प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन

प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन- स्वामी विवेकानन्द  

प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन – स्वामी विवेकानन्द  

प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचनस्वामी विवेकानंद जी भारतीय संस्कृति के एक महान विद्वान थे उनका यह कथन की प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन है भारतीय संस्कृति में पूर्णता परिलक्षित होता है। उनके शब्दों में प्रेम विस्तार है, स्वास्थ्य संकुचन है इसलिए प्रेम जीवन का सिद्धांत है। वह जो प्रेम करता है जीता है वह जो स्वार्थी है मर रहा है इसलिए प्रेम के लिए प्रेम करो, क्योंकि जीने का यही एकमात्र सिद्धांत है, वैसे ही जैसे कि तुम जीने के लिए सांस लेते हो।

“उत्तरम् यत समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं।

वर्ष तद भारतं, नाम भारती यत्र संतति।।“

ऋग्वेद का यह प्रथम श्लोक भारतीय संस्कृति के विस्तार की सीमाओं को प्रदर्शित करता है। इसके अनुसार जिसके उत्तर में हिमालय और दक्षिण में समुद्र है। वह पुण्य भूमि भारत वर्ष और यहां पर विभिन्न धर्मों तथा संप्रदायों के लोग जिनकी भाषाएं एवं रीति रिवाज भिन्न-भिन्न हैं एक साथ मिलकर रहते हैं। जिसका की मूल मंत्र संस्कृति का निम्न श्लोक है-

“अन्य बन्धुरयंनेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम।।“

अर्थात यह अपना है यह पराया है ऐसा विचार निम्न बुद्धि के लोग रखते हैं। जबकि उदार चरित्र के लोगों के लिए संपूर्ण धरा ही परिवार स्वरूप होती है।

अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति के दर्शन ही प्रेम में निहित हैं। जो कि संपूर्ण विश्व को एक परिवार स्वरूप मानता है। जबकि स्वार्थपरक लोग अपने एवं दूसरे में ही सीमित रहते हैं।

प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन को हम कुछ इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि प्रेम और जल यह दोनों ही इस जग में जीवन के आधार हैं। यह संपूर्ण विश्व ही प्रेम के पाए पर टिका हुआ है। प्रेम प्रकाश है तथा नफरत अंधेरा अर्थात प्रेम जीवन का प्रकाश है जिसके द्वारा जीवन में प्रकाश होता है ठीक उसी प्रकार स्वास्थ्य, नफरत एक प्रकार का अंधेरा है जो जीवन में अंधकार भरता है। स्वार्थ जो जीवन में हर किसी से नफरत करना सिखाता है उसका निदान नफरत नहीं बल्कि प्रेम है। स्वार्थ कितना भी किसी प्रकार का क्यों ना हो उसे प्रेम से या प्रेम के दीपक को प्रज्वलित करने के बाद ही परास्त किया जा सकता है।

मन या बुद्धि में जब किसी व्यक्ति द्वारा प्रेम का चिराग रोशन होता है तो वह जान पाता है कि जीवन में शांतिपूर्ण तथा सह अस्तित्व के उत्कर्ष के लिए प्रेम ही एकमात्र उपाय है। मनुष्य किसी भी प्रकार का रिश्ता या संबंध प्रेम के द्वारा ही बना सकता है या यूं कहा जा सकता है कि प्रेम ही रिश्तो की प्राणवायु है। मनुष्य यदि संसार में आया है तो वह किसी ना किसी प्रकार के संबंध या रिश्ते जरूर स्थापित करता है तथा प्रत्येक रिश्ता या संबंध एक प्रकार का मनुष्य के लिए फर्ज होता। मनुष्य के इस फर्ज को पूरा करने की जो प्रेरणा है वह प्रेम द्वारा आती है। यह दिलों का एक अदृश्य रिश्ता है जो मनुष्य को मनुष्य या किसी विशेष से जोड़े रखता है। अर्थात हम यहां यह कह सकते हैं कि प्रेम जोड़ता है रिश्तो को, मन को और जीवन को।

प्रेम वह है जिसकी कोई परिभाषा नहीं है या फिर प्रेम को अपरिभाषित रहस्य की भी संज्ञा दी जा सकती है। प्रेम को हम इस विश्व में और अनेक नामों से जानते हैं जैसे कि मोहब्बत,  प्रेम, प्यार, प्रीत, लीनता, अनुराग, इश्क, चाहत इत्यादि नाम है। प्रत्येक शब्द का अर्थ एक ही है प्रेम। प्रेम को किसी भी शब्द से परिभाषित किया जा सकता है किंतु सभी शब्दों का एहसास एक ही है।

