प्रतिस्पर्धा अधिनियम 2002 | प्रतिस्पर्धा अधिनियम 2002 के प्रमुख प्रावधान | भारतीय प्रतियोगिता आयोग का केन्द्र सरकार से सम्बन्ध | प्रतियोगिता कानून 2002 का मूल्यांकन
प्रतिस्पर्धा अधिनियम 2002 | प्रतिस्पर्धा अधिनियम 2002 के प्रमुख प्रावधान | भारतीय प्रतियोगिता आयोग का केन्द्र सरकार से सम्बन्ध | प्रतियोगिता कानून 2002 का मूल्यांकन
प्रतियोगिता कानून 2002
(Competition Act-2002)
राघवन समिति की रिपोर्ट के पश्चात् भारत सरकार ने दिसम्बर 2002 में प्रतियोगिता कानून 2002 पास कर दिया जो अखिल-भारतीय विधान के रूप में लागू किया गया। इस कानून के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं-
- कोई भी उद्यम या उद्यम समूह या व्यक्तिया व्यक्ति-समूह उत्पादन, संभरण, वितरण, भण्डारण, वस्तुओं एवं सेवाओं की प्राप्ति के बारे में ऐसा समझौता नहीं करेगा जिसके परिणामस्वरूप या जिसके संभावित परिणामस्वरूप भारत में प्रतियोगिता पर महत्वपूर्ण दुष्प्रभाव पड़े। ऐसा समझौता जो उपरिलिखित की अवहेलना करता है, गैर-कानूनी माना जाएगा।
किन्तु यह नियम किसी ऐसे समझौते पर लागू नहीं होगा यदि वह एक संयुक्त उद्यम के रूप में हो जिससे उत्पादन, संभरण, वितरण, भण्डारण, वस्तुओं एवं सेवाओं की उपलब्धि में वृद्धि होती है।
- कोई समझौता जो वस्तुओं एवं सेवाओं की उत्पादन-श्रृंखला (Production chain) के किसी भी स्तर पर किया जाता है, गैर-कानूनी माना जाएगा यदि यह
(क) श्रृंखला-बद्ध-प्रबन्ध (Tie-up arrangement);
(ख) एकान्तिक संभरण संधि;
(ग) एकान्तिक वितरण सन्धि (Exclusive Distribution agreement),
(घ) व्यापार से मनाही,
(ङ) पुनः विक्रय कीमत कायम रखने (Resale price maintenance) के रूप में किया जाता है।
- कोई भी उद्यम अपने प्रभुत्व का दुरुपयोग (क) प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वस्तुओं एवं सेवाओं के क्रय-विक्रय के बारे में अनुचित या विभेदक कीमत (Discriminatory Price) थोप कर या वस्तुओं को अपहरणीय कीमत (Predatory Price) पर बेच कर नहीं करेगा।
प्रभुत्व-स्थिति (Domaninant Position) का कानून के अनुसार अर्थ प्रासंगिक बाजार में किसी उद्यम की प्रबलता की स्थिति से है जो इसे प्रतिस्पर्धी शक्तियों से स्वतन्त्र रूप में कार्य करने की सामर्थ्य देती है। इसके परिणामस्वरूप प्रतियोगियों या उपभोक्ता पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
अपहणीय कीमत (Predatory price) वस्तुओं का विक्रय या सेवाओं की उपलब्धि ऐसी कीमत पर करना जो लागत से नीची हो।
- कोई भी उद्यम किसी ऐसे संघ (Combination) में शामिल नहीं होगा जिसके कारण या संभावित परिणाम के रूप में भारत के प्रासंगिक बाजार में प्रतियोगिता पर दुष्प्रभाव पड़े और संघ गैर-कानूनी माना जाएगा। संघ में एक या अधिक उद्यमों का अधिग्रहण (Acquisition) या उद्यमों का समामेलन माना जाएगा।
परिसम्पत्तियों (Assets) की अधिकतम सीमा जिसके ऊपर कोई संघ अबैध करार दिया जाएगा, निम्नलिखित हैं :
(क) या तो भारत में परिसम्पत्तियों का मूल्य 1,000 करोड़ रुपये से अदिक हो या उसकी कुल बिक्री (Turnover) 3,000 करोड़ रुपये से अधिक हो, या
