हरित क्रान्ति की उपलब्धियां | हरित क्रान्ति की विशेषताएं
हरित क्रान्ति की उपलब्धियां | हरित क्रान्ति की विशेषताएं
हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश के कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। कृषि आगतों में हुए गुणात्मक सुधार के फलस्वरूप देश में कृषि उत्पादन बढ़ा है। खाद्यान्नों में आत्म निर्भरता आई है। व्यावसायिक कृषि को बढ़ावा मिला है। कृषकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है। कृषि आधिक्य में वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति की उपलब्धियों एवं प्रगति को कृषि में तकनीकी एवं संस्थागत परिवर्तन एवं उत्पादन में हुए सुधार के रूप में निम्नवत् देखा जा सकता है :
(अ) कृषि में तकनीकी एवं संस्थागत सुधार
(1) रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग- नवीन कृषि नीति के परिणामस्वरूप रासायनिक उर्वरकों के उपभोग की मात्रा में तेजी से वृद्धि हुई है। 1960-61 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग प्रति हेक्टेअर 2 किग्रा होता था जो 2011-12 में बढ़कर 144.3 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया है। इसी प्रकार, 1960-61 में देश में रासायनिक खादों की कुल खपत 2.92 लाख टन थी जो बढ़कर 2012-13 में 255.36 लाख टन हो गई।
कृषि क्षेत्र की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए हमें रासायनिक खादों का आयात भी करना पड़ता है। सन् 1960-61 में 4.2 लाख टन उर्वरकों को आयात किया गया था, जो बढ़कर 1980-81 में 27.6 लाख टन तथा 2008-09 में 101.5 लाख टन हो गया।
हमारे देश में गोबर को खाद के रूप में प्रयोग करने की परम्परा रही है। भारत में लगभग 100 करोड़ टन गोबर प्रतिवर्ष प्राप्त होता है। परन्तु इसका 40 प्रतिशत भाग ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। अत: हमारी मिट्टी को पर्याप्त मात्रा में उचित खाद नहीं मिलती, जिससे कृषि उत्पादन में कमी रहती है। नई कृषि नीति के अन्तर्गत रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को प्रोत्साहन दिया गया, जिससे कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। सन् 1967-68 में 11 लाख टन उर्वरकों का प्रयोग किया गया, जो बढ़कर 1986-87 में 91 लाख टन 1990-91 में 145 लाख टन तथा सन् 2008-09 में 249.1 लाख टन हो गया। भारत में उर्वरकों के उत्पादन में भी बड़ी तीव्र गति से वृद्धि हुई। सन् 1960-61 में केवल 1.5 लाख टन ही उर्वरक पैदा किए गए थे, जो बढ़कर 1970-71 में लगभग 10.6 लाख टन तथा 2008-09 में 143.3 लाख टन हो गए।
(2) उन्नतिशील बीजों के प्रयोग में वृद्धि- देश में अधिक उपज देने वाले उन्नतिशील बीजों का प्रयोग बढ़ा है तथा बीजों की नई-नई किस्मों की खोज की गई है। अभी तक अधिक उपज देने वाला कार्यक्रम गेहूं, धान, बाजरा, मक्का व ज्वार जैसी फसलों पर लागू किया गया है, परन्तु गेहूं में सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई है।
सन् 1966 से कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए अधिक उपज देने वाले उन्नत बीजों का प्रयोग शुरू किया गया। उन्नत बीजों के प्रयोग का यह कार्यक्रम विशेषत: पांच फसलों (गेहूं, चावल, बाजरा , मक्का और ज्वार) के लिए अपनाया गया। इन बीजों के लिए गेहूं की कल्याण व सोना, बाजरे की H.V.-1, मक्का की गंगा-101, ज्वार की CSH-2 तथा चावल की विजय, रत्ना व पद्मा आदि प्रमुख किस्में हैं। इन बीजों के आविष्कार तथा विकास में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research) तथा कृषि विश्वविद्यालयों ने बहुत योगदान दिया है। इन बीजों की पूर्ति राष्ट्रीय बीज निगम तथा तराई बीज विकास निगम (Tarai Seed Development Corporation) कर रहे हैं।
(3) सिंचाई सुविधाओं का विकास- नई विकास-विधि के अन्तर्गत देश में सिंचाई सुविधाओं का तेजी के साथ विस्तार किया गया है। 1951 में देश में कुल सिंचाई क्षमता 223 लाख हेक्टेअर थी जो बढ़कर 1082 लाख हेक्टेअर हो गई।
