संघ और परिसंघ | Federation and Confederation in Hindi
संघ और परिसंघ | Federation and Confederation in Hindi
संघ और परिसंघ
(Federation and Confederation)
कभी-कभी परिसंघ और संघ को एक ही समझ लिया जाता है जबकि वास्तव में इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। यह अन्तर उनके स्वरूप और अधिकारों में है, उद्देश्यों में है, विधि-निर्माण में है। यद्यपि दोनों ही संघवाद सिद्धान्त के अनुकूल हैं, तथापि जहाँ संघ-राज्य में संघवाद का पूरा प्रयोग होता है वहाँ परिसंघ में यह सिद्धान्त अत्यन्त सीमित रूप में लागू होता है। दोनों में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-
(1) परिसंघ का निर्माण प्रायः असाधारण परिस्थितियों में, विशेषकर बाह्य शक्तियों के आक्रमण का संकट उत्पन्न होने पर होता है। ऐसे संकट से अपनी रक्षा करने के लिए दो अथवा अधिक स्वतन्त्र राज्य परस्पर एक समझौते या सन्धि द्वारा कुछ संस्थाएँ स्थापित कर लेते हैं जो उनके सहयोग में अभिवृद्धि कर परिसंघ को शक्तिशाली बना देती हैं। परिसंघ बनाने वाले राज्यों का पृथक् व्यक्तित्व जैसे का तैसा बना रहता है। केवल उस क्षेत्र में, जिसमें वे आपसी हितों की रक्षा के लिये मिलकर काम करना चाहते हैं, एकमत होकर वे एक निश्चित नीति अपना लेते हैं। इस नीति का संचालन उन संस्थाओं द्वारा होता है जिन्हें इसी हेतु स्थापित किया जाता है। सारांश में अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि में तो वे परिसंघ में एक ही समझे जाते हैं, किन्तु आन्तरिक शासन में उनका पृथक् व्यक्तित्व होता है।
(2) संघीय राज्य की स्थापना में दो अथवा अधिक स्वतन्त्र राज्य अपने अधिकार क्षेत्र का कुछ भाग एक ऐसे शासन को हस्तान्तरित कर देते हैं जो एक संविधान द्वारा स्थायी रूप से शासन के विभिन्न अंगों, स्वतन्त्र आय के स्रोतों, निजी कर्मचारी वर्ग और सभी राज्य संस्थाओं द्वारा सम्पन्न होता है। परिसंघ के विपरीत संघात्मक राज्य प्रभुत्वसम्पन्न होता है जिसमें सदस्य इकाइयों की स्वतन्त्रता सीमित हो जाती है। संघ-सरकार को ही अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में मान्यता प्राप्त होती है। संघ में केन्द्रीय और राज्य सरकारें अपने अपने अधिकार-क्षेत्र में स्वतन्त्र रहती हैं।
(3) परिसंघ स्थायी नहीं होता। वह निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ही स्थापित किया जाता है। परिसंघ में सम्मिलित होने वाले राज्य एक निर्धारित समय तक सहयोगपूर्ण व्यवस्था बनाये रखने के लिए सहमत होते हैं। इसके विपरीत संघ स्थायी होता है। संघ राज्य का निर्माण ही इसीलिए किया जाता है कि सम्मिलित इकाइयाँ स्थायी रूप से एक राज्य में रहना अधिक लाभदायक समझती हैं।
(4) परिसंघ के सदस्यों में यदि कोई युद्ध हो जाय तो उसे अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध ही कहा जाता है, जबकि संघ के सदस्य-राज्यों का आपसी संघर्ष गह-युद्ध कहलाता है। इसका कारण यह है कि परिसंघ में सम्मिलित राज्य अपनी सार्वभौमिकता का परित्याग नहीं करते, किन्तु संघ में संगठित सदस्य राज्य अपनी सार्वभौम शक्तियों को केन्द्र में निहित कर देते हैं।
(5) परिसंघ के निर्माण के लिए जो समझौता होता है उसमें उन सभी शर्तों का उल्लेख किया जाता है जिन पर सदस्य-राज्य एकमत होकर अपना अस्थायी राजनीतिक सहयोग करते। हैं। समझौते की शर्तों को परिवर्तित करने के अधिकार और परिसंघ के विघटन करने की अवस्था का भी स्पष्ट उल्लेख कर दिया जाता है। इसके विपरीत संघ की स्थापना सदस्य राज्यों में हुए अनुबन्ध के अनुसार होती है और यह अनुबन्ध एक सम्पूर्ण संविधान होता है। संविधान की सर्वोपरिता सबको मान्य होती है । संविधान में केन्द्र राज्य सरकारों में स्पष्ट शक्ति-विभाजन कर दिया जाता है।
(6) परिसंघ में किसी नये कानून का निर्माण नहीं होता। पहले वाले कानून ही रहते हैं, किन्तु संघात्मक व्यवस्था में नये कानूनों का निर्माण होता रहता है। परिसंघ में इकहरी नागरिकता होती है जबकि संघीय व्यवस्था में दोहरी नागरिकता मिलती है।
(7) संघात्मक व्यवस्था में सदस्य-राज्यों के सहयोग से संयुक्त विधान मण्डल का निर्माण होता है। इस विधान-मण्डल के माध्यम से जन-इच्छा का प्रतिनिधित्व किया जाता है। परिसंघीय व्यवस्था में यह व्यवस्था नहीं पायी जाती है ।
(8) परिसंघ में सम्मिलित राज्यों का शासन अपनी-अपनी शासन-पद्धतियों के अनुसार चलता है। इस प्रकार कुछ राज्यों में लोकतन्त्रीय शासन-व्यवस्था, कुछ में राजतन्त्रात्मक और कुछ में कुलीनतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था हो सकती है; जबकि संघों के सदस्य-राज्यों में शासन- सिद्धान्तों की एकरूपता ही मान्य है। संघों का आधुनिक रूप केवल लोकतन्त्रात्मक सिद्धान्तों पर ही आधारित है।
(9) परिसंघ में केन्द्रीय संस्था की शक्तियाँ बहुत परिमित होती हैं तथा उन्हें लागू करने के लिए उसे राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। जबकि संघ में केन्द्रीय सरकार की शक्तियाँ व्यापक होती हैं जिन पर उसका स्वत्वाधिकार होता है।
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