राजनीति विज्ञान / Political Science

मेयर | मेयर के कार्य | mayor in Hindi | mayor’s work in Hindi

मेयर | मेयर के कार्य | mayor in Hindi | mayor’s work in Hindi

निगमाध्यक्ष या मेयर

निगमाध्यक्ष (महापौर, निगमपाल, निगमपति) नगर का प्रथम नागरिक होता है, और उसके व्यक्तित्व तथा गरिमा का प्रतिनिधित्व करता है। वह परिषद् की बैठकों का सभापतित्व करता है। उसका निर्वाचन पार्षद तथा नगरवृद्ध अपने में से एक वर्श के लिए करते हैं। उत्तर प्रदेश के नगर निगमों में अध्यक्ष के लिए परिषद् का सदस्य होना आवश्यक नहीं है। निगमाध्यक्ष का परिषद् के कार्यालय पर प्रशासनिक नियन्त्रण होता हैं दिल्ली आदि कुछ नगरों में उसे निगम के सभी अभिलेखों को देखने का अधिकार है; वह नगर के नागरिक प्रशासन के सम्बन्ध में किसी नगरपाल से जानकारी माँग सकता है।’

इसके अतिरिक्त, कुछ संविधियों के अनुसार उसे अधिकार दिया गया है कि वह संकट की स्थिति में किसी काम को करने अथवा रोकने का आदेश दे सकता है। वह आवश्यकता पड़ने पर परिषद् की विशेष बैठकें भी बुला सकता है और यदि निश्चित संख्या में सदस्य माँग करें तो उसे विशेष बैठक बुलानी पड़ेगी। मद्रास, बंगलौर, त्रिवेन्द्रम और कालीकट के निगमों में नियम है कि निगम तथा राज्य सरकार के बीच समस्त पत्र-व्यवहार निगमाध्यक्ष के माध्यम से होगा। किन्तु निगमाध्यक्ष किसी पत्र-व्यवहार को रोक कर नहीं रख सकता। उत्तर प्रदेश के नगरों में उसे 500 रुपये तथा उससे अधिक वेतन के पदों पर राज्य के लोक-सेवा आयोग के परामर्श से नियुक्तियाँ करने का अधिकार है।

अप्रत्यक्ष निर्वाचन तथा एक वर्ष के अल्प-कार्यकाल के कारण निगमाध्यक्ष सक्रिय कर्मचारी नहीं है, बल्कि एक कठपुतली मात्र हैं चूंकि उसका निर्वाचन पार्षदों द्वारा किया जाता है, न कि प्रत्यक्ष जनता द्वारा, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उसे जनादेश प्राप्त है। अतः वह जनता के नाम में न तो बोल सकता है और न ही अपना अधिकार जता सकता है। क्योंकि प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जनता का प्रतिनिधि कौन है- जनता द्वारा निर्वाचित पार्षद अथवा पार्षदों द्वारा निर्वाचित निगमाध्यक्ष? इसलिए मांग की गयी है, विशेषकर स्वयं निगमाध्यक्षों द्वारा, कि वर्तमान स्थिति में परिवर्तन किया जाय और निगमाध्यक्ष का निर्वाचन जनता द्वारा किये जाने की व्यवस्था की जाय। किन्तु जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन में दो खतरे हैं। प्रथम, इस प्रकार निर्वाचित निगमाध्यक्ष को समुचित अधिकारों और शक्तियों से विभूषित करना होगा, क्योंकि जनता द्वारा निर्वाचित निगमाध्यक्ष को एक कठपुतली मात्र बनाकर रखना सर्वथा नीति-विरुद्ध होगा। इससे उसके तथा परिषद् के बीच टकराव का भय रहेगा। दूसरे, प्रत्यक्ष निर्वाचन में निगमाध्यक्ष तथा परिषद् के बीच असामंजस्य के बीज निहित होते हैं, क्योंकि यह निश्चय नहीं रहता कि इस प्रणाली से जो व्यक्ति निगमाध्यक्ष चुना जायेगा वह पार्षदों को स्वीकार होगा। इससे फूट और कलह उत्पन्न होती है।

