इतिहास / History

ऋग्वैदिक सभ्यता की सामाजिक दशा | Social Condition of Rigvedic Civilization in Hindi

ऋग्वैदिक सभ्यता की सामाजिक दशा | Social Condition of Rigvedic Civilization in Hindi

ऋग्वैदिक सभ्यता की सामाजिक दशा (Social Conditions)

“वह (ऋग्वेद) स्थिर जनजीवन, संगठित समाज और पूर्णरूप से विकसित सभ्यता की ओर संकेत करते हैं।”-प्रोविन्सेन्ट स्मिथ

  1. कुटुम्ब व्यवस्था-

ऋग्वैदिक युग में समाज की न्यूनतम इकाई परिवार था। परिवार पितृ सत्तात्मक थे। उसमें पति-पली, बच्चे, भाई-बहिन, माता-पिता आदि सम्मिलित होते थे। पिता परिवार का मुखिया होता था। वह ”गृह-पति” कहलाता था। उसकी आज्ञा का पालन परिवार का प्रत्येक सदस्य करता था। परिवार के सभी सदस्यों का पालन-पोषण तथा उनकी उन्नति के लिए प्रयास करना उसका प्रमुख कर्त्तव्य माना जाता था। वह अपनी दुराचारी तथा अनुशासनहीन सन्तान को कठोर दण्ड भी दे सकता था। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि एक पिता ने अपने पुत्र को अन्धा करवा दिया था क्योंकि वह जुआ खेला करता था। परन्तु इस प्रकार के उदाहरण केवल अपवाद हैं अन्यथा माता-पिता तथा बच्चों के बीच मधुर सम्बन्ध थे। परिवार में गृह पत्नी का भी आदरणीय स्थान था। प्रत्येक गृहस्थ पुत्रोत्पत्ति के लिए लालायित रहता था और उसके जन्म के अवसर पर उत्सव मनाया जाता था। उस समय संयुक्त परिवार की प्रथा थी।

  1. विवाह-

विवाह एक धार्मिक और पवित्र संस्कार समझा जाता था। साधारणतः एक विवाह प्रचलित था लेकिन उच्च वर्ग में बहु-विवाह का भी प्रचलन था। इस काल में सती प्रथा नहीं थी और बाल विवाह भी नहीं होते थे। विशेष परिस्थितियों में पुनर्विवाह हो सकते थे। विवाह साधारणतः अपने ही वर्ण में होते थे। परन्तु अन्तर्जातीय विवाहों के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। ऋग्वेद में ब्राह्मण विमद और राजकन्या कमधु के विवाह का उदाहरण मिलता है। विधवा-विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी। पुत्र न होने पर किसी बालक को गोद लिया जा सकता था। उस समय नियोग प्रथा प्रचलित थी।

  1. स्त्रियों का समाज में स्थान-

वैदिक काल में स्त्रियों का सम्मान था। गृहस्वामिनी और माता के रूप में उन्हें व्यापक अधिकार प्राप्त थे। पर्दा-प्रथा का प्रचलन न था। धार्मिक कृत्यों में वे पति के साथ सम्मानपूर्वक भाग लेती थीं। नारियों को यथोचित शिक्षा दी जाती थी। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने तथा अपना पति चुनने की पूरी स्वतंत्रता प्राप्त थी। लोपा-मुद्रा, घोषा, विश्ववारा, अपाला आदि इस युग की महान विदुषी स्त्रियाँ थीं जिन्होंने ऋषि का पद प्राप्त किया था। स्त्रियाँ युद्ध-क्षेत्र तक में जाती थीं। उस समय सती-प्रथा, दहेज-प्रथा आदि प्रचलित नहीं थी। स्त्रियों और पुरुषों के मिलने-जुलने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था।

  1. भोजन व पेय-

आर्य साधारणतः शाकाहारी थे और उनका मुख्य भोजन गेहूँ, जौ, चावल, दाल, घी, दूध, शाक और फल थे। कभी-कभी मांस का भी प्रयोग होता था, लेकिन मछली का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। गाय का माँस वर्जित था। गाय के दूध से विभिन्न व्यंजन बनाये जाते थे।

