शिक्षाशास्त्र / Education

थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत | प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धांत | Thorndike’s Connectionism or Trial and Error Learning in Hindi

थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत| प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धांत (Thorndike’s Connectionism or Trial and Error Learning in Hindi)

थार्नडाइक ने मुर्गियों, चूहों और बिल्लियों पर अनेक प्रयोग किये तथा इन प्रयोगों के आधार पर सीखने सम्बन्धी अपने नियमों तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। इन प्राणियों को उसने सीखने सम्बन्धी विभिन्न परिस्थितियों में रखा और उनकी सीखने की प्रक्रिया का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया उसके द्वारा किये गये एक प्रयोग को उदाहरण के लिये आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।

थार्नडाइक ने एक भूखी बिल्ली को एक उलझन पेटिका (Puzzle Box) में बन्द कर दिया। पेटिका इस प्रकार बनायी गयी थी कि उसमें केवल एक दरवाज़ा था जोकि एक लीवर के ठीक प्रकार दबने से खुल सकता था। पेटिका से बाहर कुछ दूरी पर भोजन सामग्री के रूप में एक मछली रख दी गई। मछली की गंध ने इस परिस्थिति में एक शक्तिशाली अभिप्रेरक (Motive) का कार्य किया और बिल्ली पेटिका से बाहर आने के लिए हर संभव प्रयत्न करने में जुट गई। इस स्थिति को स्वयं थोर्नडाइक (Thorndike) के शब्दों में सुनिए, “यह प्रत्येक छिद्र में से रास्ता खोजने का प्रयत्न करती है, सलाखो या तारों में पंजा मारती है और मुँह से काटती है। प्रत्येक छिद्र में यह अपना पजा अड़ाती है और जहाँ-जहाँ पहुँचती है वहीं नोचती काटती है।” इस प्रकार बिल्ली ने सभी तरह से उल्टे सीधे पंजे चलाए तथा उछल-कूद की। इन उल्टे-सीधे प्रयत्नों के फलस्वरूप एक बार संयोगवश उसका पंजा लीवर पर ठीक तरह से पड़ गया और दरवाज़ा खुल गया। बिल्ली ने बाहर निकल पर अपनी भूख शांत कर ली।

थार्नडाइक की बिल्ली बाहर आने का प्रयास करती हुई।

थार्नडाइक की बिल्ली बाहर आने का प्रयास करती हुई।

दूसरी बार फिर प्रयोग को दोहराया गया। बिल्ली को भूखा रख कर उसी पेटिका में बन्द कर दिया गया। मछली की गंध ने फिर बिल्ली को पेटिका से बाहर आने के लिए अभिप्रेरित किया तथा बिल्ली ने फिर वही उल्टी-सीधी उछल-कूद, नोंचना, खरोंचना शुरू कर दिया तथा पहले की तरह ही अब भी काफ़ी प्रयत्नों के बाद लीवर पर पैर अचानक पड़ने से दरवाज़ा खुला। परन्तु इस बार दरवाज़ा खुलने में कम समय लगा। इस प्रकार की प्रयोग संबंधी क्रिया कई बार दोहराई गई और यह पाया गया कि बिल्ली के उल्टे-सीधे प्रयत्नों की संख्या धीरे-धीरे कम होती गई और उसे बाहर निकलने में जितना समय लगता था उसकी मात्रा घटती चली गई, यहाँ तक कि बिल्ली ने बिना कोई त्रुटि किए पहली बार में ही लीवर को ठीक प्रकार दबा कर दरवाज़ा खोल दिया। इस प्रकार से प्रयास करते-करते बिल्ली दरवाज़ा खोलना सीख गई।

