प्लेटो का न्याय सिद्धान्त | प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विशेषताएँ | सिद्धान्त की आलोचना
प्लेटो का न्याय सिद्धान्त | प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विशेषताएँ | सिद्धान्त की आलोचना
प्लेटो का न्याय सिद्धान्त (Plato’s Theory of Justice)
रिपब्लिक का प्रारम्भ और अन्त न्याय के स्वरूप के विवेचन के साथ होता है। प्लेटो के अनुसार न्याय कोई कानूनी परिभाषा नहीं है, इसका अर्थ केवल इतना ही है कि मनुष्य अपने उन सब कर्त्तव्यों का पालन करे, जिसका पालन समाज के प्रयोजनों की दृष्टि से किया जाना आवश्यक है । समाज और राज्य अपनी आवश्यकताओं तथा व्यक्तियों की योग्यताओं के अनुसार उनके लिये कुछ कर्त्तव्यों और धर्मो का पालन करने का नियम बनाते हैं, इनका ठीक प्रकार से पालन करना ही न्याय है।
न्याय का परम्परागत सिद्धान्त- प्लेटो ने उस समय की प्रचलित न्याय की सभी धारणाओं का खण्डन किया है- इनमें पहली धारणा सेफालस की है। उसके अभिमत में परम्परागत दृष्टिकोण के अनुसार न्याय का अर्थ ‘सत्य बोलना और ऋण चुकाना’ है परन्तु प्लेटो का कहना है कि राह परिभाषा दोषपूर्ण है, क्योंकि ये दोनों कार्य परिस्थितियों के अनुसार कभी न्याय और कभी अन्याय हो सकते हैं।
न्याय की दूसरी परिभाषा पोलीमार्कस (Polemarchus) की है। वह कहता है कि मित्र के प्रति भलाई और शत्रु के प्रति बुराई करने की कला न्याय है। प्लेट के अनुसार इस परिभाषा में कुछ दोष हैं जो निम्नलिखित हैं-
(क) यदि न्याय का प्रयोग अपनी इच्छानुसार किया जायेगा तो इसे न्याय नहीं कह: जा सकता, क्योंकि स्वेच्छाचार न्याय. का पर्याय नहीं हो सकता।
(ख) कुछ व्यक्ति ऊपर से मित्रता का ढोंग करते हुये वास्तव में शत्रु होते हैं। यदि उसके साथ भलाई का व्यवहार किया जाय तो यह हमारे लिये हितकर नहीं होगा और न किया जाय तो न्याय की उपर्युक्त परिभाषा गलत हो जायेगी।
(ग) यह भी विचारपूर्ण प्रश्न है कि क्या हमारा शत्रुओं के, प्रति बुराई करना न्याय है। जिन व्यक्तियों के साथ बुराई की जाती है, उनका अध:पतन हो जाता है। किसी व्यक्ति की स्थिति को पहले कही अपेक्षा अधिक खराब करना न्याय कभी नहीं हो सकता।
(घ) मित्र और शत्रु के प्रति भलाई और बुराई का विचार व्यक्तिगत है, परन्तु न्याय एक सामाजिक विचार है। समष्टि के कल्याण की दृष्टि से किया गया कार्य न्याय हो सकता है; अतः पोलीमार्कस की परिभाषा उपर्युक्त दोषों के कारण मान्य नहीं हो सकती।
तीसरी धारणा थ्रेसीमेकस (Thrasymachus) की है। इस धारणा के अनुसार न्याय शक्तिशाली का स्वार्थ है। शक्तिशाली व्यक्ति अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए जो कानून या व्यवस्था बनाता है, वही न्याय होती है। इस सिद्धान्त में न्याय और शक्ति में कोई भेद नहीं माना गया है। प्लेटो न्याय के इस अर्थ का भी खंडन करता है। वह कहता है कि शासन करना एक कला है, सब कलाओं का लक्ष्य अपनी स्वार्थ सिद्धि करना नहीं, परन्तु उन वस्तुओं के दोषों को दूर करना है, जिनके साथ उनका सम्बन्ध होता है। आदर्श शासक वह है जो अपना नहीं, परन्तु प्रजा के हितों का ध्यान रखे और उसके दुखो, कठिनाइयों का ध्यान रखे। उसका लक्ष्य प्रजा का कल्याण करना है, अतः वह कहना उचित नहीं है कि न्याय शक्तिशाली शासक का स्वार्थ है।
