इतिहास / History

प्राचीन भारत में वैष्णव धर्म का विकास | वैदिक काल से गुप्त काल तक वैष्णव धर्म का विकास | प्राचीन भारत में वैष्णव धर्म की उत्पत्ति एवं विकास | भागवत धर्म

प्राचीन भारत में वैष्णव धर्म का विकास | वैदिक काल से गुप्त काल तक वैष्णव धर्म का विकास | प्राचीन भारत में वैष्णव धर्म की उत्पत्ति एवं विकास | भागवत धर्म

वैष्णव धर्म या भागवत धर्म (प्राचीन भारत में वैष्णव धर्म का विकास)

भारत आदि काल से ही धर्म प्रधान देश रहा है। यहाँ धर्म को सर्वप्रमुख स्थान दिया गया है। धार्मिक आस्था ही मानव जीवन की सार्थकता का परिचायक रही है। यही कारण है कि इस देश में वैष्णव धर्म, शैव धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म आदि धर्मों ने प्राचीन काल से ही अपने अस्तित्व को बनाये रखने का प्रयास किया। वैसे तो भारत में सभी धर्मों को मान्यता प्राप्त होती रही किन्तु उन विभिन्न धर्मों में वैष्णव धर्म का ही विशेष महत्व रहा है। वैष्णव शब्द विष्णु से संरचित है। विष्णु की उपासना करने वाले अनुयायियों को ही वैष्णव की संज्ञा प्रदान की गई है। यद्यपि विष्णु की उपासना भारत में काफी प्राचीन समय से होती आई है, परन्तु उन्हें विशेष महत्व बाद में ही प्राप्त हुआ।

विष्णु के उपासना सम्बन्धी सूत्र वैदिक काल में कम प्राप्त होते हैं, किन्तु उनकी महत्ता हमें बराबर दिखलाई देती है क्योंकि भारतीय इतिहास में वैदिक काल से गुप्त युग तक वैष्णव धर्म का विकास निरन्तर होता रहा है। वैष्णव धर्म के उद्भव एवं विकास का ज्ञान हमें वैदिक विष्णु उपनिषदों एवं ब्राह्मणों के नारायण, सात्वतों के वासुदेव तथा गोपाल कृष्ण से होता है। वैदिक विष्णु का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में उपलब्ध होता है। ऋग्वेद में ही यह वर्णित है कि विष्णु ने पृथ्वी से सम्बन्धित स्थानों को विशेष रूप से निर्मित किया। उनकी स्तुति महान व्यक्तियों द्वारा की जाती है  क्योकि उसने ही तीनों लोकों को नापते हुये सत्यलोक की स्थापना की। विष्णु की उपासना वीर कर्मी के कारण की जाती रही है। महाभारत का नारायणी पर्व वैष्णव धर्म के उत्थान के इसी आरम्भिक युग से सम्बन्धित रहता है।

उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में भी विष्णु का सम्बन्ध यज्ञ से स्थापित किया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु को परम देव की संज्ञा प्रदान की गई है। शतपथ में भी उन्हें सर्वोच्च देवता स्वीकार किया। इस प्रकार विष्णु आरम्भिक वैदिक साहित्य में शक्तिशाली, पराक्रमी, सर्वव्यापी, पर्वतवासी और पार्थिव स्थानों को निर्मित करने के रूप में पूज्य रहे हैं। उत्तर वैदिक काल में विष्णु से रक्षा करने की कामना का विधान प्रचलित रहा है, बाद में इन्हीं का रूप नारायण एवं वासुदेव के रूप में प्रख्यात हुआ। इस प्रकार के विवेचन से यह पूर्णतया स्पष्ट है कि वैदिक विष्णु ही नारायण के रूप है और इन्हीं का विकास अनुत्तरकालीन ग्रंथों में वासुदेव और कृष्ण के रूप में हुआ। वैष्णव धर्म के विकास श्रृंखला में कृष्ण का विशेष महत्व है। प्रारम्भ में इनकी उपासना देव रूप में नहीं प्रचलित रही किन्तु बाद में इनकी प्रख्याति हुई।

इसी प्रकार महाभारत के नारायणी पर्व में कृष्ण के दशावतार की चर्चा है जिनमें उनका एक प्रमुख स्थान है। उपनिषद् कालीन छांदोग्य में कृष्ण को देवकी-पुत्र बताया गया है।

वैष्णव सम्प्रदाय-

वैष्णव धर्म के अन्तर्गत विष्णु, नारायण, वासुदेव एवं श्री कृष्ण के नाम पर पर्वतीय काल में चार सम्प्रदायों का विकास हुआ। ये चार विशिष्ट सम्प्रदाय वैष्णव सम्प्रदाय के नाम से जाने जाते हैं। इनमें प्रथम श्रोत परम्परा, द्वितीय स्मार्त परम्परा, तृतीय पाञ्चरात्र परम्परा और चतुर्थ सात्वत आगम।

श्रुति परम्परा को बैखानस परम्परा के नाम से भी जाना गया है। इसके अन्तर्गत यज्ञमूलक वैष्णव धर्म की उपासना प्रचलित थी। जिसके अन्दर पाँच देवों की कल्पना है। स्मार्त परम्परा में अवतारवाद का महात्म्य है। महाभारत के नारायणी पर्व में इसका प्राचीनतम् उल्लेख प्राप्त होता है। पाञ्चरात्र सम्प्रदाय को आगम सम्प्रदाय नाम से भी जाना जाता है। इसका सम्बन्ध नारायण से है। सात्वत आगम को चतुर्वृह सम्प्रदाय नाम भी दिया गया है, इसके अन्तर्गत कृष्ण-बलराम प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध का नाम आता है।

