ऋग्वैदिक काल के पूर्व की राजनैतिक दशा | ऋग्वैदिककाल में आर्यों का राजनैतिक विस्तार | ऋग्वैदिक कालीन राजनैतिक संघर्ष

ऋग्वैदिक काल के पूर्व की राजनैतिक दशा | ऋग्वैदिककाल में आर्यों का राजनैतिक विस्तार | ऋग्वैदिक कालीन राजनैतिक संघर्ष

ऋग्वैदिक काल के पूर्व की राजनैतिक दशा

आर्यों के भारत आगमन को ऋग्वैदिक काल का प्रारम्भ मानकर, यह कहा जा सकता है कि इस काल के प्रारम्भ होने से पूर्व सिन्धु सभ्यता विनष्ट हो चुकी थी। यद्यपि ऋग्वैदिक काल के प्रारम्भ होने की तिथि अथवा समय के विषय में घोर मतभेद है तथापि मोटे तौर पर हम इस काल का प्रारम्भ लगभग 2500 वर्ष ई०पू० से लेकर 2000 वर्ष ई०पू० मानेंगे। आज तक इस बात का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हो पाया है कि सिन्धु सभ्यता के निर्माताओं तथा आर्यों के बीच कोई टकराव हुआ था अथवा नहीं। अतः हम यही मानेंगे कि आर्यों के भारत आगमन से पूर्व यहाँ की राजनैतिक दशा अशक्त तथा महत्वहीन थी। राजनैतिक विस्तारवाद आदि की भावना अभी पूर्ण विकसित नहीं हो पायी थी अतः ऋग्वैदिक काल से पूर्व की  राजनैतिक दशा को विशुद्ध राजनैतिक दृष्टिकोण से जाँचना अनावश्यक है। आर्यों के भारत प्रवेश पर उनको यहाँ की किसी संगठित सशक्त राजनैतिक सत्ता अथवा किसी अन्य राजनैतिक प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। वे भारत में आये और इच्छानुसार भूमि का उपभोग करने लगे। यहाँ पर हमें यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखनी चाहिए कि अभी राजनैतिक विस्तार लिप्सा अति प्रारम्भावस्था में थी।

ऋग्वैदिककाल में आर्यों का राजनैतिक विस्तार

ऋग्वेद से पता चलता है कि आर्यों ने उत्तरी भारत के विशाल भूभाग में पर्याप्त विस्तार कर लिया था। ऋग्वेद के भौगोलिक विवरण से विदित होता है कि आर्य कुभा या काबुल, कुर्मु, या कुर्रुम, गोमती या गोमल, सुवस्तु या स्वात, सिन्धु या सिन्ध, वितस्ता या झेलम, अश्किनि या चिनाब, परुष्नी या रावी, विपाश या व्यास, शुतुद्री या सतलज सरस्वती, यमुना तथा गंगा नदियों एवं उनके भूभागों से पूर्णतः परिचित थे। बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली फटने तथा पर्वतों के हिमाच्छादित आदि उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि प्रारम्भिक आर्य हिमालय के प्रदेश में निवास करते थे। ऋग्वैदिक भारत की आर्य जाति ‘भारतगण’ सरस्वती तथा यमुना के मध्य के भूभाग में रहते थे। इन्हें अपने आर्य प्रतिद्वन्द्वियों से पूर्व की ओर तथा अनार्य प्रतिद्वन्द्वियों से पश्चिम की ओर संघर्ष करना पड़ा था। दिवोदास तथा सुदास इस ‘भारत’ जाति के प्रमुख शासक थे। सरस्वती नदी के दोनों तटों पर परुवंशी आर्य थे तथा इनके राजा दुर्गाह तथा गिरीक्षित थे। कृविवंश सिन्धु तथा चिनाब में, श्रृज्जंयवंश पांचाल प्रदेश में, अणुवंश, द्रुह्य वंश, यदुवंश तथा तुर्वषवंश पंजाब के विभिन्न भागों में, मत्स्यवंश वर्तमान जयपुर तथा अलवर प्रदेश में, चेदिवंश यमुना तथा विन्ध्य पर्वत की श्रृंखलाओं के प्रदेश में, तथा उषीनर वंश सरस्वती नदी के निकट निवास करते थे। ऋग्वेद के अनुसार इन भागों में अनेक अनार्य भी रहते थे जो लिंग पूजक तथा कटुवक्ता था। वे गाय-बैलों का अपहरण करने वालों के रूप में कुख्यात थे।

ऋग्वैदिक कालीन राजनैतिक संघर्ष

यद्यपि आर्यों के भारत आगमन पर इन्हें यहाँ पर किसी प्रमुख राजनैतिक सत्ता का सामना नहीं करना पड़ा, तथापि उन्हें दो प्रमुख संघर्ष करने पड़े थे।

(1) अनार्यों से संघर्ष- आर्यों के भारत आगमन पर उत्तरी भारत के प्रदेशों में उन्हें अनार्यों से संघर्ष करना पड़ा। ऋग्वेद में इन अनार्यों को ‘दास’ या ‘दस्यु’ कहा गया है। यक्षु, अज, किकट, पिशाच तथा शिग्नु आदि अनार्य जातियों के राजाओं में मेद नामक राजा को आर्य राजा सुदास ने पराजित किया। सम्बर, धुनि तथा चुमुरि नामक अन्य अनार्य नरेश भी आर्यों द्वारा परास्त कर दिये गये। आर्य इन अनार्य जातियों से घोर घृणा करते थे। आर्यों ने अनार्यों पर निर्णायक विजय प्राप्त करके उन्हें अपने अधीन कर लिया।

(2) आर्यों का पारस्परिक संघर्ष- ‘दश राजाओं का युद्ध’-ऋग्वेद से विदित होता है कि अनार्यों को पराजित करने के कुछ समय बाद आर्यों के विभिन्न वंशों के बीच प्रतिद्वन्द्विता- उत्पन्न हो गई। प्रतीत होता है कि संघर्ष का कारण विजित प्रदेशों के विभाजन से सम्बन्धित था। रैगोजिन महोदय का अनुमान है कि र स की विस्तृत विजयों के कारण उसके अनेक प्रतिद्वन्द्वी ईर्ष्या करने लगे। सुदास के विरुद्ध दस राजाओं का नेतृत्व ‘भेद’ ने किया तथा सारा षड़यन्त्र विश्वमित्र ने रचा। सुदास की सहायता वशिष्ठ ने की। सुदास की विजय हुई तथा समस्त ऋग्वैदिक भारत पर उसका अधिकार हो गया। डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार इस युद्ध में अनार्यों सहित समस्त ऋग्वैदिक नरेशों ने भाग लिया था।

निष्कर्ष- ऋग्वैदिक कालीन राजनैतिक अवस्था के उपरोक्त वर्णन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस समय भारत में आर्यों के राजनैतिक विस्तार का प्रारम्भिक काल था तथा उन्हें यहां पर किसी प्रमुख संगठित शक्ति का सामना नहीं करना पड़ा। आर्यों के पारस्परिक संघर्ष का सुखद परिणाम यह हुआ कि आर्य सभ्यता के उन प्रारम्भिक चरणों में भारत में आर्य क्षेत्र को वह राजनैतिक सुरक्षा सुलभ हो गई जिसके आधार पर राजनैतिक संगठन तथा संस्कृति का विकास होना प्रारम्भ हो गया।

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