सिंचाई के विस्तार से हरित क्रान्ति को सफलता मिली है। भारत जैसे मानसून प्रदेश में सिंचाई का बड़ा महत्व है। भारत में नहरें, कुएं, नलकूप तथा तालाब। सिंचाई के महत्वपूर्ण साधन हैं। सन् 1965-66 में 320 लाख हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की सुविधा थी जो बढ़कर 1986-87 में 541 लाख हेक्टेयर तथा 2005-06 में 602 लाख हेक्टेयर हो गई। तालिका 3.22 में सिंचाई की सृजित क्षमता तथा उपयोग में लाई गई क्षमता का योजनावार विवरण दिया गया है।
(4) पौध संरक्षण- नवीन कृषि विकास-विधि के अन्तर्गत पौध संरक्षण पर भी ध्यान दिया जा रहा है। इसके अन्तर्गत खरपतवार एवं कीटों को नाश करने के लिए दवा छिड़कने का कार्य किया जाता है तथा टिड्डी दल पर नियन्त्रण करने का प्रयास किया जाता है। वर्तमान में समेकित कृषि प्रबन्ध के अन्तर्गत पारिस्थितिकी अनुकूल कृमि नियन्त्रण कार्यक्रम लागू किया गया है। हरित क्रान्ति के अधीन इन औषधियों के प्रयोग को बढ़ाया गया है। भारत सरकार ने इसके लिए पौध संरक्षण निदेशालय (Directorate of Plant Protection) की स्थापना की है।
(5) बहुफसली कार्यक्रम- बहुफसली कार्यक्रम का उद्देश्य एक ही भूमि पर वर्ष में एक से अधिक फसल उगाकर उत्पादन को बढ़ाना है। अन्य शब्दों में, भूमि की उर्वरता-शक्ति को नष्ट किए बिना, भूमि के एक इकाई क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना ही बहु फसली कार्यक्रम कहलाता है। 1966-67 में 36 लाख हेक्टेअर भूमि में बहुफसली कार्यक्रम लागू किया गया। वर्तमान समय में भारत की कुल सिचित भूमि के 56% भाग पर यह कार्यक्रम लागू है।
उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक, सिंचाई, कृषि मशीनरी आदि के प्रयोग से फसलें कम समय में तैयार होने लगीं, जिससे एक खेत में एक वर्ष में एक से अधिक फसलें उगाना सम्भव हो गया। उदाहरणत: यदि किसी खेत में अप्रैल के महीने में गेहूं की फसल काट ली जाए तो उसके पश्चात् उस खेत में मूंग आदि की फसल बो दी जाती है जो लगभग दो माह में तैयार हो जाती है। इसके पश्चात् उसी खेत में चावल आदि बोया जा सकता है। एक खेत में वर्ष में कई फसलें पैदा होने से कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि होती है। भारत के कई इलाकों में बहु फसली योजना 1967-68 में शुरू की गई और 1990-91 में 3.60 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर बहु-फसली कृषि की गई। 2005-06 में बहु-फसलीय क्षेत्र बढ़कर 5.09 करोड़ हेक्टेयर हो गया।
(6) आधुनिक कृषि यन्त्रों का प्रयोग- नई कृषि विकास विधि एवं हरित क्रान्ति में आधुनिक कृषि उपकरणों जैसे- ट्रैक्टर, थ्रेसर, हार्वेस्टर, बुलडोजर तथा डीजल एवं बिजली के पम्पसेटों आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस प्रकार कृषि में पशुओं अथवा मानव शक्ति का प्रतिस्थापन संचालन शक्ति (power) द्वारा किया गया है जिससे कृषि क्षेत्र के उपयोग एवं उत्पादकता में वृद्धि हुई है। किसानों को सस्ती तथा अच्छी मशीनरी दिलाने के लिए विभिन्न राज्यों में कृषि उद्योग निगम (Agro Industries Corporation) स्थापित किए गए हैं। कई राज्यों में ट्रैक्टर तथा अन्य कीमती उपकरण किराए पर दिलाने के लिए कृषि-सेवा केन्द्र (Agro-Service Centres) खोले गए हैं।
(7) कृषि सेवा केन्द्रों की स्थापना– कृषकों में व्यावसायिक साहस की क्षमता को विकसित करने के उद्देश्य से देश में कृषि सेवा केन्द्र स्थापित करने की योजना लाग की गई है। इस योजना में पहले व्यक्तियों को तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाता है फिर इनसे सेवा केन्द्र स्थापित करने को कहा जाता है। इसके लिए उन्हें राष्ट्रीयकृत बैंकों से सहायता दिलाई जाती है। अब तक देश में कुल 1,324 कृषि सेवा केन्द्र स्थापित किए जा चुके हैं।
