प्रमुख मौखरी शासक | chief maukhari ruler in Hindi

प्रमुख मौखरी शासक | chief maukhari ruler in Hindi

प्रमुख मौखरी शासक

अनुवर्ती गुप्तों के राजकुल की संस्थापना कृष्णगुप्त ने सर्वप्रथम मगध से की थी। अफसढ़-अभिलेख में कृष्णगुप्त के विषय में लिखा है-

“Krishnagupta was a king of good descent whose arm played the part of a lion, in bruising the foreheads of the array of the rutting elephants of his haughty enemies and in being victorious by its power over countless foes.”

अफसढ़ अभिलेख में कृष्णगुप्त के विषय में इतना ही विवरण है। वह नरेश स्वतंत्र था या किसी सम्राट का सामंत, इसमें विवाद है, परन्तु सामंत नरेश होने की अधिक आशाएं हैं। उपर्युक्त विवरण में हमें कृष्णगुप्त की एक भीषण शत्रु से मुठभेड़ का निर्देश प्राप्त होता है। यह शत्रु कौन हो सकता है, इसकी एकात्मकता अभी तक स्थापित नहीं की जा सकी है। परन्तु तत्कालीन घटनाओं के समीक्षात्मक अध्ययन से हम यह निगमन कर सकते हैं कि हूणों ने भारत के कई भागों में आतंक मचाया हुआ था। मगध एवं बंगाल पर भी उनके आक्रमण प्रारम्भ हो गए थे। कृष्णगुप्त ने इन्हीं आक्रमण को अवरुद्ध कर जयपत्र प्राप्त किए थे। ‘Haughty ememies’ से तात्पर्य हूणों से ही हो सकता है। डॉ० बी०पी० सिन्हा ने कृष्णगुप्त का समय 490 से 505 ई० तक का माना है। कृष्णगुप्त हरिवर्मन का समकालीन नरेश था। नरेश या नृप उपाधि से हम किसी को सर्वप्रभुत्व-सम्पन्न राज्य का संचालक नहीं कह सकते हैं। हरिवर्मन कन्नौज के मौखरी वंश का प्रवर्तक था।

श्रीहर्षगुप्त

कृष्णगुप्त के उपरान्त परवर्ती गुप्त राजवंश का दूसरा उत्तराधिकारी श्रीहर्षगुप्त था। इस नृप की शासनावधि 505 ई० के मध्य निश्चित की गई है। इस नृप के विषय में अफसढ़ अभिलेख में निम्नलिखित विवरण है-

“He was always displaying a glorious triumph the written record as it were of terrible contests.”

श्रीहर्षगुप्त भी महान गुप्त सम्राट् का सामंत था। नरसिंह गुप्त ने इसी समय मिहिरकुल के विरुद्ध विप्लव किया था। इस सामंत ने हूणों के विरुद्ध युद्ध में अवश्य ही अपने स्वामी को सक्रिय सहयोग प्रदान किया होगा। इस नृप के विषय में हमें और कुछ भी नहीं ज्ञात होता।

जीवितगुप्त-प्रथम

श्री हर्षगुप्त के पश्चात् जीवितगुप्त-प्रथम सिंहासनारूढ़ हुआ। डॉ० सिन्हा के अनुसार 525 से 545 ई० तक इस नृप ने शासन किया था। यह नृप विष्णुगुप्त का सामंत था। इसने अपने को ‘क्षितीज-चूणामणि’ की संज्ञा प्रदान की थी। परन्तु इस उपाधि से उसकी स्थिति के विषय में हमें कुछ अन्य न सोचना चाहिए। इस नृप ने प्रथम बार कई अभियानों एवं आक्रमणों से अनुवर्ती गुप्तों की महत्वाकांक्षा को ध्वस्त किया।

वलभी का राजवंश (509-775)