(ख) भारत में या भारत के बाहर, इसकी परिसम्पत्तियों का मूल्य 50 करोड़ डालर या इसकी कुल बिक्री 150 करोड़ डालर से अधिक हो। किन्तु इस अनुच्छेद की धारा किसी सार्वजनिक वित्तीय संस्थान, या विदेशी संस्थानात्मक निवेशक, बैंक या जोखिम पूंजी निधि पर लागू नहीं होगी यदि वह अपने हिस्से बेचने, या वित्त प्रबन्ध सुविधा या किसी अधिग्रहण के लिए कोई समझौता करता है।
- इस कानून को लागू करने के लि एक आयोग जिसका नाम “भारतीय प्रतियोगिता आयोग’ होगा कायम किया जाएगा जिसके अध्यक्ष के साथ कम-से-कम दो परन्तु 10 से अधिक सदस्य नहीं होंगे, सरकार द्वारा नियुक्त किया जाएगा। अध्यक्ष एवं कोई भी सदस्य ऐसा व्यक्ति होगा जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने की योग्यता रखता हो या अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, अर्थशास्त्र, व्यापार, वाणिज्य, वित्त, लेखांकन, प्रबन्ध, उद्योग, सार्वजनिक कार्यों या प्रशासन में कम-से-कम 15 वर्षों का विशेष ज्ञान या व्यावसायिक अनुभव रखता हो। अध्यक्ष या कोई सदस्य 5 वर्षों के लिए नियुक्त किया जाएगा और वह पुनः नियुक्त किया जा सकता है।
अध्यक्ष और सदस्य अपना पर छोड़ने के पश्चात् एक वर्ष तक किसी ऐसे उद्यम में नौकरी स्वीकार नहीं कर सकते जिसका इस सकानून के अधीन आयोग की कार्यवाही से सम्बन्ध रहा हो।
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प्रतियोगिता आयोग के कर्तव्य अधिकार और कार्य
आयोग का यह कर्तव्य होगा कि (i) वह प्रतियोगिता पर दुष्प्रभाव डालने वाले व्यवहारों को समाप्त करे, (ii) प्रतियोगिता को प्रोरन्नत करे और इसका पोषण करे, (iii) उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करे, और (iv) भारत के बाजार में अन्य सहभागियों द्वारा किए जाने वाले व्यापार की स्वतन्त्रता का आश्वासन दे।
यह बात निर्धारित करने के लिए कि क्या किसी संधि का प्रतियोगिता पर काफी दुप्रभाव पड़ता है, आयोग निम्नलिखित कारणतत्वों को ध्यान में रखेगा:
(1) बाजार में नवप्रवेशकों के मार्ग में पैदा किए गए अवरोधक,
(2) वर्तमान प्रतियोगियों को बाजार से बाहर निकालना,
(3) बाजार में प्रवेश में रुकावट पैदा करके प्रतियोगिता पर अग्र-रोक (Foreclosure) लगाना,
(4) उपभोक्ताओं को लाभ की प्राप्ति,
(5) वस्तुओं के उत्पादन या वितरण या सेवाओं की उपलब्धि में सुधार,
(6) वस्तुओं के उत्पादन या सेवाओं की उपलब्धि में तकनीकी, वैज्ञानिक एवं आर्थिक विकास को प्रोन्नत करना।
किसी उद्यम की प्रभुत्व-स्थिति (Dominant position) का निरीक्षण करन के लिए आयोग इन बातों को प्रोन्नत करना।
किसी उद्यम की प्रभुत्व-स्थिति (Dominant position) का निरीक्षण करने के लिए आयोग इन बातों को ध्यान में रखेगा:
(1) किसी उद्यम का बाजार में भाग (Market share),
(2) उद्यम का आकार एवं इसे प्राप्त संसाधन,
(3) प्रतियोगियों का आकार एवं महत्व,
(4) उद्यम की आर्थिक शक्ति जिसमें अपने प्रतियोगियों पर तुलनात्मक लाभ भी शामिल होगा,
(5) उद्यमों का ऊर्ध्वाधर एकीकरण (Vertical Integration) या ऐसे उद्यमों के विक्रय या सेवा नेटवर्क,