(8) कृषि उद्योग निगम- सरकारी नीति के अन्तर्गत 21 राज्यों में कृषि उद्योग निगमों की स्थापना की गई है। इन नियमों का कार्य कृषि उपकरण व मशीनरी की पूर्ति तथा उपज के प्रसंस्करण एवं भण्डारण को प्रोत्साहन देना है। इसके लिए यह निगम किराया क्रय पद्धति के आधार पर ट्रैक्टर, पम्पसेट एवं अन्य मशीनरी को वितरित करता है।
(9) कृषि विकास के लिए विभिन्न निगमों की स्थापना- हरित क्रान्ति की प्रगति मुख्यतया अधिक उपज देने वाली किस्मों एवं उत्तम सुधरे हुए बीजों पर निर्भर करती है। इसके लिए देश में 400 कृषि फार्म स्थापित किए गए है। 1963 में राष्ट्रीय बीज निगम की स्थापना की गई है। 1963 में ही राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम की स्थापना की गयी जिसका मुख्य उद्देश्य कृषि उपज का विपणन, प्रसंस्करण एवं भण्डारण करना है। विश्व बैंक की सहायता से राष्ट्रीय बीज परियोजना भी प्रारम्भ की गई जिसके अन्तर्गत कई बीज निगम बनाए गए हैं। भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारिता विपणन संघ (नेफेड) एक शीर्ष विपणन संगठन है जो प्रबन्धन, वितरण एवं कृषि से सम्बन्धित चुनिन्दा वस्तुओं के आयात-निर्यात का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना कृषि वित्त के कार्य हेतु की गई है। कृषि के लिए ही खाद्य निगम, उर्वरक साख गारण्टी निगम, ग्रामीण विद्युतीकरण निगम आदि भी स्थापित किए गए हैं।
(10) मृदा परीक्षण- मृदा परीक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों की मिट्टी का परीक्षण सरकारी प्रयोगशालाओं में किया जाता है। इसका उद्देश्य भूमि की उर्वराशक्ति का पता लगाकर कृषकों को तदनुरूप रासायनिक खादो व उत्तम बीजों के प्रयोग की सलाह देना है। वर्तमान समय में इन सरकारी प्रयोगशालाओं मे प्रतिवर्ष लगभग 8.3 लाख नमूनों का परिक्षण किया जाता है। कुछ चलती-फिरती प्रयोगशालाएं भी स्थापित की गई हैं जो गांव-गांव जाकर मौके पर मिट्टी का परीक्षण कर किसानों को सलाह देती हैं। इन परीक्षणों से यह पता लगाया जाता है कि विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में किन तत्वों की कमी है और उसे किन उर्वरकों के प्रयोग से दर किया जा सकता है। इसके साथ ही यह भी जाना जाता है कि कौन-सी मिट्टी में कौन-सी फसल अधिक होगी, और उसमें किस प्रकार के बीज बोए जाएं।
(11) भूमि संरक्षण- भूमि संरक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत कृषि योग्य भूमि को क्षरण से रोकने तथा ऊबड़-खाबड़ भूमि को समतल बनाकर कृषि योग्य बनाया जाता है। यह कार्यक्रम उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा मध्य प्रदेश में तेजी से लागू है। हरित क्रांति को सफल बनाने के लिए भू-संरक्षण का कार्यक्रम भी लागू किया गया है। भूमि कटाव को रोकने तथा भूमि की उर्वरता को बनाए रखने के लिए विभिन्न उपाय किए गए हैं। मरुस्थलों के विस्तार को रोकने तथा शुष्क कृषि प्रणाली के विस्तार के लिए भी कई योजनाएं बनाई गई हैं। देश में लगभग पांच करोड़ एकड़ बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए प्रयत्न किए जा रहे हैं फसलों के हेर-फेर (Crop Rotation) को भी प्रोत्साहन मिल रहा है।
(12) ग्रामीण विद्युतीकरण (Rural Electrification )- कृषि उपकरणों को चलाने के लिए विद्युत सबसे सस्ता एवं सुगम शक्ति साधन है। अत: कृषि के विकास के लिए ग्रामीण विद्युतीकरण अति आवश्यक है। इसके लिए ग्रामीण विद्युतीकरण निगम (Rural Electrification Corporation) की स्थापना की गई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारे देश के केवल 0.5 प्रतिशत गांवों को ही बिजली उपलब्ध थी। सन् 1965-66 में लगभग 8 प्रतिशत गांवों को बिजली प्राप्त हो गई। इसके पश्चात् ग्रामाण विद्युतीकरण में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। सन् 1970-71 मे 1,06,774 (18.5 प्रतिशत) गांवों 1980-81 में 2,72,625 (47.3 प्रतिशत) गांवों, 1984-85 में 3.68,840 (64 प्रतिशत) गांवों तथा 1990-91 में 86 प्रतिशत गांवों को बिजली प्राप्त हो चुकी थी। 