संस्कृतिकरण | सांस्कृतिकरण से उत्पन्न समस्याएँ | सांस्कृतिकरण के कारण | सांस्कृतिकरण के निवारण हेतु उपाय | सांस्कृतिकरण की विशेषताएँ
संस्कृतिकरण | सांस्कृतिकरण से उत्पन्न समस्याएँ | सांस्कृतिकरण के कारण | सांस्कृतिकरण के निवारण हेतु उपाय | सांस्कृतिकरण की विशेषताएँ
संस्कृतिकरण
“संस्कृतिकरण का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा निम्न हिन्दू जातियाँ, जनजातीय या अन्य समूह अपनी प्रथाओं से संस्कारों आदर्शों एवं जीवन के ढंगों का उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में परिवर्तित करते हैं।” डॉ. मजूमदार ने संस्कृतिकरण की वास्तविक अवधारणा स्पष्ट करते हुए बताया कि जब दो समूहों के बीच संस्कृति के तत्वों एवं सांस्कृतिक संयुक्तों का आदान-प्रदान होता है तो इस प्रक्रिया को हम संस्कृति-मिश्रण कहते हैं। किन्तु जब एक समूह का सम्पूर्ण संस्कृतिक जीवन दूसरे समूह की संस्कृति द्वारा परिवर्तित कर दिया जाता है तो इस दिशा का नाम संस्कृतिकरण है। इस प्रकार संस्कृतिकरण न तो संस्कृति-मिश्रण (Trans culturation) है और न ही सांस्कृतिक प्रसार (Cultural Diffusion) बल्कि यह एक ऐसी स्थिति या प्रक्रिया है जिसमें प्रायः निम्न जाति के व्यक्ति उच्च जातियों के विचारों एवं व्यवहारों को अर्थात् संस्कृति को ग्रहण कर अपनी जीवन-शैली को बदलने लगते हैं। उदाहरण के लिए, हमारे यहाँ की अस्पृश्य या हरिजन जातियों ने वैश्यों, क्षत्रियों, ब्राह्मणों आदि के विचारों एवं व्यवहार प्रतिमानों को ग्रहण कर अपनी सम्पूर्ण जीवन शैली (Style of living) में परिवर्तन कर लिया है और जब वे स्वयं सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे में पहले से उच्च सामाजिक स्थिति पाने का दावा करने लगे हैं। सर्वश्री मजूमदार एवं मदान ने संस्कृतीकरण को परिभाषित करते हुए लिखा है, “जब संस्कृति के कुछ तत्व या प्रतिमान दूसरी संस्कृतियों में फैलने लगते हैं तब इसका तात्पर्य केवल सांस्कृतिक प्रसार से होता है किन्तु जब किसी दूसरी संस्कृति के प्रभाव से एक समूह सम्पूर्ण जीवन परिवर्तन की प्रक्रिया में आ जाती है जब इसी स्थिति को हम संस्कृतिकरण कहते हैं।”
सांस्कृतिकरण से उत्पन्न समस्याएँ
धर्म के प्रति अनास्था – सांस्कृतिकरण के कारण धार्मिक अन्धविश्वासों पर कुठाराघात होता है। धर्म तथा कर्मकाण्डों पर से उसकी आस्था हट जाती है। यह सामाजिक नियन्त्रण का सबसे बड़ा घटक होता है। जब संस्कृतिक के कारण धार्मिक आस्थायें टूटती हैं तो नियन्त्रण की प्रक्रिया भी कठिन हो जाती है।
अपराधों में वृद्धि (Increase crime)- संस्कृतिकरण की मान्यताओं ने मूल परम्पराओं को तोड़ने में सहायता दी है। जाति का व्यावसायिक स्वरूप समाप्त हो चुका है, व्यावसायिक असुरक्षा के कारण अधिक भ्रष्टाचार बढ़ हैं। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण स्त्रियों को मनोरंजन का माध्यम मानकर ‘स्वच्छन्द यौन-सम्बन्धों’ के कारण यौनाचार बढ़े हैं। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से वेशभूषा के क्रान्तिकारी परिवर्तनों के कारण युवतियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएँ बढ़ रही हैं। इसी प्रकार जनजातीय समाज में नगरीय संस्कृति के प्रति आकर्षण तो रहता है, परन्तु भौतिक साधन जुटाने में जब वे असमर्थ रहते हैं तो पाकेटमारी धोखाधड़ी, राहजनी तथा डकैती जैसे अपराध करने को बाध्य हो जाते हैं।
एकता का अभाव – अनेकता में एकता (Unity in Diversity) भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता रही है। परन्तु संस्कृतिकरण के कारण निम्न वर्ग अपने आपको भी कम नहीं समझता तथा उच्च वर्ग उसकी स्थिति को ललकारता है कि “जब तुम हमारे समकक्ष हो ही गये तो अपना बचाव अपने आप करो।” यही कारण हे कि, आज भी गाँवों में ‘परजा’ (प्रजा) को पूर्ण संरक्षण प्राप्त होता है किन्तु नगरीय परिवेश में सरकारी आरक्षरण एवं संवैधानिक समानता के अधिकार के बावजूद कोई उनसे सहानुभूति नहीं रखता। वास्तविकता तो यह है कि संस्कृतिकरण के कारण जो निम्न समुदाय ऊपर उठना चाहता है वह उच्च जाति एवं सवर्गों की ईर्ष्या का पात्र बनता है।
सांस्कृतिकरण के कारण
