कार्ल रिटर – आधुनिक भूगोल का संस्थापक (Carl Ritter Founder of modern geography)
कार्ल रिटर – आधुनिक भूगोल का संस्थापक (Carl Ritter)
कार्ल रिटर (1779-1859) जर्मनी के महान भूगोलवेत्ता और हम्बोल्ट के समकालीन थे। हम्बोल्ट के साथ कार्ल रिटर को भी आधुनिक भूगोल का संस्थापक माना जाता है। रिटर बर्लिन विश्वविद्यालय में भूगोल के प्रोफेसर थे और ‘अर्डकुण्डे’ (Erdkunde) नामक प्रतिष्ठित ग्रंथमाला प्रकाशित किया था जिसने भौगोलिक अध्ययन को अत्यंत उच्च स्तर पर पहुँचा दिया था। उन्होंने भूगोल के विकास में चिरस्मरणीय और अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया और भौगोलिक अध्ययन को एक नयी दिशा प्रदान की। हम्बोल्ट और रिटर दोनों एक-दूसरे की रचनाओं के प्रशंसक और मित्र थे। भौगोलिक चिंतन के इतिहासकार हम्बोल्ट और रिटर दोनों विद्वानों के भौगोलिक दृष्टिकोण और अध्ययन विधियों को एक दूसरे का पूरक मानते हुए उन्हें आधुनिक भूगोल का युगल संस्थापक मानते हैं।
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जीवन परिचय
कार्ल रिटर का जन्म 1779 में एक साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता पेशे से चिकित्सक थे जिनकी मृत्यु के समय रिटर की आयु मात्र 5 वर्ष थी। उनकी माता के लिए अर्थाभाव के कारण चार बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा की व्यवस्था करना कठिन था। सौभाग्य से तत्कालीन प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री क्रिश्चियन साल्जमैन (C. SalzamannSalzamann) ने बालक रिटर से प्रभावित होकर उसे अपना शिष्य बना लिया और अपने निजी प्रयोगात्मक शिक्षण संस्थान में उसके शिक्षा की व्यवस्था कर दी। साल्ज मैन ने अपने विद्यालय में बच्चों को प्रयोगों और प्रत्यक्ष दर्शन के माध्यम से अपने अनुभव द्वारा ज्ञान अर्जित कराने के उद्देश्य से प्रयोगात्मक शिक्षा का आरंभ किया था। वहाँ गट्स मूथस (Guts Muths) नामक शिक्षक के संरक्षण में रिटर को रखा गया था जो प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर भूगोल की शिक्षा देने में अभिरुचि रखते थे। विद्यालय के शिक्षक बच्चों को स्वयं अपने अनुभव के आधार पर मनुष्य और प्रकृति के पारस्परिक सम्बंधों को समझने के लिए प्रेरित करते थे। इस प्रकार बचपन में ही रिटर में प्राकृतिक पर्यावरण में उपस्थित विविधता में एकता और उसकी मौलिक समरसता के प्रति उत्सुकता उत्पन्न हो गयी थी जो आगे चलकर उनके भौगोलिक चिन्तन का आधार बन गयी। हार्टशोर्न (1939) ने सही ही लिखा था कि ‘रिटर के समय और उनके पश्चात् शायद ही किसी विद्यार्थी को इतने व्यवस्थित ढंग से तैयार किया गया हो जितना कि रिटर।
