प्रारम्भिक हिन्दू-मन्दिर वास्तुकला | प्रारम्भिक हिन्दू-मन्दिर वास्तुकला और स्थापत्य | मन्दिरों की आवश्यकता | ऐतिहासिक युग का प्रारम्भ | गुप्तकाल के हिन्दू-मंन्दिरों की शैलियां

प्रारम्भिक हिन्दू-मन्दिर वास्तुकला | प्रारम्भिक हिन्दू-मन्दिर वास्तुकला और स्थापत्य | मन्दिरों की आवश्यकता | ऐतिहासिक युग का प्रारम्भ | गुप्तकाल के हिन्दू-मंन्दिरों की शैलियां

प्रारम्भिक हिन्दू-मन्दिर वास्तुकला (मन्दिरों की आवश्यकता)

भारत के इतिहास में ईसा के बाद की शताब्दियाँ भक्ति प्रधान पौराणिक हिन्दू-धर्म के वैष्णव और शैव इत्यादि सम्प्रदायों और बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण हैं। गुप्त-काल तक इन सम्प्रदायों में मूर्ति-पूजा की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई, अतः अब इस बात की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी कि देव मूर्तियों के लिए भवनों का निर्माण किया जाये। अभी तक उपासना-भवनों के रूप में हिन्दू और बौद्ध धर्मों में गुफाओं का निर्माण होता था और काफी बाद तक होता रहा, परन्तु यह सर्वथा स्पष्ट है कि नगरों से दूर निर्जन स्थानों पर बनी गुफाएँ नवीन धर्मों में प्रचलित पूजा पद्धतियों के अनुकूल नहीं हो सकती थीं। इसलिए धीरे-धीरे देव मूर्तियों के लिए नये प्रकार के भवन बनने लगे। यह भवन ‘मन्दिर’ कहलाते हैं। संख्या और कला की दृष्टि से हिन्दू-मन्दिरों का महत्त्व अधिक है।

गुप्तकाल के हिन्दू-मंन्दिरों की शैलियां

मन्दिरों का निर्माण सम्भवतः गुप्तकाल के कुछ पूर्व लकड़ी, मिट्टी और ईंटों के भवनों के रूप में प्रारम्भ हुआ। अभाग्यवश यह सभी मन्दिर नष्ट हो चुके हैं। गुप्तकाल (320 ई० से 600 ई०) में इन भवनों को अधिक स्थायी बनाने के लिए पत्थर और पक्की ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा। इस काल में निश्चित रूप से मन्दिरों का निर्माण काफी बड़ी संख्या में किया गया था, परन्तु इनके अवशिष्ट नमूने बहुत कम प्राप्य हैं। यह काल मन्दिर-निर्माण-काल का शैशव था और इस समय भाँति-भाँति के प्रयोग करके मन्दिरों की एक आधारभूत योजना निश्चित करने का प्रयास किया जा रहा था, इसलिए इस काल के अवशिष्ट मन्दिरों की संख्या कम होते हुए भी उनके बनाये जाने का ढंग कई प्रकार का है। पहला प्रकार वस्तुतः बौद्ध-चैत्य- भवन का रूपान्तर मात्र है। इसमें एक आयताकार कक्ष, जिसका पृष्ठभाग वर्तुलाकार और छत ढोलाकार होती है, मिलता है। शोलापुर जिले में तेर स्थान पर प्राप्त मन्दिर और दक्षिण में कृष्णा जिले में कपोतेश्वर का मन्दिर इसके उदाहरण । दूसरा प्रकार बौद्ध-स्तूपों का रूपान्तर कहा जा सकता है। इस प्रकार के मन्दिर की योजना गोल होती है। प्राचीन राजगृह में प्राप्त मणियार-मठ इसका उदाहरण है। यह दोनों प्रकार लोकप्रिय न हो सके। तीसरे प्रकार में, जिसे परवर्ती हिन्दू-मन्दिरों, की योजना का बीज कहा जा सकता है, एक लघु वर्गाकार गर्भगृह (वह स्थान जहाँ मूर्ति स्थापित की जाती है) के सामने एक मण्डप मिलता है। इस प्रकार के मन्दिरों में छत सीधी पटी हुई और मण्डप में चार स्तम्भ मिलते हैं। स्तम्भों पर शिल्पकारी मिलती है, परन्तु दीवारें सादी हैं। साँची का मन्दिर नं० 17 तथा तिगावा और एरण के मन्दिर इस प्रकार के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। चौथा प्रकार तीसरे प्रकार से मिलता-जुलता है। अन्तर केवल इतना है कि इसमें गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ मिलता है और कभी-कभी दूसरी मंजिल भी मिलती है। इस प्रकार में नाचना-कुठारा के पार्वती मन्दिर और भूमरा के शिव मन्दिर उल्लेखनीय हैं। पाँचवाँ और अन्तिम प्रकार इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें प्रथम बार गर्भगृह के ऊपर सीधी पटी छत के स्थान पर एक छोटा-सा ‘शिखर’ मिलता है। प्राचीनतम शिखर युक्त मन्दिर छठी शताब्दी ई० के हैं। इनमें देवगढ़ (झाँसी) का दशावतार-मन्दिर तथा भीतर गाँव का मन्दिर महत्त्वपूर्ण हैं।