(6) उद्यमों पर उपभोक्ताओं की निर्भरता,
(7) एकाधिकार या प्रभुत्व-स्थिति की प्राप्ति जो या तो किसी कानून या किसी सरकारी कम्पनी या किसी सार्वजनिक उद्यम होने के कारण या अन्यथा उपलब्ध हो,
(8) प्रवेश अवरोधक
(9) प्रति-प्रभावी क्रय-शक्ति, (Countervailing buying power),
(10) बाजार का ढांचा एवं आकार,
(11) सामाजिक दायित्व और सामाजिक लागत,
(12) प्रभुत्व स्थिति के होते हुए किसी उद्यम द्वारा आर्थिक विकास में योगदान के परिणामस्वरूप सापेक्ष लाभ का प्रतियोगिता पर प्रभाव या संभावित प्रभाव।
सापेक्ष बाजार (Relative Market) का निर्धारण करते समय आयोग “प्रासांगिक भौगोलिक बाजार” और प्रासंगिक उत्पाद बाजार (Relevant product market) को उचित महत्व देगा।
- प्रतियोगिता आयोग अपनी जांच आरम्भ कर सकता है (क) यदि उसे शिकायत प्राप्त हो जाए, (ख) केन्द्र सरकार, राज्यीय सरकार या कोई संवैधानिक प्राधिकार इसे ऐसा करने के लिए कहे और (ग) यह अपनी जानकारी या सूचना के आधार पर भी।
- ऐसे मामलों के बारे जो इसे संदर्भित किए जाते हैं या अपनी सूचना के आधार पर विचाराधीन हो जाते हैं, यदि आयोग यह महसूस करता है कि प्रथम दृष्टि में (Prima Facie) में मामला जांच के योग्य है, तो आयोग जांच का आदेश दे सकता है।
- आयोग एक या एक से अधिक न्यायपीठ (Bench) कायम कर सकता है जो सम्मिश्रित न्यायपीठ (Merger Bench) कहे जाते हैं ताकि इसके संदर्भित मामलों की एकान्तिक जांच हो सके।
- आयोग निम्नलिखित आदेशों में से कोई भी या सभी आदेश जांच के पश्चात् दे सकता है:
(क) विवादित संधि को तुरन्त समाप्त करना या प्रभुत्व-स्थिति के दुरुपयोग का समाप्त करना।
(ख) आयोग जैसा उचित समझे, जुर्माना कर सकता है परन्तु यह पिछले तीन वर्षों की औसत बिक्री के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। यह ऐसे उद्यमों या पार्टियों पर लगाया जाएगा जो संधि में शामिल हैं।
(ग) किसी कार्टेल (Cartel) के सम्बन्ध में, कार्टेल द्वारा पिछले तीन वित्तीय वर्षों में प्राप्त लाभ या औसत बिक्री का 10 प्रतिशत, जो भी अधिक हो, जुर्माना लगाया जा सकता है।
(घ) प्रभावित पार्टियों की क्षतिपूर्ति तय करना।
- आयोग प्रभुत्व-स्थिति प्राप्त उद्यम के सीधे विभाजन का आदेश भी दे सकता है ताकि वह अपनी प्रभुत्व-स्थिति का दुरुपयोग न कर सके।
- यदि आयोग जांच आरम्भ करने के बाद 90 दिनों में अपना आदेश या निर्देश जारी नहीं करता, तो यह समझा जाएगा कि संघ को आयोग की स्वीकृति प्राप्त हो गयी है।
- भारत के बाहर की गयी संधि के बारे में भी आयोग को जांच का अधिकार होगा यदि इस संधि का भारत के प्रासंगिक बाजार पर दुष्प्रभाव पड़ता है या ऐसा प्रभाव पड़ने की संभावना है।
- आयोग 1908 की दीवानी कार्यविधि संहिता (Civil Procedure Code) से बाध्य नहीं होगा और प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के आधार पर अपनी कार्यविधि (Procedure) स्वयं तय करेगा।
- आयोग द्वारा दिए गए आदेश या निर्णय का ठीक उसी प्रकार अनुपालन करना होगा जैसे कि उच्च न्यायालय या प्रधान दीवानी न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश या निर्णय का!
