इतिहास / History

दक्षिणी-पूर्वी एशिया में राष्ट्रवाद का विकास | फ्रांस के प्रभुत्व की स्थापना | फ्रांस की युद्धोत्तर नीति | हनोई समझौता

दक्षिणी-पूर्वी एशिया में राष्ट्रवाद का विकास | फ्रांस के प्रभुत्व की स्थापना | फ्रांस की युद्धोत्तर नीति | हनोई समझौता

दक्षिणी-पूर्वी एशिया में राष्ट्रवाद का विकास

दक्षिण-पूर्वी एशिया में फ्रांस के अधीन इण्डोचायना (हिन्दू-चीन) का राज्य था । उसका क्षेत्रफल 2,85,000 वर्ग मील और उसकी आबादी 2 करोड़ 40 लाख थी, जिसमें 5 लाख चीन और 42 हजार यूरोपीय भी थे, जो प्रायः सभी फ्रांसीसी थे (1941 ई०)। इस राज्य के मुख्य पाँच भाग थे-तोन्किन, अनाम, कोचीन-चायना, कम्बोडिया और लाओस के फ्रांसीसी संरक्षित राज्य। फ्रांस की अधीनता में होने के कारण ये पाँचों प्रदेश यद्यपि एक ही राज्य के अंग थे परन्तु समय में ये राजनीतिक व सांस्कृतिक दृष्टि से एक नहीं थे। तोन्किन और अनाम पर चीनी सभ्यता का प्रभाव था और कम्बोडिया व लाओस के प्रदेशों पर भारतीय सभ्यता का। तोन्किन व अनाम चीन को दक्षिणी सीमा के नजदीक थे। इसी कारण चीन के अनेक शक्तिशाली सम्राट इन प्रदेशों को अपनी अधीनता में लाने में समर्थ हुए थे। उन्नीसवीं सदी के मध्य भाग तक भी ये प्रदेश चीन के मंचु साम्राज्य के अधीन थे। दक्षिणी इण्डोचायना के विविध राज्यों की स्थिति भी उस समय चीन के सम्राट के करद राज्यों के सदृश थी। ये मंचु सम्राट की अधीनता को स्वीकार करते थे।

दक्षिणी-पूर्व एशिया के अनेक देशों के समान इण्डोचायना के समुद्र तुट पर भी सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगाल के लोगों ने आना-जाना आरम्भ कर दिया था किन्तु उन्होंने यहाँ राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। पुर्तगाल के पश्चात् हॉलैण्ड, स्पेन, ब्रिटेन और फ्रांस के व्यापारी भी इस देश में व्यापार के लिए आये थे, पर उन्होंने भी वहाँ अपने राजनीतिक प्रभुत्व को स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। इस प्रकार अठारहवीं शताब्दी के मध्य भाग तक हिन्द-चीन की स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनी रही।

फ्रांस के प्रभुत्व की स्थापना

हिन्द-चीन में फ्रांस की वास्तविक राजनीतिक सत्ता 1747 से 1858 ई० के बीच स्थापित हुई ।इस काल के आरम्भिक वर्षों (1747-1774 ई०) में फ्रांस ने इस आशा से अनाम के साथ राजनयिक सम्बन्ध बनाए कि व्यापार आरम्भ किया जा सके और डच एवं ब्रिटिश व्यापार पर आक्रमण का अड्डा बनाया जा सके। 1787 ई० में फ्रांस और हिन्द-चीन के बीच पहली सन्धि पर हस्ताक्षर किये गये। इस सन्धि का उद्देश्य फ्रांस का राज्य विस्तार और कैथोलिक धर्म प्रचार था। इस सन्धि के फलस्वरूप फ्रांसीसी पादरियों का प्रभाव इन देशों में बढ़ता जा रहा था किन्तु अनाम की सरकार इन्हें पसन्द नहीं करती थी। 1858 ई. में अनाम में कार्य करने वाले अनेक फ्रांसीसी पारियों पर हमले किये गये। फ्रांसीसी लोगों ने अपने देश के पारियों के प्रति किये गये दुर्व्यवहार को अच्छा नहीं माना, परिणामस्वरूप फ्रांसीसी सेनाओं ने हिन्द-चीन में प्रवेश किया और अनेक स्थानों पर अधिकार कर लिया। अनाम का राजा फ्रांसीसी सेनाओं का मुकाबला नहीं कर सका। अतः 1863 ई० में मजबूर होकर उसे सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार हिन्द-चीन फ्रांस के अधीन हो गया और अनाम के राजा ने एक बड़ी रकम हर्जाने के रूप में फ्रांस को प्रदान करना स्वीकार किया। इस प्रकार 1863 में हिन्द-चीन में फ्रांस के प्रभुत्व का सूत्रपात हुआ।