सैन्धव और वैदिक युग

भारतीय मूर्तिकला का इतिहास सैन्धव युग से प्रारम्भ होता है। सैन्धव-नगरों से मिली मूर्तियों में ध्यानावस्थित पुजारी अथवा योगी की मूर्ति, लाल पत्थर से बनी नटराज (?) की मूर्ति, एवं कांस्य से निर्मित नर्तकी की मूर्ति सुप्रसिद्ध हैं। सैन्धव-जन मुद्राओं पर मूर्तियाँ उकेरने में भी निपुण थे। परन्तु वैदिक युग में यह कला निर्जीव हो गई। वैदिक साहित्य में एकाध स्थलों पर मूर्तिपूजा का उल्लेख मिलता है, परन्तु उस युग की मूर्तियाँ अभी तक अनुपलब्ध हैं।

ऐतिहासिक युग का प्रारम्भ

हिन्दू मूर्तिकला का ऐतिहासिक युग सम्भवतः मौर्यकालीन यक्ष-प्रतिमाओं से प्रारम्भ होता है, जिसके नमूने परखम, पटना, दीदारगञ्ज आदि से मिले हैं। इनमें कलाकारों ने भावाभिव्यक्ति का प्रयास नहीं किया है। इसके बाद हिन्दू मूर्तियों के अनेक नमूने साँची, भारहुत, बोधगया, अमरावती आदि बौद्ध-स्थलों से मिलते हैं। ई० पू० प्रथम शताब्दी की कुछ मूर्तियाँ अहिच्छत्रा से मिली हैं। इनमें विष्णु, सूर्य, इन्द्र, पृथ्वी, प्रजापति आदि की प्रतिमाएँ आदि सम्मिलित हैं। विदिशा से उपलब्ध गरुड़ध्वज भी इसी युग का है।

कुषाण और गुप्त युग

कुषाण और गुप्त युगों में मूर्तिकला के सुप्रसिद्ध केन्द्र गान्धार, मथुरा, सारनाथ, नालन्दा आदि थे । गुप्तकालीन हिन्दू मूर्तियों में सौम्यता और माधुर्य की प्रधानता है। इस युग में हिन्दुओं के मुख्य आराध्य देव विष्णु और शिव थे, इसलिए उन्हीं की मूर्तियाँ अधिकांशतः बनीं। खोह से प्राप्त एकमुख शिवलिंग (जिस पर शिव की मूर्ति बनी है) इस युग की हिन्दू कला का प्रतीक है। इनके अतिरिक्त बेसनगर की मकरवाहिनी गंगा, भूमरा की महिषमर्दिनी दुर्गा, देवगढ़ के शेषशायी विष्णु तथा सारनाथ के लोकेश्वर शिव की प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं। बेतवा नदी के तट पर स्थित दशावतार मन्दिर के द्वार के ऊपर लतापत्रादि की सजावट तथा स्तम्भों पर प्रथम, द्वारपाल तथा मंगलकलश आदि की बनावट मनोहर है और दीवारों पर अंकित नर-नारायण, शेषशायी विष्णु तथा गजेन्द्रोद्धार के दृश्य अतीव सुन्दर बन पड़े हैं।

उदयगिरि

विदिशा के निकट स्थित उदयगिरि की 5वीं गुफा में भगवान् वराह द्वारा पृथ्वी के उद्धार का दृश्य तक्षित है। गुप्तयुगीन कलाकृतियों में यह अनुपम है। इसमें वराह का शरीर मनुष्य के समान और सिर शूकर के समान दिखाया गया है। उनका शरीर बल और स्फूर्ति का प्रतीक प्रतीत होता है। वह अपना बायाँ पैर शेषनाग पर रखे हुए हैं और नारी रूप में तक्षित पृथ्वी को ऊपर उठा रहे हैं। वराह के बाईं ओर अप्सराएँ और दाहिनी ओर ब्रह्मा, शिव आदि देवता अंकित है। असुर और ऋषि आदि दर्शक रूप में खड़े हैं। दूसरी ओर गंगा-यमुना के अवतरण  का दृश्य उत्कीर्ण है। इस मूर्ति के निर्माता ने लोककल्याण की भावना अभिव्यक्त करने में पूरी सफलता पाई है।

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