इतिहास / History

सिन्धु घाटी की धर्म की प्रमुख विशेषताएं | सिन्धु सभ्यता के धर्म की मुख्य विशिष्टताओं का वर्णन  | सैन्धव धर्म के विशिष्ट तत्वों का निरूपण कीजिए।

सिन्धु घाटी की धर्म की प्रमुख विशेषताएं | सिन्धु सभ्यता के धर्म की मुख्य विशिष्टताओं का वर्णन  | सैन्धव धर्म के विशिष्ट तत्वों का निरूपण कीजिए।

सिन्धु घाटी की धर्म की प्रमुख विशेषताएं

धार्मिक जीवन, विश्वास तथा मान्यताएं

सिन्धुघाटी के उत्खनन से प्राप्त विविध सामग्री द्वारा यह पायः निश्चित हो चुका है कि इस सभ्यता के धार्मिक विश्वास एवं जीवन की पृष्ठभूमि में एक दीर्घकालीन परम्परा थी। डा० राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार, “यह धर्म कुछ बाहरी अंगों के होते हुये भी मुख्यतः इसी भूमि की उपज था और हिन्दू धर्म का पूर्व रूप था, जिसमें आज की कई विशेषताएं पाई जाती हैं, जैसे शिव शक्ति की पूजा, नाग, पशु, वृक्ष और पाषाण की पूजा एवं लिंग और योनि की पूजा तथा योग।’’ अनेकानेक प्रमाणों तथा उनके तथ्य निरूपण द्वारा हमें सिन्धुघाटी के जिस धार्मिक जीवन एवं विश्वास का रूप प्राप्त होता है उसका वर्णन निम्नलिखित है-

(1) मातृदेवी की उपासना-

मोहनजोदड़ो, चन्दुदड़ो तथा हड़प्पा से मिट्टी की बनी हुई मातृदेवी की मूर्तियाँ, भाण्डों तथा मुद्राओं पर मातृदेवी के अंकित चित्र एवं इन मूर्तियों तथा चित्रों में अंकित मेखला, गले के हार, शीश पर कुल्हाड़ी की आकृति का शिरस्त्राण तथा अन्य अनेक आभूषण आदि मातृदेवी की विभिन्न रूपों तथा प्रतीकों के परिचायक हैं। मातृदेवी के इन अंकनों में उसके प्रतीक स्वरूपों यथा वनस्पति के रूप में उपास्य, जगत-जननि के रूप में पूज्य तथा पशुजगत की अधीश्वरी का आभास मिलता है। विद्वानों का विचार है कि मातृदेवी के ये अनेकानेक रूप उसकी विभिन्न शक्तियों के परिचायक हैं। सिन्धुवासियों की यह धारणा थी कि सृष्टि के आधार, संचालन तथा विनाश की शक्ति मातृदेवी में ही निहित है। सर जॉन मार्शल के अनुसार सिन्धु प्रदेश में मातृदेवी को आद्य शक्ति के रूप में पूजा जाता था।

(2) परमपुरुष अथवा शिवोपासना-

सिन्धुघाटी से प्राप्त एक मुद्रा पर शिव के प्रारम्भिक रूप तथा परमपुरुष की आकृति अंकित है। इस परमपुरुष के तीन मुख हैं तथा वह त्रिनेत्र धारी है। नीची चौकी पर अवस्थित इस परम पुरुष के दाहिनी ओर हाथी तथा बाघ एवं बाँयी ओर गैड़ा तथा भैसा बना हुआ है। चौकी के नीचे हिरण के समान दो सींगों वाला पशु अंकित है। डा0 राधाकुमुद मुखर्जी ने इस मूर्ति का निरूपण करते हुए लिखा है- “उसकी संज्ञा ऋग्वैदिक रुद्र या शिव के समान पशुपति सिद्ध होती है।” इस मूर्ति के ऊपरी भाग पर छः शब्द अंकित हैं परन्तु इनका अर्थ अभी भी बोधगम्य नहीं हो पाया है। चीनी मिट्टी की एक अन्य मुहर पर नागों से घिरे योगासीन पुरुष की आकृति तथा एक अन्य मुद्रा पर अंकित धनुषधारी पुरुष का आखेटक रूप आदि के संकेतों तथा प्रतीकों का निरूपण करने पर हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि इस समय परम-पिता परमेश्वर के पुरुष रूप तथा प्रतीक चिन्हों के माध्यम से सिन्धु सभ्यता में शिवोपासना प्रचलित थी। सर जॉन मार्शल ने सिन्धुघाटी को शैव धर्म का उत्पत्ति क्षेत्र मानकर उसे विश्व का प्रावीनतम धर्म माना है।

