
प्रकार्यवादी सिद्धांत की पूर्ण मान्यताएँ | संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण के प्रमुख समर्थकों के संक्षेप में विचार | Complete beliefs of functionalist theory in Hindi | Brief consideration of the major proponents of the structural-functional approach in Hindi
प्रकार्यवादी सिद्धांत की पूर्ण मान्यताएँ

संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण को अच्छी तरह समझने के लिए विभिन्न विद्वानों के प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं-
दुर्खीम के विचार- दुखींम ने उद्देश्य की अपेक्षा प्रकार्य की सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए अधिक मान्यता दी है। सामाजिक घटनाएँ उनके द्वारा उत्पन्न उपयोगी परिणामों के कारण ही बनी नहीं रहती। हमें यह समझना चाहिए सामाजिक तत्व तथा सामाजिक सावयव के बीच कोई संबंध है या नहीं इस संबंध का आधार क्या है, इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह इच्छाकृत रहा है या नहीं। हम सामाजिक घटना की व्याख्या करने को तैयार रहें, हमें घटना को उत्पन्न करने वाले फलप्रद कारण तथा उस घटना के द्वारा पूर्ति किये जाने वाले प्रकार्य को अलग- अलग खोज निकालना चाहिए।
दुर्खीम के मतानुसार, सामाजिक संरचना और प्रकार्य में पर्याप्त घनिष्ठ संबंध है। सामाजिक संरचना की निर्माणक इकाइयाँ सामाजिक तथ्य है। सामाजिक तथ्य तभी स्थिर माना जायेगा जब वह समाज के लिए कोई प्रकार्य करे।
प्राचीनकाल में सामाजिक तथ्यों में पारस्परिक संबंध यंत्रवत् होता था क्योंकि उस समय इन सामाजिक तथ्यों में श्रम विभाजन अधिक स्पष्ट नहीं था। क्योंकि उस समय जनसंख्या कम थी। इसीलिए आवश्यकताएँ भी कम थीं। आवश्यकता कम होने के कारण समाज के विभिन्न अंगों के कार्य भी कम थे और श्रम विभाजन की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया जा सकता था। धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ती गयी तो उनकी आवश्यकताएँ भी बढ़ने लगी और विभाजन की आवश्यकता अनुभव की गयी। समाज के विभिन्न अंगों को कार्य करने को मिल गया और समाज इन संस्थाओं के ऊपर निर्भर रहने लगा।
उदाहरणार्थ पहले अकेले परिवार सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कार्यों को कर लिया करते थे परंतु अब समाज को कुछ ही सामाजिक कार्य करने पड़ते हैं और सामाजिक आर्थिक, धार्मिक कार्य समाज के अन्य संस्थाओं के द्वारा किये जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक राजनीतिक अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य संस्थाओं पर निर्भर रहना पड़ता है। कार्यों के विभाजन होने से अंगों का एक-दूसरे पर निर्भर रहना सावयवी संरचना या शरीर की रचना की ही विशेषता है। आधुनिक सामाजिक संरचना के विभिन्न अंगों में भी इस प्रकार की सावयवी संबंध पाये जाते हैं। विशिष्ट प्रकार के कार्यों को श्रम विभाजन के सिद्धांत के आधार पर करते हैं। अतः सामाजिक संरचना और सामाजिक प्रकार्य एक-दूसरे से न केवल संबंधित हैं, बल्कि एक-दूसरे पर आधारित हैं।
हैं।
लीवी के विचार- सामाजिक संरचना की स्थिरता व निरंतरता तब तक संभव नहीं जब तक उसके विभिन्न अंग समाज द्वारा निर्धारित कुछ निश्चित कार्य न करें। समाज के प्रत्येक कार्य एक जैसे नहीं होते संस्थागत व्यवस्थाओं व सांस्कृतिक विशेषताओं के अनुसार अलग-अलग होते हैं। यही कारण है विभिन्न समाजों में सामाजिक संरचना के विभिन्न अंगों के कार्य भी समान नहीं होते हैं। इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि सामाजिक संरचना के विभिन्न अंग वही कार्य करते हैं जो समाज द्वारा मान्य होते हैं। वास्तविक परिस्थिति तो यह है उनमें से कुछ अंग ऐसे कार्य करते हैं जो समाज विरोधी हैं। पर समाज द्वारा मान्य कार्यों को करने वाले अंशों की ही संख्या प्रायः अधिक होती है। ये कार्य प्रत्येक समाज में अलग-अलग हो सकते हैं फिर सामाजिक संरचना के अस्तित्व व निरंतरता के लिए कुछ सामान्य प्रकार्यों का उल्लेख लीवी ने किया है।
हरबर्ट स्पेंसर का विचार- हरवर्ट स्पेंसर को प्रकार्यवाद का पिता माना जाता है। आपके अनुसार, समाज को एक शरीर या सावयव की भांति देखा। जिस प्रकार शरीर के सभी अंग नाक, कान, हाथ, पैर, आँख, सिर के द्वारा शरीर की रचना होती है, ठीक उसी प्रकार समाज का निर्माण भी अनेक इकाइयों द्वारा होता है, प्रत्येक इकाई का पूर्वनिश्चित कार्य होता है। इन कार्यों पर ही समाज का अस्तित्व निर्भर है। आदिकालीन में समाज के विभिन्न अंगों में विभेदीकरण और विशेषीकरण का अभाव था। परिवार उदाहरण के लिए बच्चों के लालन-पालन तथा आर्थिक उत्पादन दोनों ही कार्यों को कर सकता था और करता भी था परंतु आधुनिक जटिल समस्याओं में वह सब संभव नहीं है। समाज के विभिन्न अंगों परिवार, श्रमिक संघ, कॉलेज राज्य आदि के कार्यों में विभेदीकरण तथा विशेषीकरण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है। आदिकालीन में अंगों का कार्यक्रम एक-दूसरे पर निर्भर करता था। लेकिन आज की संरचना में कार्यों का यह संकलन संपूर्ण जीवन का निर्माण करता है।
हरवर्ट ने यह भी कहा है, जैसे-जैसे प्रकार्यों में जटिलता उत्पन्न होती है। वैसे ही संरचना भी जटिल होती है। परिवार के द्वारा धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक कार्य किये जाते थे। परंतु इन कार्यों का विशेषीकरण हो गया है। इनमें बहुत से कार्य संस्थाओं के सुपुर्द कर दिये हैं। आधुनिक समय में सामाजिक संरचना जटिल हो गयी है। समाज की आर्थिक संस्थाएँ इस प्रकार क्रियाशील हैं अगर पूँजीपतियों को लाभ होता है तो समाज में पूँजीवादी आर्थिक संरचना का विकास होगा इसका प्रभाव संपूर्ण सामाजिक संरचना पर पड़ेगा। सामाजिक संरचना में परिवर्तन उसी अवस्था में होता है जब समाज के विभिन्न अंगों के कार्यों में भी परिवर्तन हो जाता है।
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