इतिहास / History

हेगल का राज्य दर्शन | हेगल के राज्य के लक्षण | हेगल के राज्य के सिद्धान्त पर विचार | हेगल के मानसिक समाज सम्बन्धी विचार | सम्पत्ति सम्बन्धी हेगल के विचार

हेगल का राज्य दर्शन | हेगल के राज्य के लक्षण | हेगल के राज्य के सिद्धान्त पर विचार | हेगल के मानसिक समाज सम्बन्धी विचार | सम्पत्ति सम्बन्धी हेगल के विचार

हेगल का राज्य दर्शन

प्लेटो की तरह हेगल भी राजनीतिक दर्शन के इतिहास में एक बड़े पद्धति-निर्माता थे। वे कुछ निश्चित स्वतः स्पष्ट सत्यों या आधारों से प्रारम्भ होते हैं जैसे कि इन्हें राजनीतिक दर्शन में साधारणतः पुकारा जाता है। इनमें से एक आधार था, “जो तर्कसंगत है, वास्तविक है और जो वास्तविक है तर्कसंगत है।’ साधारण भाषा में इस वाक्य का अर्थ होगा कि जो कुछ भी अस्तित्व में है वह तर्क के अनुकूल है और जो कुछ तर्क के अनुकूल है वह अस्तित्व में है। पर जैसा कि हम जानते हैं, हेगल भाववाचकता के एक बड़े कलाकार थे। उन्होंने इन दो शब्दों का प्रयोग बड़े गम्भीर, अस्पष्ट और दार्शनिक अर्थ में किया है। हमें ज्ञान है कि हेगल के दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त यह था कि निरपेक्ष तर्क या अभिप्राय या अन्तः प्रेरणा या निरपेक्ष विचार का अनावरण धीरे-धीरे तर्कसंगत शैली से किया जाए। राज्य में तर्क पूर्ण रूप से स्वतः सिद्ध अनुभूति को प्राप्त होता है। इस प्रकार हेगल के अनुसार राज्य तर्कसंगत है, नहीं नहीं यह पूर्ण- रूपेण तर्क अनुसार चलने वाली सत्ता है। यह तर्क की मूर्ति या तर्क का मानवीकरण है। इस प्रकार राज्य अन्तः प्रेरणा का शाश्वत और आवश्यक भाव है। दूसरे शब्दों में इस प्रकार का राज्य तर्क पर आधारित है। अब ‘वास्तविक’ शब्द पर ध्यान देते हुए अरिस्टाटल का अनुगमन करके, हेगल कहते हैं कि किसी वस्तु या वास्तविकता की सच्ची प्रकृति के बारे में पूरा-पूरा ज्ञान उसी समय होता है जब इसकी पूर्ण उन्नति हो जाती है, पूरे और मुकम्मल रूप में। इसी प्रकार तर्क या वास्तविकता की सच्ची प्रकृति का ज्ञान उसी समय होता है जबकि राज्य में पूर्ण रूप से इसकी पूर्ति हो जाती है। अलजेबरा की एक प्रमेय के अनुसार हम यह साबित कर सकते हैं कि वास्तविक तर्कसंगत होता है और तर्कसंगत वास्तविक । क्योंकि राज्य तर्क-संगत के है। इसलिए तर्क-संगत – वास्तविक है या इसके विपरीत । हेगल के अनुसार राज्य तर्कसंगत और वास्तविक दोनों की मूर्ति है। हेगल इन दोनों शब्दों को प्रायः समानार्थक ही समझते थे। यहाँ हेगल ‘वास्तविक’ शब्द को ‘आधारभूत’ या ‘महत्वपूर्ण’ के अर्थ में प्रयोग करते हैं। हेगल के विचार में ‘वास्तविक’ और ‘अस्तित्वपूर्ण’ समानार्थक शब्द नहीं हैं। जो लोग प्रत्येक निम्न दर्जे के और अस्थायी अस्तित्व को वास्तविकता का नाम देते थे, उनकी हेगल हँसी उड़ाया करते थे। प्रोफेसर सेबाईन के शब्दों में, “परन्तु हेगल का यह अर्थ बिल्कुल नहीं था जब उन्होंने कहा था कि, “वास्तविक तर्कसंगत है क्योंकि वे सदा ‘वास्तविक’ तथा ‘केवल अस्तित्व मात्र’ में भेद किया करते थे। ‘वास्तविक’ इतिहास में अभिप्राय का निरन्तर रहने वाला अन्तः प्रेरक तत्व है जिसके मुकाबले में विशेष घटनाएँ थोड़े समय के लिये या केवल दिखावे मात्र के लिये हैं जो कुछ अस्तित्व में होता है क्षण भर के लिए होता है और बड़ी मात्रा तक आकस्मिक होता है। यह गहराई में पड़ी हुई शक्तियों का जो कि वास्तव में वास्तविक हैं, सतही प्रदर्शन होता है।” हेगली फिक्टे के इस सिद्धान्त को अस्वीकार कर देते हैं कि केवल एक आदर्श राज्य ही वास्तविक है। हेगल के अनुसार सर्व प्रकार के राज्य तर्कसंगत होते हैं क्योंकि वे ऐतिहासिक क्रम के अनुसार तर्क के प्रकटीकरण की पूर्णता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए सारे राज्य हमारे आदर और सम्मान के पात्र हैं। यह मानना पड़ेगा कि वास्तविक राज्य को आदर्श रूप देना और अस्तित्व में आए राज्य तो तर्कसंगत ठहराने में हेगल के प्रयत्न का निश्चित पुरातनवादी प्रभाव पड़ा है, परन्तु इससे बचा नहीं जा सकता क्योंकि यह निष्कर्ष तो तर्क या अभिप्राय के प्रकटीकरण के सिद्धान्त का तर्क-संगत परिणाम है। जो कुछ अब तक हो चुका है वह अभिप्राय के प्रकटीकरण के क्रम में आवश्यक था। कोई भी घटना घटित न हो सकती थी जब तक तर्क के द्वारा इसकी पूर्ति के क्रम में यह अनिवार्य और आवश्यक न होती। इसलिए घटनाएँ भी एक तर्क-संगत योजना के अनुसार ही घटित हुई हैं। जो कुछ भी घटित होता है इसलिए होता है कि अभिप्राय या तर्क को इसकी आवश्यकता है और अन्तःप्रेरणा को जिस बात की आवश्यकता होती है वह ठीक और तर्क-संगत होती है। हेगल का यह भी विश्वास था कि वास्तविक विश्व वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए था। इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता कि वास्तविक राज्य (जैसा कि इसे होना चाहिए) तर्क-संगत ही है। अपने तर्क का पालन करते हुए इन्होंने कहा कि सर्व प्रकार के राज्य ऐसे ही थे जैसा कि उन्हें होना चाहिए था। इसलिए एक विलक्षण तर्क के द्वारा उन्होंने वर्तमान राज्यों की प्रशंसा की और उन्हें आदर्श और वास्तविक राज्य समझा जो अपने घटकों से आज्ञाकारिता प्राप्त करने का हक रखते थे। उन्होने राज्य को ऐसे प्रशंसा सूचक शब्दों से विभूषित किया-‘पृथ्वी पर परमेश्वर (परम तर्क) का संक्रमण’ या ‘तर्क का मूर्तिकरण’।