विद्यालयी शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् रिटर को एक धनी परिवार में निजी शिक्षक के रूप में काम मिल गया। इसके साथ ही रिटर ने फ्रैंकफर्ट विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और वहाँ इतिहास तथा भूगोल का अध्ययन आरंभ किया। 1807 में रिटर की प्रथम भेंट हम्बोल्ट से हुई और वे हम्बोल्ट के दृष्टिकोण तथा तथ्यों के पर्यवेक्षण से बहुत प्रभावित हुए और भौगोलिक अध्ययन के प्रति उनमें विशेष रुचि जागृत हो गयी। उन्होंने यूरोप के प्रादेशिक भूगोल का सविस्तार अध्ययन किया और 1812 में यूरोप के प्रादेशिक भूगोल पर दो खण्डों में पुस्तक प्रकाशित किया। इसके पश्चात् उन्होंने दो वर्ष (1814-16) के लिए गारटिंगन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा इतिहास और भूगोल के साथ ही भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र और खनिज विज्ञान की भी शिक्षा प्राप्त की विश्वविद्यालय स्तर पर रिटर ने यूनानी और लैटिन भाषाओं का चयन किया और इतिहास तथा भूगोल का गहराई से अध्ययन किया।
गाटिंगन विश्वविद्यालय छोड़ने के पश्चात् रिटर की अमरकृति ‘अर्डकुण्डे’ (Erdkunde) के प्रथम दो खण्ड 1917-18 में प्रकाशित हुए। जर्मनी में इस ग्रंथ का बड़ा स्वागत हुआ और इसी के आधार पर उन्हें फ्रैंकफ्ट विश्वविद्यालय, बर्लिन में 1820 में नवसृजित भूगोल के प्रोफेसर पद पर नियुक्ति मिल गयी। इसके दो वर्ष पहले (1818) से वे इसी विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर पद पर कार्य कर रहे थे। रिटर ने 1820 में बर्लिन भौगोलिक संस्था (Berlin Geographical Society) की स्थापना किया था। 1959 में 80 वर्ष की आयु में रिटर की मृत्यु हो गयी। यह संयोग ही था कि इसी वर्ष हम्बोल्ट का भी देहावसान हुआ था। आधुनिक भूगोल के दोनों संस्थापकों की मृत्यु के पश्चात् भौगोलिक चिन्तन के इतिहास में एक युग (शास्त्रीय युग) का अंत हो गया।
रिटर के ग्रंथ (Books of Ritter)
उन्नीसवीं शताब्दी के महान भूगोलवेत्ता काल्ल रिटर ने अपने जीवन में अनेक शोध पत्र, पुस्तकें और मानचित्र प्रकाशित किये थे। उनकी प्रमुख रचनाएं निम्नांकित हैं-
(1) यूरोप : भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा सांख्यिकीय चित्रण (Europe : A Geographical, Historical and Statistical Painting)- इसका प्रथम प्रकाशन 1804 में हुआ था। इसके द्वितीय खण्डका प्रकाशन 1807 में हुआ।
(2) यूरोप के 6 मानचित्र- रिटर ने 1806 में यूरोप के 6 मानचित्रों को प्रकाशित किया था।
(3) शोध पत्र (Research Articles)- 1811 तक रिटर के अनेक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके थे जो मुख्यतः विधितंत्र (Melhodology) से सम्बंधित थे।
(4) अर्डकुण्डे (Erdkunde)- यह रिटर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित ग्रंथमाला है जिसका प्रकाशन 1817 से लेकर 1859 तक कुल उन्नीस खण्डों में हुआ था। यह एक भौगोलिक ग्रंथमाला है। रिटर ने ‘भूगोल’ (Geography) के लिए जरमन में ‘अईकुण्डे’ शब्द का प्रयोग किया था अर्डकुण्डे एक व्यापक जर्मन शब्द है जो प्रकृति और इतिहास के संदर्भ में पृथ्वी के विज्ञान (भूगोल) के लिए प्रयुक्त होता है। रिटर के अनुसार भूगोल और इतिहास एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं। उनके अनुसार भूमि अपनेनिवासियों को प्रभावित करती है और उसी प्रकार निवासी भी भूदुश्य को परिवर्तित करते हैं।
