विश्व का इतिहास / World History

Sumerian Civilization in hind | सुमेरियन सभ्यता | राजनीतिक संगठन | सामाजिक संगठन | आर्थिक संगठन | धार्मिक जीवन | कला एवं स्थापत्य 

सुमेरियन सभ्यता | राजनीतिक संगठन | सामाजिक संगठन | आर्थिक संगठन | धार्मिक जीवन | कला एवं स्थापत्य 

सुमेरियन सभ्यता (Sumerian Civilization in hind)

मेसोपोटामिया में जिन इतिहास प्रसिद्ध सभ्यताओं का विकास हुआ उनमें कालक्रम की दृष्टि से सुमेरियन सभ्यता का स्थान प्रथम है। सुमेरियन सभ्यता के नामकरण का आधार सुमेर नामक नगर है। यह दजला फरात नदी का दक्षिणी भाग है। इसके उत्तर पश्चिम अक्काला स्थिति है। दोनों के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं है किंतु आम तौर पर निप्पुर के उत्तर का भूक्षेत्र अक्काद तथा दक्षिण का सुमेर माना जाता है। सुमेर की भौतिक भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि यहां जीवन क्रम निश्चित हो सकता था। अतः सबसे पहले भ्रमण शील मनुष्य ने इसे ही अपने स्थाई जीवन के लिए उपयुक्त पाया। इनके द्वारा एक ऐसी सभ्यता का विकास किया गया जिसने आने वाली मेसोपोटामिया की सभ्यताओं के लिए आधारशिला का कार्य किया। वास्तव में दजला फरात नदी की घाटी में पल्लवित पुष्पित सभ्यताओं को मूल प्रेरणा सुमेरिया से ही प्राप्त होती है। बेबिलोनिया सभ्यता की पुष्ट भुजाओं को बल देने का श्रेय सुमेरियन सभ्यता को ही जाता है। मेसोपोटामिया में सामाजिक एवं आर्थिक संगठन, कानून, धर्म, लिपि तथा विज्ञान के बहुत से तत्वों के आदि आविष्कार्ता सुमेरियन ही थे।

ऐतिहासिक स्रोत

सुमेरियन सभ्यता के अध्ययन में साहित्य साक्ष्यों की कमी के कारण आज से कुछ वर्ष पूर्व तक इसका इतिहास प्राय: अज्ञात माना जाता था पूर्ण रूप से। साहित्य साक्ष्यों की अल्पता के कारण तिमिराच्छादित सुमेरियन सभ्यता के बहुत से तत्व पुरातत्वविदों की कुदाल से ही प्रकाशित हो सके हैं। इस दृष्टि से प्रशंसनीय योगदान किंग, टामस, जॉर्ज स्मिथ, डि सरकोम, लेयार्ड रालिंसन, लियोनार्ड वूली इत्यादि का माना जा सकता है। पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय संग्रहालय तथा ब्रिटिश संग्रहालय के संयुक्त तत्वाधान में 1922 ईस्वी में उर का उत्खनन प्रारंभ हुआ। उत्खनन अभियान का नेतृत्व पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लियोनार्ड वूली ने किया। निरंतर 7 वर्षों में बहुत सी बातें प्रकाशित हुई जिसका परिणाम लियोनार्ड की प्रसिद्ध पुस्तक उर आव द कैल्डीज में प्रकाशित है। बीसवीं शर्ती ई० के मध्यकाल में शिकागो यूनिवर्सिटी के ओटीयंटल इंस्टीट्यूट तथा यूनिवर्सिटी म्यूजियम फिलाडेल्फिया के तत्वाधान में निपुर में उत्खनन संपन्न हुआ तथा बहुत से लेख प्रकाशन में आए| इस तरह अब इस सभ्यता के विषय में हमारी जानकारी बहुत व्यापक हो गई। प्रसंगत है कि अभी भी इस सभ्यता के बहुत से अंश तिमिराच्छादित हैं। उत्खनन एवं अनुसंधान क्रम में भविष्य में इनके उद्घाटित होने की संभावना है।