(3) लिंग पूजा-

वैदिक आर्यों द्वारा सिन्धुवासियों को अनार्य कहा जाना तथा लिंग पूजा को अनार्य पूजा पद्धति मानना एवं स्वयं सिन्धुघाटी से प्राप्त अनेक लिंगाकारों की प्राप्ति होना आदि प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि सिन्धुघाटी के निवासी लिंगपूजा करते थे। उत्खनन द्वारा प्राप्त होने वाले लिंग दो प्रकार के हैं

(1) रक्षबीटिका लिंग- ये शैवों के शिव लिंग तथा वैष्णव शालिग्राम की भाँति हैं।

(2) अन्य लिंग- इनमें कुछ नुकीलापन है। बड़े लिंग चूने तथा पत्थर के बने हुए हैं तथा छोटे लिंग प्रायः घोंघे के बने हुए हैं।

(4) योनि पूजा-

लिंग पूजा तथा योनिपूजा का घनिष्ट सम्बन्ध है। ये दोनों सृष्टिकता के सृजनात्मक रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। सिन्धुघाटी में योनिपूजा प्रचलित थी। योनि स्त्रीलिंग का प्रतीक मानी जाती थी। सिन्धुवासी यह मानते थे कि स्त्रीलिंग धारण करने से अनेक विपदाएं समाप्त हो जाती हैं।

(5) वृक्ष पूजा-

सिन्धुघाटी से अनेकानेक वृक्षों की मूर्तियाँ तथा अंकन प्राप्त हुए हैं। एक मुद्रा पर वस्त्रहीन नारी के निकट वृक्ष की टहनियाँ, हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा पर मानव आकृति पीपल की पत्तियाँ पकड़े हुये, मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर जुड़वा पशु के सिर पर पीपल की पत्तियों का अंकन है। चित्रों में पीपल वृक्ष के अतिरिक्त नीम, बबूल, शीशम, खजूर आदि के वृक्ष प्रमुख हैं। इन समस्त प्रमाणों से यह पता चलता है कि सिन्धु सभ्यता के निवासी वृक्षोपासना करते थे।

(6) जल पूजा-

मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल स्नानागार तथा अन्य अनेक छोटे स्नानागारों का प्रबन्ध आदि के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि सिन्धु निवासियों के जीवन में स्नानादि तथा जल का विशेष महत्व था। कुछ विद्वानों का विचार है कि मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार जलदेवता का मन्दिर था तथा नगर निवासी यहाँ पर धार्मिक विश्वासों के फलस्वरूप स्नान करते थे।

(7) पशुपक्षी एवं नागपूजा-

सिन्धुघाटी के उत्खनन द्वारा अनेक पशुओं की मूर्तियाँ तथा उत्कीर्ण चित्रादि मिले हैं। इनमें बैल के चित्र प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त भैसा, बाघ, भेड़, बकरी, गैंडा, हिरन, ऊँट, घड़ियाल, मछली, बिल्ली, कुत्ता, मोर, तोता तथा मुर्गे आदि के खिलौने भी मिले हैं। एक मुद्रा पर नाग की पूजा करते हुए व्यक्ति का चित्र मिला है। एक ताबीज पर नाग एक चबूतरे पर लेटा हुआ है। पशु-पक्षियों के उपरोक्त चित्रों के आधार पर यह कहना तो गलत होगा कि उपरोक्त सभी पशुपक्षी उनके उपास्य थे, परन्तु इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि बैल तथा नाग का सम्बन्ध सिन्धुवासियों के धार्मिक विश्वास के साथ था।