अर्डकूण्डे के प्रथम दो खण्ड क्रमशः |8|7 और 818 में प्रकाशित हुए थे। प्रथम खण्ड में अफ्रीका महाद्वीप का और द्वितीय खण्ड में एशिया महाद्वीप का भौगोलिक वर्णन किया गया था अर्डकुण्डे के प्रकाशन से रिटर को बड़ी ख्याति मिली और फरेकप्ट विश्वविद्यालय में भूगोल के प्रोफेसर का पद सृजन करके उस पद पर रिटर को नियुक्त कर लिया गया । डिकिन्सन (R. B. Dickinson,I969) के अनुसार “रिटर ने भूगोल को ‘अर्डकुण्डे’ या भूविज्ञान घोषित किया था जिसमें स्थानीय दशाओं, सामयिक एवं औपचारिक तथा भौतिक विषमताओं के संदर्भ में स्थानों की विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है।” 1817 से 1859 तक अर्डकुण्डे के 19 खण्ड प्रकाशित हुए किन्तु उन सभी खण्डों में अफ्रीका और एशिया के भूगोल का ही वर्णन किया गया था अर्डकुण्डे के किसी भी अंक में यूरोप का भूगोल सम्मिलित नहीं है।
रिटर का विधितंत्र (Methodology of Ritter)
कार्ल रिटर ने अपने अध्ययन और वर्णन में जिन विधियों को अपनाया था वे निम्नांकित हैं-
(1) आनुभविक विधि (Empirical method)-रिटर भूगोल को एक आनुभविक विज्ञान । (empirical science) मानते थे और उन्होंने अपने भौगोलिक अध्ययनों के लिए इसी विधि का चयन किया। कार्ल रिटर विभिन्न भौगोलिक तथ्यों का सावधानीपूर्वक प्रेक्षण और निरीक्षण करते थे, प्रेक्षित तथ्यों तथा सूचनाओं को एकत्रित करते थे और उनके आधार पर सत्य तथा सामान्यीकरण का निर्धारण करते थे।
(2) तुलनात्मक विधि (Comparative method)- कार्य कारण सम्बंधों को समझाने के लिए रिटर ने तुलनात्मक विधि को उपयोगी मानते हुए अर्डकुण्डे में भौगोलिक तथ्यों का विवेचन इसी विधि से किया है। इसीलिए कार्ल रिटर ‘अर्डकुण्डे’ का दूसरा नाम ‘सामान्य तुलनात्मक भूगोल’ रखा था।
(3) विश्लेपण और संश्लेषण विधि (Analysis and Systhesis method)- कार्ल रिटर पहले प्रेक्षित तथ्यों या एकत्रित सूचनाओं का विश्लेषण करते थे और उनकी तुलना करते थे। इसके पश्चात् उनका संश्लेषण करते हुए क्षेत्र के सभी तथ्यों को समेकित करके सामान्यीकरण करते थे। रिटर की यह अध्ययन पद्धति भूगोल को एक वैज्ञानिक स्वरूप प्राप्त करने में बड़ी सहायक सिद्ध हुई।
(4) मानचित्रण विधि (Cartographic method)- कार्ल रिटर ने भौगोलिक तथ्यों की स्थिति को प्रदर्शित करने के लिए मानचित्रण विधि को उपयोगी माना था। इसीलिए उन्होंने यूरोप के 6 भौतिक मानचित्र भी बनाये थे उन्होंने अर्डकुण्डे के विभिन्न खण्डों में भी प्रादेशिक मानचित्र दर्शाये हैं।
रिटर की विचारधारा (Ritter’s Thought)
कार्ल रिटर अपने समकालीन महान भूगोलवेत्ता हम्बोल्ट से आयु में I0 वर्ष छोटे थे बर्लिन में रहते हुए दोनों विद्वान एक-दूसरे के कार्यों से परिचित थे। रिटर के विधितंत्र और कार्यों तथा विचारधारा पर हम्बोल्ट का प्रभाव परिलक्षित होता है यद्यपि कुछ विषयों में रिटर की विचारधारा स्वतंत्र और भिन्नहै। रिटर की विचारधारा के प्रमुख तथ्य निम्नांकित हैं-