हेगल के कल्पना के राज्य के विशिष्ट लक्षणों पर विचार करने से पहले, यह देखना आवश्यक है कि राज्य किस प्रकार एक ऐतिहासिक क्रम में, परिवार और नागरिक (मध्यवर्गीय) समाज से उत्पन्न होता है। इस बाद पर विचार किया जाए। जैसा कि हम पूर्व के पृष्ठों में बता चुके हैं हेगल के लिये राज्य परिवार (पूर्व पक्ष) तथा नागरिक समाज (ऊपर पक्ष) का एक संश्लेषणात्मक उत्पादन था। हेगल के अनुसार, तर्क के भौतिक रूप का विकास, मनुष्य के विश्व-मंच पर दृष्टिगोचर होने के साथ ही समाप्त हो जाता है, पर सामाजिक विकास आगे बढ़ता रहता है। ऊपर लिखे इस त्रिक में परिवार एक इकाई का प्रतिनिधित्व करता है । नागरिक समाज विशेषता का प्रतिनिधित्व करता है और राज्य विश्व का। राज्य के परिवार से विकास के अपने सिद्धान्त में हेगल अरिस्टाटल के तर्क का बड़ी समीपता से अनुकरण करते हैं। मनुष्य प्रकृति से ही समाजप्रिय प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता था। इसलिए आहार, मिथुन तथा सुरक्षा की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मनुष्य की इच्छा एक परिवार के रूप में रहने की हुई। यह एक संगठन था जो कि पारस्परिक प्रेम के तर्क-संगत विचार को समन्वित करता था। अपनी पूर्ति की खोज में आत्मा को सर्वप्रथम आधारभूत तथा संस्थागत रूप परिवार की इकाई ही थी। कुछ सीमा तक परिवार एक तर्कसंगत तथा नैतिक संयम का प्रतिरूप है। हेगल ने परिवार सम्बन्धी अपने विचार इन निम्न शब्दों में सुन्दरतापूर्वक रखे हैं-

