इतिहास / History

चन्द्रगुप्त मौर्य | चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयें या उपलब्धियाँ | चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन-प्रबन्ध | चन्द्रगुप्त द्वितीय का मूल्यांकन

चन्द्रगुप्त मौर्य | चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयें या उपलब्धियाँ | चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन-प्रबन्ध | चन्द्रगुप्त द्वितीय का मूल्यांकन

चन्द्रगुप्त मौर्य

प्राम्भिक परिचय- चन्द्रगुप्त द्वितीय समुद्रगुप्त का पुत्र था। वह अपने भाइयों में सबसे अधिक योग्य तथा प्रभावशाली था। इसी से समुद्रगुप्त ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। वह सन् 375 से 380 ई० के बीच सिंहासनारूढ़ हुआ था और सन् 413 या 414 ई० में उसकी मृत्यु हुई थी। समुद्रगुप्त के बाद समुद्रगुप्त का पुत्र रामगुप्त सिंहासन पर बैठा था, किन्तु उसने कुछ ही महीनों शासन किया था, जिसके उपरान्त चन्द्रगुप्त ने उसकी हत्या कर दी।

कई इतिहासकारों ने रामगुप्त के अस्तित्व और रामगुप्त द्वारा अपने भाई की हत्याकर उसकी पत्नी ध्रुवदेवी से विवाह करने की बात को “देवीचन्द्रगुप्तम्” और बाणभट्ट के “हर्ष चरित्र” की कोरी कल्पनाएँ बताया है। फिर भी यह सम्भव हो सकता है कि अपने कायर भाई की उसने देश-हित में हत्या कर दी हो।

वैवाहिक सम्बन्ध- चन्द्रगुप्त द्वितीय एक चतुर राजनीतिज्ञ था। उसने नागवंश तथा वाकाटकवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। उसने नागवंश की राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया जिससे प्रभावती नामक कन्या उत्पन्न हुई। उस समय वाकाटक-वंश भी बहुत शक्तिशाली था। अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय, ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक-नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। इस वैवाहिक सम्बन्ध से भी उसकी शक्ति बढ़ी और वह शकों के विरुद्ध सफलतापूर्वक युद्ध कर सका। डॉ० वी० ए० स्मिथ का कथन है कि “वाकाटक-नरेश की यह महत्त्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति थी जिसके कारण वह सौराष्ट्र और गुजरात के शक राजाओं पर उत्तर से आक्रमण करने वाले राजा  के लिए सहायता या बाधा पहुँचा सकता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने बहुत बुद्धिमत्ता से सावधानी के रूप में अपनी पुत्री वाकाटक-नरेश को दे दी और इस प्रकार उसकी अधीनस्थ मैत्री प्राप्त कर ली। ”तालगुण्ड अभिलेख से ज्ञात होता है कि कदम्ब-नरेश काकुस्थवर्मन ने अपनी एक पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम के साथ किया था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय को सौभाग्य से साम्राज्य निर्माण नहीं करना पड़ा। उसके पराक्रमी पिता ने उसके लिए एक विशाल तथा संगठित एवं सुव्यवस्थित साम्राज्य छोड़ा था। फिर भी चन्द्रगुप्त को अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए निम्न युद्ध करने पड़े।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयें या उपलब्धियाँ

चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयें या उपलब्धियाँ निम्न प्रकार हैं-

(1) गणराज्यों का विनाश-पश्चिमोत्तर भारत के कुषाण तथा अवन्ति के महाक्षत्रपों और गुप्त साम्राज्य के बीच उत्तर में भंद्रगण से लेकर दक्षिण में स्वर्णरिकगण तक छोटे-छोटे गणों की एक पतली दीवार थी। ये गण स्वतन्त्रता के बड़े प्रेमी थे, परन्तु इस समय वे ऐसी अवस्था में थे कि किसी व्यवस्थित एवं बड़े विदेशी आक्रमण का सामना नहीं कर सकते थे। इस स्थिति से लाभ उठाकर चन्द्रगुप्त ने इन गणों पर आक्रमण कर दिया और उन पर विजय प्राप्त करके उनके अस्तित्व को समाप्त कर दिया। इस प्रकार वाकाटकों को अपना सहयोगी एवं मित्र बना लेने पर चन्द्रगुप्त के लिये मध्य में पश्चिमी भारत की विजय का कार्य सुगम हो गया था। गणराज्यों का विनाश करने के कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय को ‘गणारि’ भी कहा जाता है।

