राजनीति विज्ञान / Political Science

अरस्तु के न्याय सम्बन्धी विचार | Aristotle’s views on justice in Hindi

अरस्तु के न्याय सम्बन्धी विचार | Aristotle’s views on justice in Hindi

अरस्तु के न्याय सम्बन्धी विचार

प्लेटो के समान ही अरस्तु भी राज्य के लिए न्याय को बहुत महत्त्वपूर्ण मानता है, लेकिन अरस्तू ने न्याय की धारणा का प्रतिपादन प्लेटो से भिन्न रूप में किया है। अरस्तू न्याय को सद्गुणों का समूह मानता है। व्यक्ति के न्यायप्रिय होने के लिए यह आवश्यक है कि वह समुदाय के अन्य सदस्यों के प्रति अपने नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करे अरस्तु सर्वप्रथम न्याय के दो भेद करता है पूर्ण न्याय और विशेष न्याय।

पूर्ण न्याय-

पूर्ण न्याय नैतिक गुणों और चरित्र की श्रेष्ठता का नाम है और इसका तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों के साथ अपने सम्बन्धों में नैतिक गणों का पालन करे। अरस्तू क अनुसार पूर्ण न्याय कानूनों के अनुरूप आचरण करने में निहित है। विभिन्न स्थितियों में पूर्ण न्याय की व्याख्या करते हुए कहा जा सकता है, “परिवार में न्याय की अर्थ है स्वामी का दास पर या पति का पत्नी पर या घर के मालिक का सदस्यों पर स्वाभाविक शासन। गांव में न्याय का अर्थ है सबसे सयान पुरुष द्वारा गाँव के दूसरे लोगों का नेतृत्व। एक सक्षम राज्य से न्याय का अर्थ है शिक्षित, सभ्य और गुणवान व्यक्ति द्वारा अपने व अन्य लोगों पर उचित शासन की व्यवस्था।”

विशेष न्याय-

विशेष न्याय का सम्बन्ध सदगुण और भलाई के विशेष रूपों से है जिनके आधार पर हम दूसरों के साथ न्यायोचित व्यवहार करते हैं । इसे अरस्तू पुनः दो उपभेदों में बाँटता है- वितरणात्मक न्याय और सुधारक न्याय।

  • वितरणात्मक न्याय-

यह प्रत्येक व्यक्ति को समाज के सदस्य के रूप में उसका उचित भाग प्रदान करती है। इसका अर्थ यह है कि राज्य अपने नागरिकों के महत्व और योग्यता को दृष्टि में रखते हुए उनमें राजनीतिक पदों, सम्मानों, अन्य लाभों या पुरस्कारों का बँटवारा न्यायपूर्ण रीति से करे क्योंकि इनके विषम वितरण से राज्य में असन्तोष उत्पन्न हो जाता है, जो क्रान्ति को जन्म देता है। स्वयं अरस्तू के शब्दों में इसका अर्थ है, “राज्य के उद्देश्य की पूर्तिके लिए किये गये योगदान के अनुपात में प्रत्येक के द्वारा अधिकार की प्राप्ति।”

समाज का सदस्य होने के नाते प्रत्यक व्यक्ति को राज्य के कार्यों में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त होता है, अतः जहाँ तक सम्भव हो, पदों के वितरण में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को अचानक या विषम अनुपात में सत्ता प्राप्त नहीं करने दिया जाना चाहिए क्योंकि व्यक्ति सरलता से भ्रष्ट हो जाते हैं और प्रत्येक व्यक्ति सम्पन्नता को सहन नहीं कर सकता। पद सभी व्यक्तियों के लिए खुले होने चाहिए, किसी वर्ग का पदों पर एकाधिकार नहीं होना चाहिए और धनी तथा निर्धन सभी व्यक्तियों को प्रशासनिक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति होनी चाहिए जिसमें प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करे कि उसे उसका उचित अंश प्राप्त हो रहा है। अरस्तु की वितरणात्मक न्याय की धारणा का तात्पर्य यही है और वितरणात्मक न्याय का विचार ही उसकी न्याय सम्बन्धी सम्पूर्ण धारणा में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

  • सुधारक न्याय-

सुधारक न्याय का विचार नागरिकों के पारस्परिक व्यवहार से सम्बन्धित है। यह एक नागरिक के दूसरे नागरिकों के साथ सम्बन्ध को नियन्त्रित करता है और राज्य के नागरिकों के पारस्परिक व्यवहार में जो बुराइयां उत्पन्न हो जाती हैं, उन्हें दूर करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के साथ किये गये समझौते की शर्त को तोड़ता है तो राज्य न्यायालय के आधार पर दूसरे पक्ष के साथ होने वाले इस प्रकार के अन्याय को दूर करता है और यदि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को हानि पहुँचाता है तो राज्य हानि पहुंचाने वाले पक्ष को दोण्डित करके इस त्रुटि को दूर करने का प्रयत्न करता है। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्लेटो और अरस्तू की न्याय की धारणा में कई भेद हैं-

(I) प्रथम भेद यह है कि प्लेटो के न्याय का विचार कर्तव्यमूलक है किन्तु अरस्तू का विचार अधिकारमूलक है। प्लेटो भिन्न श्रेणियों के व्यक्तियों के विविध कर्तव्य निश्चित करता है किन्तु अरस्तू व्यक्तियों की योग्यता तथा राज्य के प्रति उनके कार्यों को दृष्टि में रखते हुए उन्हें समान अनुपात में पद और सम्मान प्रदान करता है।

(2) प्लेटो के अनुसार समाज (राज्य) तीन मुख्य वर्गों में विभाजित है और प्रत्येक वर्ग के सदस्यों के कर्तव्य राज्य द्वारा निश्चित किये जाते हैं, परन्तु अरस्तु राज्य को समान व्यक्तियों का समुदाय मानता है। अतः दोनों विचारकों की न्याय सम्बन्धी धारणाओं में महत्त्वपूर्ण अन्तर अरस्तू के अनुसार आनुपातिक समता के आधार पर प्रत्येक नागरिक राज्य के किसी भी पद और पुरस्कार का अधिकारी हो सकता है, परन्तु प्लेटो सभी नागरिको को इस प्रकार का अधिकार नहीं देता।

(3) अरस्तू के न्याय की धारणा की अपेक्षा अधिक सुस्पष्ट और विशद है। प्लेटो केवल न्याय के सामान्य रूप का वर्णन करता है, किन्तु अरस्तू न्याय के विभिन्न भदा (पूर्ण न्याय तथा विशिष्ट न्याय) तथा उनके स्वरूष पर विस्तार से प्रकाश डालता है।

अरस्तू की न्याय की धारणा, विशेषतया वितरणात्मक न्याय की धारणा, न्याय के वर्तमान विचार से भी भिन्न है क्योंकि वर्तमान समय में हम न्याय की धारणा के अन्तर्गत नागरिकों के पद प्राप्त करने के अधिकार को सम्मेलित नहीं करते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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