समाज शास्‍त्र / Sociology

मर्टन का पैराडाइम सिद्धांत | पैराडाइम की विषयवस्तु अथवा मद | प्रकार्यात्मक विश्लेषण के पैराडाइम की व्याख्या | समाजशास्त्र में प्रकार्यात्मक विश्लेषण के मर्टन के पैराडाइम की विवेचना

र्टन का पैराडाइम सिद्धांत | पैराडाइम की विषयवस्तु अथवा मद | प्रकार्यात्मक विश्लेषण के पैराडाइम की व्याख्या | समाजशास्त्र में प्रकार्यात्मक विश्लेषण के मर्टन के पैराडाइम की विवेचना | Merton’s Paradigm Theory in Hindi | Theme or item of the paradigm in Hindi | Explanation of Paradigm of Functional Analysis in Hindi | Discussion of Merton’s Paradigm of Functional Analysis in Sociology in Hindi

र्टन का पैराडाइम सिद्धांत-

राबर्ट मर्टन प्रसिद्ध विचारक पारसंस के शिष्य एवं कट्टर अनुभववादी हैं। उन्होंने अपने गुरु पारसंस के प्रकार्यात्मक मीमांसा को अस्वीकार कर उसकी आलोचना की। पारसंस ने प्रकार्यात्मक सिद्धांत के विषय में अपना विचार व्यक्त करते हुये लिखा है कि ‘एक ऐसे वृहद् प्रकार्यात्मक सिद्धांत को बनाया जा सकता है जो अपने विस्तार में समाज के सभी पक्षों को अपनी पकड़ में ले लेगा। परंतु मर्टन का मानना है कि हमें आनुभविक तथ्यों को अधिकाधिक एकत्र करना चाहिए। हमें आनुभविक तथ्यों के आधार पर सबसे पहले मध्यस्तरीय सिद्धांत बनाने चाहिये, क्योंकि मध्यस्तरीय सिद्धांत अधिक सघनता लिये होते हैं। उनका निर्माण अमूर्तिकरणों से होता है और इसलिए वे मुख्य सिद्धांत से जुड़े रहते हैं।” मर्टन ने प्रकार्यात्मक सिद्धांत को मध्यस्तरीय सिद्धांत, संदर्भ सिद्धांत तथा प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिये एक पैराडाइम सिद्धांत की व्याख्या की है। परंतु यहाँ हम प्रश्न को ध्यान में रखते हुए एकमात्र पैराडाइम सिद्धांत की ही व्याख्या करेंगे।

राबर्ट मर्टन ने काम्टे से लेकर दुर्खीम के सभी समाजशास्त्रीय प्रकार्यवाद के विकास को देखा है साथ ही रेडक्लिफ ब्राउन तथा मेलिनोवस्की के विकसित प्रकार्यात्मक सिद्धांत का अध्ययन भी किया है। मटन महोदय ने अपने प्रकार्यात्मक विश्लेषण के पैराडाइम के प्रारूप को निर्मित करने में इन सभी समाजशास्त्रियों के प्रकार्यात्मक सिद्धांत से कुछ न कुछ अवश्य ग्रहण किया है। मर्टन महोदय का कहना है कि हम दुनिया के किसी भी समाज का अध्ययन करना चाहें और यदि हमारे अध्ययन का संदर्श प्रकार्यवादी है तो उनका पैराडाइम लागू किया जा सकता है। उनके अनुसार पैराडाइम या मॉडल तो एक विधि है, जिसकी सहायता से हम समाज विविध पक्षों का समुचित अध्ययन कर सकते हैं। मर्टन ने इस पैराडाइम को गहन चिंतन एवं आनुभविक व्यवहार का अच्छा ज्ञान प्राप्त करने के बाद बनाया है जिससे समाज की प्रकार्यात्मक स्थिति का स्पष्ट एवं विस्तृत विश्लेषण किया जा सके।

