वैष्णव धर्म के सिद्धान्त | विष्णु के अवतारों की विवेचना | वैष्णव धर्म के सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए विष्णु के अवतारों की विवेचना

वैष्णव धर्म के सिद्धान्त | विष्णु के अवतारों की विवेचना | वैष्णव धर्म के सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए विष्णु के अवतारों की विवेचना

वैष्णव धर्म के सिद्धान्त-

वैष्णव धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन श्रीमत् भगवत गीता में हुआ है। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुये अनेक तथ्य प्रस्तुत करते हैं। गीता के अनुसार आत्मा अचल, अमर, अजर, सत्य, अचिंत्य, नित्य और अव्यक्त तथा व्यापक है। शरीर का नाश होता है परन्तु आत्मा नहीं मरती। उसी प्रकार जैसे कि मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है। जीव आत्मा भी उसी प्रकार एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर को धारण कर लेती है। इसलिये ज्ञानी मनुष्य को मृत्यु का कभी भी भय नहीं करना चाहिये। साथ ही मनुष्य को अपने कर्म में लगे रहना चाहिए। इस प्रकार का कर्म करना चाहिये जिससे वह बन्धन में न बँध सके क्योंकि मनुष्य का कर्त्तव्य है सुख दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय के विचार से मुक्त होकर जीवन संघर्ष में लगे रहना । मोक्ष प्राप्त करना भी मनुष्य के जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। वैष्णव धर्म में मोक्ष प्राप्त करने हेतु तीन मार्ग बतलाए गए हैं। प्रथम ज्ञान मार्ग, द्वितीय भक्ति मार्ग और तृतीय कर्म मार्ग। गीता में इन तीनों ही मार्गों का समन्वय दिखलाई पड़ता है।

गीता में ऐसे सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है जिनके द्वारा मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है। भावनामयी आसक्ति का नाम भक्ति है और भगवान की प्राप्ति भक्ति के माध्यम से ही हो सकती है। भक्ति का मार्ग अत्यन्त सुगम और सरल है जिसे सभी वर्गों के लोग अपना सकते हैं। भक्त का समस्त भार भगवान अपने ऊपर ले लेते हैं। इसलिये भक्त को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि ‘से दूर रह कर उपासना में लगे रहना चाहिये और मन, वचन एवं कर्म से अपने को भगवान के प्रति समर्पित कर देना चाहिए। इस प्रकार जब भक्त अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो भक्त एवं परमात्मा से एकीकृत भाव हो जाता है और भक्त परमानन्द की प्राप्ति करता है।

गीता में इस सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया गया है कि कर्म के द्वारा ही ब्रा सत्व की प्राप्ति सम्भव है। लेकिन कर्म मार्ग पर चलने के लिये गीता में सदाचार को महत्व दिया गया है। इसलिए मनुष्य को निष्कामभाव से कर्म करना चाहिये और फल की चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकि फल की आसक्ति के वशीभूत होकर किया गया कर्म मनुष्य को सासारिक बन्धन में बाँध देता है किन्तु फल के प्रति अनासक्ति मोक्ष का साधन प्रदान करता है। अतः किसी फल की आशा किये हुये जो कर्म किया जाता है वही सच्चा-त्याग हैं। इसलिए जब तक कर्मयोगी को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक उसे कर्म करते रहना चाहिये।

गीता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने वर्णानुसार कर्म करना चाहिए। आश्रम-व्यवस्था में सन्यास को अधिक महत्व दिया गया है। सांसारिक वस्तुओं के प्रति मोह तथा कामनाओं का त्याग करना ही वास्तविक सन्यास है जो गृहस्थ आश्रम में रहते हुये प्राप्त किया जा सकता है।

गीता में याज्ञिक कर्मों का विरोध किया गया है। उसमें कहा गया है कि ज्ञान योग, स्वाध्याय योग तथा तपोयोग ही वास्तविक योग है जिनका अनुष्ठान स्वाध्याय, आत्म संयम एवं चरित्र द्वारा किया जा सकता है।

वैष्णव धर्म के सिद्धान्तों में चतुर्दूह के सिद्धान्तों का भी महत्व है। आरम्भ में भागवत सम्प्रदाय के अन्तर्गत वसुदेव कृष्ण की पूजा के साथ ही चार व्यक्तियों की पूजा का प्रचलन था। जिनका नाम संकर्षण, प्रदन, साम्ब, अनिरुद्ध था। इनमें से प्रथम कृष्ण के सौतेले भाई और अन्य दो पुत्र तथा अन्तिम उनके पौत्र थे। इन सब की सम्मिलित पूजा को ही चतुयूँह पूजा संज्ञा दी गई। यह पूजा पांच रूपों में की जाती थी। लेकिन गीता में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। कालान्तर में वैष्णव सम्प्रदाय या भागवत के अनुयायियों ने वासदेव अथवा कृष्ण को सर्वोच्च माना और अन्य देवों को उन्होंने उन्हीं से प्रादुर्भूत माना जिनकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि वैष्णव धर्म का किस प्रकार विकास हुआ और धीरे-धीरे उसने समाज में अपना प्रभत्व स्थापित किया।

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