न्याय की चौथी धारणा ग्लौकोन (Glaucon) का है । वह समाज में न्याय के विचार के सृजन का श्रेय निर्बल व्यक्तियों को देता है। वह इसका आधार शक्तिशाली की इच्छा नहीं, परन्तु दुर्बल व्यक्तियों का भय और आशेका मानता है प्लेटो इस विचार से भी सहमत नहीं है। वह कानून और न्याय को समझौते पर आधारित बाहरी वस्तु नहीं मानता, परन्तु आत्मा का आंतरिक गुण समझता है। न्याय का गुण व्यक्ति की आत्मा में रहता है। न्याय का पालन भय अथवा शक्ति के कारण नहीं होता, वरन् स्वाभाविक रूप से होता है
प्लेटो की न्याय
प्लेटो के मतानुसार राज्य के चार गुण (Virtues) है- बुद्धिमत्ता, साहस, संयम और न्याय। बुद्धिमत्ता राज्य के शासक वर्ग में रहती है, वह बुद्धि द्वारा राज्य का शासन करता है। साहस सैनिक वर्ग का गुण है तथा संयम उत्पादक वर्ग का। न्याय ही शेष रहा।| यह क्या है और कहाँ रहता है ? इस सम्बन्ध में प्लेटो का यह उत्तर है कि अपने निश्चित स्थानों में अपने कर्त्तव्यों का पालन करना और दूसरों के कर्त्तव्यों में हस्तक्षेप न करना ही न्याय है; अतः इसका निवास स्थान अपना निश्चित कर्त्तव्य पूरा करने वाले प्रत्येक नागरिक के मन में है। प्लेटो का यह मौलिक सिद्धान्त है कि व्यक्ति को केवल वही कार्य करना चाहिए, जो उसके स्वभाव के अनुकूल हो । उदाहरणार्थ शासक यदि बुद्धिमत्तापूर्वक अपना कार्य करता है तो वह न्यायी है और वह राज्य भी न्यायी है, क्योंकि इसका नागरिक अपने निश्चित स्थानों में निश्चित कार्य को पूरा कर रहा है।
प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विशेषताएँ
प्लेटो के न्याय में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं-
(1) न्याय आत्मा का गुण- न्याय का सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से है तथा उसे बाह्य जगत के सन्दर्भ में नहीं समझा जा सकता । यह आत्मा का गुण है।
(2) राज्य की आन्तरिक भावना- न्याय राज्य का गुण है। यह उसकी आन्तरिक भावना है। राज्य समस्त कार्य नागरिक की भलांई के लिये करता है। वह व्यक्तियों की समस्त कमियों को दूर करने का माध्यम है।
(3) आत्मा की अभिव्यक्ति- प्लेटो न्याय को आत्मा की अभिव्यक्ति मानता है। उत्तमता आत्मा का गुण होता है; अस्तु उत्तमता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति ही न्याय है।
(4) न्याय. कला नहीं- क्योंकि प्रत्येक कला का ज्ञान सापेक्ष, होता है; अतः उसमें अनुभव से वृद्धि होती है। न्याय निरपेक्ष होता है तथा इसमें स्थायित्व एवं निश्चितता पाई जाती है।
(5) इसका आवास आदर्श समाज है तथा यह सदगुण का प्रतिरूप है- न्याय का आवास स्थान आदर्श समाज है तथा यह पूर्ण सद्गुण का प्रतिरूप है। इसके चार गुण है बुद्धिमत्ता, साहस, आज्ञा पालन एवं अनुशासन, आत्म- संयम अथवा आत्मा-नियन्त्रण है।