स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद गुप्त साम्राज्य का एक सुदूरवर्ती प्रान्त सुराष्ट्र से पृथक् हो गया और वहाँ पर एक स्वतन्त्र राजवंश की सत्ता प्रतिष्ठापित हो गई। सुराष्ट्र के सेनापति भट्टारक ने वलभी (भावनगर के समीपस्थ) पाँचवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में नया राजकुल स्थापित किया।

वलभी के जिस राजवंश की स्थापना पाँचवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हुई उसका विवरण हमें किसी प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता। इसे ‘मैत्रक’ का नाम भी दिया गया है। स्मिथ साहब ने अपना यह मत प्रकट किया था कि वलभी का राजकुल ईरानी था। कदाचित् ‘मैत्रक’ नाम से उन्हें यह भ्रम उत्पन्न हो गया हो। उनके इस मत की पुष्टि का कोई प्रमाण नहीं मिलता। कुछ विद्वानों ने यह धारणा प्रकट की है कि चूँकि मैत्रक हूणों के साथ ही विख्यात हो उठते हैं, इसलिए इन दोनों का परस्पर कोई जातीय सम्बन्ध रहा होगा। परन्तु यह सम्भावना भी अर्थवती नहीं प्रतीत होती । वास्तव में भट्टारक ने जिस राजवंश की स्थापना की, वह एक भारतीय राजकुल प्रतीत होता है। काफी प्राचीन समय से इस वंश के लोग सुराष्ट्र में निवास करते थे।

वलभी के राजकुल का इतिहास- भट्टारक के राजवंश के अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन पर गुप्त वलभी संवत् में तिथियों का उल्लेख किया गया है। परन्तु इन अभिलेखों में केवल राजाओं का नाम ही दिया गया है। उनके विषय में कोई विस्तृत और विश्वसनीय विवरण नहीं मिलता। किन्तु इधर-उधर बिखरे हुए विवरणों से इस राजवंश के इतिहास की एक रूपरेखा तैयार की जा सकती है। लेकिन यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पुष्ट प्रमाणों की अनुपस्थिति में वलभी राजवंश के इतिहास के सम्बन्ध में जो भी मत प्रकट किये जा सकते हैं, उनकी प्रामाणिकता और सत्यता असंदिग्ध नहीं मानी जा सकती।

भट्टारक ने सुराष्ट्र में एक नये राजकुल की स्थापना अवश्य की, परन्तु सम्भवतः वह पूर्णरूपेण स्वतन्त्र नहीं था। भट्टारक स्वयं अपने को ‘सेनापति’ कहता रहा और उसके उत्ताधिकारियों ने भी ‘सेनापति’ कहलाना जारी रखा। परन्तु बाद के नरेशों ने महाराज का विरुद धारण किया। द्रोण सिंह, ध्रुवसेन-प्रथम, धरपट्ट, गुहसेन तथा धरसेन-द्वितीय ने ‘महाराजट की पदवी धारण की थी। इससे कुछ विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि वलभी के मैत्रक नरेश या तो गुप्तों का आदर करने के लिए नाममात्र को उनकी अधीनता स्वीकार करते थे, अथवा वे किसी अन्य शक्ति के सम्भवतः हणों के आधिपत्य में स्थायी रूप से रहे। इस सम्बन्ध में डॉ० त्रिपाठी का कथन है, परन्तु यह स्पष्ट नहीं कि उन्होंने किसका आधिपत्य अंगीकार किया था। क्या उन्होंने कुछ काल तक गुप्त-परम्परा ही जीवित रखी? अथवा वे उन हूणों के अधीन थे, जो धीरे-धीरे पश्चिमी और मध्य एशिया के स्वामी बन गये थे।” ऐसा प्रतीत होता है कि मैत्रक सेनापति नरेशों ने गुप्तों की अधीनता को स्वीकार किया था और हूणों को शक्ति बढ़ने पर उनका आधिपत्य भी उन्हें स्वीकार करना पड़ा।

