अर्थशास्त्र / Economics

मूल्य के क्षेत्र में एल्फ्रेड मार्शल की देन | Marshall’s Contribution in Sphere of Value in Hindi

मूल्य के क्षेत्र में एल्फ्रेड मार्शल की देन | Marshall’s Contribution in Sphere of Value in Hindi

मूल्य के क्षेत्र में एल्फ्रेड मार्शल की देन

(Marshall’s Contribution in Sphere of Value)

मार्शल गत 100 वर्षों के एक महान् अर्थशास्त्री थे। उनके अनेक समर्थक और शिष्य हो गये है। आज भी उनके शिष्य इंग्लैण्ड, यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर बने हुए अपने गुरु की विचारधारा को प्रसारित कर रहे हैं। मार्क्स के समर्थक मावर्सवादियों के समान मार्शल के समर्थक मार्शलवादी विभिन्न देशों में भारी संख्या में मौजूद हैं। मार्शल को आर्थिक विचारों के इतिहास में सदा प्रथम श्रेणी का स्थान प्राप्त रहेगा। उनके शिष्य केन्ज को छोड़कर विगत 100 वर्षों में उनकी टक्कर का कोई अन्य अर्थशास्त्री नहीं हुआ है। मार्शल के अर्थशास्त्र की आर्थिक विचारधारा और नीति के क्षेत्र में अब तक गहरा प्रभाव है और निकट भविष्य में उसकी समाप्ति के आसार नहीं हैं। हैने के अनुसार, “मार्शल के आर्थिक विचारों के इतिहास में एक ऐसे व्यक्ति के रूप में आदर पाते रहेंगे, जिन्होंने मूल्य और वितरण का एक सामंजस्यपूर्ण सिद्धान्त प्रस्तुत करने की दिशा में किसी भी पूर्वाधिकारी की अपेक्षा कहीं अधिक प्रगति की।” यों तो मार्शल ने आर्थिक विचारधारा को अनेक प्रकार से समृद्ध बनाया किन्तु मूल्य और वितरण के क्षेत्र में उनका योगदान सबसे सराहनीय रहा है। प्रस्तुत प्रश्नोत्तर में मार्शल के आर्थिक विचारों के इसी पहलू पर प्रकाश डाला गया है।

मूल्य के क्षेत्र में योगदान

  1. माँग तथा पूर्ति सन्तुलन विश्लेषण-

स्मिथ, रिकार्डो और अन्य संस्थापित लेखकों ने मूल्य के पूर्ति सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। उसकी धारणा थी कि एक वस्तु का मूल्य उस वस्तु की उत्पादन लागत (cost of production) से निर्धारित होती है। इस सिद्धान्त को 19वीं शताब्दी में कटु आलोचना की गई। इंग्लैण्ड में जेवन्स और आस्ट्रियन सम्प्रदाय के मेंजर, बाम बावक, बीजर इत्यादि ने उत्पादन लागत सिद्धान्त को त्रुटिपूर्ण बताते हुए यह मत प्रकट किया कि वस्तु का मूल्य उसकी माँग (उपयोगिता) के द्वारा निर्धारित होता है। इस प्रकार इन अर्थशास्त्रियों के संस्थापित विद्वानों के वस्तु-परक (objective) सिद्धान्त को हटा कर मूल्य का विषय-परक (subjective) सिद्धान्त प्रस्तुत किया था। मार्शल के विचारानुसार मूल्य का निर्धारण माँग और पूर्ति के साम्य द्वारा होता है। उसने अनेक मूल्य सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए बाजार का भी अध्ययन किया। साथ ही संस्थापित और आस्ट्रियन सम्प्रदायों के विचारों को भी उचित अनुपात में ग्रहण किया।

जहाँ तक मांग पक्ष का प्रश्न है, मार्शल ने आस्ट्रियन सम्प्रदाय के विचार को स्थान दिया। यहाँ वह इस सम्प्रदाय के लेखकों की भांति ही यह कहते दिखायी देते हैं कि व्यक्ति किसी वस्तु की मांग उससे प्राप्त उपयोगिता के आधार पर ही करता है। अतः उसे जितनी सीमान्त उपयोगिता वस्तु से प्राप्त होती है उसके बराबर मूल्य हो वह वस्तु के लिए देगा, अधिक नहीं। इस मूल्य को मार्शल ने मांग मुल्य (demand price) कहा है। हैने ने मार्शल की माँग सम्बन्धी विचारधारा को इस प्रकार स्पष्ट किया है-“प्रत्येक केता का एक माँग मूल्य होता है जो विचाराधीन वस्तु के लिए उसकी सीमान्त उपयोगिता और द्रव्य के लिए उसकी सीमान्त उपयोगिता के मध्य साम्य को व्यक्त करने वाला है। स्वभावत: घटती हुई उपयोगिता का नियम एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।”