(2) शक क्षत्रपों का अन्त- यद्यपि समुद्रगुप्त ने उत्तर-पश्चिम के राज्यों को आतंकित कर दिया था और वे गुप्त साम्राज्य के सम्राट की मैत्री की आकांक्षा करते थे, परन्तु पश्चिम के क्षत्रप अधीन नहीं हुए थे और अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते थे। उस समय गुजरात, सौराष्ट्र तथा मालवा पर शकों का अधिकार था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने इन क्षत्रपों पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया। अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए उसने एक विशाल सेना तैयार की और पश्चिम के क्षत्रपों पर विजय प्राप्त करने के लिए चल पड़ा। चन्द्रगुप्त की यह विजय-यात्रा सफल हुई। शक क्षत्रप रुद्रसिंह तृतीय पराजित होकर मारा गया और मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र को चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस विजय से गुप्त साम्राज्य को समृद्धशाली प्रदेश हाथ लगा और उसका विस्तार अब पश्चिम सागर तक हो गया, इससे गुप्त साम्राज्य के उद्योग- धन्धों तथा व्यापार का मार्ग पूर्णतः प्रशस्त हो गया। उदयगिरि के गुहालेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय के सचिव ने इस सम्बन्ध में लिखा, “सम्पूर्ण विश्व की विनय-कामना रखने वाले अपने स्वामी (चन्द्रगुप्त द्वितीय) के साथ वह (शाव) यहाँ (पूर्वी मालवा) आया।”इस विजय के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय ने चाँदी के सिक्के चलाए तथा ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि प्राप्त की। शकों पर विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप उसने ‘शकारि’ की उपाधि भी धारण की।

शक विजय की तिथि से सम्बन्ध में भी कुछ पुरातात्विक साक्ष्य और मुद्राएँ मिलती हैं। जैसे-शकों के अन्तिम नरेश रुद्रसिंह तृतीय की अन्तिम वर्ष की मुद्राओं पर शक संवत 310 (388 ई०) अंकित है। इसी प्रकार शक मुद्राओं के अनुकरण पर बनाई गयी चन्द्रगुप्त की चाँदी की प्रारम्भिक मुद्राओं की तिथि 410 से 418 ई० सन् के मध्य बैठती है तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामन्त सनकादिक महाराज विष्णुदत्त के पुत्र के मध्य बैठती है तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामन्त सनकादिक महाराज विष्णुदत्त के पुत्र के दानपात्र की तिथि 401-402 ई० सन् है। इन प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह युद्ध पाँचवीं शती ई० की प्रथम दशाब्दी में हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय ने 388-397 ई० के बीच शकों पर विजय प्राप्त की थी। डॉ० मिश्र के अनुसार चन्द्रगुप्त की शक-विजय की तिथि 400 ई० के कुछ वर्ष पूर्व रखी जानी चाहिए।

(3) पूर्वी बंगाल पर विजय महरौली स्तम्भ अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने ”बंग” देश में राजाओं के एक संघ का सामना किया। गुप्त राज्य क ईइस पूर्वी सीमा पर कई छोटे-छोटे राज्य थे, जो कुछ समय से गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए संगठित हो रहे थे। इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख में कहा गया है कि समतट, डवाक जिसमें “बंग” का कुछ भाग भी सम्मिलित था, एक “प्रत्यान्त’ या सीमावर्ती राज्य था। इस “बंग-हैसंघ” द्वारा विद्रोह करने के समय सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय शकों को दबाने में व्यस्त था। शकों पर विजय प्राप्त करने वाली सेना को ही चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पूर्वी भारत की ओर मोड़ दिया और इस संघ के राजाओं को परास्त कर यश प्राप्त किया। इसके परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्य की सीमाएँ अब सीधी आसाम तक पहुँच गईं।