“परिवार, मन के समीपस्थ ठोस रूप में, प्रेम द्वारा विशेष रूप से लक्षित होता है जो कि मन का अपनी इकाई का अनुभव है। इसलिए एक परिवार में एक व्यक्ति की मानसिक स्थिति यह होती है कि वह इसके संगठन में अपनी व्यक्तिगतता का ज्ञाता हो जैसे कि यह उसके पूर्ण व्यक्तित्व का अन्तरात्मा हो-एक नैतिक सम्बन्ध के रूप में विवाह में सर्वप्रथम भौतिक जीवन का क्षण-दूसरे प्राकृतिक सम्भोगात्मक मिलाप का स्वतः ज्ञान, एक प्रकार आन्तरिक तथा स्वतः निर्धारित मेल इत्यादि होते हैं। इन्हें मानसिक स्तर के संगठन में बदला जाता है-स्वतःप्रेरित प्रेम के रूप में। इस (विवाह) का वस्तुगत आधार व्यक्तियों की स्वतन्त्रता अनुमति पर आधारित है, विशेषकर उनकी इस अनुमति में कि वे एक व्यक्ति बनना चाहते हैं, वे अपने अलग और स्वाभाविक व्यक्तियों को मिलाकर इस इकाई में परिवर्तित करना चाहते हैं। इस दृष्टिकोण से उनका मिलाप आत्म-संयम में निहित है, पर वास्तव में यह उनका स्वतन्त्रीकरण है क्योंकि इसमें उनको ठोस रूप से स्व-चेतना का अनुभव होता है। इसलिए वे एक दूसरे में भाव, प्रेम, विश्वास इत्यादि की इकाई में रहते हैं।’

हेगल के राज्य के लक्षण-

(1) हेगल के राज्य का सर्वप्रमुख लक्षण उसकी दिव्य उत्पत्ति है। परन्तु यहाँ पर हमें इस लक्षण को राजाओं के शासन करने के दिव्य आधार के साथ मिलाना नहीं चाहिए। हेगल के अर्थों में राज्य के दिव्य अधिकार का अर्थ “पूर्ण विचार या तर्क या भावना की ईश्वर प्रदर्शित उन्नति की पूर्णता है।” यह मानों ‘पृथ्वी पर ईश्वर की गति’ हो। राज्य के मूलों की खोज करने के लिये हमें सांसारिक बातों की खोज करने की आवश्यकता नहीं है। इसके स्थान पर हमें किसी अति-प्राकृतिक या आलौकिक घटना का पता करना होगा।

(2) हेगल का राज्य अपना उद्देश्य आप ही है। राज्य के अन्दर या बाहर की कोई भी चीज जिसकी कल्पना की जा सकती है वह इसका साधन मात्र है। राज्य का अस्तित्व व्यक्तियों के लिये नहीं है। व्यक्ति राज्य के लिए अस्तित्व में होते हैं। व्यक्तियों ने राज्य को नहीं बनाया है। बात इससे विपरीत है। असैनिक समाज में रहने वाले मनुष्य पूर्ण व्यक्ति या नागरिक नहीं थे। नागरिकता की दुर्लभ तथा अन्तिम शोभा व्यक्तियों को राज्य के अस्तित्व में आने के बाद प्राप्त हो सकती थी और जब कि उसने उनको राज्य के गण होने के लिए नैतिकता और योग्यता प्रदान कर दी थी। राज्य के परे कोई आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता जैसे मनुष्य के परे कोई शारीरिक विकास नहीं हो सकता।

(3) राज्य एक पूर्णता है और वह अपने भागों से बहुत बड़ी है अर्थात् उन व्यक्तियों से जो इसके अंश हैं। उनका महत्व केवल इस स्वार्थ पर आधारित है कि वे इस राज्य के सदस्य हैं। इसका अर्थ है कि स्पष्टतः व्यक्ति राज्य के अधीन हैं जैसे मनुष्य के अंग उसके शरीर के अधीन हैं। ये व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने राज्य को बनाया है बल्कि वह राज्य है जिसने व्यक्तिगत नागरिकों का निर्माण किया है। प्रो० सी०ई० एम० जोड के शब्दों में राज्य किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माता तथा जामन है।