दूसरी ओर, पूति के सम्बन्ध में मार्शल ने जो विचार प्रकट किये हैं उन पर स्मिथ, रिकार्डो आदि संस्थापकों की छाप है। यहाँ मार्शल संस्थापित विद्वानों द्वारा प्रतिपादित उत्पादन लागत सिद्धान्त को मान्यता देते हुए दिखायी पड़ते हैं। वस्तु का मूल्य इसलिए मांगा जाता है, क्योंकि उत्पादक को उसके उत्पादन में कुछ व्यय करने पड़े हैं। अत: वह कम से कम इतना मूल्य अवश्य लेगा जिससे उसके उत्पादन-व्यय चुक जाएँ। अत: सीमान्त उत्पादन-व्यय को ‘पूर्ति-मूल्य’ (supply price) कहा गया है। हैने के शब्दों में, “वस्तु की पूर्ति का अभिप्राय सम्भावी विक्रेताओं की पूर्ति-मूल्यों की सारणी से है और ये उनकी विभिन्न लागतों तथा उनके लिए मुद्रा को सीमान्त उपयोगिता को व्यक्त करते हैं।” अन्य शब्दों में वस्तु का पूर्ति-मूल्य उस वस्तु को उत्पादन लागत और उस वस्तु के बदले प्राप्त होने वालो धनराशि का सीमान्त उपयोगिता के साम्य को व्यक्त करता है।

माँग और पूर्ति पर विचार करने के बाद मार्शल कहते हैं कि मूल्य मांग-मूल्यों और पूर्ति- मूल्यों के साम्य बिन्दु (equilibrium point) पर निश्चित होता है। मांग-मूल्य वस्तु के मूल्य की उच्चतम सीमा होगी जबकि पूर्ति मूल्य उसकी न्यूनतम सीमा। इन सीमाओं के बीच में हो वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर तय होता है जहाँ वस्तु की कुल पूर्ति उसकी कुल माँग के बरावर हो जाती है। साम्य को अवस्था में प्रचलित हुए मूल्य को साम्य मूल्य (equilibrium price) कहते हैं। यदि वस्तु का मांग, मूल्य उसके पूर्ति-मूल्य की अपेक्षा अधिक है तो पूर्ति में वृद्धि होकर नया सन्तुलन स्थापित हो जायेगा और नया साम्य मूल्य पर प्रचलित होगा। इस बात को स्पष्ट करने हेतु मार्शल ने ग्राफ का प्रयोग किया है। उसने बताया कि जिस बिन्दु पर माँग और पूर्ति की रेखाएँ एक-दूसरे को काटेंगी, वहीं पर साम्य बिन्दु होगा। इसी स्थिति में वस्तु का सीमान्त मांग-मूल्य और सीमान्त पूर्ति-मूल्य समान होते हैं।

  1. समय तत्त्व की भूमिका-

मार्शल ने यह भी बताया है कि मूल्य निर्धारण पर ‘समय के तत्त्व’ (time clement) का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने दो प्रकार के मूल्यों का उल्लेख किया है-बाजार-मूल्य (Market Value) और सामान्य मूल्य (Nominal Value) । बाजार मूल्य का सम्बन्ध अल्पकाल और सामान्य-मूल्य का सम्बन्ध दीर्धकाल से है अर्थात् बाजार-मूल्य अल्पकाल में प्रचलित होता है और सामान्य-मूल्य दीर्घकाल में। अल्पकाल में समय इतना कम होता है कि पूर्ति को माँग में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार समायोजित (adjust) होने का अवसर नहीं मिलता, जिस कारण मूल्य पर पूर्ति की अपेक्षा माँग का अधिक प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत, दीर्घकाल में पूर्ति को समायोजित होने के लिए समुचित अवसर मिल जाता है जिस कारण मूल्य हर माँग की अपेक्षा पूर्ति का अधिक प्रभाव पड़ता है। संक्षेप में, मूल्य पर समयावधि के अनुसार माँग और पूर्ति का अधिक प्रभाव पड़ता है। मार्शल के शब्दों में, “.……………. एक सामान्य नियम के रूप में यह कह सकते हैं कि विचाराधीन अवधि जितनी छोटी होगी मूल्य पर  मांग के प्रभाव के प्रति उतना ही अधिक ध्यान देना होगा और अवधि जितनी बड़ी होगी मूल्य पर उत्पादन लागत का प्रभात भी उतना ही अधिक महत्त्वपूर्ण हो जायेगा।”