(6) न्याय व्यक्ति के मूल में निहित- प्लेटो के अनुसार न्याय व्यक्ति के मूल में निहित है। प्लेटो व्यक्ति की चेतना एवं राज्य की चेतना के बीच कोई अन्तर नहीं करता । राज्य की संस्थाएँ व्यक्ति के अन्तर की बाह्य अभिव्यक्तियाँ हैं। ये बाह्य अंग एवं इकाइयाँ यदि यथास्थान पर रहकर आन्तरिक चेतना पर नियन्त्रण रखती हैं तथा सामंजस्य को बनाये रखती है तो इसे ही न्याय कहा जा सकता है।
(7) प्लेटो के न्याय के दो रूप- प्लेटो के न्याय के दो रूप हैं और वे हैं सामाजिक तथा वैयक्तिक। सामाजिक रूप में न्याय समाज के विभिन्न अंगों से उनके कर्तव्यों का पालन कराता है, उनमें सामजस्य तथा एकता बनाये रखता है। समाज के तीनों वर्ग-उत्पादक, सैनिक और शासक अपनी आवश्यकताओं के कारण एक होकर अपने निश्चित कर्त्तव्यो का पालन करते हुये समष्टि को बनाये रखते हैं। व्यक्ति के लिये तथा समाज के लिये इससे अच्छी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती कि वे अपने कार्यों को पूरा करें।
फोस्टर (Foster) के अनुसार प्लेटो के सामाजिक न्याय का विचार एक भवन-निर्माण करने वाले शिल्पी जैसा है। जिस प्रकार प्रधान ‘शिल्पी या वास्तुकार भवन-निर्माण के कार्य में किसी प्रकार की त्रुटि न आने देने के लिये विभिन्न प्रकार के कारीगरों पर नियन्त्रण और अनुशासन रखता है, उसी प्रकार समाज में न्याय सब मनुष्यों से उनका कर्तव्य पूरा करते हुये उन पर इस प्रकार के नियन्त्रण रखता है कि वे सामर्थ्य रखने पर भी अपने क्षेत्र से बाहर न जायें, स्वधर्म का पालन करें तथा समान के सभी अंगों में सामंजस्य बना रहे।
न्याय का दूसरा रूप वैयक्तिक है । प्रत्येक व्यक्ति में विचार, भावनाएँ तथा इच्छाएँ पायी जाती हैं। इनमें समन्वय बना रहना वैयक्तिक न्याय या मानवीय सद्गुण है। यदि तीनों तत्त्वों में सामंजस्य न रहे तो इससे उसमें धर्मान्धता उत्पन्न होती है। न्याय का प्रयोजन आत्मा के तीनों तत्त्वों में साम्यावस्था, सामंजस्य और व्यवस्था बनाये रखना है। इस भाति न्याय जहाँ एक ओर समाज में सामंजस्य स्थापित करने के कारण राज्य को एक सूत्र में पिरोने वाला सामाजिक गुण है, वहाँ दूसरी ओर व्यक्ति का सद्गुण भी है क्योंकि वह मनुष्य के आध्यात्मिक संतुलन को ठीक बना कर उसे श्रेष्ठ और सामाजिक बनाता है। प्लेटो के दर्शन का यह प्रथम मौलिक सिद्धान्त है ।
प्लेटो से पहले समाज और राज्य में बड़ी अस्तव्यस्तता थी। प्रत्येक राज्य धनी-निर्धन के दो वर्गों में बँटा हुआ था। प्लेटो के शब्दों में इनमें से कोई भी एक राज्य नहीं है, क्योंकि कोई भी राज्य कितना ही छोटा क्यों न हो, वस्तुतः दो राज्यों में बँटा हुआ है- निर्धनों का राज्य, और धनियों का राज्य और ये दोनों एक दूसरे से युद्ध कर रहे हैं। इनके विरोध में नैतिकंता और सदाचार को सुप्रतिष्ठित बनाने के लिए तथा उस समय के राज्य की कुरीतियों को दूर करने के लिये प्लेटो ने सुदृढ़ तर्क के आधार पर न्याय के विचार की कल्पना की। यह अन्यायी शासकों को तथा उनका समर्थन करने वाले दार्शनिकों को चेतावनी थी कि न्याय केवल शक्तिशाली का स्वार्थ नहीं है, किन्तु वह समाज के सभी अंगों में सामंजस्य तथा समन्वय स्थापित करता है। प्लेटो को इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उसने चौथी शताब्दी ई० पू० के राज्य विषयक चिन्तन का अध्यात्मीकरण करके उसे नैतिक बनाया।