अपनी इस विजय से प्रेरित होकर 1873 ई० में एक फ्रांसीसी सेना ने तोन्किन में प्रवेश कर उसके कुछ प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया। 1874 ई० में फ्रांसीसी लोगों ने यहाँ के राजा को इस बात के लिए विवश किया कि वह तोन्किन में फ्रांस को व्यापार के विशेष अधिकार प्रदान करे। फांसीसी लोगों ने यहां के राजा से यह भी स्वीकार करा लिया कि वह अपनी विदेश नीति का संचालन फ्रांस के परामर्श के अनुसार करेगा। राजनीतिक दृष्टि से यह एक अद्भुत स्थिति थी। अनाम का राज्य चीनी साम्राज्य के अन्तर्गत था और वह मांचू सम्राट को अपना अधिपति स्वीकार करता था। किन्तु चीन के कमजोर सम्राटों के लिए यह संभव नहीं था कि वे अनाम जैसे दूरवर्ती प्रदेश की फ्रांसीसी लोगों से रक्षा कर सकें ।1874 ई० को सन्धि से लाभ उठाकर फ्रांसीसी व्यापारियों ने तोन्किन में जाना आरम्भ कर दिया। फ्रांसीसी लोगों ने व्यापार के साथ-साथ राजनीतिक प्रभुत्व भी स्थापित करने का प्रयास किया। अत: 1874 ई. के पश्चात् तोन्किन में अनेक स्थानों पर झगड़े आरम्भ हुए और सभी स्थानों पर अव्यवस्था फैलने लगी। चीन की सरकार अपने सामाज्य के अधीन तोन्किन प्रदेश की इस अव्यवस्था की और अधिक उपेक्षा नहीं कर सकी, अतः उसने वहाँ अपनी सेनाएँ भेज दीं। इससे वहाँ चीन और फ्रांस के बीच युद्ध आरम्भ हो गया। चीन की सरकार के लिए यह संभव नहीं था कि वह इतनी दूर दक्षिण में फ्रांसीसी सेनाओं का मुकाबला कर सके, अतः 1883 ई० में अनाम के राजा को फ्रांस की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस समय से तोन्किन व अनाम पर फ्रांस का आधिपत्य स्थापित हो गया। इसके एक दशक बाद 1893 ई० में फ्रांस ने अनाम की ओर से स्याम से मेकोग नदी के पूर्व का कुछ अन्दरूनी प्रदेश माँगा, जो लाओस के रूप में नया फ्रांसीसी संरक्षित प्रदेश बन गया। अगले दशक 1904 ई० में स्याम का कुछ और क्षेत्र कम्बोडिया और लाओस को सौंप दिया तथा 1907 ई० में स्याम से कम्बोडिया को अतिरिक्त धन दिलाया गया। इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी का अन्त होने से पूर्व ही प्रायःसम्पूर्ण इन्डो-चायना पर फ्रांस का अधिकार हो गया।

