इतिहास / History

बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त | बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्तों की समीक्षा | महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्म के सिद्धान्त | बौद्ध धर्म का उद्भव एवं प्रारम्भिक इतिहास

बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त | बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्तों की समीक्षा | महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्म के सिद्धान्त | बौद्ध धर्म का उद्भव एवं प्रारम्भिक इतिहास

महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को प्रमुखतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1) बौद्ध धर्म के दार्शनिक, तथा (2) बौद्ध धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्त। इन सिद्धान्तों का वर्णन निम्नलिखित है-

बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त

बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्णन करने से पूर्व यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि महात्मा बुद्ध ने अपने धार्मिक सिद्धान्तों में किसी भी दार्शनिक तत्व का विवेचन या प्रतिपादन नहीं किया है। तथागत का विश्वास था कि सृष्टि के निर्माण तथा आत्मा एवं परमात्मा आदि से मानवोत्कर्ष का कोई सम्बन्ध नहीं है। महात्मा बुद्ध ने कभी भी यह दावा नहीं किया कि वे किसी धर्म दर्शन का प्रतिपादन कर रहे हैं। उनका कहना था कि “मैं पुरातनकाल से चले आ रहे धर्म की स्थापना मात्र कर रहा हूँ।” यह सब कुछ होते हुए भी बौद्ध धर्म के आधार स्वरूप जिन तत्वों का प्रतिपादन किया गया उनमें निहित विचारों द्वारा हमें अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों का परिचय मिलता है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी विचार अथवा मत का कोई दार्शनिक आधार अवश्य ही होता है। नैतिकता, कर्मप्रधान तथा निर्वाण के तत्वों से परिपूर्ण महात्मा बुद्ध के उपदेशों में जिन दार्शनिक सिद्धान्तों की प्राप्ति होती है, उनका वर्णन निम्नलिखित है-

(1)कर्मवाद- तथागत के अनुसार मनुष्य को उसके कर्मानुसार फल की प्राप्ति होती है। निर्वाण की प्राप्ति सम्यक कर्म द्वारा ही हो सकती है। मनुष्य अपने ही कर्म का उत्तराधिकारी होता है तथा कर्मानुसार ही जन्म, मृत्यु तथा निर्वाण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार कर्म ही सब कुछ है। महात्मा बुद्ध  के कर्मवाद में समाज के नैतिक आदर्शों के प्रति घोर आस्था व्यक्त की गई है। इस प्रकार बौद्ध धर्म का प्रथम दार्शनिक आधार कर्मवाद है।

(2) कारणवाद तथा प्रतीत्य समुत्पाद- महात्मा बुद्ध की मान्यता थी कि जिस प्रकार रोग के कारण को समझे बिना रोग का निदान नहीं हो सकता उसी प्रकार दुख का कारण समझे बिना वास्तविक धर्म की स्थापना नहीं हो सकती। इस प्रकार धर्म की स्थापना के लिए कारण का अंत होना आवश्यक है। जब कारण का अन्त हो जायेगा तो दुख भी समाप्त हो जायेगा। धर्म की उत्पत्ति कारण द्वारा ही हुई है तथा धर्मानुचरण द्वारा निर्वाण की प्राप्ति होने पर कारण का अन्त हो जाता है। बौद्ध धर्म के आदि, मध्य तथा अन्त में कारण को प्रमुखता दिये जाने के कारण इस धर्म का द्वितीय दार्शनिक आधार कारणवाद है। कारणवाद के माध्यम से ही, महात्मा बुद्ध ने, प्रतीत्य समुत्पाद का प्रतिपादन किया है।

(3) प्रयोजनवाद- बौद्ध धर्म की वैचारिक प्रणाली में प्रयोजनवाद है। महात्मा बुद्ध ने व्यर्थ की प्रणालियां यज्ञ-हवनादि की उपेक्षा की तथा उन्हीं विषयों की चर्चा की जो कि निर्वाण प्राप्ति के लिये आवश्यक थे। उनका विचार था कि निष्प्रयोजन बातों पर मौन धारण करना ही उचित है।