परन्तु मैत्रक राजाओं ने अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयल किया जिसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई। मैत्रक राजकुल की शक्ति धीरे-धीरे बढ़ने लगी और ज्योंही हूणों की शक्ति का ह्रास हुआ, इस राजवंश के राजाओं ने अपने को उनकी अधीनता से मुक्त कर लिया। छठी तथा सातवीं शताब्दियों में पहुँच कर मैत्रक नरेश पश्चिमी भारत में सर्वशक्तिमान हो गये। वलभी का एक प्रतापी राजा शीलादित्य था। इसने अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया जिसका प्रमाण हमें चीनी यात्री ह्वेनसांग के द्वारा प्राप्त होता है। मो-ला-पो का वर्णन करते हुए उसने इसके राजा शीलादित्य का उल्लेख किया है जो चीनी यात्री के समय से आठ वर्ष पूर्व इस देश (मो-ला-पो) पर राज्य कर रहा था। इस प्रकार शीलादित्य का शासन-काल 580 ई० के लगभग ठहरता है। यद्यपि तिथियों के सम्बन्ध में कुछ गड़बड़ी उत्पन्न होती है, तथापि ह्वेनसांग द्वारा उल्लिखित मो-ला-पो के शीलादित्य का वलभी के शीलादित्य-प्रथम धर्मादित्य के साथ समीकरण किया जा सकता है। यदि हम इस समीकरण को सत्य मानें तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि शीलादित्य ने एक विस्तृत प्रदेश पर शासन किया। मो-ला-पो की भौगोलिक स्थिति के विषय में मतभेद होने के बावजूद भी इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि इस नाम से ‘मालवा’ की अभिव्यक्ति होती है और इसमें पश्चिमी मालवा का काफी भाग सम्मिलित था। इसलिए हम यह विश्वास कर सकते हैं कि छठी शती के अन्त में वलभी का राज्य पश्चिमी भारत में सबसे अधिक शक्तिशाली था।

ह्वेनसांग ने राजा शीलादित्य की बहुत अधिक प्रशंसा की है। उसने उसे शासन सम्बन्धी एक महती योग्यता तथा दुर्लभ दयालुता और करुणा से सम्पन्न शासक’ कहा है। शीलादित्य ने एक बौद्ध मन्दिर का निर्माण कराया जो “आकार तथा अलंकरण में अत्यन्त कलात्मक था।” वह प्रतिवर्ष एक धार्मिक सम्मेलन का आयोजन भी किया करता था जिसमें देश भर के बौद्ध भिक्षु सम्मिलित हुआ करते थे। अभिलेखों के साक्ष्य से पता चलता है कि राजा शीलादित्य ने धर्मादित्य की पदवी धारण की थी जो ह्वेनसांग के द्वारा उसके चरित्र सम्बन्धी केये हुए वर्णन से अच्छी तरह मेल खा जाती है।

राजा शीलादित्य के बाद उसका भतीजा ध्रुवसेन द्वितीय बलभी का दूसरा प्रतापी राजा हुआ। शीलादित्य की मृत्यु सम्भवतः सन् 612 ई० में हुई, जिसके बाद उसका अनुज खरग्रह बलभी के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। खरग्रह के बाद उसका पुत्र धरसेन तृतीय राजा हुआ। इन दोनों राजाओं के विषय में हमें विशेष रूप से कुछ ज्ञात नहीं, केवल इतना मालूम है कि वे क्रमशः सन् 616 ई० और 623 ई० में राज्य कर रहे थे। धरसेन-तृतीय के शासन-काल में वलभी के राज्य में उत्तरी गुजरात सम्मिलित था।

