इतिहास / History

ऋग्वैदिक सभ्यता की धार्मिक दशा | ऋग्वैदिक सभ्यता की आर्थिक दशा

ऋग्वैदिक सभ्यता की धार्मिक दशा | ऋग्वैदिक सभ्यता की आर्थिक दशा

ऋग्वैदिक सभ्यता की धार्मिक दशा (Religious Conditions)

आर्यों का धर्म बड़ा सादा था। वे सूर्य, वायु, आकाश, अग्नि आदि को देवता समझकर उनकी उपासना करते थे। आर्य 33 देवताओं में विश्वास करते थे। उनके धार्मिक जीवन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं (ऋग्वैदिक सभ्यता की धार्मिक दशा)-

  1. प्रकृति के उपासक-

आर्य प्राकृतिक दृश्यों से बहुत प्रभावित थे और उन्हें रहस्यपूर्ण रूप से देखते थे। दैनिक जीवन में उपयोगी प्राकृतिक शक्तियों को वे देवता मानते थे। ये प्राकृतिक शक्तियाँ आकाश, सूर्य, उषा, मेघ, जल, अग्नि आदि थीं। वे इन प्राकृतिक शक्तियों की स्तुति करते थे और उनके प्रति अपनी अनुग्रहिता प्रकट करते थे। इस प्रकार आर्य लोग आकाश और पृथ्वी, वरुण-इन्द्र, अग्नि, सूर्य, विष्णु, सोम, सविता, उषा आदि की श्रद्धा के साथ उपासना करते थे।

  1. बहुदेववादी-

आर्य लोग बहुदेववादी थे। उनके देवता, आकाश, वायु, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, नदियाँ, गन्धर्व, वन, पेड़ आदि थे। जिन प्राकृतिक शक्तियों से उन्हें जीवन शक्ति और मानसिक प्रेरणा मिली, उन्हें आर्यों ने देवता के रूप में स्वीकार कर लिया। उन्होंने देवताओं की कल्पना मनुष्य को सुख पहुँचाने वाली शक्ति तथा दयालु रूप में की थी। ऋग्वेद में 33 देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें तीन वर्गों में बाँटा गया है- (1) आकाशीय देवता, (2) अन्तरिक्षीय देवता और (3) पृथ्वी के देवता।

(1) आकाश के देवताओं में द्यौस, वरुण, मित्र, सूर्य, सविता, पूषण, उषा, अदिति तथा अश्विन आदि थे।

(2) अन्तरिक्षीय देवताओं में इन्द्र, रुद्र, मरुत, पर्जन्य आदि आते हैं।

(3) पृथ्वी के देवताओं में स्वयं पृथ्वी, अग्नि, सोम, वृहस्पति और सरस्वती आदि आते

  1. आर्यों के देवताओं की विशेषताएँ-

आर्यों के देवता अमर, परम शक्तिमान, परम स्वतन्त्र तथा परम गुणवान थे। वे सदाचारी तथा नैतिकता से परिपूर्ण थे। वे दुर्बलताओं तथा दुर्गुणों से रहित थे। वे अनुशासनहीन एवं स्वेच्छाचारी नहीं थे।

  1. प्रमुख देवता की खोज-

आर्यों के धार्मिक विचारों का शनैः-शनैः विकास हुआ। प्रारम्भ में उनके देवता 33 थे, फिर उन्होंने प्रमुख देवता की खोज करना शुरू किया। कुछ समय के लिए अग्नि, इन्द्र और वरुण को प्रमुख देवता का स्थान प्राप्त हुआ। अन्त में इन्द्र ने वरुण तथा अग्नि की प्रधानता समाप्त कर प्रमुख देवता का पद प्राप्त कर लिया।