पैराडाइम की विषयवस्तु अथवा मद-

मर्टन के पैराडाइम में ग्यारह मद अथवा विषयवस्तु हैं जिनका विवरण निम्नलिखित हैं-

(1) प्रकार्यों की पहचान करने वाले मद- जिन सामाजिक सांस्कृतिक मंदों का प्रकार्यात्मक अध्ययन करना है, अनुसंधानकर्ता के लिये आवश्यक है कि वह उन मदों का सर्वप्रथमक पहचान करे। यथा-भारतीय ग्रामीण जीवन पद्धति का अध्ययन करने के लिए अनुसंधानकर्ता को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह ग्राम के विभिन्न तत्वों- विकास, अर्थव्यवस्था, परिवार, निर्धनता, राजनीति एवं बेरोजगारी आदि में किस विषय-वस्तु या मद का अध्ययन करना चाहता है। विषय- वस्तु अथवा मद के सुनिश्चित हो जाने के बाद मर्टन का पैराडाइम आगे बढ़ता है। अतः पैराडाइम को आगे बढ़ाने के लिये किसी मद का निश्चित होना आवश्यक है।

(2) मद का अध्ययन एवं उद्देश्य- जब किसी मद को अध्ययन हेतु सुनिश्चित कर लिया जाता है तो अनुसंधानकर्ता के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उभर कर सामने आता है कि वह उक्त सुनिश्चित मद का अध्ययन क्यों करता है? इसके अध्ययन के पीछे उद्देश्य क्या है? अध्ययन के क्या कारण हैं? ये कारण किस तरह मद या विषय वस्तु से संबंधित अभिवृत्तियों से जुड़ा हुआ है? इत्यादि प्रश्नों का व्यवस्थित जवाब ही अनुसंधानकर्त्ता के उद्देश्य को सुनिश्चित करता है।

(3) मद के प्रकार्य किस प्रकार व्यवस्था को बनाये रखने में सहायक हैं- सामान्यतया प्रकार्यात्मक विश्लेषण में ऐसे तथ्य की खोज अत्यंत जरूरी होती है जिनका हम अध्ययन कर रहे हैं साथ ही वह कहाँ तक अध्ययन क्षेत्र की व्यवस्था को यथावत बनाये रखने में सहायक है, इस बात को जान लेना भी अति आवश्यक है। विषय का अध्ययन करते समय अनुसंधानकर्ता को यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि कहीं यह विषय दुष्प्रकार्य तो नहीं है।

(4) ऐसी इकाई जिसके लिये मद प्रकार्यात्मक है- किसी भी मद के लिये सभी गतिविधियाँ प्रकार्यात्मक होंगी यह मानना भ्रामक होगा क्योंकि सामाजिक व्यवस्था में अनेकों इकाइयाँ विद्यमान रहती हैं। यथा परिवार एक व्यवस्था है जिसमें पति-पत्नी संबंध, माता-पिता व संतान का संबंध, परिवार और नातेदारी संबंध इत्यादि ऐसी अनेक इकाइयाँ होती हैं। कोई भी प्रकार्य जो एक इकाई के लिये सकारात्मक होता है, वहीं इस व्यवस्था के अन्य इकाइयों के लिये नकारात्मक बन जाता है। उदाहरणस्वरूप परिवार में पत्नी नौकरी, व्यवसाय, आदि करके परिवार की आय में वृद्धि करती है इसका सकारात्मक प्रकार्य यह है कि परिवार का जीवन स्तर ऊँचा उठ जायेगा लेकिन नकारात्मक दृष्टि से संतान इकाई पर्याप्त पालन- पोषण से वंचित रह जायेगी। अतः प्रकार्यात्मक विश्लेषण में उन इकाइयों की श्रृंखला का पता लगाना चाहिये जिसके लिये नकारात्मक प्रकार्य हुये हैं।

(5) व्यवस्था की आवश्यकता और पूर्व आवश्यकताओं की प्रकार्य खोज- व्यवस्था की आवश्यकता श्रेणी के विभाजन के दो प्रकार हैं। कुछ आवश्यक सार्वभौमिक तथा कुछ विशिष्ट होते है जो दुनिया की किसी भी व्यवस्था में दृष्टिगत होती है। इस प्रकार कुछ प्रकार्य ऐसा होना चाहिये जो सार्वभौमिक और विशिष्ट दोनों प्रकार की व्यवस्था की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।