आर्य ‘सोम” तथा ‘सुरा’ का भी पान करते थे। धार्मिक अवसरों पर आर्य लोग सोम रस का विशेष रूप से प्रयोग करते थे। इसके अतिरिक्त सुरापान भी प्रचलित था परन्तु उस काल में सुरापान अच्छा नहीं समझा जाता था। ऋग्वेद में एक स्थान पर वर्णन है कि इसका सेवन कर लोग सभा, समितियों में झगड़ने लगते थे।

  1. वस्त्र श्रृंगार व आभूषण-

आर्य लोग तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे जिन्हें नीवी, वास तथा अधिवास कहते थे। कमर के नीचे धोती या साड़ी पहनी जाती थी, उसे नीवी कहा जाता था। शरीर पर शाल की भाँति जो वस्त्र धारण किया जाता था, उसे वास कहते थे तथा ऊपर से जो वस्त्र पहना जाता था, उसे अधिवास कहते थे। आर्य लोग सूती तथा ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते थे। कुछ लोग मृगछाल का भी प्रयोग करते थे। आर्य पगड़ी भी धारण करते थे। सिले हुए कपड़े पहने जाते थे। आर्य लोग रंगीन कपड़े पहनने के शौकीन थे।

स्त्रियाँ अपने बालों को विभिन्न प्रकार से संवारती थीं। कई प्रकार के तेलों का प्रयोग करती थीं तथा चोटियां बनाती थीं। पुरुष भी बाल धारण करते थे।

आर्य पुरुष और स्त्रियाँ दोनों को आभूषण प्रिय थे। आभूषणों में कुण्डल, हार, कान की बाली, कंगन, घुघरूं, गजरे, अंगूठी आदि मुख्य थे। गले में हार, कान में कर्णशोभन तथा सिर पर कुम्बनाभ आभूषण पहने जाते थे।

  1. मनोरंजन के साधन-

आर्यों का जीवन उल्लासपूर्ण था और अमोदपूर्ण उत्सवों पर विभिन्न प्रकार के प्रदर्शनों द्वारा मनोविनोद किया जाता था। नृत्य व संगीत बहुत लोकप्रिय थे। घुड़दौड़, रथदौड़, शिकार आदि पुरुषों के मनोरंजन के साधन थे। नाटकों का आयोजन किया जाता था। जुआ खेला जाता था परन्तु इसे हेय दृष्टि से देखा जाता था। गायन एवं वादन दोनों का ही प्रचलन था तथा वाद्य संगीत में ढोल, मंजीरे, बांसुरी, वीणा आदि का प्रयोग किया जाता था।

  1. वर्ण व्यवस्था-

वैदिक काल में समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्णों में विभाजित था। ब्राह्मण का कार्य पठन-पाठन व धार्मिक कार्यों का संचालन क्षत्रिय का कार्य शासन करना, युद्ध करना और बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना, वैश्य का कार्य व्यापार करना और शूद्र का कार्य सेवा करना था। प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर कर्म पर आधारित थी। कोई भी व्यक्ति अपनी विद्वत्ता के आधार पर ब्राह्मण का पद प्राप्त कर सकता था। इसी प्रकार वीरता से क्षत्रिय पद प्राप्त किया जा सकता था। आवश्यकतानुसार लोग अपना वर्ण बदल सकते थे। एक ही परिवार में अनेक वर्गों के लोग रह सकते ते । ऋग्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि “मैं कवि हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माता अनाज पीसने वाली है।” ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था जटिल नहीं थी। डॉ० विमल चन्द्र पाण्डेय का कथन है कि “ऋग्वेद में हम केवल वर्ण व्यवस्था को बीज रूप में आरोपित पाते हैं। उस बीज का विकास कालान्तर की घटना है।”

  1. शिक्षा-

इस काल में विद्यार्थी गुरु-आश्रम में आकर शिक्षा प्राप्त करते थे। शिक्षा में नैतिक और शारीरिक उन्नति पर प्रमुख रूप से ध्यान दिया जाता था। धार्मिक शिक्षा को भी अधिक महत्व दिया जाता था, अधिकतर शिक्षा मौखिक होती थी। वैदिककालीन शिक्षा के सम्बन्ध में श्री बी० जी० गोखले का कहना है, “शिक्षा का संगठन इस प्रकार से था कि विद्यार्थी का जीवन के प्रति व्यापक दृष्टिकोण बने और उसके चरित्र एवं उसकी बुद्धि का विकास हो।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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