(4) राज्य के ऊपर किसी नैतिक विधान की रोक नहीं है, क्योंकि राज्य ही अपने आप में नैतिकता का निर्माता है। यह राज्य ही है जिसने मनुष्यों को नैतिकता प्रदान की है। राज्य के विरुद्ध व्यक्ति कभी भी आत्मा की आवाज या नैतिक नियमों की सहायता नहीं ले सकते । एक व्यक्ति की आत्मा की आवाज हमें यह नहीं बता सकती है कि सारे समाज के लिये कौन सी बात अच्छी या ठीक है। व्यक्ति की आत्मा की आवाज को समाज की परम्परा से शिक्षा लेनी होगी। राज्य भूतकाल की बुद्धिमत्ता का, जिसका ठोस रूप समाज की परम्पराएँ और रिवाज हैं, सम्भवतम तथा योग्यतम व्याख्याता है। राज्य रिवाज तथा नैतिकता से ऊपर है। इसलिए जो कुछ राज्य करता है ठीक है। परम्परा की व्याख्या राज्य के कानूनों के रूप में प्रकट होती है। ऐसी स्थिति में राज्य के कानून सदा सही होते हैं। हेगल के विचार में राज्य कभी गलती नहीं करता। राज्य और व्यक्ति के बीच झगड़े की हालत में राज्य बिना किसी परिवर्तन के सदा ठीक होगा और व्यक्ति बिना किसी परिवर्तन के सदा गलत होगा। प्रोफेसर जोड के शब्दों में, “राज्य सब नागरिकों की सामाजिक नैतिकता को अपने में संजोए हुए है और उनका प्रतिनिधित्व करता है- इसका यह अर्थ नहीं कि राज्य स्वयं नैतिक है या अपने कार्यों में नैतिक सम्बन्धों में बँधा हुआ है।”

राज्य व्यक्तियों को वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान करने वाला सच्चा दानी है। केवल राज्य में ही मनुष्य अपनी-अपनी बाहरी अहम् को अपने विचारयुक्त आन्तरिक अहम् के स्तर तक उन्नत कर सकता है” (हगल)। पुनः हेगल के शब्दों में, “स्वतन्त्रता का वास्तवीकरण राज्य से कम किसी वस्तु द्वारा नहीं हो सकता।” वास्तविक स्वतन्त्रता जो कि राज्य का फल है अपने आप व्यक्त होती है पहले कानून में, दूसरे आन्तरिक नैतिकता में और तीसरे उस सारी सामाजिक संस्थाओं तथा प्रभावों की प्रणाली में जिनके द्वारा व्यक्तित्व की उन्नति होती है। कई स्थानों पर हेगल अपने पाठकों को यह कह कर हैरान कर देता है कि राज्य जिसे अपने आप में उद्देश्य के रूप में पहचाना जाता है, वह व्यक्ति की स्वतन्त्रता के विकास का साधन है। परन्तु हेगल केवल एक तार्किक गड़बड़झाले से खिलवाड़ कर रहा है और वह अन्त में सिद्ध करता है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता राज्य के कानूनों के पूर्ण आज्ञापालन में निहित है। कार के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार की हेगल यह कह कर निन्दा करता है कि वह ‘नकारात्मक, सीमित, आत्म-परक तथा व्यक्ति-परक है।” कान्ट के विचार में स्वतन्त्रता तर्क के नियमों के पालन में निहित है जिनको कर्तव्य की सुस्पष्ट अनिवार्यता निश्चित करती है। हेगल के विचार में कान्ट की, स्वतन्त्रता की कल्पना नाकिस है, क्योंकि सुस्पष्ट अनिवार्यता मनुष्य-मनुष्य में भिन्न होती है। यह नकारात्मक है क्योंकि सुस्पष्ट अनिवार्यता को मानने में सदा मजबूरी की शक्ति होती है। यह सीमित है क्योंकि यह इस बात का बिल्कुल ध्यान नहीं करती कि, पूर्ण रूप से व्यक्ति समाज के साथ किस सम्बन्ध में खड़ा है और अन्त में यह व्यक्ति परक है, क्योंकि कान्ट व्यक्ति को अपने आप में उद्देश्य समझते हैं बाकी सब कुछ उसका साधन है। कान्ट कहीं भी नहीं कहते कि स्वतन्त्रता  की अनुभूति केवल समाज और राजनीतिक कार्य-कलापों में भाग लेने से हो सकती है।

(6) राज्य समाज के रिवाजों का व्याख्याता होता है। रिवाज वास्तव में भूतकाल का सामुदायिक तत्व है। यह व्याख्या राज्य के कानून के रूप में अभिव्यक्त होती है। राज्य के कानूनों का केवल मात्र स्रोत राज्य ही होता है। यह ही सामाजिक नैतिकता का निर्माता होता है। राज्य ही एक ऐसी संस्था है जो हमें बता सकती है क्या ठीक है और क्या गलत है।