यह प्रयोग सीखने की प्रक्रिया में निम्न सोपानों की उपस्थिति का संकेत देता है-

  1. चालक (Drive) या अभिप्रेरक (Motive)- प्रस्तुत प्रयोग में भूख ने चालक या अभिप्रेरक का कार्य किया। गन्ध ने बिल्ली को और अधिक उत्तेजित बना दिया।
  2. लक्ष्य (Goal)- संदूक से बाहर निकल कर मछली खाना।
  3. लक्ष्य प्राप्ति में बाधा (Block in achieving goal)- सदूक स बाहर निकलने का रास्ता बन्द था।
  4. उल्टे-सीधे प्रयत्न (Random movements)- बिल्ली ने बाहर निकलने के लिए सभी तरह के उल्टे-सीधे प्रयत्न किए।
  5. संयोगवश सफलता मिलना (To get chance success)- अपने उल्टे- सीधे प्रयत्नों को करते रहने में संयोगवश उसका एक प्रयत्न सफल हो गया।
  6. सही प्रयत्न का चुनाव (Selection of proper movement)- उल्टे-सीधे (सही-गलत) प्रयत्नों में से दरवाजा खुलने का जो सही तरीका था उसे बिल्ली द्वारा चुन लिया गया
  7. स्थिरता (Fixation)- अन्त में बिल्ली ने तमाम-गलत प्रयत्नों को छोड़ कर सही प्रयत्न करना सीख लिया और वह बिना किसी त्रुटि के पहले ही प्रयास में दरवाज़ा खोलना सीख गई। थोनडाइक ने उपरोक्त प्रयोग में बिल्ली द्वारा पेटिका खोलना सीखने की विधि को प्रयास एवं त्रुटि विधि अथवा प्रयत्न एवं भूल विधि (Trial and Error Method) की संज्ञा दी उसने कहा कि सीखने में हम निरन्तर प्रयास करते हुए अपनी भूलों या त्रुटियों को कम करते जाते हैं और इस तरह से गलत अनुक्रियाओं (Incorrect Responses) के स्थान पर सही अनुक्रियाओं (Correct Responses) को व्यक्त करना सीख जाते हैं।

थार्नडाइक के सीखने के नियम (Thorndike’s Laws of Learning)

थोर्नडाइक ने अपने प्रयत्न एवं त्रुटि सिद्धान्त को आधार बना कर सीखने संबंधी कई नियमों का प्रतिपादन किया। इनमें से कुछ मुख्य नियमों की चर्चा नीचे की जा रही है-

  1. तत्परता का नियम (The law of readiness)- इस नियम को प्रस्तुत करते हुए थोनेडाइक (Thorndike) ने लिखा है, “जब कोई संवहन के लिए तैयार हो तो उसे संवहन में सन्तोष मिलता है। परन्तु जब कोई संवहन इकाई संवहन के लिए तैयार न हो तब उसके लिए संवहन कष्टप्रद होता है। जब कोई संवहन इकाई संवहन के लिए तैयार हो तो उसे ऐसा न करने देना भी कष्टप्रद होता है।“

यह नियम सीखने की प्रक्रिया में भाग ले रहे व्यक्ति की मनोरिथति को प्रकाश में लाता है। जिस काम को सीखा जा रहा है उसे सीखने के लिए अगर मन में उत्कृष्ट अभिलाषा हो तो उसे सीखने में बहुत आसानी होती है। अगर जिसे हम सीखना न चाहें उसे बलपूर्वक सिखाने का प्रयत्न किया जाए तो उसे सीखना कष्टप्रद होता है। अतः सीखने वाले की मनोस्थिति का सीखने की प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव पड़ता है। तत्परता का यह नियम हमें यह चेतावनी देता है कि जब तब बच्चे में किसी कार्य को करने या सीखने की पर्याप्त रुचि या इच्छा दिखाई न दे तब तक उसे करने या सीखने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। दूरारी ओर यह भी संकेत देता है कि अगर बच्चा किसी कार्य विशेष को किसी समय या अवस्था में सीखना या करना चाहता है तो उस कार्य विशेष को करने या सिखाने का बहुमूल्य अवसर कभी भी व्यर्थ नही खोया जाना चाहिए। इस तरह तत्परता का यह नियम अधिगम की प्रक्रिया में बच्चे की रुचि, अभिरुचि तथा अभिप्रेरणा के महत्त्व को स्थापित करने का प्रयास करता है।

  1. प्रभाव का नियम (The law of effect)- थोर्नडाइक (Thorndike) ने इसे निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया है –

“जब एक परिस्थिति और अनुक्रिया के बीच एक संशोधनशील संयोग बनता है और उसके साथ ही या परिणामस्वरूप संतोषजनक अवस्था उत्पन्न होती है तो उस संयोग की शक्ति बढ़ जाती है। जब इस संयोग के साथ या इसके बाद दुःखदायी स्थिति पैदा होती है तो इसकी शक्ति घट जाती है।”

सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सीखने के परिणामस्वरूप बच्चे को जब संतोष मिलता है अथवा आनन्द की अनुभूति होती है तो उस समय सीखने की क्रिया भली-भाँति सम्पन्न हो सकती है। इसके विपरीत जब सीखने के फलस्वरूप कोई सन्तोष नहीं मिलता बल्कि पीड़ा या दुःख की अनुभूति होती है तब सीखने की क्रिया में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। मानव स्वभाव ऐसा है कि हम अपने सुखद अनुभव और सफलताओं को सदैव याद रखने का प्रयत्न करते हैं जबकि कटु अनुभव, पीड़ा और असफलताओं को भूल जाना चाहते है। इसलिए सीखने के परिणामस्वरूप जो संतुष्टि-असंतुष्टि, प्रसन्नता-अप्रसन्नता अथवा सुख-दुःख की अनुभूति होती है, उसके ऊपर सीखने की प्रक्रिया की सफलता अथवा असफलता निर्भर करती है।

दूसरे शब्दों में थोर्नडाइक का यह नियम सीखने की प्रक्रिया में पुरस्कार और दंड के महत्त्व को प्रकाश में लाता है। बच्चे के सीखने पर यदि कोई पुरस्कार दिया जाए अथवा उसकी प्रशंसा की जाए तो उसे आगे और अधिक सीखने को प्रोत्साहन तथा अभिप्रेरणा मिलती है जबकि किसी भी तरह का दण्ड और भय उसे आगे सीखने के लिए न केवल निरुत्साहित करता है बल्कि उस कार्य को सीखने के प्रति उसमें एक विशेष प्रकार की अरुचि और प्रतिकूल भाव उत्पन्न कर देता है।

  1. अभ्यास का नियम (The law of exercise)- इस नियम के अन्तर्गत दो उपनियम हैं, जिन्हें क्रमशः उपयोग का नियम (Law of Use) तथा अनुपयोग का नियम (Law of Disuse) के नाम रो जाना जाता है। इन उपनियमों की भाषा इस प्रकार है।
  2. उपयोग का नियम (Law of Use) – “जब एक संशोधनशील संयोग एक परिस्थिति और अनुक्रिया के बीच बनता है तो अन्य बातें समान होने पर उस संयोग की शक्ति बढ़ जाती है।”
  3. अनुपयोग का नियम (Law of Disuse)- “जब कुछ समय एक परिरिथिति और अनुक्रिया के बीच एक संशोधनशील संयोग नहीं बनता तो उस संयोग की शक्ति घट जाती है।”

सरल शब्दों में उपयोग का नियम यह बताता है कि यदि सीखने की किसी क्रिया को बार-बार दोहराया जाए तो वह अधिक प्रभावपूर्ण और स्थाई बन जाती है। लेकिन अगर सीखने वाली क्रिया को दोहराने के अवसर न मिलें तो इस प्रकार का सीखना विस्मृति के गर्भ में चला जाता है। इस प्रकार से उपयोगिता का नियम, सीखने की प्रक्रिया में अभ्यास और पुनरावृत्ति के महत्त्व को प्रकाश में लाता है।

प्रभाव और अभ्यास के नियमों का परिवर्तित रूप (Changed form of the 2nd and 3rd Law)

अपने कार्यकाल के अन्तिम वर्षों में थोनडाइक ने प्रभाव और अभ्यास के नियमों में आवश्यक परिवर्तन किए।

उसने एक मुनष्य की आंखों पर पट्टी बाध कर उससे 3 इच लम्बी सीधी रेखा खींचने को कहा। इस कार्य की बार-बार आवृत्ति कराई गई। परन्तु यह देखा गया कि केवल दोहराने मात्र से कार्य करने के तरीके में कोई सुधार नहीं आता। इस आधार पर थोर्नडाइक इस निर्णय पर पहुंचा कि सीखने की क्रिया में बिना उचित प्रशंसा, प्रोत्साहन या पुरस्कार की सहायता लिए हुए केवल मात्र दोहराने या अभ्यास से काम नहीं चलता। पुरस्कार मिलने पर अधिगम (Learning) साधारण दोहराने या अभ्यास से कई गुणा अधिक सशक्त होता है। अतः सीखने की क्रिया में अभ्यास के साथ-साथ परिणाम के संतोषजनक होने अथव उसे पुरस्कृत किए जाने के ऊपर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। प्रभाव के नियम के विषय में थोर्नडाइक सोचने लगे कि सीखने की प्रक्रिया में पुरस्कार और दण्ड का प्रभाव एक सा नहीं होता और न परस्पर विरोधी होता है। प्रशसा या पुरस्कार का परिणाम ताड़ना या दण्ड से अधिक प्रभावशाली होता है। प्रसन्नता तथा संतोष मिलने से संयोग जितना दृढ़ होता है, असन्तोष या अप्रसन्नता में वह उतना निर्वल नहीं होता। अतः सीखने की प्रक्रिया में निन्दा, ताड़ना या दण्ड के स्थान पर प्रशसा, शाबाशी और पुरस्कार के प्रयोग से आशातीत सफलता होती है।