राष्ट्रीयता का उदय-

इण्डो-चायना में राष्ट्रीयता का उदय बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही माना जाता है। यह राष्ट्रीयता सर्वप्रथम अनाम और टोन्कुिन में ही प्रकट हुई। 1904-1905 ई० में जब जापान ने रूस को पराजित कर दिया तो वहाँ भी राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई। फिर भी 1908 ई. में अनेक स्थानीय बुद्धिजीवी यह देखकर निराश हो गए कि हिन्द-चीन के फ्रांसीसियों को अनुदार प्रतिक्रिया के कारण हनोई विश्वविद्यालय बन्द कर दिया गया। प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रांस द्वारा अनामवासियों को युद्ध में मजदूरों और सिपाहियों के रूप में प्रयोग में लाने से उनमें अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना उत्पन्न हुई, साथ ही चीन के राष्ट्रवादी आन्दोलन से भी वहाँ राष्ट्रीयता का विकास हुआ। जिन बुद्धिजीवियों ने इसका नेतृत्व किया, वे फ्रांसीसी उदारवादी परम्परा में शिक्षित थे। फ्रांस कभी नहीं चाहता था कि इस देश में राष्ट्रीयता की भावना फैले । यद्यपि फ्रांसीसी प्रशासकों ने जानबूझकार कभी भी राष्ट्रवाद को प्रोत्साहान नहीं दिया परन्तु फ्रांसीसी स्थापनाएँ 1789 ई. के उदार विचारों से इस प्रकार अभिभूत थीं कि वे अनजाने ही देश भक्ति और अधीनस्थ प्रजाजनों में राजनीतिक स्वतंत्रता के प्रति प्रेम का प्रसार करती रहीं। प्रथम विश्वयुद्ध से पहले के दशक में हिन्द-चीन में राजनीतिक और आर्थिक आधार पर अशान्ति फैली हुई थी। रूस-जापान युद्ध में जापान की विजय से यहाँ राष्ट्रीयता की भावना प्रोत्साहित हुई। इस ओर अधिक विकास अनामी बुद्धिजीवियों की 18 वीं शताब्दी के फ्रांसीसी लेखकों रूसो और मांटेस्क्यू के राजदर्शन में दिलचसी से हुआ।

किन्तु यह राष्ट्रीय आन्दोलन द्वितीय विश्व युद्ध तक तीव्र गति प्राप्त नहीं कर सका। इसके भी अनेक कारण थे-इसका एक प्रमुख कारण यह था कि हिन्द-चीन की जनता में एकरूपता (सजातीयता) नहीं थी। अनामी जो देश के एकमात्र प्रबल तत्व थे, उनकी संख्या 1 करोड़ 60 लाख थी, जबकि हिन्द-चीन की कुल जनसंख्या 2 करोड़ 30 लाख थी। अनामियों का उस देश की कुल उपलब्ध भूमि के केवल 11 प्रतिशत क्षेत्र पर ही अधिकार था। इसके अतिरिक्त जिस भूमि पर अनामियों का अधिकार था, वह अदुभुत स्थिति और आकार में थी। इसके उत्तरी छोर में 5,800 वर्ग मील भूमि पड़ती है और इसके दक्षिणी छोर में लगभग 20,000 वर्गमील भूमि है। किन्तु इन दोनों छोरों के बीच अनामियों की बस्ती बहुत पतली पट्टी के आकार में स्थित है। ये लोग समुद्री किनारों या पहाड़ों पर बसे हुए नहीं है। ये लोग तट के दूरस्थ प्रदेशों जैसे कोचीन-चीन तक भी नहीं बसें।