सुमेरियन नगर राज्यों का देश

सुमेरिया मूलत: नगर राज्यों का देश था। एरिडु, एरेक, उर, लगश, निप्पुर, ईशिन, लारसा, कीश इत्यादि अपने सीमित भूक्षेत्र में एक दूसरे से लगे हुए विकसित हुए थे। इनमें एरिडु, एरेक, उर फरात के पश्चिम, निप्पुर, ईशिन तथा लालसा पूर्व, किश तथा बेबिलोन निकट पूर्व तथा लगश दोनों नदियों के मध्य स्थित थे। एरिडु, ईशिन तथा निप्पुर की महत्ता धार्मिक दृष्टि से थी जबकि उर, लगश, लारसा, कीश तथा बेबीलोन धार्मिक एवं राजनीतिक दोनों दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

राजनीतिक संगठन

सुमेरियन राजनीतिक संगठन एक प्रकार से नगर राज्यों का एक ऐसा शिथिल संघ था, जो केवल युद्ध में परस्पर संगठित होते थे। परवर्ती लेखकों तथा सुमेरियन आख्यान में कुछ ऐसे चर्चाएं हैं जिससे पता चलता है कि संकट के समय या आपात स्थिति में शासक कुछ लोगों से परामर्श लिया करता था। प्राचीन विश्व में प्रजातंत्र के जनक सुमेरियन थे। निरंतर वाहे आक्रमणकारियों से संत्रस्त सुमेरियनो मे यदि प्रजातंत्र था तो इन्होंने इसका जामा उतार फेंका और इसके स्थान पर राजतंत्र की स्थापना की। राजतंत्र के विकास के साथ यहां दो प्रकार के अधिकारी अस्तित्व में आए। एक अधिकारी पटेशी एवं एंसी तथा दूसरा लूगल था| पटेशी नगर राज्य का शासक, नगर का प्रधान पुरोहित, न्यायाधीश, सेनानायक तथा सिंचाई व्यवस्था का अधीक्षक था| इस तरह इसे राजनीतिक एवं धार्मिक दोनों महत्ता मिली थी| पटेशी का पद वंशानुगत था| पटेशी के साथ साथ दूसरा महत्वपूर्ण पद लूगल था। लूगल का अर्थ है महान व्यक्ति। इस प्रकार यह पटेशी की अपेक्षा अधिक सम्मानिता था| वास्तव में जब कोई पटेशी कई नगर राज्यों को जीतकर अपने नगर में मिला लेता था तब यह पटेशी के स्थान पर लूगल उपाधि धारण करता था। अर्थात यदि पटेशी नगर शासक था तो लूगल राज्य का शासक था। इस प्रकार एक की शक्ति समिति तथा दूसरे की विस्तृत| पटेशी तथा लूगल के अंतर को एक अन्य दृष्टि से भी समझा जा सकता है। वास्तव में पटेशी राजनीतिक विकेंद्रीकरण का घोतक है, जबकि लूगल राजनीतिक एकता का। प्रारंभ में गूगल का पद स्थाई नहीं था, क्योंकि जब कोई लूगल अपनी शक्ति खो बैठता था तो इसे पुनः पटेशी की उपाधि मिल जाती थी| प्रसंगत है इस बात की चर्चा की जा सकती है कि पटेशी एक प्रकार से देवता का प्रतिनिधित्व था। आत: कभी-कभी लूगल बनने के बाद भी यह पटेशी की उपाधि नहीं छोड़ता था।

कानून सुमेरियन प्रशासन एवं राजतंत्र का आधारशिला इनकी विधि संहिता थी| सुमेरियन विधान एक प्रकार से सुमेरिया में प्रचलित परंपराओं का सम्मिलित रूप था। इसके विकास में स्थानीय परंपराओं के घटक एवं संग्रथन का विशिष्ट योगदान था| दूसरे शब्दों में इनके संकलन एवं संग्रथन में स्थानीय रीति-रिवाजों एवं आचारो का महत्वपूर्ण स्थान था| समानांतर से सुमेरियन के शानदार शासक शुल्गी ने इन कानूनों को संहत एवं संतुलित रूप दिया। इसका मूल रूप उपलब्ध नहीं है। परिणाम अब इनकी व्यापकता एवं प्रकृति के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