आर्थिक सुधार – देश के विभिन्न भागों में कई निम्न जातियों ने नवीन आर्थिक सुविधाओं का लाभ उठाकर अपने जीवन के तरीके को उच्च जातियों के समान बनाने और किसी द्विज वर्ण समूह में अपने को सम्मिलित करने का प्रयत्न किया है।
नवीन संविधान एवं कानून – स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में नवीन संविधान अपनाया गया जिससे जाति, धर्म, रंग, लिंग, प्रजाति व जन्म के साथ किसी भी नागरिक के प्रति भेदभाव न बरतने की बात कही गयी है। 1955 में अस्पृश्यता निवारण अधिनियम ने जातीय छुआछूत को कानूनन समाप्त कर दिया है और इसी दण्डनीय अपराध घोषित किया है। 1954 का विशेष विवाह अधिनियम अन्तर्जातीय विवाहों की स्वीकृति देता है। इन अधिनियमों ने भी संस्कृतिकरण करने के लिए निम्नल जातियों को प्रोत्साहन दिया है।’
नगरीकरण – भारत में औद्योगिकरण के कारण बड़े-बड़े नगरों का निर्माण हुआ है। बड़े नगरों में जातीय भेदभाव में कमी आयी है और प्रभु जाति तथा उच्च जाति का निम्न जातियों पर नियन्त्रण भी शिथिल हुआ है। वहाँ अपनी असली जाति को छुपाकर उच्च जाति में सम्मिलित होना और नया नाम रख लेना भी सरल है। फिर नगरों में निम्न जाति द्वारा उच्च जाति के खान-पान, रहन-सहन, विश्वास, कर्मकाण्ड व जीवन-शैली को अपनाने पर कोई विरोध भी नहीं करता।
सांस्कृतिकरण के निवारण हेतु उपाय
सांस्कृतिकरण की समस्याओं से मुक्ति हेतु भारतीय शासन व्यवस्था इस ओर तीव्र गति से कार्यशील है। इन समस्याओं के निराकरण हेतु उपाय किये जाने चाहिए-
शिक्षा का प्रसार – आधुनिक शिक्षा के प्रचार तथा प्रसार से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को सरल बनाया जा सकता है। आधुनिक साहित्य तथा आधुनिक विचार निश्चित रूप से अन्धविश्वासों पर आघात करते हैं। व्यक्ति यह समझता है कि संस्कृति उसकी सामाजिक धरोहर है न कि पारिवारिक अथवा जातिगत। इन बातों से परिचित होकर वह संस्कृति के प्रति लकीर का फकीर नहीं रहता तथा सरलता से अन्य संस्कृतियों को आत्मसात कर सकता है। शिक्षा के कारण वह जैविक विशेषताओं से परिचित होता है और तब हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का संस्तरण उसके लिए महत्वहीन हो जाता है।
यातायात के सरल साधन- ग्रामीण तथा नगरीय एवं कभी-कभी जनजातीय समाज की संस्कृति का मेल होता है तो कला, नृत्य, संगीत तथा जीवन पद्धतियाँ भी परिवर्तित हो जाती हैं। यदि यातायात के साधन सरलता से उपलब्ध न हों तो परसंस्कृति-ग्रहण सम्भव नहीं हो सकता। इन्हीं साधनों के कारण व्यक्ति देश-विदेश भ्रमण करके प्रगतिशील होता है तथा संकुचित विचारधारा को त्याग देता है। जाति, धर्म, प्रदेश तथा वर्ग की सीमाएं लांघकर उसके सांस्कृतिक प्रतिमान विश्व का संकलित प्रतिमान बन जाते हैं, और तब संस्कृतिकरण की गति तीव्र हो जाती है। खान-पान, धर्म तथा जाति सम्बन्धी छुआछूता स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं।
सांस्कृतिकरण की विशेषताएँ
संस्कृतिकरण सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाता है (Sanskritization adtops the cultural values) – जब किसी जातीय समूह संस्कृतिकरण होता है तो वह किसी उच्च जाति की प्रथाओं और जीवन पद्धति को ही नहीं अपनाता बल्कि संस्कृत साहित्य में उपलब्ध कुछ नवीन विचारों एवं मूल्यों को भी स्वीकार कर लेता है तथा संस्कृत के धर्म-ग्रन्थों में पाये जाने वाले जैसे पाप-पुण्य, धर्म-कर्म, माया, संसार और मोक्ष का प्रयोग भी उनकी बातचीत होने लगता है।
संस्कृतिकरण एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो भारतीय इतिहास के हर काल में दिखायी देती है। श्रीनिवास ने वैदिक काल से लेकर आज तक के समय में विभिन्न जातियों द्वारा ऊँचा उठाने के प्रयासों का अनेक उदाहरणों द्वारा उल्लेख किया है।
सांस्कृतिकरण के कई आदर्श हो सकते हैं- एक निम्न जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व अथवा किसी अन्य प्रभु जाति का आदर्श मानकर भी उसके रीति-रिवाजों, प्रथाओं, खान-पान और जीवन-शैली को अपना सकती है। फिर भी एक जाति के लिये अपने से ऊपर की वे जातियाँ आदर्श होती हैं जिनसे उसकी सबसे अधिक समीपता हो।
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