(i) पार्थिव एकता (Terrestrial Unity)- कार्ल रिटर पार्थिव या प्राकृतिक एकता के पक्षघर थे। वे प्राकृतिक एकता में जैविक और अजैविक, मानवीय और गैरमानवीय, सार और असार को सम्मिलित करते थे। उनके विचार से किसी अंश को अलग करने से सम्पूर्ण की संगति तथा एकता नष्ट हो जायेगी। रिटर ने अपने प्रथम प्रकाशन (I804) में शुद्ध भूगोल (Reine geography) का विरोध किया था क्योंकि उसमें प्राकृतिक भूदृश्य पर अत्यधिक बल दिया जाता था उन्होंने लिखा था कि भुगोल में किसी क्षेत्र की समस्त वर्तमान परिस्थितियों का वर्णन तथा व्याख्या होनी चाहिए।
(ii) नियतिवाद (Determinism) – कार्ल रिटर नियतिवाद या पर्यावरण नियतिवाद (Environmental deteminism) के समर्थक थे। उनका मानना था कि भौगोलिक विविधता से ऐतिहासिक विविधता उत्पन्न होती है। किसी प्रदेश के मानव जीवन, ऐतिहासिक घटनाओं, राजनीति आदि पर वहाँ के पर्यावरण का प्रभाव अवश्य पाया जाता है।
(iii) प्रगतिशील विचार (Progressive Iden) –रिटर की विचारधारा प्रगतिशील थी जो निरन्तर विकसित हो रही थी प्रारंभ में वे शुद्ध भूगोल के आलोचक थे किन्तु बाद में उन्होंने अर्डकुण्डे में प्राकृतिक प्रदेशों के अनुसार ही भौगोलिक वर्णन किया। इसी प्रकार उनके विचार में क्रमशः संशोधन और परिपक्वता के लक्षण मिलते हैं। अतः रिटर के विचार के विषय में उनके किसी एक लेख या पुस्तक के आधार पर नहीं जाना जा सकता। उनके विचारों के बारे में हम उनके समस्त लेखों और पुस्तकों को पढ़ने के पश्चात् ही जान सकते हैं।
(iv) मानव-केन्द्रित भूगोल (Man-centred Geography)- रिटर के मतानुसार भूगोल का उद्देश्य मानव-केन्द्रित दृष्टिकोण से भूतल का अध्ययन करना और उसमें मानव और प्रकृति को सम्बंधित करना है। वे अपने अध्ययनों में मानव-केन्द्रित भूगोल पर बल देते थे। उनके अनुसार भूगोल में पृथ्वी तल (eanth’s surface) का अध्ययन मानव गृह (home of man) के रूप में किया जाता है। उनके लिए मानव विहीन पृथ्वी या उसके किसी भाग का कोई महत्व नहीं था। रिटर के शब्दों में ‘ज़िस प्रकार शरीर की रचना आत्मा के लिए हुई है उसी प्रकार पृथ्वी का निर्माण मानव जाति के उपयोग के लिए हुआ है।’ हेटनर के मतानुसार, रिटर ने मनुष्य पर इतना ध्यान केन्द्रित किया कि वह प्रकृति और मनुष्य के पूर्ण सम्बंधों को निर्धारित करने के उद्देश्य को ही भूल गये।
(v) ईश्वरपरक दृष्टिकोण (Theological. Views ) – रिटर का दृष्टिकोण धार्मिक विश्वास से प्रेरित था। रिटर का विश्वास था कि ईश्वर ने पृथ्वी की रचना सोद्देश्य की थी। उनका मानना था कि विभिन्न महाद्वीपों की संरचना, उच्चावच और धरातल का निर्माण अपने आप नहीं हो गया है बल्कि वे कुछ ईश्वरीय नियमों द्वारा उत्पन्न हुए हैं। ईश्वर ने प्रत्येक क्षेत्र को वह स्वरूप और स्थिति प्रदान की है जो उसके ऊपर रहने वाले मानव के विकास में निश्चित योगदान दे सके।