न्याय तंत्र एवं दंड विधान सुमेरिया न्याय एवं दंड व्यवस्था सुमेरियन विधि संहिता पर आधारित थी| न्यायालय का कार्य मंदिर करते थे तथा पुरोहित न्यायाधीश थे। यह वास्तविक न्यायाधीश न होकर केवल मध्यस्थ, लेख्य प्रमाणक तथा अभिनिर्णायक मात्र थी| परंपराया मुकदमा मंदिरों तथा मंदिरों के बाहर ही सुने जाते थे। मंदिरों में ही इन्हें प्रस्तुत भी किया जाता था| सभी प्रकार के मुकदमे मश्किम नामक अधिकारी सुनता था। यदि यह निर्णय नहीं कर पाता था तो अन्य व्यावसायिक न्यायाधीशों को बुलाया जाता था। यदि पीड़ित व्यक्ति इस निर्णय से भी असंतुष्ट होता था तो सर्वोच्च न्यायालय में उसकी अपील करता था।

सैन्य संगठन एवं युद्ध कला प्राचीन विश्व इतिहास में युद्ध कर्म को कला का स्तर सबसे पहले सुमेरियनों ने ही दिया था| सुमेरियनो की सामरिक कुशलता की अभिव्यक्ति इनके दैनिक जीवन में दिखाई पड़ती है। इनके वर्ष के नामकरण में सैनिक विजयों का उल्लेख मिलता है। इनके देवताओं के प्रतीक रूप में युद्ध स्तरों को चुना गया था। अक्कादी राजाओं के पास एक व्यवस्थित सेना थी| इनके संघर्ष प्रायः पड़ोसी राज्यों पर अधिकार स्थापित करने अथवा व्यापारिक मार्गों तथा माल इत्यादि के लिए होते थे। कभी-कभी नदी के मार्ग में परिवर्तन के कारण भी युद्ध छिड़ जाता था| आंतरिक युद्धों के साथ-साथ बाहरी आक्रमण के खतरे को टालने के लिए भी इनकी सामरिक क्षमता का विकास हुआ था। युद्ध का नेतृत्व पटेशी करता था| प्रत्येक पटेशी के पास एक व्यवस्थित पदाति सेना रहती थी। इनकी सूची मंदिरों में रहती थी। शांति के समय यह मंदिरों में कार्य करते थे तथा तथा युद्ध के समय सेना में। सुमेरियन सैनिक तांबे के शिरस्त्राण तथा शरीर पर मोटा कवच धारण करते थे , ताकि शत्रु इनका कुछ न बिगाड़ सके। शस्त्र के रूप में यह भाले तथा ढाल का प्रयोग करते थे| सुमेरियन सभ्यता में धनुष बाण का प्रयोग नहीं किया जाता था। यहां पर युद्ध की चर्चाओं में घोड़े के स्थान पर गधे का विवरण प्राप्त होता है।

सामाजिक संगठन

व्यवहारिक रूप में प्राचीन सुमेरियन समाज अभिजात, सर्वसाधारण एवं दास कोमा तीन वर्गों में विभाजित था। अभिजात वर्ग में राजपुरुष, उच्च अधिकारी तथा पुरोहित सम्मिलित थे। सर्वसाधारण वर्ग का संगठन मध्य श्रेणी के किंतु स्वतंत्र नागरिकों द्वारा किया गया था उदाहरणार्थ, कृषक, व्यापारिक तथा विविध प्रकार के शिल्पी| तृतीय वर्ग में सम्मिलित थे। समाज में इन तीन वर्गों के स्तर में बहुत अंतर था। अभिजात वर्ग के सदस्यों का जीवन अधिक सुविधा संपन्न था| यद्यपि सर्वोच्च स्थान शासकीय वर्ग को प्राप्त था किंतु इनकी मान्यता थी कि राजाओं के पहले पुरोहित ही शासन करते थे| पुरोहित का भी स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं था। पुरोहित एवं राजाओं के बाद राज्य कर्मचारियों एवं लिपिकों का स्थान था| सर्वसाधारण वर्ग के सदस्य अर्थात कृषक, व्यापारी, शिल्पी इत्यादि यद्यपि स्वतंत्र थे तथा दासों की अपेक्षा अच्छी स्थिति में थे, किंतु इनका दर्जा अभिजात वर्ग के बाद ही माना जा सकता है। दासो की स्थिति सबसे खराब थी| यह मुख्यतः खेती, सिंचाई तथा निर्माण कार्य करते थे। दास या तो युद्ध बंदी थे या फिर ऋण न चुका सकने के कारण बनाए गए थे।