(4) अनीश्वरवाद- महात्मा बुद्ध का विचार था कि निर्वाण का ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं है। वे किसी भी कारण में ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं करते तथा उन्होंने अपने किसी भी उपदेश में ईश्वर का नाम नहीं लिया।

(5) अनात्मवाद- महात्मा बुद्ध से जब यह पूछा गया कि मृत्यु के बाद क्या होता है, तो उन्होंने उत्तर स्वरूप मौन धारण कर लिया। उनका विचार था कि शरीर अनेक तत्वों से बना है तथा मृत्यु होने पर प्रत्येक तत्व अपने मूल स्रोत में विलीन हो जाता है। मैक्समुलर महोदय ने महात्मा बुद्ध के अनात्मवाद का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “संसार के लिये कल्याणकारी मार्ग का निर्धारण करते हुए, महात्मा बुद्ध ने आत्मा के विषय में कुछ भी नहीं कहा है।”

(6) क्षणवाद- बौद्ध धर्म का विचारणीय एवं अनोखा विचार जगत को प्रतिक्षण परिवर्तनशील मानते हुए क्षण भंगुरता का प्रतिपादन किया जाना है।

(7) निर्वाण- महात्मा बुद्ध के अनुसार निर्वाण, उस जीवित अवस्था का नाम है जिसमें ज्ञान की ज्योति द्वारा अज्ञान रूपी अन्धकार की समाप्ति हो जाती है। जहाँ से निर्वाण प्रारम्भ होता है वहीं पर शोक, संताप, तृष्णा, पाप आदि.का नाश हो जाता है। श्री बर्नोफ महोदय ने बौद्ध धर्म के इस दार्शनिक सिद्धान्त की चर्चा करते हुए लिखा है-

“Nirvana is nothing but the self-lessness in the metaphysical sense of the word relapse, into that being which is nothing in itself.”

बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्तों की समीक्षा

यद्यपि महात्मा बुद्ध ने अपने किसी भी उपदेश में दार्शनिक तत्वों की विवेचना अथवा प्रतिष्ठापना नहीं की, तथापि उनके धार्मिक सिद्धान्तों में परोक्ष रूप से जिन उपरोक्त दार्शनिक सिद्धान्तों की प्राप्ति होती है, वे निश्चय ही अति व्यावहारिक एवं विचारणीय हैं। तथागत ने जो कुछ भी कहा उसका आधार निश्चय ही एक दार्शनिक प्रणाली थी तथा उनके विचारों में हमें अनेकानेक दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रति आस्था के प्रमाण मिलते हैं।

बौद्ध धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्त

बौद्ध धर्म जीवित जीवन में विश्वास रखता है अतः अपने प्रत्येक अर्थ में इसका दृष्टिकोण पूर्णतया व्यावहारिक है। महात्मा बुद्ध की मान्यता थी कि “धर्म जीवन का विषय है, मृत्यु का नहीं।’ फलतः उन्होंने जिस धर्म का प्रचार किया उसमें व्यावहारिकता पर विशेष बल दिया गया। बौद्ध धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

चार आर्य सत्य

महात्मा बुद्ध ने अपने सर्वप्रथम सारनाथ उपदेश में ‘महाधर्म चक्रप्रवर्तन’ में चार आर्य सत्यों यथा ‘चत्वारि आर्य सत्यानि’ का प्रतिपादन किया। ये चार आर्य सत्य इस प्रकार हैं-

(i)सर्व दुःख दुःखम- इस सत्य के अनुसार सर्वत्र दुख हा दुख व्याप्त है। प्रताड़ना, रोग,निर्बलता, वृद्धावस्था तथा मृत्यु आदि इस दुख के ही विभिन्न रूप हैं। जन्म, जीवन तथा अन्त में दुख है। इस प्रकार जीवन का प्रत्येक भाग तथा अंग दुखमय है।