प्रेम के एहसास की बात करें तो ज्ञात होता है कि प्रत्येक रिश्ते का आधार अलग, रूप अलग, रंग प्रत्यंग तथा गहराई अथवा होती है। परंतु सभी एक एहसास प्रेम से ही परिपूर्ण होता है। प्रेम रूपी एहसास को सिर्फ महसूस किया जा सकता है, इसे शब्दों के अर्थ या फिर किसी मोहब्बत से किसी मतलब से नापना बहुत मुश्किल है। प्रेम एक प्रकार का शब्दातीत खूबसूरत एहसास है, जुड़ाव है। प्रेम को हम घनिष्ठता का परिचायक भी कहते हैं जो यह सिद्ध करता है कि प्रेम विस्तार है।

मोहब्बत शब्द का एहसास इतना नाजुक है कि कोई कितना भी कोशिश कर ले या लाख जतन कर ले फिर भी वह मोहब्बत शब्द की नाजुकता कि नजाकत को कभी नहीं पकड़ सकता। उसे शब्दों में कभी नहीं बांध सकता। प्रेम के एहसास की गहनता को शब्दों के माध्यम द्वारा नहीं प्रदर्शित किया जा सकता है। यदि मनुष्य किसी प्रकार से प्रेम रूपी शब्द को शब्दों के माध्यम से पिरोता भी है तो वह सिर्फ उपमा रूपक के सहारे ही उसे व्यक्त करने का प्रयास करता है।

फिराक गोरखपुरी द्वारा प्रेम या मोहब्बत को जिंदगी में एक अहमियत को रेखा चरित्र करते हुए कहा है कि-

“तुम ना मानो मगर हकीकत है,

इश्क इंसान की जरूरत है,”

कोई समझे तो एक बात कहूं ,

इश्क तौफीक है, गुनाह नहीं“

यहां प्रेम को एक अलग शब्द इश्क से परिभाषित किया जा रहा है यहां भी यही बताने की कोशिश की जा रही है कि प्रेम इस संसार में मनुष्य के जीवित रहने के लिए जरूरी है। प्रेम कोई गुनाह नहीं है वह एक प्रकार का तोहफा है जो प्रत्येक मनुष्य को किसी भी व्यक्ति विशेष से जोड़ता है।

इस प्रकार से राहत इंदौरी जी द्वारा भी प्रेम को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि-

“इश्क खता है तो यह खता एक बार नहीं सौ बार करो।“

इंदौरी जी यहां प्रेम को एक बार नहीं सौ सौ बार करने की बात करते हैं। यहां पर साफ-साफ प्रदर्शित होता है कि प्रेम को ही महत्व दिया जा रहा है। प्रेम को ही अपने जीवन में उतारने की बात की जा रही है कि यह गलती भी हो सकती है किसी प्रकार की तो भी इस गलती को करते रहना है अर्थात प्रेम को निरंतर करते रहना है।

प्रत्येक युग के महान कवियों ने एवं ज्ञानियों ने भी अपने-अपने नजरिए तथा प्रत्येक ने अपने खास अंदाज में प्रेम की अनुभूति या जज्बात के विभिन्न रूपों आयामों को प्रदर्शित या अभिव्यक्त करने की कोशिश की है। कबीर, मीरा, रसखान आदि के साथ-साथ प्रत्येक काल के कवियों ने प्रेम की आवश्यकता तथा इसकी नाजुक ताको बड़ी नजाकत से नाजुक लफ्ज़ों में हसीन लड़कियों में पिरोया है।

कबीरदास कुछ इस प्रकार कहते हैं कि –

जो घट प्रेम न संचरै, चौखट जान मसान जैसे खाल लोहार की सांस लेते बिन प्राण।

अर्थात जिस बगिया में प्रेम का संचार नहीं होता वह शमशान के समान है। प्रेम रहित मनुष्य लोहार की भट्टी की आग तेज करने वाली उस धौकनी की तरह या समान है जो निर्जीव होने पर भी सांस लेती हुई प्रतीत या जान पड़ती है। मनुष्य के लिए जीवित रहने के लिए सांस लेना बहुत आवश्यक है जो कि प्राण होने का संकेत है। परंतु सांस लेते हुए भी वह मनुष्य जड़ के समान ही है जिसके शरीर में रक्त के साथ-साथ मन या हृदय में प्रेम का संचरण नहीं होता।

प्रेम में बस प्रेम मय होना ही होता है। प्रेम इस प्रकार की वस्तु नहीं कि उसका लेनदेन का भी प्रयास हो या लेनदेन किया जाए। बल्कि यह तो त्याग की भावना है। जहां कहीं भी प्रेम विद्यमान है वहां पर त्याग और फर्ज अवश्य ही विद्यमान होते हैं। त्याग रूपी छलनी में स्वार्थ, नफरत, ईष्या, प्रतिस्पर्धा, एकाधिकार, स्वामित्व जैसे ना जाने कितने ही कंकड़ पत्थर इत्यादि ही अपने आप ही छान कर अलग हो जाते हैं। बस छन जाने के बाद बचता है तो सिर्फ प्रेम। ऐसे रिश्ते में कोई आकांक्षा नहीं होती बल्कि प्रेम के पात्र को खुश तथा संतुष्ट देखकर तृप्ति का अहसास होता है।