सुमेरिया के प्रारंभिक काल में पड़ोसी देशों से प्राय: युद्ध हुआ करता था| परिणामत: युद्ध बंदी दासों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती गई। ऋण न चुका सकने के कारण व्यक्ति को स्वयं अथवा अपनी पत्नी को पुत्र अथवा पुत्री को दास बना देना पड़ता था। कभी-कभी माता-पिता की अवज्ञा करने वाला भी दास बना दिया जाता था। दण्ड निर्धारण के समय तीनों वर्गों की सामाजिक स्थिति का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता था।

सुमेरियन सामाजिक संगठन में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी। यद्यपि विधांनत: विशेष परिस्थितियों में पुरुष अपनी स्त्री को बेच सकता था किंतु व्यवहार में ऐसा बहुत कम होता था। सुमेरियानो में विवाह संस्था पूर्ण विकसित थी तथा इससे संबंधित कई प्रकार के नियम बनाए गए थे। दहेज में प्राप्त संपत्ति पर एकमात्र स्त्री का अधिकार माना जाता था और इसी की इच्छा से इसे हस्तान्तरित किया जा सकता था। स्त्रियां अपने स्वामी से पृथक व्यापार कर सकती थी तथा दासिया रख सकती थी| लेकिन जहां सुमेरियन स्त्रियों को बहुत से अधिकार प्राप्त थे, इनके कर्तव्य भी कुछ कम नहीं थे। जहां एक और पुरुष के लिए व्यभिचार क्षम्य था वही स्त्रियों को इस अपराध के लिए मृत्यु दंड दिया जाता था| इतना ही नहीं, इनके लिए पुत्र पैदा करना भी आवश्यक था| यदि कोई स्त्री ऐसा नहीं कर पाती तो उसे छोड़ दिया जाता था| इस प्रसंग में यह कहना आवश्यक है कि सुमेरिया में मंदिरों में देवताओं की सेवा में स्त्रियों को नियुक्त करने की प्रथा थी| यह मंदिरों में काम करती थी तथा एक प्रकार से देवता की रखैल मानी जाती थी। सुमेरिया इससे अपमानित होने के बजाय अपने को गौरवान्वित अनुभव करता था।

आर्थिक संगठन

सुमेरियन अर्थव्यवस्था की विधायक एवं प्रेरणात्मक तीन शक्तियां थी| इन में वरीयता की दृष्टि से सर्वप्रथम भूमि की उर्वरता का उल्लेख किया जा सकता है। दजला फरात के तटीय मैदान अत्यंत उर्वरक थे। शरद कालीन वर्षा के फलस्वरूप उत्पन्न बाढ़ के कारण लाई गई मिट्टी के जमाव से यह भूभाग प्रतिवर्ष नवीन एवं उर्वर हो जाता था। एक ओर इनके उर्वर मैदान में कृषि संबंधी सुविधाएं उपलब्ध थी, तो दूसरी ओर इन्होने सिंचाई के लिए समुचित साधन प्रदान किया था। दोनों नदियों ने जहां एक ओर उर्वर मैदान निर्मित किया था तथा सिंचाई की सुविधा दी थी, वहीं पर यातायात के लिए उचित एवं सुविधाजनक मार्ग प्रस्तुत किया था। सुमेरियन आर्थिक गठन में इनकी लिपि का भी विशेष योगदान था । इनकी सहायता से व्यापारिक कार्य कलापों में कुशलता आई तथा इसे व्यवस्थित ढंग से संपन्न किया गया। प्रत्येक प्रमुख व्यापारिक विधियों के विकास एवं उनके नियमन में लिपि कला की भूमिका अविश्वसनीय मानी जा सकती है।