(ii) दुःख का आधार- तृष्णा दुख का कारण है। सतृष्ण मनुष्य कभी भी दुख से मुक्त नहीं हो सकता। जब मनुष्य जन्म लेकर शब्द, गन्ध, रूप, रस, स्पर्श आदि मानसिक विकारों तथा विचारों का अनुभव करता है तब इच्छा उत्पन्न होती है-इससे तृष्णा की उत्पत्ति होती है तथा तृष्णा की पूर्ति के लिये जब मनुष्य विभिन्न उपाय करता है तो दुख उत्पन्न होता है। इस प्रकार तृष्णा द्वारा दुख उत्पन् । होता है।

(iii) दुःख निरोध- दुख से कैसे छुटकारा मिले? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महात्मा बुद्ध दुख निरोध का मार्ग बताया। उनका उपदेश था कि “संसार में जो कुछ भी प्रिय लगता है, जिसमें भी रस मिलता है, उसे जो दुख रूप समझेंगे, रोग रूप समझेंगे, डरेगें, वे ही तृष्णा को छोड़ सकेंगे। इस प्रकार तृतीय आर्य सत्य द्वारा, महात्मा बुद्ध ने तृष्णा के मूलोच्छेदन द्वारा दुख निरोध का प्रतिपादन किया।

(iv) दुख निवारण मार्ग- तृष्णा से विरक्त होने के लिये दुख निवारण मार्ग पर चलने का आदेश देते हुए, तथागत ने कहा, “जिस प्रकार भिक्षुओ ! गंगा, यमुना, सरस्वती, सरयू और महानदियाँ पूर्व की ओर बहने वाले सागर की ओर जाती हैं, उसी प्रकार भिक्षुओ ! अभ्यास करने से आष्टांगिक मार्ग निर्वाण की ओर ले जाने वाला होता है।’

आर्य आष्टांगिक मार्ग

दुख को हरने वाले तथा तृष्णा का नाश करने वाले आर्य आष्टांगिक मार्ग के आठ अंग हैं, इन्हें ‘मज्झिमा परिपदा’ अर्थात् ‘मध्यम मार्ग’ भी कहते हैं। आष्टांगिक मार्ग के तीन प्रमुख भाग हैं-(1) प्रज्ञा ज्ञान, (2) शील, तथा (3) समाधि। इन तीन प्रमुख मार्गों के अन्तर्गत जिन आठ उपायों की प्रस्तावना की गई है, उनका विवरण निम्नलिखित है-

(1) सम्यक् दृष्टि- यह दृष्टि आवरण भेदी है। इसके द्वारा सत्य-असत्य; पाप-पुण्य; सदाचार तथा तृष्णा-अतृष्णा के बीच के भेद को समझा जा सकता है। चार आर्य सत्यों को पहचानने के लिये सम्यक् दृष्टि का होना अति आवश्यक है।

(2) सम्यक् संकल्प- सम्यक् संकल्प का अर्थ सभी प्रकार के भौतिक सुखों के प्रति आकर्षण का त्याग करके अपने आपको संकल्पबद्ध करना है। इसके अन्तर्गत सांसारिक वस्तुओं का परित्याग, सगे-सम्बन्धियों से विमुखता तथा हिंसा का परित्याग करना आदि संकल्प हैं।

(3) सम्यक् वचन अथवा सम्यक् वाणी- अपनी समस्त मानसिक एवं आत्मिक शक्ति द्वारा असत्य का बहिष्कार, सदैव सत्य बोलना, निन्दा तथा कठोर वचनों के प्रयोग से दूर रहना तथा किसी भी परिस्थिति में अपशब्द का प्रयोग न करना-सम्यक् वाणी है। सम्यक वाणी के अन्तर्गत सत्य वचन, विनम्रता एवं मृदुता आदि गुण हैं।

(4) सम्यक् कर्म- इस मार्ग का अभिप्राय सत्कर्मों में लगे रहना है। दान, दया, सेवा, सत्य, अहिंसा, सदाचार आदि का पालन तथा आत्मनिष्ठ शारीरिक विषय वासनाओं के प्रति उदासीनता सम्यक् कर्म हैं। तथागत का उपदेश है कि सम्यक्कमे द्वारा मनष्य सदाचारी बन जाता है तथा तब  वह अहिंसाप्रिय एवं जितेन्द्रिय कहलाता है।