मार्शल ही पहले अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य में अन्तर स्थापित किया। बार मूल्य को ही वह ‘अस्थाई साम्य’ (temporary equilibrium) कहते हैं, क्योंकि यह सदैव बदलता रहता है। साधारण जीवन में हमें प्रतिदिन बजार में जो मूल्य देखने को मिलते हैं वह बाजार मूल्य ही हैं। दूसरी ओर, सामान्य मूल्य को मार्शल ने ‘स्थायो साम्य’ (stable equitorium) कहा है क्योंकि यह स्थायी रहता है। सामान्य मूल्य और बाजार मूल्य का सम्बन्ध बताते हुए वह लिखते हैं कि बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदा सामान्य मूल्य के चारों ओर घूमने की होती है अर्थात् वह सामान्य मूल्य से कभी थोड़ा अधिक हो जाता है तो कभी थोड़ा कम।

  1. मूल्य निर्धारण के लिए मांग और पूर्ति दोनों का समान रूप से आवश्यक होना-

अल्पकाल में पूर्ति की सीमितता के कारण वस्तु के मूल्य में मांग में परिवर्तनों के अनुसार परिवर्तन होते हैं (अर्थात्, यदि मांग बढ़कर दूरी हो जाय, तो मूल्य भी बढ़कर दूने हो जाते हैं और यदि मांग घटकर आधी रह जाय, तो मूल्य भी घटकर आधे हो जाते हैं)। किनु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अल्पकाल में मूल्य के निर्धारण में पूर्ति का कोई स्थान नहीं है। समय की किसी भी अवधि में (चाहे वह अल्पकाल हो, जिसमें कि पूर्ति सौमित और निष्क्रिय होता है और चाहे दीर्घकाल, जिसमें पूर्ति परिवर्तनीय और सक्रिय होती है), पूर्ति के बिना मूल्य की कल्पना करना व्यर्थ है।

मूल्य निर्धारण में मांग की पूर्ति की शक्तियों के महत्त्व को मार्शल ने कैंची के फलकों का उदाहरण देकर बड़े अच्छे ढंग से समझाया है। वह लिखते हैं कि, “जब कैंची का एक फलके स्थिर रख कर दूसरे फलके को चला कर कागज काटा जाता है, तब यह साधारण रूप से कह सकते हैं कि कैंची के चलते फलके ने ही कागज काटा है। परन्तु ऐसा कहना गलत है क्योंकि यदि कैंची के स्थिर फलके को अलग कर दें तो चलते फलके की कागज काटने को शक्ति समाप्त हो जाती है। वास्तविकता यह है कि कैंची के चलने और कागज काटने के लिए दोनों फलकों का होना समान आवश्यक है। ठीक इसी प्रकार वस्तु के मूल्य निर्धारण में भी मांग और पूर्ति का समान महत्त्व है भले ही पूर्ति स्थिर क्यों न हो।”

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मार्शल ने संस्थपित सम्प्रदाय (Classical School) के उत्पादन लागत सिद्धान्त और आस्ट्रियन सम्प्रदाय (Austrian School) के उपयोगिता सिद्धान्त इन दोनों को मिलाकर मूल्य-निर्धारण के क्षेत्र में सत्य के अधिक निकट लाकर खड़ा कर दिया। यह अद्भुत समन्वय उसने समय तत्त्व को सहायता से किया। दोर्घकाल में जहाँ सामान्य मूल्य होता है वहाँ मूल्य के निर्धारण में उत्पादन लागत की विशेष महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि प्रायः सामान्य मूल्य उत्पादन लागत के हो बराबर होता है। यही बात संस्थापित अर्थशास्त्रो कहते थे किन्तु मार्शल ने अधिक अच्छे ढंग से कही। दूसरी ओर अल्प समय में बाजार मूल्य क्रेता की वस्तु से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता के आधार पर मोल-भाव द्वारा निर्धारित होता है। इस तरह वे आस्ट्रियन सम्प्रदाय के विचार को मान्यता देते हैं। मार्शल ने मूल्य विषयक वाद-विवाद को एक वैज्ञानिक रूप देकर महान कार्य किया। इस सम्बन्ध में हैने (Haney) लिखते हैं कि “मार्शल ने मांग पक्ष पर आस्ट्रियन सम्प्रदाय के कुछ विश्लेषण का प्रयोग किया है किन्तु पूर्ति पक्ष पर वह संस्थापित सम्प्रदाय के लागत सम्बन्धी विचार को भी स्वीकार कर लेते हैं। उन्होंने जो स्थिति अपनाई है वह उनकी इस सुप्रसिद्ध उक्ति से स्पष्ट है कि मूल्य एक महराब का मुख्य पत्थर है जबकि माँग और पूर्ति इसके दो स्तम्भ।”