  1. एकेश्वरवाद-

आर्य एक मूल-शक्ति में विश्वास करते थे, जो ईश्वर या परमात्मा की है। “सत् एक है। विद्वान उसे अग्नि, यम आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं।” एक अन्य सूक्त में कहा गया है कि “वह जिसने हम लोगों को जीवन दिया है, वह जिसने सृष्टि की रचना की है, वह अनेक देवताओं के नाम से प्रसिद्ध होते हुए भी एक है।” ऋग्वेद के एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि “जिसे लोंग कभी इन्द्र, कभी वरुण और कभी अग्नि कहते हैं तथा जिसे कवि अनेक नाम देते हैं, वह ईश्वर एक ही है।” इससे स्पष्ट है कि आर्य लोग एकेश्वरवादी थे।

  1. मूर्तिपूजा का अभाव-

भागों ने विभिन्न देवताओं की उपासना अवश्य की, लेकिन उनकी मूर्तियाँ स्थापित कर पूजा नहीं की। इस काल में मूर्तिपूजा का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु एक स्थान पर दस गायें देकर इन्द्र की प्रतिमा लेने का उल्लेख आया है। इससे ज्ञात होता है कि मूर्ति पूजा से वे परिचित अवश्य थे।

  1. आशावादिता-

आर्यों का दृष्टिकोण निराशावादी नहीं था। वे जीवन का पूर्ण उपयोग करने में विश्वास रखते थे। वे धार्मिक होते हुए भी जीवन को आनन्द और सुख से वंचित रखने में विश्वास नहीं करते थे। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष द्वारा वे जीवन का पूर्ण उपयोग करने में अधिक विश्वास करते थे।

  1. पूजा उपासना की विधि-

आर्यों की उपासना की विधि बड़ी सरल थी। आर्यों की मान्यता थी कि देवता स्तुति, प्रार्थनाओं और आहुतियों से प्रसन्न होते हैं। अतः आर्य अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थनाएं करते थे और यज्ञों का आयोजन करते थे। यज्ञों में घी, दूध, जौ, तिल, सोमरस, माँस आदि की आहुति दी जाती थी। यज्ञ में आहुति देते समय मन्त्रों का उच्चारण भी किया जाता था। आर्य लोग घरों में या नदियों के किनारे खाली जगह में बैठकर यज्ञ करते थे। प्रारम्भ में प्रत्येक आर्य यजन-कार्य स्वयं करता था। परन्तु बाद में ब्राह्मण पुरोहित की सहायता ली जाने लगी। ऋग्वेद में वृहत् यज्ञों का भी उल्लेख मिलता है जो प्रायः राजाओं और धनी व्यक्तियों के द्वारा करवाये जाते थे। आर्यों का एक वर्ग यज्ञ के स्थान पर स्तुति को अधिक महत्व देता था।

  1. नैतिक आदर्श-

आर्यों का नैतिक जीवन श्रेष्ठ था। वे सदाचार, सत्यभाषण, दानप्रियता, आतिथ्य सत्कार आदि गुणों को बहुत महत्व देते थे। वे सद्गुणों की वृद्धि पर जोर देते थे। वे जादू-टोना, धोखा, व्यभिचार, विश्वासघात आदि को पाप समझते थे। वे झूठ से घृणा करते थे तथा चरित्र की शुद्धता पर बल देते थे।

  1. अन्य धार्मिक विश्वास-

आर्य पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि में विश्वास करते थे। वे लोग आत्मा में भी विश्वास करते थे। आर्यों में देव-पूजा के साथ-साथ पितृ-पूजा भी प्रचलित थी। वे मोक्ष के स्थान पर स्वर्ग-प्राप्ति को प्राथमिकता देते थे।

ऋग्वैदिक सभ्यता की आर्थिक दशा (Economic Conditions)

ऋग्वैदिक काल के लोगों की आजीविका के मुख्य साधन थे-कृषि, पशुपालन, घरेलू उद्योग-धन्धे और व्यापार-वाणिज्य। इनका विवेचन अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