इसी तरह प्रशासनिक दृष्टि से इस पत्र को पी विभाजित किया जा सकता। पहला फ्रांसीसी शासन कोचीन-चीन में चापित हुभा, जो एक उपनिवेश के रूप में संगठित हुआ । पर तोन्किन के संरक्षण की अपेक्षा मोसमें सारस्वतिक और राजनीतिक प्रभाव अधिक रहे। दो अन्य संरक्षित प्रदेशों में जिसमें फ्रांसीसी अण्डोचीन, फाबोडिया और लाओस स्थित है, जनसंख्या अनामियों की नहीं पी और यहाँ के निवासी चीनी संस्कृति की अपेक्षा भारतीय संस्कृति से अधिक प्रभावित थे। ये दोनों सहित प्रदेश या अतिक्रमण के समय और साथ ही अनामी प्रभाव के विस्तार से बचने के लिए फ्रांस की सहायता की अपेक्षा रखते थे। अतः अनामी राष्ट्रीयता कम्बोडिया और लाओस में प्रविष्ट नहीं हो पायी और अनाम या तोन्किन की अपेक्षी उस उपनिवेश, कोचीन चीन में कम दृढ़ता से स्थिर हो पायी।

इसके अतिरिक्त अनामी राष्ट्रीयता द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व विभिन्न उद्देश्यों वाली राजनीतिक पार्टियों में विभक्त हो गयी थी जिसमें एक पार्टी का (फामप्यून्हाउ तोन्किन पार्टी) उद्देश्य “फ्रांस से अलग होने का नहीं था और जो केवल संवैधानिक सुधार चाहती थी।” इसके अतिरिक्त युवक अनामियों की एक क्रांतिकारी पार्टी थी, जिसने राष्ट्रवादियों और कम्युनिस्टों को 1928 ई. तक एक साथ संगठित रखा, जिसके बाद कम्युनिस्ट अलग हो गये। इसके अलावा एक राष्ट्रवादी अनामियों की पार्टी भी थी, जो केन्टोनी दल के निकट सम्बन्ध में आतंकवादी विचारों की थी। सबसे प्रमुख दल ‘अनामी पार्टी’ जोन्गुएन-आई-को के नेतृत्व में स्थापित की गई थी। यह पार्टी पूर्णतः संगठित थी और जिसकी केन्टन व मास्को में आस्था थी। इनमें से किसी भी पार्टी को केवल आर्थिक संकट के समय के अतिरिक्त और कभी जनसमुदाय का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ था।

दक्षिण-पूर्वी देशों के लिए द्वितीय महायुद्ध (1939-45 ई०) एक वरदान सिद्ध हुआ। इण्डोचायना, मलाया, इण्डोनेशिया, यर्मा आदि जो देश सुदीर्घ समय से पाश्चात्य साम्राज्यवाद के शिकार थे, जापान की विजयों के कारण उन्हें स्वतंत्र होने का सुअवसर प्राप्त हो गया । जापान ने इन देशों में कुछ समय के लिए अपना सैनिक शासन स्थापित किया था और बाद में वहाँ ऐसी स्वतंत्र सरकारें स्थापित हुई, जो पाश्चात्य देशों के विरुद्ध जापान के साथ सहयोग करने को तैयार थीं। इण्डोचायना में भी ऐसा ही हुआ। इण्डोचायना की राष्ट्रीयता की भावना एक बार पाश्चात्य साम्राज्यवादियों के चंगुल से मुक्त हो जाने के कारण और उग्र हो गयी। अब उसे कुचलना न तो फ्रांस के लिए सम्भव था और न जापान के लिए।

जून, 1940 में फ्रांस जुर्मनी द्वारा परास्त हो गया और पेरिस नाजी सेनाओं के अधीन आ गया था। मार्शल पेतां और श्रीलवाल के नेतृत्व में 21 जून, 1940 को नई सरकार बनी जिसने हिटलर के प्रतिनिधियों से सन्धि कर ली। इस सन्धि के अनुसार फ्रांस को दो भागों में बांटा गया-जर्मनी द्वारा अधिकृत फ्रांस और स्वाधीन (विशी सरकार के अधीन) फ्रांस । जो फ्रांसीसी लोग मार्शल पेर्ता की नीति से असंतुष्ट थे उनका नेता जनरल द गाल था। इन्होंने इंग्लैण्ड में एकत्र होकर वहाँ आजाद फ्रांसीसी सरकार का संगठन किया। इण्डो-चीन के गवर्नर-जनरल श्रीकार्नु ने जनरल-द-गाल का साथ देने का फैसला किया। इस पर विशी सरकार ने उसे अपने पद से हटा दिया और श्रीदेकु को इण्डो-चीन का नया गवर्नर जनरल बनाया।