उल्लेखनीय है कि माँग और पति के सत्ता का विचार प्रस्तुत करने सामान ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Principles of liconomien के मूल्य पर पड़ने वाले माग की लोन, सम्मिलित माँग और सम्मिलित पति या प्रभाव को भी बताया है। मार्शल । मूल्य निधारण की समस्या को अर्थशास्त्र की समस्या गाना है और मूल्य निवारण की समस्या की राग में गाँग और पूर्ति की शक्तियों के मध्य साम्य या संतुलन की समस्या है।

  1. लागत पा का विस्तृत विश्लेषण-

मार्शल ने मूल्य सिद्धान्त के साग ही लागत पर का भी विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने उत्पादन लागत को दो वर्षों में विभाजित किया है- वास्तविक लागत और दायिक लागत । वास्तविक लागत (real cons) की व्याख्या करते हुए वह लिखते हैं कि “किसी वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली पूंजी के संचय के लिए आवश्यक समय अथवा प्रतीक्षा और वस्तु को बनाने में प्रत्या या अपत्य रूप से प्रयोग होने वाले विभिन्न प्रकार के श्रमों का बलिदान। ये सब मिलकर वस्तु के उत्पादन की वास्तविक लागत कहलाते हैं।” ‘द्राव्यिक लागत’ (money costs) से उनका आशय उन द्रव्य राशियों के योग का है जो कि इन श्रमों और बलिदानों के लिए देनी होंगी। इन्हें संक्षिप्त में उत्पादन व्यय भी कह सकते हैं। ये वह कीमतें हैं जो वस्तु के उत्पादन के लिए प्रयत्नों और प्रतीक्षा को पर्याप्त पूर्ति प्राप्त कर सकने हेतु दी जानी अनिवार्य है अन्यथा उत्पादन कार्य रुक जायेगा। अन्य शब्दों में, ये उसको पुति कीमत है।”

  1. एकाधिकार का सिद्धान्त-

मार्शल ने पूर्ण प्रतियोगिता के अतिरिक्त एकाधिकार के भी अन्तर्गत मूल्य निर्धारण का विवेचन किया है। मार्शल का कहना था कि एकाधिकार का प्रधान उद्देश्य किसी वस्तु की पूर्ति को उसकी मांग के साथ इस प्रकार से समायोजित करना है कि वह यथासम्भव अधिक से अधिक कुल नेट रेवेन्यू प्राप्त कर सके। वह वस्तु की पूर्ति पर कठोर नियन्त्रण रखता है। वह चाहे तो कीमत को निर्धारित करके भी अपने उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। लेकिन यह रास्ता सरकारी हस्तक्षेप की आशंका से भरा है। अत: पूर्ति का नियन्त्रण हो अधिक वांछनीय समझा जाता है।

लोगों की धारणा है कि एकाधिकार वाली कीमत (monopoly price) गैर एकाधिकार वाली कीमत (non-monopoly price) से ऊँची होगी। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। यदि उतनी हो मात्रा का उत्पादन टुकड़ों में कई व्यक्तिगत उत्पादकों द्वारा किया जाय, तो उन्हें (उत्पादकों) मिलकर विज्ञापन पर एक एकाधिकारी, (एक व्यक्ति या एक कम्पनी) को अपेक्षा अधिक राशि व्यय करनी होगी। इसके अतिरिक्त वे वृहतस्तरीय उत्पादन (large scale production) से उपलब्ध होने वाली बाहा एवं आन्तरिक मितव्ययिताओं का भी लाभ नहीं उठा सकेंगे। वह मशीनों के प्रयोग और आधुनिकतम उत्पादन विधियों पर काफी राशि व्यय नहीं कर सकेंगे। निष्कर्ष यह है कि व्यक्तिगत उत्पादकों की पूर्ति कीमत एकाधिकारी की तुलना में ऊंची होगी। मार्शल के अनुसार, रेलवे सेवा की पूर्ति कीमत, सेवा के लिए मांग में प्रत्येक वृद्धि के साथ, अन्य बातें समान रहते हुए, घटती जायेगी। उसने यह भी बताया कि यदि एक एकाधिकारी उपभोक्ताओं के हितों को संवृद्धि चाहता है तो उसे कम कीमत पर वस्तु की अपेक्षाकृत अधिक मात्रा उपलब्ध करनी चाहिए।

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मार्शल ने मूल्य सिद्धान्त को काफी आगे बढ़ाया। उन्होंने जो रास्ता दिखाया उस पर चलते हुए ही मूल्य सिद्धान्त आज इतना विकसित हो सका है। अपूर्ण प्रतियोगिता और फर्म का साम्य आदि नये विचार तब से विकसित हो चुके हैं। एकाधिकार के मूल्य पर भी काफी काम हुआ है किन्तु मार्शल द्वारा बताया गया मार्ग मूल रूप में अभी भी मान्य है।

अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!