(4) पश्चिमोत्तर भारत पर विजय- अपने राज्य की पूर्वी सीमाओं पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमोत्तर भारत की सीमाओं की ओर ध्यान दिया जहाँ कि कुषाणों के वंशज अब भी शासन कर रहे थे। महरौली के स्तम्भ लेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने सिन्धु की सहायता से नदियों को पारकर वाह्नीकों को परास्त किया था। उसने पंजाब तथा सीमान्त प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके वाहलीकों को काबुल के उस पार भगा दिया था। इस विजय से चन्द्रगुप्त ने भारत को विदेशी शासन से पूर्णतया मुक्त करा लिया। डॉ० राजबली पाण्डेय का कथन है कि “चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पंजाब और सीमान्त पर अधिकार जमा कर भारत के प्राचीन दिग्विजयी राजाओं की परिपाटी के अनुसार हिन्दूकुश के जपार तक दिग्विजय करते हुए वालीकों को परास्त कर दिया।’ परन्तु डॉ० डी० सी० सरकार तथा डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार वाहूलीक से तात्पर्य पंजाब प्रदेश से मानना चाहिए। शायद चन्द्रगुप्त द्वितीय सिन्धु नदी की निचली घाटी के प्रदेशों को जीतता हुआ पंजाब पहुँचा होगा और वाहलीकों पर विजय प्राप्त की होगी।

(5) दक्षिणी भारत पर पुनः आधिपत्य स्थापन- समुद्रगुप्त के पश्चात् रामगुप्त के शासनकाल में दक्षिणी भारत के राज्यों ने गुप्त साम्राज्य की सत्ता को अस्वीकार कर उसे वार्षिक कर देना बन्द कर दिया था। महरौली स्तम्भ के लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने पराक्रम तथा प्रताप के बल से दक्षिण के राज्यों पर पुनः अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

(6) साम्राज्य विस्तार- इन्हीं विजयों को प्राप्तकर चन्द्रगुप्त द्वितीय ने गुप्त साम्राज्य की सीमाओं का अपने पिता समुद्रगुप्त की अपेक्षा अधिक विस्तार कर दिया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तट तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर मेंपश्चिम में काठियावाड़ तक का सम्पूर्ण भाग गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित था। अपनी विजयों से चन्द्रगुप्त को उपजाऊ एवं समुद्रतटवर्ती राज्य मिल जाने से उसका साम्राज्य समृद्धशाली हुआ तथा वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में काफी उन्नति हुई। डॉ० मिश्र का कथन है कि, “पश्चिम में गुजरात से लेकर बंगाल तक का प्रदेश चन्द्रगुप्त द्वितीय के अधिकार में था। पंजाब का प्रदेश निश्चित रूप से उसके आधिपत्य में था और सम्भवतः उसने बल्ख तक के प्रदेशों पर विजय की थी चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद इतने बड़े प्रदेश पर किसी अन्य भारतीय शासक ने शासन नहीं किया।”

चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन-प्रबन्ध

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने विशाल साम्राज्य के शासन की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की थी। उसकी शासन व्यवस्था की रूपरेखा निम्नलिखित ढंग से की गई थी-