2003-04 में भारत के कुल 587258 गांवों से 495031 गांवों (अर्थात् 84.3 प्रतिशत ) गांवों का विद्युतीकरण हो चुका था। अप्रैल 2005 में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना शुरू की गई, जिसके अंतर्गत 31 मार्च, 2008 तक 47826 अविद्युतीकृत गांवों को बिजली दी जा चुकी है। हरियाणा देश का पहला राज्य था जहां पर सभी गांवों को बिजली उपलब्ध कराई गई। पंजाब, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र तथा नागालैंड में 97 प्रतिशत से 100 प्रतिशत गांवों को बिजली प्राप्त हो चुकी है। अन्य राज्यों में भी ग्रामीण विद्युतीकरण का कार्य बड़ी तेजी से किया जा रहा है।
(13) कृषि शिक्षा एवं अनुसन्धान- सरकार की कृषि नीति के अन्तर्गत कृषि शिक्षा का विस्तार करने के लिए पन्तनगर (उत्तराखण्ड) में पहला कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। आज कृषि और इससे सम्बन्धित क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के लिए 4 कृषि विश्वविद्यालय, 39 राज्य कृषि विश्वविद्यालय और इम्फाल में एक केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय है। कृषि अनुसन्धान हतु भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद है जिसके अन्तर्गत 4 राष्ट्रीय संस्थान, 5 राष्ट्रीय व्यूरो केन्द्रीय संस्थान, 32 राष्ट्रीय अनुसन्धान केन्द्र, 12 परियोजना निदेशालय और 62 अखिल भारतीय समन्वय अनुसन्धान परियोजनाएं हैं। इसके अतिरिक्त दश में 503 कृषि विज्ञान केन्द्र हैं जो शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं। कृषि शिक्षा एवं प्रशिक्षण की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए विभिन्न संस्थाओं के कम्प्यूटरीकरण और इण्टरनेट की सुविधा प्रदान की गई है।
(14) बिक्री संबंधी सुविधाएं (Marketing Facilities)- पहले किसानों को अपनी उपज अनियंत्रित मण्डियों में बेचनी पड़ती थी। इन अनियंत्रित मण्डियों में किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता था. जिससे उनकी आय बहुत कम होती थी। परंतु स्वतंत्रता -प्राप्ति के पश्चात् इस दिशा में काफी सुधार हुआ और लगभग 5.,600 नियंत्रित मण्डियां स्थापित की गई हैं। किसानों को अपनी कृषि उपजों को रखने के लिए गोदाम तथा शीत भण्डारण की सुविधा भी उपलब्ध है। इससे किसानों की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई और उन्होंने कृषि के विकास के लिए काफी धन व्यय किया। इससे हरित क्रांति को काफी बढ़ावा मिला।
(15) फसलों की कीमतों का निर्धारण करना- पहले कृषि उत्पादन अधिक बढ़ जाने से बाजार में फसलों की कीमतों के कम हो जाने का भय रहता था, जिससे कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था। इस समस्या के समाधान के लिए सरकार ने ‘कृषि मूल्य आयोग’ (Agricultural Price Commission) नियुक्त किया। यह आयोग समय-समय पर विभिन्न फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित करता है। जब फसलों का वास्तविक मूल्य पूर्व-निश्चित मूल्यों से नीचे गिरने लगता है तो सरकार स्वयं न्यूनतम मूल्य पर फसलें खरीद लेती है। इससे किसान आर्थिक शोषण से बच जाते हैं और उन्हें कृषि उपज को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। सरकार द्वारा फसलों की खरीद अब सामान्य-सी बात हो गई है। इस दिशा में भारतीय खाद्य निगम (Food Corporation of India – FCI) महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