- यदि कोई व्यक्ति, बिना उचित आधार के, आयोग के निर्देश का उल्लंघन करता है या इस कानून के आधीन लगाए गए जुर्माने को अदा नहीं करता, तो उसे दीवानी जेल में कैद किया जा सकता है जिसकी अवधि 1 वर्ष तक बढ़ायी जा सकती है और उस पर 10 लाख रुपये तक जुर्माना भी किया जा सकता है।
- यदि कोई व्यक्ति, किसी संघ का हिस्सेदार होते हुए झूठा बयान देता है, तो उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है जिसकी राशि 50 लाख रुपये से कम नहीं होगी परन्तु 1 करोड़ रुपये तक बढ़ायी जा सकती है।
भारतीय प्रतियोगिता आयोग का केन्द्र सरकार से सम्बन्ध
- केन्द्र सरकार द्वारा संदर्भित मामले में आयोग का मत स्वीकार करने के लिए केन्द्र सरकार बाध्य नहीं होगी।
- केन्द्र सरकार, एक अधीसूचना द्वारा और उसमें अपने तर्क देते हुए, आयोग को हटा सकती है, परन्तु यह अवधि छः मास से अधिक नहीं होगी।
प्रतियोगिता कानून (2002) के पारित होने के परिणामस्वरूप, एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार कानून (1969) निरस्त हो जाएगा और इसके आधीन कायम किया गया आयोग समाप्त हो जाएगा।
प्रतियोगिता कानून (2002) का मूल्यांकन
प्रतियोगिता कानून (2002) का उद्देश्य एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार कानून (1969) का प्रतिस्थापन करना था ताकि प्रतियोगिता को प्रोन्नत किया जा सके और प्रभुत्व स्थिति के दुरुपयोग को परिसीमित किया जा सके। इस कानून ने भारतीय प्रतियोगिता आयोग स्थापित कर दिया है जिसे न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं ताकि उच्च न्यायालय की भांति आदेश दे सके परन्तु ये सभी अधिकार एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मकं व्यापार व्यवहार आयोग (1969) को भी प्राप्त थे।
कानून का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से पता चलता है कि इसमें केवल नाम का अन्तरं है। एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार की अपेक्षा ‘प्रभुत्व-स्थिति’ या “प्रतियोगिता पर काफी दुष्प्रभाव” का स्थानापन्न कर दिया गया है। जहां एम0आर0टी0पी0 अधिनियम में एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार की उचित परिभाषा की गयी, वहां प्रतियोगिता कानून में केवल उन कारणत्वों की सूची दी गयी है जिनके परिणामस्वरूप ‘प्रभुत्व-स्थिति’ (Dominant Position) उत्पन्न होती है परन्तु प्रभुत्व स्थिति की सीमा के निर्धारण को पूर्णतया अस्पष्ट रखा गया है। क्या बाजार-भाग (Market share) पर 75 प्रतिशत नियंत्रण जैसा कि एम0आर0टी0पी0 ने तय किया प्रभुत्व-स्थिति समझी जाएगी या इसे सापेक्षतः कम भाग (जैसे 60 प्रतिशत) एकाधिकार की स्थिति मानी जाएगी, इसे पूर्णतया नजर अन्दाज कर दिया है। इसके परिणामस्वरूप आयोग के विभिन्न न्यायपीठ अपने अलग-अलग मानदण्ड बना सकते हैं। उस हालत में प्रतियोगिता आयोग के कार्य-संचालन में रुकावटें पैदा हो जाएंगी।
इसके अतिरिक्त, श्रृंखला-बद्ध-प्रबन्ध, एकान्तिक व्यापार संधियां पुनः विक्रय कीमत निर्धारण, नव-प्रवेशकों पर अवरोझक, प्रतियोगिता पर अग्र-रोक, एकाधिकार, द्वयधिकार या अल्पाधिकार-ये सभी एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार आयोग के शब्दकोश के अंक हैं। बड़ा आश्चर्य होता है कि एम0आर0टी0पी0 आयोग जैसे स्थापित संस्थान को हटाकर भारतीय प्रतियोगिता आयोग बनाने की क्या आवश्यकता थी जबकि दोनों के कार्य, कर्तव्य और अधिकार बिल्कुल एक जैसे ही हैं। भारत सरकार द्वारा किया गया यह प्रयास न्यायोचित प्रतीत नहीं होता, यह तो केवल शब्दों का हेर-फेर है। एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यवहार को तोड़ने का अर्थ प्रतियोगिता को लागू करना और इसे प्रोन्नत करना ही तो होता है।
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