हार्टशोर्न के अनुसार, रिटर के भूगोल में धर्मशास्त्र उन तथ्यों की व्याख्या की कुंजी थी जिनकी व्याख्या विज्ञान द्वारा नहीं हो सकती थी। रिंटर ने अनुभव किया कि भूगोल के तीन मौलिक तथ्यों का विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं है-(1) ब्रह्मांड में पृथ्वी की अद्वितीयता, (2) पृथ्वी के अद्वितीय प्राणी, और (3) मानव गृह के रूप में विश्व की प्रमुख भू-इकाइयों में विभेदीकरण। रिटर ने ईश्वरीय विश्व योजना को समझने के लिए पृथ्वी सम्बंधी ज्ञानार्जन का प्रयास किया जिस प्रकार विकासवाद की व्याख्या प्राकृतिक वैज्ञानिक करते हैं।
(vi) प्राकृतिक प्रादेशिक उपागम (Physio-regional Approach)- रिटर ने भौगोलिक अध्ययन में प्रादेशिक विधि को अपनाया था उन्होंने भूतल को प्राकृतिक प्रदेशों में विभक्त करके उनका भौगोलिक वर्णन किया। उन्होंने प्रदेशों के सीमांकन के लिए प्राकृतिक तथ्यों (पर्वत, नदी, घाटी आदि) को आधार बनाया न कि राजनीतिक सीमाओं को। उन्होंने प्राकृतिक प्रदेश के लिए जर्मन भाषा के ‘लाण्डेकुण्डे’ (Landerkunde) शब्दावली का प्रयोग किया था।
(vii) सम्पूर्ण की संकल्पना (Concept of Whole) – भौगोलिक अध्ययनों में रिटर का उद्देश्य सदैव एकाकी तथ्यों से समस्त घटनाओं की समष्टि की व्याख्या करना होता था। उनका मानना था कि केवल प्राकृतिक तथ्य अथवा केवल मानवीय तथ्य ‘भूगोल की रचना नहीं कर सकते। अतः पूर्णता के लिए सभी शक्तियों एवं कारकों का संयोजन आवश्यक है। उन्होंने ‘अर्डकुण्डे’ के प्रथम खण्ड में अफ्रीका महाद्वीप के भौगोलिक वर्णन में इसी संकल्पना को आधार बनाया है। उन्होंने आफ्रीका को चार प्रदेशों में विभाजित किया तथा पुनः उनके भी उप प्रदेश निर्धारित किये और प्रत्येक का क्रमबद्ध रीति से पूर्ण वर्णन किया। अंत में उन्होंने सभी प्रदेशों और डप-प्रदेशों को समेकित करते हुए एकपूर्ण इकाई के रूप में अफ्रीका का भौगोलिक विवेचन प्रस्तुत किया। इस प्रकार रिटर ने व्यक्तिगत भीगोलिक इकाइयों क्रे पारस्परिक सम्बंधों को स्पष्ट करते हुए अंततः पार्थिव एकता को स्पष्ट करना भूगोल का उद्देश्य बताया था।
(vii) प्रादेशिक भूगोल और क्रमबद्ध भूगोल (Regional Geography and Systematic Geography)- रिटर ने भौगोलिक अध्ययन हेतु प्रादेशिक विधि को अपनाया था । उन्होंने भूतल को प्राकृतिक प्रदेशों में विभक्त करके उनका पृथक्-पृथक् वर्णन किया था । प्रकृति में विद्यमान विविधता में एकता रिटर के प्रादेशिक भूगोल का मूलमंत्र था । रिटर के अनुसार प्रादेशिक और क्रमबद्ध भूगोल एक ही सिरे के दो पहलू हैं। क्रमवद्ध भृगोल पृथ्वी की सम्पूर्ण सतह का विस्तारपरक अध्ययन है जबकि प्रादेशिक भूगोल पृथ्वी की छोटी-छोटी समायोजित क्षेत्रीय इकाइयों का गहन और सर्वांगीण अध्ययन है। इस प्रकार क्रमवद्ध भूगोल का दृष्टिकोण सामान्य है और प्रादेशिक भूगोल का विशिष्ट।
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