अवतारवाद-

हिन्दू धर्म के मूल से ही अवतारवाद की कल्पना दिखलाई पड़ती है। भगवत् गीता के अनुसार जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब ही भगवान अपने रूप को धर्म की स्थापना के लिये तथा साधुजनों का उद्धार करने हेतु प्रकट करते हैं। हिन्दू धर्म में भगवान के असंख्य अवतारों की कल्पना करने पर भी मुख्यतया 108 अवतारों को मान्यता प्रदान की गई है। इसमें अधिक महत्व 24 अवतारों का है। उसमें भी सर्वाधिक प्रतिष्ठित इस समय दशावतार माने जाते हैं जिनमें मत्स्य, कूर्म, बाराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, कृष्ण, बुद्ध एवं महावीर नाम प्रमुख हैं।

वैष्णव धर्म का प्रथम उत्थान-

इस मत का प्रथम उत्थान 1500 ई० पू० से लेकर 500 ई० तक ठहरता है। यह युग सन्तों के उदय से लेकर गुप्त नरेशों के अभ्युदय तक आता है। सर्वप्रथम इसका उदय उत्तर भारत में हुआ, फिर उत्तर भारत से दक्षिण भारत में पहुँचा। इसने उत्तर भारत और दक्षिण भारत को एक श्रृंखला में बाँध दिया। महाभारत का नारायणी पर्व इसी उत्थान के आरम्भिक युग से सम्बन्ध रखता है। इस काल में वैष्णव मत से सम्बद्ध संहिताओं की रचना हुई। सारांश यह है कि यही समय वैष्णव युग कहलाया, जो ई० सन् का चतुर्थ और पंचम शतक वैष्णव धर्म का स्वर्णकाल था।

वैष्णव धर्म का द्वितीय उत्थान-

सन् 500 ई० से लेकर सन् 1400 ई० तक वैष्णव धर्म का द्वितीय उत्थान हमें दक्षिण भारत के तमिलनाडु में उपलब्ध होता है। इस युग में चार वैष्णव सम्प्रदायों का उदय हुआ जिनमें निम्बार्क सम्प्रदाय, श्री सम्प्रदाय माध्व सम्प्रदाय तथा रुद्र सम्प्रदाय आते हैं। विक्रम की 12वीं शताब्दी में दक्षिण में श्री रामानुजाचाय का प्रादुभाव हुआ। उन्होंने श्रीमन्नारायण की सगुण उपासना का प्रचार किया। बंगाल का गौणीय सम्प्रदाय या चैतन्य मत माध्व मत की एक विशिष्ट शाखा के रूप में पनपा।

वैष्णव मत का तृतीय उत्थान-

वैष्णव मत का तृतीय उत्थान भक्ति आन्दोलन के रूप में ईसा की 15वीं शती में प्रारम्भ होता है। यह आन्दोलन केवल चिन्तकों और विद्वानों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि इसने जनता को भी प्रभावित किया। इस युग के भक्ति आन्दोलन की दो शाखायें प्रमुख है-राम भक्ति शाखा और कृष्ण भक्ति शाखा ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि वैष्णव धर्म का विकास चार श्रेणियों में हुआ। यह पहले उत्तरी भारत से प्रारम्भ हुआ और फिर दक्षिण भारत, बंगाल, महाराष्ट्र और गुजरात आदि स्थानों में विकसित होता रहा। इसके अन्तर्गत विष्णु के दो प्रमुख अवतार राम और कृष्ण की अनेक रूप में उपासना प्रचलित हुई। धीरे-धीरे वे कई उपशाखाओं और रूपों में परिवर्तित होती गई। आज वैष्णव धर्म का विकास और क्षेत्र कितना विशाल है यह कहा नहीं जा सकता।

इस प्रकार वैष्णव धर्म का सर्वेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में वैष्णव धर्म एकांतिक धर्म के नाम से जाना जाता था, जिसका मूल श्रीमद् भगवत् गीता में है। बाद में वैष्णव धर्म का साम्प्रदायिक रूप विकसित हुआ जो पाञ्चरात्र या भागवत् नाम से जाना गया। वैष्णव धर्म का प्रचार एवं प्रसार क्षत्रिय जाति के सात्वत नामक व्यक्ति ने किया धीरे-धीरे यह नारायण एवं विष्णु की उपासना में घुल मिल गया। ई० शती के प्रारम्भिक चरण में भागवत धर्म को बालकृष्ण से सम्बन्धित किया गया, जिसमें आभीर जाति का प्रत्यक्ष योगदान रहा। इसका विकास 8वीं शताब्दी ई० के आस-पास नक होता रहा। उसी समय शंकराचार्य का अद्वैतवाद सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ। 11वीं शती ई० में रामानुजाचार्य ने अद्वैतवाद का विरोध किया। निम्बार्काचार्य के समय में इसमें गोपियों को प्रधानता दी गई जिससे राधा की उपासना हुई। 13वीं शती ई० में आनन्द तीर्थ ने द्वैतवाद की स्थापना की और परमेश्वर रूप में विष्णु की उपासना प्रचलित किया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि यदि उत्तरी भारत में वैष्णव का विकास रामानन्द ने राम नाम को लेकर किया तो दूसरी ओर रामानन्द ने नारायण रूप विष्णु की उपासना का भी प्रसार किया। सन्त कबीर ने मूर्ति-पूजा की निन्दा की और उन्होंने राम को अपना उपास्य माना। बल्लभाचार्य ने भी बालकृष्ण की उपासना प्रचलित की। इसी प्रकार 14वीं शती ई० में नामदेव एवं तुकाराम ने भक्ति की गम्भीर धारा को प्रवाहित किया। इन सबसे यह स्पष्ट होता है कि विष्णु को मूल में रखकर ही अन्य सम्प्रदायों का समय-समय पर आविर्भाव होता रहा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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