ध्रृवसेन-द्वितीय-

धरसेन-तृतीय का उत्तराधिकारी ध्रुवसेन-द्वितीय था। ध्रुवसेन द्वितीय धरसेन का छोटा भाई था। ध्रुवसेन द्वितीय के विषय में ह्वेनसांग ने लिखा है- “राजा जन्म से क्षत्रिय था और मो-ला-पो के पूर्ववर्ती राजा शीलादित्य का भतीजा तथा कान्यकुब्ज के ‘शीलादित्य का दामाद था; उसका नाम था तु-लो-पो-पो-ता (ध्रुवभट्ट); उसके विचारों में न गहराई थी और न दूरदर्शिता, परन्तु बौद्ध धर्म में उसकी आस्था गहरी थी।” ह्वेनसांग के इस कथन से यह ध्वनित होता.है कि शीलादित्य के समय में राज्य दो भागों में विभक्त हो गया था- (1) मालवा का पश्चिमी भाग (मो-ला-पो) जो शीलादित्य के अधीन था और (2) वलभी जो उसके भाई के अधीन था। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने रण-अभियान के सम्बन्ध में सम्भवतः हर्ष ने वलभी पर भी आक्रमण किया होगा, “जबकि वहाँ का राजा ध्रुवसेन (ध्रुव भट्ट) भड़ौच के दद्द का आश्रय प्राप्त करने के लिए देश छोड़कर भाग गया और उसकी सहायता से ही अन्त में अपने राज्य पर पुनः अधिकार कर सका। निश्चय ही उसके और हर्षवर्धन के बीच सन्धि हुई जिसने अपने इस राजनीतिक सम्बन्ध को वलभी-नरेश को अपना जामाता बनाकर अत्यन्त दृढ़ कर दिया। यात्री सूचित करता है कि हर्ष के प्रयाग सम्मेलन में उपस्थित होने वाले नरेशों में ध्रुव भट्ट भी था जो वहाँ सम्राट के अनेक मित्र-नरेशों में एक मित्र नरेश के रूप में उपस्थित हुआ था।” (एन०एन० घोष) घोष महोदय ने ध्रुवसेन के राज्य छोड़कर भाग जाने की घटना को भड़ौच के गुर्जर अभिलेखों में उल्लिखित घटना के ऊपर आधारित मान लिया है। उन्होंने गुर्जर अभिलेखों की सत्यता में तनिक भी सन्देह नहीं किया है। दद्द-द्वितीय के लिए एक गुर्जर-अभिलेख में सोत्साह कहा गया है कि उसने हर्ष द्वारा भयत्रस्त वलभी-नरेश की रक्षा करके (अथवा उसे अपने राज्य में शरण देकर) एक महान् गौरवपूर्ण कार्य किया। अभिलेख का यह कथन सत्य के निकट प्रतीत होता है, यद्यपि इसमें प्रयुक्त भाषा अतिशयोक्तिपूर्ण है। इससे केवल यही सिद्ध होता है कि हर्ष और वलभी-नरेश में एक संघर्ष हुआ था। परन्तु इस संघर्ष के परिणामों के विषय में हमें कोई सूचना नहीं मिलती। गुर्जर-अभिलेख के साक्ष्य से ऊपर घोष महोदय ने जो निष्कर्ष निकाला है, वही हमें सत्य मालूम पड़ता है। हम यह नहीं कह सकते कि हर्ष ने वलभी पर पूर्णरूपेण विजय प्राप्त कर ली थी और वलभी का शासक हर्ष का सामन्त हो गया था। डॉ. दिनेश चन्द्र सरकार का यह कथन ठीक नहीं जान पड़ता कि वलभी का राजा हर्ष का एक सामन्त मित्र था। यह अनुमान करना कठिन प्रतीत होता है कि सम्राट हर्ष और ध्रुवसेन का परस्पर मैत्री सम्बन्ध था।

धरसेन चतुर्थ-

ध्रुवसेन द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी धरसेन-चतुर्थ था। यह एक समर्थ और शक्तिमान् नरेश था। उसने एक चक्रवर्ती नरेश की समस्त उपाधियां परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर’ तथा ‘चक्रवर्तिन्’ धारण कर रखी थीं। कुछ विद्वानों की धारणा है कि ‘भट्टिकाव्य’ का रचयिता भट्टि इसी धरसेन की राजसभा को केसुशोभित करता था। धरसेन एक वीर विजेता भी था। उसने गुजरात के ऊपर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसने भड़ौच के विजय स्कन्धावार से एक दान दिया था, जिससे यह प्रतीत होता है कि इस समय भड़ौच उसके अधिकार में आ गया था।