कृषि कर्म सुमेरियन अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि परक थी। भूमि की उर्वरता, सिंचाई विधियों के आविष्कार तथा सुमेरियन कृषकों के कठोर परिश्रम के फल स्वरुप यहां सर्वत्र हरियाली ही दिखाई पड़ती थी| कृषि के विकास एवं उसमें हल की उपयोगिता के कारण ही हेनरी लूकस जैसे विद्वान इसे हल प्रधान संस्कृति मानते हैं। भूमि पर नगर शासक, मंदिर अथवा सैनिक अधिकारियों का स्वामित्व रहता था। किंतु यह लोग नगरों में रहते थे अतएव खेती मुख्यत: लागनधारी काश्तकारों या दासों द्वारा की जाती थी| सुमेरियन आर्थिक गठन में मंदिरों का विशेष दखल था| इसी समय में तो यह माना जाता था कि सुमेरियन में देवालय की अर्थव्यवस्था के मूलाधार थे, किंतु अब इस धारणा में परिवर्तन की आवश्यकता है। वास्तव में मंदिरों के अधिकार में पर्याप्त कृषि योग्य भूमि तो रहती थी किंतु यह संपूर्ण कृषि भूमि का केवल 16.5% ही था। सुमेरियन आर्थिक गठन दो रूप में विकसित हुआ था| एक तरफ कृषि योग्य भूमि मंदिरों की संपत्ति समझी जाती थी, जो राज्य की संपत्ति थी, जिस प्रकार प्रारंभ में इसी का अधिकार था, पर बाद में शासकों का हो गया था। दूसरी ओर कुछ भूमि व्यक्तिगत अधिकार में थी जिस पर मंदिर अथवा राज्य का कोई वर्चस्व नहीं था। मुख्यत: गेहूं, जौ, तिल, मटर एवं खजूर की खेती करते थे। इसमें भी प्रधानता जौ की ही थी। मंदिरों की देखरेख में बगीचे भी लगाए जाते थे। अन्नोत्पादन मुख्यतः गांवों में होता था। नगर निवासी इसे कई विधियों से प्राप्त करते थे। सामान्यतः गांव में अनाज उत्पादित कर नगरों में भेजा जाता था तथा इसके बदले में नगरों से आवश्यक वस्तुएं गांव में आती थी| नगर शासक भी गांव से कर के रूप में अनाज प्राप्त करता था। बदले में नगर गांव को सुरक्षा प्रदान करता था| मुख्य पुरोहित होने के कारण तथा मंदिरों से अभिन्न रूप से संबंधित होने के कारण भी गांव की उपज का एक भाग नगर शासक को मिलता रहता था।

पशुपालन कृषि के साथ-साथ पशुपालन भी प्रचलित था और इसमें सुमेरियनो को अच्छी आमदनी होती थी। मुख्य रूप से गाय, बैल, भैस, बकरी तथा सूअर पाले जाते थे। गाय को देवी के रूप में स्वीकार किया गया था। मंदिरों के अधिकार में बड़ी संख्या में पशु रहते थे| इनके रहने के लिए पशुशालाएँ  तथा चरने के लिए चारागाहों की व्यवस्था की गई थी। पशुओं के झुंड छोटे ही होते थे। यहां से प्राप्त चित्राक्षरों में वन्य पशुओं के चित्रों की अधिकता है जिससे पता चलता है कि शिकार की प्रथा अभी भी प्रचलित थी तथा जंगली पशुओं का शिकार किया जाता था। मछली पालने का धंन्धा भी प्रचलित था, क्योंकि इनके भित्ति चित्रों में इन की भरमार है। पशुओं का उपयोग कई प्रकार से करते थे कुछ पशु दुधारू होते थे जिससे दूध प्राप्त होते थे। बैल का उपयोग हल तथा गधों का पहिए दार गाड़ी खींचने में किया जाता था।

उद्योग धंधे सुमेरियन अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि कर्म एवं पशुपालन पर आधृत थी, किंतु इन्होंने कई प्रकार के उद्योग धंधों एवं व्यवसायों का विकास भी कर लिया था| उद्योग धंधे प्राय: मंदिरों के नियंत्रण में थे। यहां पर विविध प्रकार की वस्तुएं बनाई जाती थी| जो वस्तुएं उपयोग से बच जाती थी उन्हें बाजार भेजा जाता था। मुख्य रूप से धातु उद्योग, वस्त्र उद्योग तथा गाड़ी बनाने के उद्योग प्रचलित थे। सुमेरिया में कच्चे माल की कमी थी। अत: धातुएं बाहर से मंगानी पड़ती थी। तांबे व कांस्य के साथ साथ सोने, चांदी एवं शीशे की सहायता से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं बनाई जाती थी| सुमेरिया में गाड़ी बनाने का धंधा भी बड़े पैमाने पर प्रचलित था| गाड़ी के पहिए तो लकड़ी से बनाए जाते थे किंतु इन पर तांबे या चमड़े के हाल चढ़ा दिए जाते थे। किश नामक स्थान से प्राप्त पहरेदार गाड़ियां विश्व की सबसे पुरानी गाड़ियां हैं।