(6) प्रकार्य के संसाधन- व्यवस्था की आवश्यकता ही व्यवस्था को जीवित रखती है। सामान्यतः आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये किसी न किसी प्रक्रिया को अपनाया जाता है। जैसे विवाह एक व्यवस्था है और इसे प्राप्त करने के लिये अनेक प्रक्रिया जैसे विवाह निमंत्रण, मंडप, आदि संसाधन के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं।

(7) प्रकार्यात्मक विकल्पों की अवधारणा- मर्टन का मानना है कि व्यवस्था की कोई भी प्रक्रिया जिसे मद पूरा करता है अपरिहार्य नहीं है बल्कि प्रकार्यों को करने वाले कई अन्य वैकल्पिक मद भी हैं। जैसे- यदि किसी व्यक्ति का विश्वास ईश्वर में है तो इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये उसे कई वैकल्पिक प्रकार्य मिले हुये हैं।

(8) प्रक्रिया के लिये संरचनात्मक दबाव- मर्टन का कहना है कि व्यवस्था में प्रकार्यात्मक विकल्पों के होते हुये भी कुछ संरचनात्मक दबाव व्यक्ति पर इस तरह के होते हैं कि उसे एक निश्चित प्रकार्य मद को ही ग्रहण करना होता है। जैसे-जैविकीय आवश्यकता के लिये दाल रोटी का होना निश्चित प्रकार्य है, लेकिन विकल्प के रूप में चावल और मछली या मांसाहारी भोजन उपलब्ध है।

(9) गतिशीलता व परिवर्तन- मर्टन का कहना है कि प्रकार्यवादी सिद्धांत गतिहीन न होकर गतिशील हैं जबकि मानववादियों का विचार है कि प्रकार्यवाद गतिहीन है। उन्होंने भारत की जनजातियों को गतिहीन और जड़ की संज्ञा दी है।

प्रकार्यवादी सिद्धांत की गतिशीलता भारत की जाति व्यवस्था में देखी जा सकती है। एक ऐसा समय था जब निम्न जातियों और दलितों की अनेक निर्योग्यतायें थीं। वे अस्पृश्य थे, मंदिर में उनका प्रवेश वर्जित था, वे सार्वजनिक कुओं से पानी नहीं ले सकते थे, परंतु संविधान बनने के बाद उनकी सब निर्योग्यतायें हटा दी गयीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि व्यवस्था की आवश्यकता के अनुसार प्रकार्यों में भी परिवर्तन आता है।

(10) प्रकार्यात्मक आवश्यकताओं एवं मान्यताओं की पूर्ति का युक्तियुक्त प्रमाणीकरण – मर्टन ने अपने पैराडाइम में इस बात को बार-बार दोहराया है कि किसी भी मद के प्रकार्य ऐसे होने चाहिए जो इस बात को प्रमाणित करें कि व्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति उनके प्रकार्यों के संपादन द्वारा होती है। जैसे यह मान्यता है कि विश्वविद्यालय छात्र-छात्राओं के ज्ञान का विशाल भंडार प्रस्तुत करते हैं जो प्रकार्यात्मक विश्लेषण द्वारा युक्ति-युक्त ढंग से यह देखा जाना चाहिये कि किस प्रकार विभिन्न मद इन मान्यताओं को पूरा करते हैं।

(11) प्रकार्यात्मक विश्लेषण से जुड़ी वैचारिक समस्या- मटन का दृढ़ विश्वास है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण में कोई आर्थिक या राजनैतिक विचारधारा अंतर्निहित नहीं है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि प्रकार्यात्मक सिद्धांत पूरी तरह इन तत्वों से रहित है। प्रकार्यात्मक समाजशास्त्री जिस तरह के मूल्यों से प्रेरित होता है उन्हीं के आधार पर अपना विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इसलिये यह समझना कि प्रकार्यात्मक सिद्धांत सभी विचारधाराओं से मुक्त है, असत्य है, क्योंकि विचारधारा का विकल्प तो प्रकार्यवादी समाजशास्त्री पर निर्भर करता है।

इस प्रकार मर्टन मे एक लंबे प्रयोग के बाद प्रकार्यात्मक मदों को और अपने पैराडाइम को तैयार किया, तो इसके पीछे उनका उद्देश्य यह था कि इस तरह का वर्गीकृत मॉडल प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिये बहुत उपयोगी होगा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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