धरसेन-चतुर्थ के पश्चात् वलभी का राज्य- धरसेन-चतुर्थ के एक शती बाद तक मैत्रक कुल का राज्य वलभी पर बना रहा। इस वंश के अन्तिम नरेश शीलादित्य सप्तम की अन्तिम ज्ञात तिथि गुप्त संवत् 477-766 हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस समय तक मैत्रक वंश का अस्तित्व कायम रहा। परन्तु धरसेन-चतुर्थ के पश्चात् से लेकर इस समय तक के वलभी राज्य का इतिहास तिमिराच्छादित है। इस राज्य का राजनीतिक गौरव भले ही कम हो गया हो, परन्तु इसका सांस्कृतिक महत्व और अधिक समय तक रहा। अरब आक्रमणकारिणों ने सन्  ई० के लगभग वलभी के राज्य का अन्त कर दिया।

वलभी का आर्थिक और सांस्कृतिक महत्व- यद्यपि वलभी की राजनीतिक शक्ति बहुत अधिक नहीं थी और समकालीन राजनीतिक शक्तियों में इसका स्थान बहुत अधिक गौरवपूर्ण नहीं था तथापि इसकी आर्थिक समृद्धि और सास्कृतिक महत्व को भुलाया नहीं जा सकता। वलभी राज्य की आर्थिक और सामरिक स्थिति बड़ी महत्वपूर्ण थी। हमने गुप्त युग की आर्थिक अवस्था पर विचार करते हुए यह देखा है कि भडाक एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। कुछ समय बाद जब यह वलभी के राज्य में सम्मिलित हो गया तो इसी आर्थिक समृद्धि के स्त्रोत काफी बढ़ गये। स्वयं वलभी की स्थिति बड़ी हितकर और आर्थिक क्रियाकलापों के अनुकूल थी, जिससे प्रोफेसर अल्तेकर के शब्दों में वलभी, काठियावाड़ में आधुनिक बल के निकट अवस्थित, अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य का एक बन्दरगाह बन गई थी जहाँ पर अनेक व्यापारिक मण्डियाँ प्रतिक्षण दुर्लभ व्यापार-सामग्रियों से पटी रहती थीं।” “ Valabhi, situated near modern Wala in Kathiawar, was capital of an important kingdom and a part of international trade With numerous ware houses warehouses full of rarest merchandise.”

वलभी की इस आर्थिक समृद्धि ने वहाँ पर संस्कृति और सभ्यता के विकास को सुगम बना दिया। वलभी में शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र था और यह नगरी अपने विद्यालय के कारण विख्यात थी। प्रोफेसर अल्तेकर ने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत में शिक्षा’ में बलभी के विश्वविद्यालय का वर्णन किया है। उसी के आधार पर हम भी उसका उल्लेख करते हैं। सातवीं शताब्दी में विद्या का केन्द्र होने के कारण वलभी की नगरी अधिक प्रसिद्ध थी। चीनी यात्री इत्सिंग से हमें सूचना मिलती है कि इसका यश पूर्वी भारत की नालन्दा नगरी के यश की प्रतिस्पर्धा करता था। यह सचमुच एक दुःख की बात है कि इत्सिंग ने इसकी साहित्यिक और शिक्षा-सम्बन्धी क्रियाशीलता का सविस्तार वर्णन नहीं किया है। 640 ई० में वलभी में वलभी में लगभग एक सौ बौद्ध विहार थे और उनमें छः हजार भिक्षु विद्यार्थी रहते थे। सातवीं शताब्दी के मध्य में स्थिरमति और गुणमति नामक सुविख्यात बौद्ध विद्वान् इस नगरी के ख्यातनामा आचार्य थे। नालन्दा की भाँति वलभी में संकीर्ण धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती थी। केवल बौद्ध धर्म और तत्सम्बन्धी विषय ही यहाँ के पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं थे।

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