प्रेम रूपी बीज सिर्फ अपनेपन के उपजाऊ जमीन या भूमि पर भर पूर्ण रूप से अंकुरित होता है जो कि मोहब्बत द्वारा प्रत्येक को जोड़ता है और विस्तार करता है और वही स्वार्थ रूपी नफरत तोड़ती है सभी से संबंध। जितना ज्यादा से ज्यादा मनुष्य दूसरों से जोड़ता है उन्हें स्वीकार करता है उनसे प्रेम करता है प्रेम का विस्तार उतना ही अधिक होता है। मनुष्य के संबंधों की गुणवत्ता में चमक आती है और वहीं स्वार्थ द्वारा मनुष्य प्रत्येक रिश्तो को खोता जाता है और वह संकुचित स्वभाव का हो जाता है।

प्रेम से परिपूर्ण होने का अर्थ है कि मनुष्य मुक्त हो रहा है। प्रेम द्वारा मनुष्य उन्मुक्त बनता है मनुष्य संकुचन से मुक्ति पाकर स्वयं का और अधिक विस्तार कर पाता है।

सरल शब्दों में कहा जाए तो प्रेम का अर्थ है अपनी खुशी को दूसरों की खुशी में लीन कर देना। प्रेम लीनता ही तो है। प्रेम तमाम फैसलों और दायरों से ऊपर उठकर मनुष्य को ऐसे बंधन में बांधता है जो कि दरअसल बंधन ना होकर एक प्रकार की मुक्ति है और यही प्रेम की असली ताकत है। असली बंधन में बांधने का कार्य तो मुंह द्वारा होता है। मनुष्य में प्रेम से वह खुद से मुक्त होता है उसकी मन की गांठे खुल जाती हैं जबकि मोह द्वारा उसी बंधन में बंधा रहता है।

खुसरो ने प्रेम के विरोधाभास को बखूबी अंदाज से पेश किया है –

“जो दरिया प्रेम का शो उल्टी वाकी धार।

जो उबरा सो डूब गया; जो डूबा सो पार॥“

अर्थात प्रेम रूपी दरिया भी अजीब है इसकी धारा उल्टी तरफ बहती है। इस दरिया में सिर्फ वही मनुष्य तैयार सकता है और दरिया पार लगा सकता है जो डूबना जानता है और जो तैरने की कोशिश करता है वह प्रेम रूपी दरिया को पार नहीं कर के बढ़ सकता या पार नहीं कर पाता है। यहां हम यह देखते हैं कि प्रेम रूपी दरिया में डूबना ही अच्छा है ना कि उस दरिए में तैर के पार लगाना। जो डूबता है वही प्रेम को प्राप्त करता है और आगे बढ़ता है।

प्रेम बहुत सरल व सहज है जो कि किसी सुंदर फूल को निहारने की तरह है। मोहब्बत की खुशबू की महक और उससे उपजी रोशनी जिंदगी जीने का सबब बनते हैं। प्रेम के एहसासों को महसूस करने वाले कभी तन्हा नहीं रहते हैं।

बहुत बुरा लगता है कि जब रिश्ता मौजूद रहे पर रिश्ते के साथ जुड़ा फर्ज और एहसास मर जाए। जीवन की आपाधापी और भागमभाग में कोई रुकने ठहरने और सोचने के लिए तैयार ही नहीं है। शायद तभी कहा गया है कि –

‘’इश्क कीजें, फिर समझिए जिंदगी क्या चीज है।‘’

प्रेम के बिना जीवन उस दरक्त सामान है जिस पर ना फूल ना फल लगते हैं। प्रेम बिन सब सून इसलिए खुसरो ने कहा है –

“खुसरो पाती प्रेम की बिरला बांचे कोय।

वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना होय॥“

यह मोहब्बत है जो कि दिलों को करीब लाती है मनुष्य को मनुष्य बनाती है और आपसी समझ बढ़ाती है। इसलिए कहा गया है –

“गाहे-बगाहे इसे पढ़ा कीजे

दिल से बेहतर कोई किताब नहीं।“

लोग कितने नादान है प्रेम को खता समझते हैं। दिल के मंदिरों में बंदगी का मोह नहीं समझते हैं। जमाने को जरूरत है मोहब्बत को इबादत की नजर से देखने की पर नदाओं की नदंगी हौ कि –

दिल के मंदिरों में कहीं बंदगी नहीं करते;

पत्थर की इमारतों में खुदा ढूंढते हैं लोग।”

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर या निष्कर्ष निकलता है कि प्रेम ही विस्तार का मूल आधार है अर्थात प्रेम द्वारा ही विस्तार संभव है। इसका विस्तार स्वार्थ व्यक्ति को संकुचित कर देता है तथा वह समाज से दूर हो जाता है अर्थात यह कहना सर्वथा उचित होगा कि ‘प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन’।

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