यद्यपि अभी जापान महायुद्ध में तटस्थ था, पर इण्डोचायना को वह अपने प्रभुत्व में लाना चाहता था। ब्रिटेन और अमेरिका इण्डोचायना के मार्ग से च्यांग-काई-शेक की चुंगकिंग सरकार को सहायता पहुंचाना चाहते थे। जापान ने श्रीदेकु के साथ 30 अगस्त, 1940 को एक समझौता किया जिसके अनुसार-

(i) इण्डोचायना की फ्रांसीसी सरकार ने जापान को यह अनुमति प्रदान की कि वह अपनी सेनाएँ टोन्किन के प्रदेश में रख सके, तथा

(ii) जापान इण्डोचायना को सैन्य-संचालन के लिए आधार के रूप में प्रयोग कर सकेगा।

इस समझौते का उद्देश्य यह था कि ब्रिटेन और अमेरिका इण्डोचायना के मार्ग से चुंगकिग सरकार को सहायता न पहुंचा सकें। वास्तव में जापान इस देश का चीन के विरुद्ध प्रयोग करना चाहता था। इसी आधार पर जापान ने इण्डोचायना में इतनी अधिक सेनाएँ भेज दी कि फ्रांसीसी सरकार असहाय हो गयी।

वियतनाम सरकार की स्थापना-

मार्च, 1945 में महायुद्ध की परिस्थिति ऐसी थी कि जापान के लिए अपने विशाल साम्राज्य और प्रभाव-क्षत्रों की रक्षा करना संभव नहीं रहा था। जर्मनी अधिक समय तक मित्र राष्ट्रों का मुकाबला नहीं कर सकता था। अत: अगस्त, 1944 में फ्रांस जर्मनी के आधिपत्य से स्वतन्त्र हो गया था और जनरल-द गाल के नेतृत्व में वहाँ फ्रांस की सरकार का पुनर्गठन किया गया। मार्शल पेतां की सरकार का पतन हो गया और इण्डोचायना में श्रीदेव की स्थिति संकटमय हो गयी। इस स्थति में जब 1945 ई० में जापान ने अपनी सेनाओं को धीरे-धीरे दक्षिण पूर्वी एशिया से हटाना आरम्भ किया, तो मार्च में इण्डोचायना से भी उसने अपनी सेनाएं बुला ली। जापान की सेनाओं के वापस चले जाने पर श्रीदेकु के लिए यह संभव नहीं थी कि वह इण्डोचायना पर फ्रांस का प्रभुत्व स्थापित रख सके। इस स्थिति का लाभ उठाकर राष्ट्रवादी देशभक्तों ने इण्डोचायना की राष्ट्रीय स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और ‘विएत मिन्ह’ नाम से अपनी स्वतंत्र सरकार का गठन कर लिया। इस सरकार का नेता हो ची मिन्ह था। क्रान्तिकारी अनुयायियों ने अनाम के राजा या सम्राट बाओदाई की सत्ता की उपेक्षा कर इण्डोचायना में ‘विएतनाम’ नाम के रिपब्लिकन राज्य की घोषणा कर दी और अपने को फ्रांसीसी आधिपत्य से पूर्ण रूप से मुक्त कर लिया। अब सम्राट बाओदाई के लिए अपने पद पर बने रहना संभव नहीं था। अतः उसने 25 अगस्त; 1945 को सम्राट का पद त्याग दिया और 2 सितम्बर, 1945 को विएतनाम रिपब्लिक का शासन सम्पूर्ण अनाम पर वैध रूप से स्थापित हो गया।

