इतिहास / History

सिन्धुघाटी की कला | सिन्धु घाटी सभ्यता के उद्घाटन स्वरूप | सिन्धु घाटी की सभ्यता की कलागत विशेषताओं का वर्णन

सिन्धुघाटी की कला | सिन्धु घाटी सभ्यता के उद्घाटन स्वरूप | सिन्धु घाटी की सभ्यता की कलागत विशेषताओं का वर्णन

सिन्धुघाटी की कला

सिन्धु घाटी सभ्यता के उद्घाटन स्वरूप-

भारतीय कला-जगत का चमत्कारिक अध्याय प्रारम्भ होता है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि सिन्धु सभ्यता भारतीय इतिहास का वह प्रथम चरण है जब कि इस भूमि पर मानव ने सभ्यता तथा संस्कृति को उज्ज्वल करना प्रारम्भ किया। क्योंकि सिन्धु सभ्यता तथा संस्कृति पूर्णतः स्वदेशी तथा भारतीय भूमि की उपज है अतः इस काल की कला का रूप तथा उद्देश्य भी पूर्णतः मौलिक है। यह अलग बात है कि अपने समृद्धकाल में स्वयं सिन्धु सभ्यता ने तत्कालीन अन्य सभ्यताओं से सम्पर्क स्थापित किया तथा अन्य सभ्यताओं ने भी सिन्ध सभ्यता की ओर अपने हाथ बढ़ाये तथा इस सम्मिलन के फलस्वरूप प्रभावित करने तथा प्रभाव ग्रहण करने का क्रम आगे बढ़ा। इतिहास में ऐसा तो होता ही है परन्तु इन सम्बन्धों द्वारा सिन्धु सभ्यता पर कोई विशद प्रभाव स्वीकार करना असंगत होगा।

सिन्धु घाटी की उत्खनन द्वारा जो सामग्री प्राप्त हुई है उसके आधार पर हमें तत्कालीन कला का पूरा-पूरा परिचय उपलब्ध हो चुका है। इस कला की विविधता तथा विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है:-

(1) वास्तु तथा स्थापत्य कला- सिन्धु घाटी की वास्तुकला महान उपलब्धियों की परिचायक  है। इस सभ्यता का नगर विन्यास तथा निर्माण शैली अद्भुत एवं आश्चर्यजनक है। व्यवस्थित तथा सुनियोजित ढंग से बने विशाल भवन, स्नानागार, भण्डारागार, दुर्ग, बाँध आदि तत्कालीन स्थापत्य कला की श्रेष्ठता के उदाहरण हैं। पुर विन्यास में परिधि, वक्रता, प्रकार आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता था। तत्कालीन राज मार्ग, प्रसार कोठागार, सभा भवन, स्नानागार तथा अट्टालिकाओं आदि की निर्माण विधि में तकनीकी गुणों का समावेश दृष्टिगोचर होता है। संक्षेप में वे वास्तु तथा स्थापत्य कला के प्रवीण ज्ञाता थे।

(2) मूर्तिकला- तत्कालीन मूर्ति कला के उदाहरणों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1) धार्मिक रूप में उपास्य मूर्तियाँ तथा (2) सामान्य आकृतियों की मूर्तियाँ। मूर्तियों के सामान्य निरीक्षण द्वारा हमें यह विदित होता है कि इनके निर्माण में चार प्रकार की शैलियाँ प्रचलित थीं- (1) धातुओं को तपा कर उन्हें साँचों में ढाल कर मूर्तियाँ बनाना, (2) ठप्पा लगा कर मूर्ति बनाना, (3) मिट्टी की मूर्तियाँ बना कर उन्हें आग में तपा कर तैयार करना तथा (4) छेनी द्वारा पत्थर का तक्षण-लक्षण करके मूर्ति बनाना। तत्कालीन मूर्तियों में भावाभिव्यंजना, हाव भाव प्रदर्शन तथा शरीर के विभिन्न अंगों की संतुलित अभिव्यक्ति है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकियों की मूर्तियों में तथा खड़िया मिट्टी की बनी ध्यानावस्थित योगी की मूर्ति में अंग विन्यास, अलंकरण तथा चिन्तन के यथार्थ गुण विद्यमान हैं। हड़प्पा से प्राप्त दो मूर्तियाँ तो इतनी उत्कृष्ट हैं कि मार्शल महोदय को कहना पड़ा है कि ई० पू० चौथी शताब्दी का कोई भी यूनानी कलाकार इन मूर्तियों को स्वयं द्वारा निर्मित कहने में गौरव का अनुभव करेगा। सिन्धु घाटी से प्राप्त मूर्तियों के प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन मूर्तिकला में कल्पना सौन्दर्य, सजीवता, उपयोगिता तथा यथार्थवादिता का अद्भुत समन्वय है।