थोर्नडाइक के उपरोक्त तीनों नियमों-तत्परता, प्रभाव तथा अभ्यास के नियम-का अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। कुछ जानी-मानी सूक्तियों और कहावते इन्हीं नियमों की सत्यता को प्रकट करती हैं-

  1. एक घोड़े को पानी के पास ले जाया जा सकता है परन्तु पीने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
  2. सफलता से बढ़कर कोई पुरस्कार नहीं।
  3. करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

थार्नडाइक द्वारा सुझाए गए कुछ और नियम (Some other laws of learning given by Thorndike)

  1. बहुरूपी अनुक्रिया या विविध प्रतिक्रियाओं का नियम (Law of multiple response or varied reactions) – यह नियम बताता है कि जब सीखने वाले के सामने कोई नवीन समस्या उत्पन्न होती है तो उस समस्या को सुलझाने के लिए उसके मस्तिष्क में कई विचार उठते हैं तथा वह कई प्रकार से उसे हल करने के बारे में सोचता है। इस तरह उसके व्यवहार में बहुरूपी अनुक्रियाएं तथा विविध प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती है। वह एक के बाद दूसरा उपाय या तरीका प्रस्तुत समस्या को हल करने के लिए तब तक प्रयोग में लाता रहता है जब तक कि किसी उपाय से उसे पूरी सफलता न मिल जाए।
  2. तत्परता और अभिवृत्ति का नियम (Law of set and attitude)- इस नियम के अनुसार सीखने की प्रक्रिया प्राणी की सम्पूर्ण मनोवृत्ति अथवा तत्परता पर आधारित होती है। सीखने वाला एक कार्य को उस समय तक ठीक तरह से नहीं सीख पाता जब तक कि उसका इस कार्य के बारे में एक स्वस्थ दृष्टिकोण अथवा अभिवृत्ति विकसित नहीं हुई हो।
  3. समानता का नियम (Law of analogy)- इस नियम के अनुसार एक व्यक्ति किसी नवीन परिस्थिति में अपनी अनुक्रिया (Response) व्यक्त करने के लिए पूर्व अनुभवों की सहायता लेता है। तुलना करके यह देखता है कि नवीन परिस्थितियों में अथवा किन्हीं पूर्व परिस्थितियों में कितनी समानता है। इस समानता के आधार पर वह नवीन परिस्थितियों में ऐसी अनुक्रियाओं को दोहराता है जो समान परिस्थितियों में पहले सफल हो चुकी हों।
  4. सहचारी स्थान परिवर्तन का नियम (Law of associative shifting)- यह नियम सीखने वाले की अनुक्रिया के स्थान परिवर्तन से संबंधित है इस नियम के अन्तर्गत थोर्नडाइक ने यह घोषणा की कि कोई भी संभव अनुक्रिया (Response) किसी भी उद्दीपन (Stimulus) से प्रतिबद्ध या अनुबन्धित की जा सकती है। अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए थोर्नडाइक ने एक प्रयोग प्रस्तुत किया। इस प्रयोग में एक भूखी बिल्ली को खाना देने के साथ “खड़े हो जाओ” (Stand up) का आदेश देकर खड़ा होने को कहा गया। यह क्रिया कई बार दोहराई गई। बाद में केवल खड़े हो जाओ (Stand up) कहा गया और खाना नहीं दिया गया यह देखा गया कि खाने के अभाव में भी केवल “‘खड़े हो जाओ” कहने से ही बिल्ली खड़ी हो जाती है। इस तरह जो अनुक्रिया प्रारम्भ में खाने और आदेश दोनों के लिए थी वह केवल आदेश के प्रति होने लगी। थोर्नडाइक के सहचारी स्थान परिवर्तन के इस नियम ने ही आगे जा कर अनुबन्धन सिद्धान्त (Theory of Conditioning) को जन्म दिया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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