व्यापार वाणिज्य सुमेरिया की समृद्धि में जितना योगदान कृषि एवं पशुपालन का था, उतना ही व्यापार का भी। यहां कच्चा माल उपलब्ध नहीं था| अतः इसका विदेशों से आयात करना पड़ता था। आयातित माल द्वारा वस्तुएं बनाकर यह स्वयं उपयोग करते थे तथा बचे माल को बाहर भेजते थे। कच्चे माल के बदले में इन्हें अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज को बाहर भेजना पड़ता था। आयातित वस्तुओं में विभिन्न प्रकार की धातुएं जैसे तांबा, चांदी, सोना, शीशा तथा इमारती लकड़ी या सम्मिलित थी| व्यापार को समुचित रूप से चलाने के लिए यह प्राय: सभी आवश्यक विधियों का प्रयोग करते थे। बिल, रसीद, नोट, जाम, ऋण, ब्याज, व्यापारिक पत्र इत्यादि का ये प्राय: प्रयोग करते थे| प्रत्येक लेन देन को साक्षियों की उपस्थिति एवं उनके हस्ताक्षर से लिपिबद्ध कर लिया जाता था ताकि कोई अनुबंध तोड़ ना सके। व्यापारी अपने कमीशन एजेंट को मालों के साथ दूर-दूर तक भेजते थे। इनसे अच्छे बाजार देवालयों के निकट स्थित होते थे। व्यापार को सरल एवं सुगम बनाने के लिए ऋण देने की व्यवस्था भी थी| उर के तृतीय राजवंश के समय में उधार पर ब्याज की दर 33.5% की थी। लगभग अलग-अलग वस्तुओं पर ब्याज की दर अलग-अलग थी।

धार्मिक जीवन

सुमेरियन धर्म के विविध पक्षों के अनुशीलन से ज्ञात हो जाता है कि इनका धर्म आदर्श एवं उदात्त नहीं था तथापि इनके जन जीवन में इनका विशिष्ट स्थान बन गया था। धर्म के केंद्र मंदिर इनकी राजनीति एवं अर्थव्यवस्था के मुख्य संचालक थे। यहां के शासक एक प्रकार से देवता के प्रतिनिधित्व थे। प्रत्येक जाति, व्यक्ति एवं स्थान के अपने-अपने देवता थे और इनके लिए उपाय एवं श्रद्धा के विषय थे।

देवी देवता अन्य प्राचीन धर्मों की भांति सुमेरियन धर्म भी बहुदेवीवादी था। इसमें अनेक देवी-देवताओं की कल्पना की गई थी| प्रत्येक व्यक्ति, नगर एवं राज्य के अलग-अलग देवता थे। इसमें अनु, उतु, एनलील, एनकी, निंमाह, इनन्ना, ईश्तर, इया, सिन, शमश इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। मातृदेवी एवं पृथ्वी माता की उपासना प्रागैतिहासिक काल से प्रचलित थी। उर के निवासी अत्यंत प्रारंभिक काल से ही उर्वरता की देवी के रूप में इनन्ना देवी की उपासना करते रहे। यहां कतिपय देवताओं की पूजा ग्रह नक्षत्रों के प्रतिनिधित्व देव के रूप में भी की जाती थी। सुमेरियनों ने देवताओं का मानवीकरण किया था अर्थात उनकी कल्पना मनुष्य के रूप में की गई थी। सुमेरियन देवी देवता मानवीय आवश्यकताओं एवं गुणों की परिधि के बाहर नहीं थे। वे मनुष्य के समान ही खाते पीते थे, विवाह करते थे, संतान सृष्टि करते थे तथा मंदिरों में रहते थे। वास्तव में सुमेरियन धर्म में परीकल्पित देवता एवं मनुष्य मे केवल यही अंतर था कि देवता अमर्त्य, शक्तिशाली तथा जगतस्त्रष्टा थे जबकि मनुष्य मर्त्य, दुर्बल एवं केवल नगर निर्माता थे। देवताओं की उपासना मंदिरों में की जाती थी। यहां देव प्रतिमाएं प्रतिष्ठित रहती थी| इन्हें नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों तथा पेय पदार्थ अर्पित किए जाते थे। पशु बलि एवं नरबलि की भी प्रथा थी।