फ्रांस की युद्धोत्तर नीति-

फ्रांस इण्डोचायना से हटना नहीं चाहता था । फ्रांसीसी सरकार ने इस अनुमान के आधार पर कि कहीं संयुक्त राष्ट्र संघ युद्ध पूर्व के औपनिवेशिक तंत्र के स्थान पर न्यासधारी अधिकरण (ट्रस्टीशिप) की स्थापना का प्रस्ताव न रख दे, अतः फ्रांस ने एक  नये औपनिवेशिक तंत्र की स्थापना की योजना बनाई, जो राष्ट्रमंडल की तरह ही थी। इसके अनुसार फ्रांस के विशाल साम्राज्य को एक यूनियन के रूप में परिवर्तित कर दिया जाय, जिसमें फ्रांस के अतिरिक्त उसके अधीनस्थ देश भी सम्मिलित हों। इण्डोचायना भी इस फ्रांसीसी यूनियन का एक अंग बन जाये। इण्डोचायना के विविध संरक्षित राज्यों और कोचीन चाइना को मिलाकर एक संघ (फेडरेशन) बनाया जाये और इस फेडरेशन में राजकीय पदों को प्राप्त करने का इण्डोचायना के सब नागरिकों को समान अधिकार हो । इण्डोचायनीज फेडरेशन की विदेश नीति और सेना का संचालन फ्रांसीसी सरकार के हाथों में रहे किन्तु आन्तरिक शासन के सम्बन्ध में इण्डोचायना स्वतंत्र होगा। इण्डोचाइना के राष्ट्रवादी नेता फ्रेंच यूनियन की इस योजना से सहमत नहीं थे, वे पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे।

मार्च, 1945 में जापानी सेनाएँ इण्डोचायना को छोड़कर चली गयी थीं। इसके बाद यदि फ्रांसीसी सेनाएँ तुरन्त इण्डोचायना पहुंच जाती तो फ्रांस एक बार फिर इस देश पर पहले के समान अपने आधिपत्य को स्थापित्य कर लेता किन्तु, पर अभी महायुद्ध की परिस्थितयाँ ऐसी नहीं थीं। अगस्त, 1945 में जापान के आत्मसमर्पण के पश्चात् इण्डोचायना पर अधिकार स्थापित करने का काम मित्र राष्ट्रो को सौंपा गया था। ब्रिटिश सेनाओं को दक्षिणी इण्डोचायना पर और चीनी सेनाओं को उत्तरी इण्डोचायना पर अधिकार करना था।

ब्रिटिश सेनाओं ने सबसे पहले सैगोन पर अपना अधिकार किया और वहाँ नजरबन्द फ्रांसीसी सेना को मुक्त किया। उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित किया और नगर का अधिकार फ्रांसीसियों को हस्तांतरित कर दिया। ब्रिटिश सेनाओं के लिए यह सम्भव नहीं था कि वे इण्डोचायना में और आगे बढ़े क्योंकि विएतनाम सरकार की सेनाएँ उनका मुकाबला करने के लिए तैयार थीं। 1946 ई० के आरम्भ में ही फ्रांसीसी सेनाएँ भारी संखया में सैगोन पहुँच गयी थीं। वियतनामी सेनाओं ने छापामार युद्ध प्रणाली का प्रयोग किया था। एक भयंकर संघर्ष के उपरान्त फ्रांसीसियों ने फ्रांसीसी सरकार की 23 मार्च, 1945 की घोषणा के आधार पर विएतमिन्ह से समझौता वार्ता करने का प्रस्ताव किया किन्तु स्वाधीनता के लिए वियतनामियों द्वारा की गयी मांग की दृष्टि से अपर्याप्त होने से प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। अब फ्रांस के सम्मुख केवल यही मार्ग बचा था कि वह वियतनाम को सैन्य शक्ति द्वारा परास्त करे।