(8) देवी-देवताओं का मानवीयीकरण-

सिन्धुघाटी से मनुष्य की आकृति से युक्त अनेक मुद्राओं तथा चित्रों का मिलना तथा परम पुरुष एवं मातृदेवी के चित्र यह प्रमाणित करते हैं कि इस समय देवताओं को मानवीय गुणों से युक्त मान कर उनकी उपासना की जाती थी। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि तत्कालीन धार्मिक विश्वासों में मानव तथा देवता के मध्य गहरा सम्बन्ध था।

(9) सूर्य तथा अग्नि की पूजा-

उत्खनन द्वारा प्राप्त कतिपय प्रतिमाओं पर ऐसा चक्र बना हुआ है जिसके चारों ओर किरणें निकल रही हैं। यह सूर्योपासना का प्रचलन प्रमाणित करता है। कतिपय ऐसी सामग्री भी मिली है जिसके द्वारा यह पता चलता है कि इस समय अनेक अग्निशालाएं भी थीं। हो सकता है कि धार्मिक मान्यतानुसार उस समय अग्नि पूजा भी प्रचलित थी।

(10) बलि पूजा-

मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर बकरे के समीप तेज धार वाले हथियार का अंकन, हडप्पा में एक स्थान पर सामूहिक रूप में बैल, भेड़, तथा बकरों के अस्थि पंजरों का प्राप्त होना-इस बात की ओर संकेत करते हैं कि उपास्य देवता की प्रसन्नता तथा-अभीष्ट पूर्ति के लिये बलि पूजा का प्रचलन था।

(11) मूर्ति पूजा-

सिन्धु सभ्यता के निर्माता चिन्तन की अपेक्षा साकार दृश्य देवी-देवताओं में आस्था रखते थे। विभिन्न देवी-देवताओं तथा वृक्ष, पशु पक्षी, नाग आदि मूर्तियों की प्राप्ति एवं अंकित चित्रों से पता चलता है कि वे साकार उपासना में विश्वास रखते हुए मूर्ति पूजा करते थे।

(12) अन्ध विश्वास-

सिन्धु घाटी से बड़ी मात्रा में ताबीजों की प्राप्ति इस बात की ओर इंगित करती हैं कि अनिष्ट निवारण के लिये चाँदी तथा ताम्बे के ताबीज धारण किये जाते थे। पशु बलि तथा जादू टोने में उनका अतिरेक विश्वास था।

(13) उपासना गृह अथवा मन्दिर-

यह एक आश्चर्यजनक बात है कि एक ओर वे सिन्धु-निवासी मूर्तिपूजक थे तो दूसरी और उनके निर्माणों में किसी उपासनागृह अथवा मन्दिर के सर्वथा अभाव है। मार्शल महोदय का विश्वास है कि उस समय लकड़ी के मन्दिर बनाये जाते थे। इस कथन से असहमत होते हुए हम कह सकते हैं कि जब सभी निर्माण ईटों तथा पत्थरों के बने थे तो मन्दिर ही लकड़ी के क्यों बनाये जाते थे ? कतिपय विद्वानों का विचार है कि मोहनजोदड़ो में जब कुषाणकालीन स्तूप प्राप्त हुआ है उसी के नीचे मन्दिर स्थित है जो अभी भी दवा हुआ है। इसी स्थान से सिन्धु सभ्यता के स्नानागार, पुरोहित के कक्ष तथा सभा भवन के अवशेष प्राप्त हुए है। अतः ये संभावित है कि यहाँ पर कोई मन्दिर अवस्थित रहा हो।