लौकिकता सुमेरियन धर्म पूर्णतया लौकिक धर्म था| उनका विश्वास था कि मृत्यु के बाद मृत आत्मा को थोड़े समय के लिए शियोल नामक लोक में जाना पड़ता है। कुछ दिन रहने के बाद मृत आत्मा गायब हो जाती है। इनके विश्वास के अनुसार अधोलोक में, जिसका शासन नर्गल करता था, पाप आत्मा एवं पुण्य आत्माएं दोनों रहती थी| प्राचीन मिस्र की भांति सुमेरियन न तो स्वर्ग नरक में विश्वास करते थे,न लौकिक कर्मों को इनके निर्धारण में आवश्यक मानते थे और न इन्होने वरदान एवं दंड की शाश्वत व्यवस्था की ही परिकल्पना की थी| इसका पुरस्कार यह लौकिक जीवन से ही प्राप्त करना चाहते थे।

आख्यान की प्रधानता सुमेरियन धर्म आख्यान परक था| यहां कई प्रकार के आख्यान रचे गए थे। इनमें सृष्टि एवं प्रलय आख्यान विशेष प्रचलित थी| इनका प्रभाव परवर्ती हिब्रू धर्म कथाओं पर पड़ा था। जिस दैवी संघर्ष का वर्णन सृष्टि आख्यान में मिलता है उसमें अंतिम विजय मार्दूक की होती है। इसमें विश्व की रचना मार्दुक द्वारा मारे गए एक व्यक्ति (प्रतिद्वंदी) द्वारा कल्पित है। मनुष्य मिट्टी तथा रक्त के मिश्रण से बना है। सम्यक रूप से देखने से पता चलता है कि इस आख्यान में बर्बरता का पुट अधिक है तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक तत्व सर्वदा उपेक्षित हैं।

कला एवं स्थापत्य

कला के क्षेत्र में प्राचीन सुमेरियन अपने समकालीन नीलघटी के निवासियों से पीछे रह गए। इसका सबसे बड़ा कारण इनके अपने परिवेश में साधनों का अभाव था। यहां मिस्र के समान न तो इमारती पत्थर उपलब्ध थे, न लकड़ियां ही। संभवतः इनमें सृजनात्मक शक्ति का भी अभाव था। निरंतर बाह्याक्रमणकारियों से त्रस्त होने के कारण इन्हें कलात्मक विकास का उपयुक्त अवसर भी नहीं मिला। प्राचीन सुमेरियन कला के जो नमूने मिले हैं उनसे लगता है कि यह कला सादगी एवं सरलता से परिपूर्ण थी| इसमें कहीं भी अलंकरण अथवा दंभ प्रदर्शन का प्रयास नहीं किया गया है। स्थापत्य में शौर्य प्रदर्शन का स्पष्ट संकेत मिलता है। युद्ध संबंधी स्थापत्य की प्रधानता है।

वास्तु कला दजला फरात की घाटी में पत्थर उपलब्ध नहीं थे। अतः इन्हें अपने भवनों के निर्माण के लिए मिट्टी, नरकुल तथा ताड़ वृक्षों पर निर्भर रहना पड़ा। सुमेरियन नरकुलों को भूमि में वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार गाड़ कर अपनी झोपड़ी बनाते थे। आज इसका बहुतायत से प्रचलन है। भवनों में सर्वप्रथम नरकुल के डंठल एवं चटाईयों का प्रयोग किया गया। नरकुल के साथ-साथ कच्ची तथा पक्की ईंटों का प्रयोग भी भवनों में किया जाता था। सुमेरियन भवनों की योजना अत्यंत सरल थी। इन के मध्य में एक बड़ा कमरा बनाया जाता था। इसी के माध्यम से अन्य कमरों में प्रवेश करते थे। अभ्यंतर कक्षों को धूप से बचाने का हर संभव प्रयास किया जाता था| आगे चलकर यह कमरे के स्थान पर प्रांगण बनाने लगे। शासकों तथा अमीरों के भवनों की योजना सर्वसाधारण के भवनों से भिन्न होती थी। इनका निर्माण ऊंचे स्थलों पर किया जाता था। ऊंचाई कभी 12 13 मीटर तक पहुंच जाती थी इनमें जाने के लिए एक मार्ग रहता था| इस प्रकार प्रथम दृष्टि से प्रत्येक शाही  तथा समृद्ध जनों का भवन एक प्रकार का किला दिखाई पड़ता था। सुमेरियन भवनों के आंतरिक भवन की दीवारों पर प्लास्टर किया जाता था तथा ये उसे यथासंभव अलंकृत भी करते थे। भवनों में वातायनों की आवश्यकता यह नहीं समझते थे। दरवाजे आंगन की ओर ही खुलते थे। संभवत ठंडक एवं सुरक्षा को ध्यान में रखकर ऐसा करते थे। जल प्राप्त करने के लिए कुएं का निर्माण करते थे। प्राचीन सुमेरिया में जल निकास की अच्छी व्यवस्था थी। इसके लिए नालियां बनाई जाती थी| इन्हीं के माध्यम से घरों की गंदगी बाहर बहती थी। भवनों को सामान्य फर्नीचर एवं उपकरणों से सुसज्जित करने का प्रयास करते थे।