हनोई समझौता-

उत्तरी इण्डोचायना में जापान के प्रभाव का अन्त कर व्यवस्था स्थापित करने का कार्य चीनी सरकार को सौंपा गया था। चीनी लोगों ने यह प्रयत्न नहीं किया कि वियतनाम सरकार के विरुद्ध संघर्ष करें। अत: उत्तरी इण्डोचायना में वियतनाम की सत्ता चलती रही। किन्तु फ्रांस का प्रयास था कि जिस प्रकार सैगोन में उसकी सेनाएँ प्रविष्ट हो गई हैं, वैसे ही उत्तरी इंडोचाइना में भी उसकी सेनाएं प्रविष्ट हो जायें और चीनी सेनाओं का स्थान फांसीसी सेनाएं ले लें। किन्तु यह कार्य तभी सम्भव हो सकता था, जबकि फ्रांस वियतनाम की सरकार को प्रास्त कर दे या किसी प्रकार के समझौते द्वारा वियतनाम सरकार को उसके लिए तैयार कर ले। 6 मार्च, 1946 को फ्रांस ने वियतनाम सरकार के साथ एक समझौता किया, जिसके अनुसार-

(i) फ्रांस ने यह स्वीकार किया कि वियतनाम रिपब्लिक की स्थिति एक स्वतंत्र राज्य की है और उसे यह अधिकार है कि वह अपनी पृथक् सरकार, पृथक् संसद और पृथक् सेना रखे।

(ii) वियतनाम रिपब्लिक इण्डो-चाइनीज फेडरेशन के अन्तर्गत रहेगी और इण्डो-चाइनीज फेडरेशन फ्रांसीसी यूनियन का अंग बनकार रहेगा।

(iii) वियतनाम रिपब्लिक का शासन किन-किन प्रदेशों में हो, यह बात लोकमत द्वारा निश्चित की जाएगी।

(iv) फ्रेंच सेनाएं टोन्किन में प्रवेश कर सकेंगी तथा

(v) इस समझौते के बाद जब फ्रांस और वियतनाम रिपब्लिक के पारस्परिक सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण हो जायें; तो परस्पर बातचीत द्वारा यह तय किया जाये कि वियतनाम को अन्य विदेशी राज्यों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध रखना है।

मार्च 6, 1946 का यह समझौता हनोई समझौते के नाम से प्रसिद्ध है। इण्डोचायना के आधुनिक इतिहास में इसका बहुत अधिक महत्व है। इस समझौते के द्वारा दक्षिण में सैगोन पर और उत्तर में हनोई पर फ़्रांसीसी सेनाओं का अधिकार हो गया था और इनके बीच का सारा भाग वियतनाम सरकार के शासन में था। किन्तु यह समझौता अधिक समय तक स्थापित नहीं रह सका। दोनों पक्षों के बीच जिन बातों को लेकर मतभेद थे, उन्हें सत्यकेतु विद्यालंकार ने इस प्रकार माना है-

(i) सैगोन में फ्रांसीसी सेनाओं की सत्ता के कारण फ्रांस ने कोचीन में एक पृथक सरकार की स्थापना कर दी थी, जो वियतनाम रिपब्लिक की अधीनता में नहीं थी। कोचीन-चीन वियतनाम रिपब्लिक के अन्तर्गत हो या नहीं इस प्रश्न का निर्णय लोकमत द्वारा किया जाना चाहिये था। किन्तु फ्रांस ने अपनी सैन्य शक्ति के बल पर इस प्रदेश में एक पृथक सरकार का निर्माण कर लिया था, जिसको वियतनाम की सरकार स्वीकृत करने को तैयार नहीं थी।