  1. सम्राट तथा उसके सचिव- अभिलेखों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त बड़ा अच्छा तथा उदार शासक था। यद्यपि सम्राट निरंकुश था, तथापि वह स्वेच्छाचारी नहीं था। वह प्रजा के सामान्य जन-जीवन में कम हस्तक्षेप करता था। सम्राट स्वयं राज्य का प्रधान था और उसकी सहायता के लिए सचिव होते थे। सम्राट का सबसे बड़ा परामर्शदाता मन्त्री कहलाता था। एक मन्त्री शान्ति तथा युद्ध के लिए होता था जो सन्धि विग्रहक” कहलाता था। यह सम्राट के हैसाथ युद्ध में उपस्थित रहता था। एक सचिव राज्य-पत्रों को रखता था जिसे “अक्षपटल अधिकृत” कहते थे।
  2. शासन की विभिन्न इकाइयाँ- सारा साम्राज्य कई प्रान्तों में विभक्त था, प्रत्येक प्रान्त “देश” अथवा “भुक्ति’ कहलाता था। प्रत्येक प्रान्त के लिए एक शासक होता था जो अपरिक कहलाता था। कुछ भुक्तियों के शासक राजकुमार हुआ करते थे। प्रत्येक प्रान्त अथवा भुक्ति कई जिलों अथ विषयों में विभक्त रहता था। जिले अथवा विषय का शासक “विषयपति” कहलाता था। कुछ विषयपति सीधे सम्राट की अधीनता में कार्य करते थे और कुछ प्रान्तों के गवर्नरों की अधीनता में कर दिये गये थे। प्रान्तों तथा जिलों के शासकों की सहायता के लिए दण्डीक, चोरोंद्धरणीक, दण्डपाशीक, नगरश्रेष्ठी, सार्थवाह, प्रथम-कुलीन आदि कर्मचारी हुआ करते थे। प्रत्येक विषय अनेक ‘‘ग्रामों” में विभक्त था। गाँव का शासक ‘‘ग्रामिक'”, “भोजक’ कहलाता था। इस पद पर गाँव के चौधरी तथा मुखिया नियुक्त किये जाते थे। राज्य कर्मचारियों तथा सम्राट के अंगरक्षक को निश्चित वेतन प्राप्त होता था। किसानों से उपज का एक निश्चित भाग कर के रूप में लिया जाता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय प्रजा को स्वतन्त्रता थी। लोग बेरोक-टोक एक स्थान से दूसरे स्थान को जाया करते थे।
  3. दण्ड-विधान- चन्द्रगुप्त एक उदार एवं दयालु शासक था.। अतः उसके राज्य में दण्ड व्यवस्था भी कठोर नहीं थी। फाह्यान को भी यह देखकर प्रसन्नता हुई कि उस समय भारत में दण्ड-व्यवस्था कठोर न होते हुए भी साम्राज्य में पूर्ण शान्ति एवं सुविधायें थीं।अपराध कम होते थे तथा यात्रियों को चोरों, डाकुओं का भय नहीं रहता था। अपराधियों को अपराध के अनुसार दण्ड दिया जाता था। साधारण अपराधों के लिए साधारण जुर्माना और बड़े-बड़े अपराधों के लिए बड़े-बड़े जुर्माने होते थे। अंग-भंग का दण्ड नहीं दिया जाता था। केवल देशद्रोहियों का दाहिना हाथ काट लिया जाता था। प्राण-दण्ड की प्रथा इस समय नहीं थी।
  4. मुद्रा- इस काल में साधारण व्यवसाय में कौड़ी का प्रयोग होता था। बड़े-बड़े व्यापारों में धातु मुद्रा का प्रयोग किया जाता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सोना, चाँदी तथा ताँबे की मुद्रायें चलाई थीं।
  5. वाणिज्य तथा व्यापार- चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में व्यापार की बड़ी उन्नति हुई। पूर्वी बंगाल से बढ़िया वस्त्र, पश्चिमी बंगाल से रेशम, बिहार से नील, हिमालय के पहाडी राज्यों से अंगराग, दक्षिण से कपूर, सन्दल तथा मसाले पश्चिमी तट के बन्दरगाहों पर लाये जाते थे और रोम राज्य को भेजे जाते थे, जहां से अपार सोना भारत को आता था। इस व्यापारिक समृद्धि से देश धनधान्य पूर्ण हो गया और जनता सुख-शान्ति से रहने लगी।
  6. धार्मिक सहिष्णुता- सरकारी नौकरियाँ सभी सम्प्रदायों तथा सभी श्रेणी के लोगों को प्राप्त थीं। यद्यपि चन्द्रगुप्त स्वयं वैष्णव था, परन्तु उसका सेनापति बौद्ध और उसका मन्त्री शेव था। यह चन्द्रगुप्त द्वितीय की धार्मिक सहिष्णुता प्रकट करती है।
  7. दान-व्यवस्था- सम्राट चन्द्रगुप्त धर्म-सहिष्णु होने के साथ-साथ उदार तथा दानी भी था। वह गरीबों तथा अनाथों को खूब दान देता था। राज्य में दान देने के लिए एक अलग विभाग था जो एक पदाधिकारी के नियन्त्रण में काम करता था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय का मूल्यांकन

चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त वंश का एक महान् सम्राट था। उसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषतायें परिलक्षित होती हैं-

(1) महान विजेता- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने पिता की भाँति एक महान विजेता था। क्षेत्रअपने बल से उसने अपने पिता के राज्य को महान साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसने पंजाब तथा पश्चिमी भारत के सीथियनों का अन्त कर सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। वह एक वीर, साहसी तथा महत्त्वाकांक्षी सेनानायक था। उसमें अकबर की नीतिपटुता, शासन-योग्यता, निर्भीकता तथा उदारता थी। उसने विक्रमांक, विक्रमादित्य, अजितविक्रम, सिंहविक्रम आदि की उपाधियाँ धारण की थीं, जिनसे उसकी वीरता तथा उसके साहस का परिचय मिलता है। भारत में शकों की सत्ता को समूल नष्ट करने का श्रेय उसी को प्राप्त है।

(2) उच्चकोटि का राजनीतिज्ञ- चन्द्रगुप्त न केबल एक महान् विजेता था वरन् वह एक उच्चकोटि का राजनीतिज्ञ भी था। वाकाटक राजवंश से उसने जो वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया था, उससे उसकी राजनीतिक कुशलता का परिचय मिलता है। चन्द्रगुप्त ने अन्य राजवंशों के साथ भी वैवाहिक सम्बन्ध तथा मैत्री सम्बन्ध स्थापित किये थे। उसने नागवंश की राजकुमारी कुवेरनागा से अपना विवाह किया था जिससे प्रभावती नामक कन्या उत्पन्न हुई थी। प्रभावती का विवाह चन्द्रगुप्त ने वाकाटक के महाराज रुद्रसेन द्वितीय के साथ किया था, जिसका बहुत बड़ा राजनीतिक महत्त्व था।

(3) महान शासक- चन्द्रगुप्त एक महान् शासक भी था। फाहान के विवरण से पता चलता है कि उसकी प्रजा बड़ी सुखी थी। इसके राज्य में पूर्ण शान्ति थी जिससे व्यापार तथा उद्योग- धन्धों की बड़ी उन्नति हुई।

(4) विद्वानों का आश्रयदाता- चन्द्रगुप्त विद्वानों का आश्रयदाता था। कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त की राजसभा में नौ बड़े-बड़े विद्वान थे जो “नवरल” कहलाते थे। इनमें कालिदास का नाम सबसे ऊँचा था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का युद्ध-मन्त्री वीरसेन भी एक उच्चकोटि का विद्वान था। चन्द्रगुप्त के काल में संस्कृत साहित्य की बहुत उन्नति हुई।

(5) उदार तथा सहिष्णु- चन्द्रगुप्त द्वितीय विष्णु का परम भक्त था और परम भागवत की उसने उपाधि ली थी। उसमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। सांची के शिलालेख से पता चलता है कि बौद्ध धर्मावलम्बी अभ्रकर्ददेव उसका सेनापति था और वीरसेन, जो एक शैव और उच्चकोटि का कवि था और साहित्य तथा व्याकरण एवं लोकनीति का ज्ञाता था, चन्द्रगुप्त का युद्ध मन्त्री था। चन्द्रगुप्त की इस धार्मिक उदारता के कारण भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय वाले परस्पर मेलजोल से रहते थे।