  1. कृषि–

आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। वे बैलों की सहायता से हल द्वारा खेत जोतते थे। भूमि को उर्वरा करने के लिए खाद का प्रयोग किया जाता था। सिंचाई का भी वे प्रबन्ध करते थे। घर के सभी स्त्री, पुरुष और बालक कृषि कार्य में व्यस्त रहते थे। छोटे बालक पशु चराने जाते थे

ऋग्वेद काल में मुख्य पैदावार- गेहूं और जौ थी। कपास, शाक, फल, तिल और गन्ना की पैदावार भी होती थी। आर्य लोग हल चलाने, बीज बोने, पकी हुई फसल काटने आदि से आजकल की तरह परिचित थे। इस प्रकार उन्हें खेती की समस्त प्रक्रियाओं का पर्याप्त ज्ञान था।

आजकल की तरह इस काल में भी कृषि वर्षा पर निर्भर थी। समयानुकूल वर्षा के लिए आर्य लोग अपने देवी-देवताओं की स्तुति करते रहते थे। इसके अतिरिक्त वे कुओं, नदियों, तालाबों आदि से सिंचाई भी करते थे।

  1. पशुपालन-

ग्राम-प्रधान सभ्यता और खेती का मुख्य व्यवसाय होने के कारण पशुपालन भी आर्यों का प्रमुख व्यवसाय था। आर्य अर्थ-व्यवस्था में गाय का सर्वोच्च महत्व था। इस अत्यधिक उपयोगी पशु को प्रारम्भ में विनिमय का माध्यम बनाया गया था। गाय के अतिरिक्त घोड़ा, बैल, भैंस, भेड़, बकरियाँ, गधे, कुत्ते आदि भी पाले जाते थे। पशुओं को चराने के लिए गाँवों के चारों तरह चारागाह थे। पशुओं की पहचान के लिए उनको विभिन्न रंगों से रंगा जाता था।

  1. घरेलू उद्योग धन्धे-

आर्य अनेक उद्योग-धन्धों में निपुण थे। वे कपड़ा अच्छा बनाते थे। कताई तथा बुनाई का उद्योग भी उन्नत था। सूती तथा ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्र तैयार किये जाते थे। बढ़ई लोग रथ, बैलगाड़ियाँ, चारपाई, नौकाएँ आदि बनाते थे। लुहार तलवार, भाले, ढालें आदि बनाते थे। सुनार कई प्रकार के आभूषण बनाते थे। कुम्हार चाक पर मिट्टी के सुन्दर बर्तन बनाते थे। चर्मकार चमड़े के थैले, चमड़े की रस्सियाँ, चरस आदि बनाते थे। चिकित्सक का व्यवसाय भी महत्वपूर्ण था। डॉ० आर० एस० त्रिपाठी का कथन है कि “इन लोगों के धन्धों के सम्बन्ध में विशेष बात यह थी कि किसी भी शिल्प को हीन नहीं समझा जाता था।”

  1. व्यापार-

आर्य लोग व्यापार भी करते थे। विदेशों से व्यापार जल और थल दोनों मार्गों से होता था। अनेक विद्वानों का मत है कि आर्य समुद्री यात्राएँ किया करते थे और उनका व्यापारिक सम्बन्ध दूर के देशों से था। डॉ० आर० सी० मजूमदार तथा आप्टे के अनुसार आर्यों का व्यापार बेबीलोन तथा पश्चिमी एशिया के देशों से होता था। अधिकतर व्यापार वस्तु-विनिमय के द्वारा प्रचलित था। गाय विनिमय का मुख्य साधन थी। ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है कि उन दिनों ”निष्क” नामक सिक्का भी प्रचलित था। इस  सिक्के का प्रयोग मुद्रा के रूप में किया जाता था। इस युग में ऋण लेने व ऋण देने की प्रथा भी थी।

निष्कर्ष-

इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्यों की सभ्यता और संस्कृति उन्नत एवं सुसंगठित थी। कुछ विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आर्य सभ्यता सिन्धु सभ्यता पर आधारित सभ्यता थी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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