्रेपर, बेधक, छिद्रक भी मिले हैं। ब्लेड उपकरण एक विशेष प्रकार के बेलनाकार कोरों से निकाले जाते थे। इनके निर्माण में चर्ट, जेस्पर, फ्लिन्ट आदि बहुमूल्य पत्थरों का उपयोग किया गया है। पाषाण के अतिरिक्त इस काल में हड्डियों के बने हुए कुछ उपकरण भी मिलते हैं। इनमें स्क्रेपर, छिद्रक, बेधक तथा धारदार उपकरण है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इलाहाबाद के बेलन घाटी में स्थित लोहदा नाले से मिली हुई अस्थि- निर्मित मातृदेवी की मूर्ति इसी काल की है। भीमबेटका से नीले रंग के कुछ पाषाण खण्ड मिलते हैं। वाकणकर महोदय के अनुसार इनके द्वारा चित्रकारी के लिए रंग तैयार किया जाता होगा। संभव है विन्ध्य क्षेत्र की शिलाश्रयों में बने हुए कुछ गुहाचित्र उच्च पूर्व पाषाणकाल के ही हो। इनसे तत्कालीन मनुष्यों की कलात्मक अभिरुचि भी सूचित होती है। इस प्रकार के गुफाचित्र पश्चिमी यूरोप से भी प्राप्त हुए हैं।

भारत में उच्च पूर्व पाषाण काल की अवधि ई0 पू0 तीस हजार से दस हजार के मध्य निर्धारित की गयी है। पूर्व पाषाणकालीन मनुष्य का जीवन पूर्णतया प्राकृतिक था। वे प्रधानतः आखेट पर निर्भर करते थे। उनका भोजन मांस, अथवा कन्दमूल हुआ करता था। अग्नि के प्रयोग से अपरिचित रहने के कारण वे मांस कच्चा खाते थे। उनके पास कोई निश्चित निवास- स्थान भी नहीं था तथा उनका जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ था। सभ्यता के इस आदिम युग में मनुष्य कृषि कर्म अथवा पशुपालन से परिचित नहीं था और न ही वह बर्तनों का निर्माण करना जानता था। इस काल का मानव केवल खाद्य-पदार्थों का उपभोक्ता ही था। वह अभी तक उत्पादक नहीं बन सका था। मनुष्य तथा जंगली जीवों के रहन-सहन में कोई विशेष अन्तर नहीं था।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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