(ii) फ्रांसीसी लोग समझते थे कि इण्डोचायना में जिस फेडरेशन का निर्माण किया जाना है, उसका अध्यक्ष फ्रांस द्वारा नियुक्त हाई कमिश्नर होगा, जो कि फेडरेशन के अन्तर्गत सब राज्यों पर अपना नियंत्रण रखेगा। इसके विपरीत, वियतनाम् रिपब्लिक के नेताओं का यह विचार था कि इण्डो-चाइनीज फेडरेशन के अन्तर्गत सब राज्यों की स्थिति स्वतंत्र राज्यों के समान होगी और वे केवल आर्थिक क्षेत्र में सहयोग करने के उद्देश्य से ही फेडरेशन में सम्मिलित होंगे। इन मतभेदों को दूर करने के लिए अनेक प्रयत्न किये गये, पर ये मतभेद दूर न हो सके। परिणामस्वरूप हनोई समझौता भंग हो गया। फ्रांस तथा वियतनाम में युद्ध आरम्भ हो गया। वियतनाम में राष्ट्रीय स्वतंत्रा की भावना इतनी प्रबल थी कि फ्रांस के लिए उसको दबाना सम्भव नहीं परिणाम यह हुआ कि हो ची मिन्ह और उसके साथियों ने छापामार युद्ध नीति का आश्रय लिया। फ्रांस तथा वियतनाम रिपब्लिक का यह युद्ध दिसम्बर, 1946 में आरम्भ हुआ था।

बाओदाई की सरकार-

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व में राष्ट्रीयता और लोकतंत्रवाद की प्रवृतियाँ जिस ढंग से प्रबल हो गयी थी, उसके कारण फ्रांस के लिए यह संभव नहीं था कि सम्पूर्ण इण्डोचायना पर पहले के समान अपना शासन स्थापित कर सकें। अतः उसने यह निश्चय किया कि इण्डोचायना में एक ऐसी सरकार स्थापित कर दी जाय जो साम्यवाद की विरोधी हो और जो फ्रांस के आदेशों का अनुसरण कर्ती हुई हो-चीन-मिन्ह के विरुद्ध युद्ध का जारी रखने का कार्य कर सके । 25 अगस्त 1945 को अनाम के सम्राट बाओदाई त्यागपत्र देकर अपना शेष जीवन लन्दन में व्यतीत करने के लिये गये हुए थे। वहीं दिसम्बर, 1947 में फ्रांसीसी राजदूत और बाओदाई के बीच वार्ता हुई, जिसके अनुसार फ्रांसीसी सेनाओं द्वारा वियतनाम की रिपब्लिक सरकार को परास्त कर बाओदाई को सम्राट बनाने का निर्णय लिया गया। मार्च, 1949 में फ्रांस के राष्ट्रपति श्री आरयोल तथा बाओदाई के बीच इण्डोचायना के सम्बन्ध में एक सन्धि की गयी। इस सन्धि के अनुसार इण्डोचायना का शासनाधिकार फ्रांस ने बाओदाई के सुपुर्द कर दिया। यद्यपि बाओदाई फ्रांस की तरफ इण्डोचायना का शासक बना दिया गया था, पर इस देश के एक बड़े भाग पर हो-ची-मिन्ह की सरकार का अधिकार था। बाओदाई इण्डोचीन पर अपना प्रभुत्व तभी स्थापित कर सकता था, जबकि फ्रांस उसकी सहायता करता । फ्रांस भी इस संघर्ष बाओदाई को मदद् देने के लिए उद्यत था। उसने एक लाख सैनिक बाओदाई की सहायता के लिए इण्डोचीन भेज दिये। इन फ्रांसीसी सेनाओं का युद्ध हो-ची-मिन्ह से हुआ। इस समय सोवियत रूस तथा साम्यवादी चीन इण्डोचीन में ‘हो-ची-मिन्ह’ की सरकार को मान्यता दे चुके थे। किन्तु अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन ने बाओदाई की सरकार को स्वीकृत किया था। इस प्रकार इण्डोचीन में पूंजीवादी और साम्यवादी प्रवृत्तियों में परस्पर संघर्ष आरम्भ हुआ।

यह दुःखद तथ्य रहा कि राष्ट्रीयता के इस आन्दोलन में स्वतन्त्र इण्डोचायना ने विदेशी शक्तियों को अपने देश में आमनित किया। यद्यपि इण्डोचीन को स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी थी किन्तु वह विदेशियों के चंगुल में फंस गया था।

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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