(7) राज्य कभी गलती नहीं कर सकता। जो कुछ भी राज्य करता है ठीक होता है। राज्य और व्यक्ति के बीच झगड़ा उठ खड़ा होने की स्थिति में राज्य को ठीक ही सिद्ध होना है और व्यक्ति को गलत ही, क्योंकि नैतिक सत्ता राज्य के पास ही है। हेगल के दर्शन का यह एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त था कि राज्य अचूक है। व्यक्तियों के साथ सम्बन्धों में इसे पूर्ण अधिकार प्राप्त है।

(8) राज्य न केवल अपनी प्रजा के साथ सम्बन्धों में निर्बाध है, अपितु दूसरे राज्यों के साथ सम्बन्धों में भी निर्बाध है। दूसरे राज्यों के साथ सम्बन्ध में राज्य किन्हीं भी नियमों से बँधा हुआ नहीं है। सबसे ऊँचा कानून इसकी अपनी भलाई है। हेगल के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय कानून जैसी कोई चीज नहीं है. क्योंकि राज्य इसका पालन उस सीमा तक ही करते हैं जहां तक इससे उनके हितों का पोषण होता है। राज्य सच्चे अर्थों में प्रभुसत्ता सम्पन्न होता है। राज्य आत्मनिर्भर होता है। राज्यों के बीच के सम्बन्धों पर कोई नैतिक कानून लागू नहीं होते।

(9) युद्ध कोई पूर्ण बुराई नहीं है, बल्कि यह अपने आप में भलाई भी है। यह मानव के सर्वोत्तम गुणों को प्रकट करती है। युद्ध एक भली क्रिया है। यह व्यक्तियों की नैतिक उन्नति में सहायक होता है। युद्ध में सफलता युद्ध को उचित सिद्ध करती है चाहे जैसे भी साधन क्यों न प्रयोग में लाए गए हों। युद्ध का विजेता विश्व की भावना का सच्चा प्रतिनिधि होता है। युद्ध का सद्गुण के साथ वही सम्बन्ध है जो माता का शिशु के साथ। विश्व-इतिहास में युद्ध का बड़ा भाग होता है। उसके शब्दों में, “विश्व-इतिहास, विश्व का न्यायालय है।” किसी विशेष युद्ध में विश्व-भावना यह निश्चय करती है कि युद्ध में लीन राज्यों में से कौन सा इसका सच्चा प्रतिनिधित्व करता है और इसका रूप प्रदर्शित करता है। युद्ध विश्व-भावना के हाथों में, तर्क के पथ पर विश्व की उन्नति को बढ़ावा देने के लिए एक हथियार होता है। इसलिए हेगल के अनुसार युद्ध एक पवित्र संस्था है।

(10) हेगल के राज्य में व्यक्तियों को राज्य के आदेशों का मुकाबला करने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि वे राज्य की कृति हैं उन्हें मुकाबला करने का अधिकार नहीं दिया गया। वे वही कुछ हैं जो कि राज्य ने उन्हें बनाया है। व्यक्ति तो एक शरीर के अंग मात्र हैं-एक राज्य रूपी शरीर के। जैसे एक मनुष्य के अंग उसके शरीर के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकते, वैसे ही व्यक्ति भी किसी भी आधार पर राज्य का मुकाबला नहीं सकते। इस बारे में हेगल हॉब्स से भी अधिक सर्वाधिकारवादी है, क्योंकि हॉब्स कुछ संकटकालीन परिस्थितियों में राज्य का मुकाबला करने का अधिकार प्रदान करते हैं।

हेगल के राज्य के ये लक्षण एक आदर्श राज्य को लागू होते हैं। एक ऐसा राज्य जो केवल विचार-भूमि में ही अस्तित्व रखता है। परन्तु अनेक स्थानों पर हेगल बहुत सारे शब्दों में अपने आदर्श राज्य की तादात्म्यता प्रशिया से स्थापित करते हैं। हेगल के अनुसार उनके काल की प्रशिया का राज्य मानव समाज की उन्नति के शिखर पर पहुँच चुका था। ऐसा तार्किक ढंग से ही हुआ था और उससे आगे उन्नति सम्भव न थी। प्रशियन राज्य से बढ़कर न कुछ अधिक ऊँचा था न अधिक पर्ण और नहीं विकास के क्रम में कुछ इससे परे था।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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