(14) उपासना विधि-

सिन्धु निवासियों का धार्मिक जीवन शुद्ध, पवित्र तथा स्वच्छ था प्रतीत होता है कि वे धार्मिक विश्वासानुसार स्नानादि करते थे। उत्खनन द्वारा अनेक मनोरंजक दीपक प्राप्त हुए हैं। कुछ स्तम्भों के शीर्ष भाग में दीपक तथा नीचे अग्नि प्रज्वलित करने के प्रमाण भी मिले हैं। इनसे यह स्पष्ट होता है कि उपासना विधि में वातावरण की पवित्रता तथा शुद्धता के लिए सुगन्धित सामग्री, धूपदीप आदि का प्रयोग किया जाता था। नृत्य, संगीत तथा वादन आदि दृश्यो से अंकित मुद्राओं एवं मूर्तियों के आधार पर यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि उपासना विधि से अनेक अनुथनों, क्रियाओं तथा मनोरंजनों की आयोजन की जाती थी।

(15) मृतक संस्कार-

वैसे तो मृतक संस्कार प्रणाली का सम्बन्ध सामाजिक संस्कारों के साथ होता है,परन्तु इसका आधार धार्मिक विश्वास होता है। प्रतीत होता है कि सिन्धु निवासी शव को भूमि में दफना कर, चिता में जला कर तथा शव को जंगलों में फेंक कर मृतक संस्कार करते थे मोहनजोदड़ो से अनेक घड़ों की प्राप्ति हुई है जिनमें मानव अस्थियाँ तथा भस्म मिली है। सिन्धु निवासी मरणोत्तर जीवन में विश्वास रखते हुए, शव के साथ जीवनोपयोगी उपकरण भी रख देते थे।

(16) धर्म दर्शन का अभाव-

सिन्धु घाटी के निवासियों का धर्म केवल विश्वास तथा आस्था पर निर्भर था। अभी तक जितने भी प्रमाण उपलब्ध हो पाये हैं उनके आधार पर हम यह प्रमाणित करने में सर्वथा असफल रहे हैं कि सिन्धु निवासियों का कोई धर्म दर्शन था अथवा नहीं, इस विषय में तब तक मौन रहना ही श्रेयस्कर होगा जब तक कि सिन्धु लिपि बोधगम्य न हो जाये। फिर भी हम इतना तो निश्चय पूर्वक कह ही सकते हैं कि सिन्धु निवासी बहुदेववाद में आस्था रखने के साथ-साथ एकेश्वरवादी भी थे। इसकी एकेश्वरवाद के आधार पर उन्होंने परम पुरुष तथा मातृदेवी के मध्य द्वन्द्वात्मक विचार को जन्म दिया।

निष्कर्ष

सिन्धु निवासियों के धार्मिक विश्वासों तथा जीवन के उपरोक्त वर्णन के आधार पर हम कह सकते हैं कि तत्कालीन धार्मिक वातावरण विविधतापूर्ण था तथा इस धार्मिक जीवन की मान्यताओं में हमें आगे आने वाले धार्मिक विश्वासों के बीज प्राप्त होते हैं। डा० आर० सी० मजूमदार के अनुसार-

“We must therefore hold that there is an organic relationship between the ancient culture of Indus valley and in Hinduism of today”.

तत्कालीन धार्मिक विश्वासों तथा जीवन के विषय में डा० राधाकुमुद मुखर्जी ने उचित ही लिखा है, “इन (सिन्धु घाटी के धर्म) विशेषताओं से यह स्पष्ट है कि यह धर्म कुछ बाहरी अंगों के होते हुए भी इसी भूमि की उपज था और हिन्दू धर्म का पूर्व रूप भी। इसमें आज की कई विशेषताएं पाई जाती हैं- जैसे शिव-शक्ति की पूजा, नाग, वृक्ष, पशु और पाषाण की पूजा एवं लिंग-योनि की प्रतीक पूजा तथा योग।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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