(3) धातुकृतियाँ- सिन्धु सभ्यता के कलाकार को विभिन्न धातुओं के प्रयोग तथा उपयोगिता का पूरा-पूरा ज्ञान था। सोना, चाँदी, तांबा, कांसा, पीतल, कली तथा सीसे के साथ- साथ वे हड्डियों, घोंघों, सीपों तथा हाथी दाँत आदि धातुओं से परिचित थे। उनका धातुकला ज्ञान इतना विकसित था कि वे विभिन्न धातुओं के मिश्रण गुणो से भी जानकारी रखते थे। विभिन्न धातुओं को गलाने, ढालने, काटने, मोड़ने तथा चिकना एवं चमक पैदा करने की कला अब पर्याप्त विकसित हो चुकी थी। पीतल के बने हुए बकरी, बत्तख, नर्तकियों के खिलीने, ताम्बे के बने हुए कूबडदार बैल, सीसे की तश्तरी तथा सोने, चाँदी, हाथी दाँत, सीप आदि के बने आभूषण तत्कालीन धातुकला की विशिष्टता प्रमाणित करते हैं।

(4) पाषाणकला- सिन्धु कलाकार को पाषाण की उपयोगिता, आकार, प्रकार, विविधता तथा रंगों का पूरा-पूरा ज्ञान था। पाषाण को काटने, छाँटने, तराशने तथा भावों के अंकन में सिन्धु कलाकार कुशल हस्त था। सिन्धु कलाकार को किसी ऐसे मिश्रित मसाले का भी ज्ञान था जो पाषाण को जोड़ देता था।

(5) गुरिया निर्माण कला-सिन्धु घाटी से पर्याप्त मात्रा में सोने, चाँदी, मिट्टी, पाषाण, हाथी दाँत, सीपों तथा घोघों द्वारा निर्मित गुरियाओं की प्राप्ति यह प्रमाणित करती है कि इस समय गुरिया निर्माण कला में विशेष प्रगति हुई थी। इन गुरियाओं पर विभिन्न रंगों की पालिश तथा पञ्चीकारी की गई है।

(6) चित्रकला- सिन्धु घाटी सभ्यता की चित्रकला का विषय सामान्य जीवन से सम्बन्धित था। इस काल के चित्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) ज्यामितीय अंकन- इसमें रेखाओं की सहायता से चित्र बनाये जाते थे।

(2) दृश्यात्मक अंकन- इस प्रकार की चित्रकला में पशुपक्षियों, बेलबूटों, मानव आकृतियों, पत्रों-पुष्पों आदि का चित्रण है। तत्कालीन चित्रकला की भावाभिव्यक्ति तथा स्वरूप इतना-उन्नत तथा विकसित है कि हमें प्रतीत होता है कि इसके पीछे किसी परम्परागत अभ्यास का हाथ है।

(7) मुद्रा निर्माण सिन्धु घाटी से प्राप्त मुद्राओं की संख्या लगभग 550 है। इन मुद्राओं के आकार-प्रकार, स्वरूप तथा प्रतीक चिन्हों से विदित होता है कि यह कला पर्याप्त रूप से विकसित थी। सिन्धु कलाकार मुद्राओं को ढालने, एकरूपता देने तथा उन पर विभिन्न आकृतियों को उत्कीर्ण करने में पर्णत: दक्ष था।

(8) लेखन कला- सिन्धु निवासी लेखन कला से परिचित थे तथा उनकी लिपि संकेतात्मक एवं चित्र प्रधान थी। सिन्धु घाटी से प्राप्त लगभग सभी मुद्राओं पर चित्रात्मक लिपि का प्रयोग किया गया है।

(9) संगीत तथा नृत्य कला- हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा पर संगीत समारोह का अंकन, एक अन्य मुद्रा पर नर्तकी की नृत्य मुद्रा का अंकन तथा अनेक मुद्राओं पर वीणा तथा ढोल का अंकन, कतिपय पक्षियों के खिलौने की पूँछ में सीटी तथा बाँसुरी का होना-आदि यह प्रमाणित करते हैं कि उस समय नृत्य तथा संगीत कला भी पर्याप्त विकसित हो चुकी थी। प्रतीत होता है कि सिन्धु निवासी नृत्य कला के विभिन्न हावभावों से परिचित थे तथा इसकी शिक्षा का भी प्रबन्ध था।

कलागत विशेषताएँ

विभिन्न कला शीर्षकों के अन्तर्गत किये गये उपरोक्त वर्णन के आधार पर सिन्धु घाटी सभ्यता की कला के निम्नलिखित गुण प्राप्त होते हैं-

(i) सिन्धु घाटी की कला सहज, सरल होते हुए उपयोगितात्मक थी।

(ii) सिन्धु घाटी की कला का रूप तथा गुण मौलिक है तथा उसमें स्वदेशीपन है।

(iii) सिन्धु कला यथार्थवादी गुणों से ओत-प्रोत है।

(iv) इस कला में सजीव, स्वाभाविक तथा सामान्य भावाभिव्यक्ति है।

(v) सिन्धु कला में तकनीकी गुण है।

(vi) इस सभ्यता की कला ने प्रभाव ग्रहण करने की अपेक्षा अन्य समकालीन सभ्यताओं की कला को प्रभावित किया था।

सिन्धु घाटी की कलागत विशेषताओं का उल्लेख करते हुए सर जॉन मार्शल ने उचित ही लिखा है-

“In fine arts, the magnificent statues, seals and jewellary are found nowhere else in the world until we come to the age of Pericles in Greece and India had produced an entirely original civilisation which has lef lasting legacy on later Hinduism.”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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