मूल्यांकन-

डॉ० वी०ए० स्मिथ के अनुसार, “चन्द्रगुप्त द्वितीय एक सशक्त और प्रचण्ड शासक था और एक विस्तृत साम्राज्य की वृद्धि और उनके प्रशासन के लिए सुयोग्य था। वह बड़ी-बड़ी उपाधियों का इच्छुक था, जिनसे उसकी वीरता तथा पराक्रम का परिचय मिलता है।”

डॉ० राय चौधरी ने लिखा है, “चन्द्रगुप्त द्वितीय एक श्रेष्ठ शासक था। वह स्वयं कट्टर वैष्णव था, परन्तु दूसरे सम्प्रदायों के अनुयायियों को भी उसने राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त किया।”

डॉ० आर० सी० मजूमदार के शब्दों में, “समुद्रगुप्त ने विजय-कार्य आरम्भ किया और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उसे सम्पूर्ण किया। साम्राज्य की रूपरेखा में उसने केवल सीमावर्ती जातीय राज्यों तथा राजतन्त्रों को ही विलीन नहीं किया, बल्कि शकों और कुषाणों के राज्यों को भी साथ मिला लिया। शान्तिमय और सुगठित विशाल साम्राज्य,जो उसने अपने उत्तराधिकारी को सौंपा, एक महान् सेनानी और सुयोग्य राजनीतिज्ञ का ही नहीं, बल्कि एक प्रतिभाशाली व्यक्ति के प्रयत्नों का भी परिणाम था। यदि चन्द्रगुप्त द्वितीय को भविष्य की पीढ़ियों ने स्मरण रखा और उसके अधिक प्रभावशाली पिता को लगभग विस्मृत कर दिया, तो इसका कारण ढूँढना कठिन नहीं है। सम्पूर्ण किये गये स्मारक का लोगों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। योजना बनाने वाले और सतत् परिश्रम से नींव रखने वाले मुख्य निर्माता को भूलकर वे उसे पूरा करने वाले को अधिक श्रेय प्रदान करते हैं। सौ युद्धों का विजेता समुद्रगुप्त इतिहास का नायक है। राजनीतिज्ञ महत्ता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के युग को सम्पूर्ण करने वाला चन्द्रगुप्त द्वितीय अपनी प्रजा के हृदय में भी स्थान प्राप्त करने में विजयी रहा।”

डॉ० पी० एल० भार्गव का कथन है कि “चन्द्रगुप्त द्वितीय महान् पिता का महान् पुत्र था। उसका शासनकाल भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ युगों में है। उसने अपने बाहुबल से विदेशी शकों का उन्मूलन करके गुप्त-साम्राज्य का विस्तार पश्चिमी समुद्र से पूर्वी समुद्र तक फैला दिया। उसके सुव्यवस्थित तथा सभ्य शासन की विदेशी यात्री फाह्यान ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उसके समय में देश वैभव, विद्या और कला से सम्पन्न हो गया था। वह पक्का, वैष्णव होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था।”

निष्कर्ष-

चन्द्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य को भारतीय इतिहास में बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त है। अपने पिता समुद्रगुप्त की तरह वह पराक्रमी योद्धा और कुशल सेनानायक था। दोनों ही महान् साम्राज्यवादी थे और दोनों ने अपने-अपने समय में साम्राज्य को बढ़ाया और सुसंगठित किया। लेकिन अपने पिता की तरह विजित राज्यों को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने वहाँ के राजाओं को लौटाया नहीं उसने शकों को समूल नष्ट कर दिया क्योंकि वह देश में विदेशी सत्ता सहन नहीं कर सकता था। समुद्रगुप्त की तरह वह भी सहिष्णुता, धार्मिक, उदार, दानी, साहित्य और कला का प्रेमी था.। समुद्रगुप्त की तरह चन्द्रगुप्त को भी अपने जीवनकाल में किसी आन्तरिक विद्रोह अथवा बाह्य आक्रमण का सामना नहीं करना पड़ा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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