मूर्ति कला वास्तुकला की अपेक्षा सुमेरियन मूर्तिकला में अधिक सफल माने जा सकते हैं मूर्ति कला में मूर्तिकला के बहुत से आकर्षक उदाहरण उर की समाधि से प्राप्त हुए हैं। पूर्ण शिल्प की अपेक्षा स्थापत्य मूर्तियां अत्यधिक आकर्षक एवं स्वाभाविक है। सुमेरियन मूर्तियों में उर से एक मंदिर के निकट एक चबूतरे पर एक वृषभ की मूर्ति मिलती है जो अत्यंत स्वाभाविक एवं आकर्षक है। इसी के निकट द्वार पर एक सिहमुखी चील की मूर्ति मिली है जो हिरण के जोड़े पर पंख फैलाए बैठी है। उर से ही एक चांदी की गाय का सिक्का मिला है जो उस समय की विकसित कला का आदर्श उदाहरण है। स्थापत्य मूर्तियों में दुग्ध उद्योग के दृश्य, उर ध्वज, तथा नरामसिन पाषाण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं| इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण उर ध्वज का है। इस स्थापत्य में सुमेरियन कलाकारों ने उर के एक शासक की विजय यात्रा का प्रदर्शन किया है। इसमें शासक को विजय उपरांत रथ सवार प्रत्यावर्ती होते हुए दिखाया गया है। शत्रु सैनिक बंदी बंना कर खींचे या रथों के नीचे रोंदे जा रहे हैं। उर के सैनिक पंक्ति बंद प्रणाम करते हुए दिखाए गए हैं। अन्यत्र विजय के उपलक्ष में आयोजित उत्सव का चित्रण है। इसमें राज पुरुषों को कुर्सियों पर बैठा दिया गया है उनके हाथ में प्याले हैं इत्यादि प्रकार की मूर्तियां तथा कलाएं यहां पर देखने को प्राप्त होती हैं।

लिपि एवं लेखन सामग्री बौद्धिक क्षेत्र में प्राचीन सुमेरियन अपने समकालीन अन्य नदी घाटी के निवासियों के समान ही उन्नति किए थे। उनकी बौद्धिक उपलब्धियों में सर्वप्रथम लिपि कला का उल्लेख आवश्यक है। व्यापारिक कार्यों एवं मंदिरों के आय-व्यय के वितरण रखने के लिए लिपि की आवश्यकता थी| इसलिए प्राचीन सुमेरियानों ने लेखन कला का सर्वप्रथम विकास किया। सुमेरियन मेसोपोटामिया के ही नहीं बल्कि प्राचीन विश्व के प्रथम लिपि आविष्कारकर्ता थे। प्राचीन सुमेरियन की प्रारंभिक लिपि का स्वरूप अत्यंत सरल एवं आदिम था| मंदिरों में विद्यमान पशु एवं वस्तुओं का हिसाब रखने के लिए यह उन्हें रेखाओं द्वारा मिट्टी की पट्टियों पर लिख लेते थे। बाद में यह पशुओं तथा वस्तुओं के चित्र भी बनाने लगे ताकि उन्हें एक दूसरे से पृथक किया जा सके| यह लिपि जिन्हें फोटो ग्राम कहा गया है तथा सुमेर की आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाती थी| उन्होंने चित्रों को सरल एवं संक्षिप्त करना प्रारंभ कर दिया किंतु इस प्रयास में यह इतने संक्षिप्त एवं सरल हो गए कि इनका कभी-कभी अर्थ भी समझना कठिन हो गया| फिर भी अर्थ विशेष में रूढ होने के कारण इनका भाव समझ लिया जाता था। सुमेरियन लिपि का चित्रात्मक रुप प्राचीनतम है।

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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