निगमाध्यक्ष के एक वर्ष के अल्प-कार्यकाल के विरुद्ध दो गम्भीर आपत्तियाँ हैं। प्रथम, यह अवधि इतनी संक्षिप्त है कि निगमाध्यक्ष को नगर-प्रशासन की समस्याओं की सही जानकारी प्राप्त करने और दीर्घकालीन आधार पर आयोजन करने का अवसर नहीं मिल पाता। दूसरे, इससे उस निर्वाचित व्यवस्था की तुलना में, जिसका प्रमुख निगमाध्यक्ष होता है, नगरपाल (म्यूनिसिपल कमिश्नर) की अधीनता में काम करने वाली नौकरशाही अधिक शक्तिशाली हो जाती है। चूंकि परिषद् को अपनी नीतियाँ नगरपाल के द्वारा कार्यान्वित करवानी पड़ती हैं इसलिए आवश्यक है कि निगमाध्यक्ष का कार्यकाल नगरपाल के कार्यकाल के साथ-साथ समाप्त होना चाहिए। एक वर्ष के लिए निर्वाचित निगमाध्यक्ष अपने को नगरपाल के सम्बन्ध में, जो उससे अधिक लम्बे काल तक पदारूढ़ रहता है, प्रभावहीन तथा दुर्बल पाता हैं परिषद् के चार अथवा पाँच वर्ष के और नगरपाल के पाँच वर्ष के कार्यकाल की तुलना में निगमाध्यक्ष का एक वर्ष का काल उपहासास्पद ही प्रतीत होता है।

भारत में निगमाध्यक्ष कार्यकारी शक्तियों से वंचित है। उसको कार्यकारी शक्तियाँ प्रदान की जायें अथवा नहीं, इसकी हाल में ही ग्रामीण-नगरीय सम्बन्ध समिति ने विवेचना की हैं उसकी संस्तुति है, निगमाध्यक्ष की शक्ति में वृद्धि नहीं की जाये। “यदि निगमाध्यक्ष को कार्यकारी शक्ति दी जाती है तो आवश्यक होगा कि उसका कार्यकाल अधिक लम्बा हो; सम्भवतः उतना ही जितना कि परिषद् का। जब निगमाध्यक्ष मुख्य कार्यकारी अधिकारी होगा तो अनिवार्यतः ऐसी व्यवस्था हो कि उसे अविश्वास के प्रस्ताव के द्वारा हटाया जा सके। किन्तु वह निगमाध्यक्ष की पद की गरिमा की दृष्टि से अपमानजनक होगा। यदि निगमाध्यक्ष कार्यकारी कामों को अपने हाथों में ले लेगा तो उस पर भारी दलगत और राजनीतिक दबाव पड़ेंगे और इससे भी उसकी प्रतिष्ठ को धक्का लगेगा। इसके अतिरिक्त, नगर-प्रशसन पूर्णकालिक काम है जिसके लिए विशेष कौशल और अनुभव की आवश्यकता होती है। इसलिए समिति इस पक्ष में नहीं है कि निगमाध्यक्ष की शक्तियों में अधिक वृद्धि की जाय।” उसकी संस्तुति थी कि निगमाध्यक्ष को सभी अभिलेखों का निरीक्षण करने तथा नगरपाल से निगम से सम्बन्धित किसी भी विषय पर जानकारी और रिपोर्ट मांगने का अधिकार हो। यदि नगरपाल परिषद् अथवा उसकी किसी समिति के समक्ष किसी अभिलेख को प्रस्तुत करने से इन्कार करे तो निगमाध्यक्ष को निर्णय करना चाहिए कि वह अभिलेख प्रस्तुत किया जाय अथवा नहीं, और निगम तथा सरकार के बीच होने वाले सभी पत्र- व्यवहार और निगम तथा सरकार के बीच होने वाले सभी पत्र-व्यवहार की सूचना निगमाध्यक्ष को दी जानी चाहिए।

निगमाध्यक्ष के कार्यालय को शक्तिशाली बनाया जाना चाहिए जिससे उसे एक स्वशासित तथा स्वाभिमानी समुदाय के नेता के रूप में कार्य करने का अवसर मिल सके। इस विचार को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित सुझाव दिये गये हैं:

(1) निगमाध्यक्ष के कार्यकाल में ऐसा परिवर्तन कर दिया जाय कि वह परिषद् के कार्यकाल के साथ-साथ समाप्त हो। ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए कि उसे परिषद् के विशिष्ट बहुमत द्वारा अपने पद से हटाया जा सके।

(2) राज्य सरकार को नगरपाल की नियुक्ति के मामले में निगमाध्यक्ष से परामर्श लेना चाहिए।

(3) नगरपाल की चरित्र-पंजिका निगमाध्यक्ष द्वरा लिखी जानी चाहिए।

(4) निगम तथा राज्य सरकार के बीच सम्पूर्ण पत्र-व्यवहार निगमाध्यक्ष के माध्यम से किया जाना चाहिए।

(5) राज्य के पूर्वता अधिपत्र में निगमाध्यक्ष को राज्य की विधानसभा के अध्यक्ष के बाद स्थान दिया जाना चाहिए।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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