(16) ऋण सुविधाएं (Credit Facilities)- सरकारी नीति के अंतर्गत किसानों को ऋण की सुविधाएं प्राप्त होने लगीं। पहले किसान अपनी आवश्यकता का 90 प्रतिशत ऋण महाजनों ऊंचे ब्याज पर लिया करता था जिसे चुकाना उसके लिए बहुत कठिन हो जाता था परन्तु अब किसानों को सहकारी समितियों, बैंकों तथा अन्य साधनों से कम ब्याज पर ऋण मिलने लगा है। 967-68 में सहकारी सभितियों मे 400 करोड़ रुपए के ऋण प्रदान किए, जो बढ़कर ।968-69 में 695 करोड़ रुपये के हो गए। सन् 1969 में व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिससे किसानों को ऋण की सुविधा और बढ़ गई । 1969 -70 में इन बैंकों द्वारा किसानों को 183 करोड़ रुपये के ऋण दिये गए। ।990 में छोटे किसानों के दस हजार रुपये से कम ऋणों को माफ करने की घोषणा की गई। कम ब्याज पर आवश्यकतानुसार ऋण मिलने पर किसान उचित मात्रा में उन्नत बीज, कृषि-यंत्र, उर्वरक आदि खरीद सकता है और सिंचाई के साधनों का उचित उपयोग कर सकता है।
(ब) कृषि उत्पादन में सुधार
(1) कषि उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि- हरित क्रान्ति अववा भारतीय कृषि में लागू की गई नयी विकास-विधि का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि देश में फसलो के अधीन क्षेत्रफल, कृषि उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि हो गयी। विशेषकर गेहू, बाजरा, धान, मक्को तथा ज्वार के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई है जिसके परिणामस्वरूप खाद्यान्नों में भारत आत्मनिर्भर सा हो गया है।
1950-51 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड टन था जो क्रमशः बढ़कर 2013-14 में 26.44 करोड़ टन हो गया। भारत में खाद्यान्न उत्पादनों में कुछ उच्चावचन भी हुआ है जो बुरे मौसम आदि के कारण रहा जो यह सिद्ध करता है कि देश में कृषि उत्पादन अभी भी बहुत कुछ मौसम पर निर्भर करता है।
(2) कृषि के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन- हरित क्रान्ति के फलस्वरूप खेती के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन हुआ है। और खेती व्यावसायिक दृष्टि से की जाने लगी है, जबकि पहले सिर्फ पेट भरने के लिए की जाती थी। देश में गन्ना, रुई, पटसन, कपास तथा तिलहनों के उत्पादन में वृद्धि हुई है। पटसन, गन्ना, आलू तथा मूंगफली आदि व्यावसायिक फसलों के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। वर्तमान समय में देश में बागवानी फसलों-फलों सब्जियों तथा फूलों की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।
(3) कृषि बचतों में वृद्धि- उन्नतशील बीजों, रासायनिक खादों, उत्तम सिंचाई तथा मशीनों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ा है। जिससे कृषकों के पास बचतों की मात्रा में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जिसको देश के विकास के काम में लाया जा सका है।
(4) अग्रगामी तथा प्रतिगामी सम्बन्धों में मजबूती- नवीन प्रौद्योगिकी तथा कृषि के आधुनिकीकरण ने कृषि तथा उद्योग के परस्पर सम्बन्ध को और भी अधिक सुदृढ बना दिया है। पारम्परिक रूप में यद्यपि कृषि और उद्योग का अग्रगामी सम्बन्ध (forward Linkage) पहले-से ही प्रगाढ़ था क्योंकि कृषि क्षेत्र द्वारा उद्योगों के लिए अनेक आगत उपलब्ध कराए जाते हैं, प्ररन्तु इन दोनों में प्रतिगामी-सम्बन्ध (backward linkage) बहुत ही कमजोर था क्योंकि उद्योग निर्मित वस्तुओं का कृषि में बहुत कम प्रयोग होता था। परन्तु कृषि के आधुनिकीकरण के फलस्वरूप अब कृषि में उद्योग-निर्मित आगतों (जैसे-कृषि यन्त्र एवं रासायनिक उर्वरक आदि) की मांग में भारी वृद्द्धि हुई है जिससे कृषि का प्रतिगामी सम्बन्ध भी सुदृढ़ हुआ है। अन्य शब्दों कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र के सम्बन्धों में अधिक मजबूती आई है।
इस तरह, हम देखते हैं कि हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश के कृषि आगतों एवं उत्पादन में पर्याप्त सुधार हुआ है। इसके फलस्वरूप कृषक, सरकार तथा जनता सभी में यह विश्वास जाग्रत हो गया है कि भारत कृषि पदार्थों के उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर ही नहीं हो सकता बल्कि निर्यात भी कर सकता है।
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