(5) सम्यक् आजीव- इस मार्ग का सम्बन्ध जीवनयापन की प्रणाली से है। जीविकोपार्जन में ईमानदारी का व्यवहार करना, शोषण द्वारा प्राप्त धन संग्रह से बचना, कसाई, विष विक्रय, दासों का क्रय-विक्रय आदि निषिद्ध जीविकोपार्जन के साधनों का परित्याग आदि द्वारा सम्यक् आजीव का पालन होता है।

(6) सम्यक् प्रयत्न- इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखना, बुरी भावनाओं का परित्याग करना तथा इसके साथ-साथ अच्छे प्रयलों का करना सम्यक् प्रयल है।

(7) सम्यक् स्मृति- बौद्ध व्यवस्था में सम्यक् स्मृति के चार रूप बताये गये हैं-(1) कार्य में स्मृति, (2) वेदना में स्मृति, (3) चित्त की स्मृति, तथा (4) धर्म में स्मृति । सम्यक् स्मृति के अन्तर्गत अपने मन, कर्म, वचन, काया, चित्त तथा धर्म में सत्कर्मों को स्मरण रखना चाहिये।

(8) सम्यक् समाधि- सम्यक् समाधि का अर्थ है-चित्त की एकाग्रता तथा ध्यानावस्थित अवस्था । सम्यक् समाधि में लीन होने से आध्यात्मिक प्रगति होती है, धार्मिक ज्ञान का विकास होता है तथा निर्वाण की प्राप्ति होती है।

दस आचरण

आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने से मनुष्य अपने जीवन को आदर्श एवं सफल बना सकता निर्वाण तथा जीवन की पूर्णता की प्राप्ति के लिये दस आचरणों आवश्यक है। दस आचरण निम्नलिखित है:-

(1) सत्य बोलना,

(2) अहिंसा का पालन करना,

(3) ब्रह्मचर्यानुसार जीवन व्यतीत करना,

(4) चोरी न करना,

(5) धन संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग करना,

(6) सुगन्धित पदार्थों का त्याग करना,

(7) कोमल शैय्या का त्याग करना,

(8) नृत्य, गायन, मादक एवं कामोत्तेजक वस्तुओं का त्याग करना,

(9) असमय भोजन का त्याग करना, तथा

(10) कुविचारों का त्याग करना।

महात्मा बुद्ध के अनुसार सद्गृहस्थों के लिये केवल प्रथम पाँच तथा भिक्षुओं के लिये सम्पूर्ण दस आचरणों का पालन अनिवार्य है। इनका पालन करने पर ही भिक्षुगण आर्य-आष्टांगिक मार्गी हो सकते हैं।

चार सम्यक् प्रधान

बौद्ध धर्म के कर्मवादी होने के कारण इसके व्यावहारिक सिद्धान्तों में चार सम्यक् प्रधानों को विशेष महत्व दिया गया है। ये सम्यक् प्रधान निम्नलिखित हैं:-

(1) प्रथम सम्यक् प्रधान- इस प्रधान के अनुसार यदि दोष उत्पन्न नहीं होंगे तो धर्म ज्ञान सरलता से प्राप्त हो जायेगा।

(2) द्वितीय सम्यक् प्रधान-यदि दोषपूर्ण संस्कार उत्पन्न हो गये हैं तो उनका निराकरण करना चाहिये।

(3) तृतीय सम्यक् प्रधान-इस प्रधान के अनुसार दोषपूर्ण संस्कारों का मूलोच्छेदन करके, उचित संस्कारों को उत्पन्न करना आवश्यक है।

(4) चतुर्थ सम्यक् प्रधान-उथित संस्कारों को उत्पन्न करके उनकी रक्षा करनी चाहिए तथा उचित संस्कारों की वृद्धि करनी चाहिए।

चार ऋद्धिपाद

बौद्ध धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्तों के अन्तर्गत आत्मोत्कर्ष के लिये चार ऋद्धिपाद आवश्यक हैं। ये इस प्रकार हैं- (1) छन्द (2) वीर्य (3) वित्त (4) चित्त तथा (5) विमर्श।