प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Plato’s Justice)
(1) प्लेटो की न्याय की कल्पना यूनान की तत्कालीन परिस्थितियों की दृष्टि से उपयोगी होते हुए भी यथार्थ नहीं प्रतीत होती प्रोफेसर बा्कर के कथनानुसार, “इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि यह न्याय नहीं है, यह केवल मनुष्यों को अपने कर्तव्यों तक सीमित करने वाली भावना मात्र है, कोई ठोस कानून नही है। न्याय कानून का पालन करने वाली शक्ति होती है, किन्तु प्लेटो का न्याय नैतिक भावना के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
2) प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का दूसरा दोष यह है कि इसमें कर्तव्यों की भावना प्रधान है, और इसमें अधिकार का काई विचार नहीं है। न्याय में कर्तव्य और अधिकार दोनों का विचार होना चाहिये।
(3) इसका तीसरा दोष यह है कि इसने व्यक्ति को केवल एक ही कार्य तक सीमित कर दिया गया है। केवल एक कार्य पर बल देने से उसकी अन्य योग्यताओं का विकास नहीं के पाता है । इससे न तो मनुष्य का सम्पूर्ण विकास होता है और न समाज का ही।
(4) प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का चौथा दोष यह है कि वह दार्शनिक राजाओं के हाथ में राजनीतिक सत्ता का एकाधिकार दे देता है। इसमें इस मनोवैज्ञानिक तत्त्व की उपेक्षा की गई है। कि शक्ति मनुष्य को मदान्ध बना देती है।
(5) इसका पाँचवा दोष यह है कि इसमें अधिकारों के कारण मनुष्य में होने वाले स्वाभाविक संघर्षों के समाधान की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है।
(6) प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का अन्तिम दोष यह है कि उसका न्याय का विचार निष्क्रिय और निश्चल है। वह प्रत्येक व्यक्ति का एक निश्चित कार्य मान लेने के बाद उसकी उन्नति और विकास के सभी मार्ग बन्द कर देता है।
- प्लेटो का आदर्श राज्य | प्लेटो के आदर्श राज्य के मौलिक सिद्धान्त
- प्लेटो का दार्शनिक राजा | प्लेटो के दार्शनिक शासक की विशेषताएँ, सीमाएँ तथा आलोचना
- प्लेटो के आदर्श राज्य की विशेषताएँ | आदर्श राज्य की समीक्षा
- प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना | Criticism of Plato’s ideal state in Hindi
- प्लेटो के शिक्षा सिद्धान्त की विशेषताएँ | Features of Plato’s theory of education in Hindi
राजनीतिक शास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
- आधुनिक यूनानी राजनीतिक चिन्तन की विशेषताएँ | प्राचीन एवं आधुनिक राजनीतिक चिन्तन में अन्तर
- युनान में राजनीतिक चिन्तन की उत्पत्ति के कारण | Causes of the Origin of Political Thought in Greece in Hindi
- यूनानी राजनीतिक चिन्तन की प्रमुख विशेषताएँ | Main Characteristics of Greek Political Thought in Hindi
Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com