पाँच इन्द्रियाँ

इन्द्रि’ का अर्थ है शक्ति पाँचों इन्द्रियों अथवा शक्ति का विकास आवश्यक है। बौद्ध साहित्य में वर्णित पाँच इन्द्रियाँ निम्नलिखित हैं:-

(1) श्रद्धा- इसके द्वारा चित्त में वह अनुभूति उत्पन्न होती है जिसके द्वारा सम्पूर्ण जगत प्रेममय प्रतीत होता है।

(2) वीर्य- पुरुषार्थ तथा प्रयास द्वारा वीर्येन्द्रि को शक्ति प्राप्त होती है।

(3) स्मृति- इसका अर्थ सजगता है। चेष्टा, प्रयास एवं पुरुषार्थ के प्रति सजग एवं जागरूक रहना चाहिये।

(4) समाधि- दत्तचित्त, एकाग्र एवं स्थिर होकर चिन्तन प्रणाली से समाधिस्थ होना चाहिये।

(5) प्रज्ञा- यह ज्ञान प्राप्ति की अवस्था है।

उपरोक्त पाँच इन्द्रियों के व्यायाम द्वारा मानव का आध्यात्मिक विकास होता है तथा फलस्वरूप निर्वाण की प्राप्ति होती है।

पाँच बल

प्रत्येक इन्द्रिय के व्यायाम या विकास द्वारा उस इन्द्रिय के विशिष्ट क्षेत्र में जिन पाँच बलों की प्राप्ति होती है, वे निन्मलिखित हैं-

(1) श्रद्धा बल, (2) वीर्य बल, (3) स्मृति बल, (4) समाधि बल, तथा (5) प्रज्ञा बल।

सात बोध्यंग

‘बोध’ का अर्थ ज्ञान है, यथा बोध्यंग का अर्थ हुआ ज्ञान प्राप्त करने के अंग। बौद्ध मतानुसार निम्नलिखित अंगों द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है-(1) स्मृति, (2) धर्म विजय, (3) वीर्य, (4) प्रीति, (5) प्रश्रब्धि, (6) समाधि, (7) उपेक्षा।

निष्कर्ष

महापरिनिब्बानसुत्त के उल्लेखानुसार महात्मा बुद्ध ने अपने निर्वाण के समय भिक्षु समुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा था-“भिक्षुओ। वे कौन से धर्म हैं जिन्हें स्वयं जान कर, स्वयं अनुभव कर, मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, जिन्हें तुम्हें बढ़ कर सीखना है ? वे हैं-चार स्मृति प्रधान, चार सम्यक् प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच बल, सात बोध्यंग तथा आर्य अष्टांगिक मार्ग।” इस प्रकार बौद्ध धर्म में उपरोक्त वर्णित कुल सैतीस सिद्धान्त हैं।

व्यावहारिक सिद्धान्तों की समीक्षा

बौद्ध धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्तों से परिचय पाकर हमें इस तथ्य की प्राप्ति होती है कि बौद्ध धर्म को केवल धर्म ही नहीं, वरन धर्म से भी कहीं अधिक, जीवन के श्रेष्ठतम व्यावहारिक नियमों का प्रतिष्ठाता मानना अधिक युक्तिसंगत होगा। महात्मा बुद्ध ने धर्म के उस पदार्थ रूप को प्रस्तुत किया जिसमें परम्परागत पंडिताऊपन तथा रूढ़िवादिता के स्थान पर पवित्र आवरण, सद्व्यवहार, अनुशासन, आदर, प्रेम, सत्य, अहिंसा तथा कर्म के प्रति लगन को निर्वाण प्राप्ति का माध्यम बताया गया। श्री मैक्समुलर महोदय ने तथागत के धर्म की बायहारिकता के विषय में उचित ही लिखा है-

“Among all the religions, Buddhism, almost alone has been praised by all and everybody, for its elevated, pure and humanitarian character.”

बौद्ध धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्तों के प्रचार तथा बौद्ध धर्म के अतिशय प्रसार से यह सिद्ध होता है कि इसकी सफलता के कारण स्वयं इस धर्म के सरल, सुगम जन भाषा युक्त, बोधगम्य तथा स्पष्ट नियम थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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