अरस्तू का राजनीति शास्त्र में योगदान

अरस्तू का राजनीति शास्त्र में योगदान | Aristotle’s contribution to political science in Hindi

अरस्तू का राजनीति शास्त्र में योगदान | Aristotle’s contribution to political science in Hindi

अरस्तू का राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में महत्त्चपूर्ण योगदान है जो निम्नलिखित हैं-

  1. राजनीति शास्त्र को स्वतन्त्र विज्ञान का रूप दिया-

प्रोफेसर डनिंग के मतानुसार अरस्तू की महानता इस बात में है कि उन्होंने राजनीति को स्वतन्त्र विज्ञान का रूप दिया है। यद्यपि प्लेटो इस क्षेत्र में प्रथम विचारक था परन्तु वह राजनीति शास्त्र की सीमाओं तथा उसके क्षेत्र को निर्धारित नहीं कर सका । अरस्तू ने राजनीति शास्त्र को सुव्यवस्थित रूप से परिभाषित कर उसका क्षेत्र निर्धारित किया। इसलिये प्रो० मैक्सी ने अरस्तू को प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक कहा है। वास्तव में यदि हम देखें तो अरस्तू से पहले राजनीति विज्ञान पर न तो व्यावहारिक दृष्टि से विचार ही किया गया था और न राजनीति विज्ञान का वैज्ञानिक विश्लेषण ही प्लेटो राजनीति तथा आचार शास्त्रों को एक दूसरे से अलग नहीं कर पाया । उसने आचार शास्त्र को राजनीति का आधार बनाया। इसके विपरीत अरस्तू ने राजनीति को आचार शास्त्र से पृथक् किया तथा दोनों के मध्य स्पष्ट सीमा रेखाएँ खींची। प्रोफेसर डनिंग ने लिखा है कि “अरस्तू ने राजनीति का स्कतन्त्र विज्ञान के रूप में अस्तित्त्व, आचार शास्त्र की धारणा से पृथक् करके किया।”

2. वैज्ञानिक पद्धति का जन्मदाता-

अरस्तू का राजनीति के लिए दूसरा प्रमुख योगदान यह था कि उसने इस विषय के अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति को जन्म दिया। प्रोफेसर बार्कर के अनुसार, “उसकी प्रक्रिया का सार यह था कि सभी आँकड़ों को एकत्र करके उनका परीक्षण करना और उसके बाद सामान्य नियमों का निर्माण करना। किसी भी नियम का निर्माण करने से पूर्व उन्होंने तत्कालीन सभी संस्थाओं का निरीक्षण किया।” अरस्तू ने जिस किसी विषय का अध्ययन किया पहले उस विषय से सम्बन्धित आकड़े एकत्र किये। तब उसने उस विषय का सुव्यवस्थित तथा वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया। इसके लिए उसने समीक्षात्मक, अनुभवात्मक, प्रयोगात्मक एवं ऐतिहासिक पद्धतियों का सहारा लिया और इस प्रकार राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में एक नतीन धारा को जन्म दिया| अरस्तू ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ राजनीति को लिखते समय लगभग 158 राज्यों के संविधानों का अध्ययन किया वास्तव में, उसने राजनीति विज्ञान में ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक अध्ययन विधि का प्रारम्भ करके राजनीति शास्त्र की महान् सेवा की।

अरस्तू ने राजनीति के दो पहलू माने हैं- सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक। यदि प्लेटो राजनीति के दार्शनिक पक्ष का जन्मदाता था तो अरस्तू निश्चय ही उसके व्यावहारिक पक्ष का जन्मदाता है। इस प्रकार इस क्षेत्र में उसका अमूल्य योगदान है।

3. आगमनात्मक (Deductive) अध्ययन पद्धति का जन्मदाता-

प्लेटो ने अपने ग्रन्थों में निगमनात्मक अध्ययन पद्धति का प्रयोग किया है जबकि अरस्तु ने आगमनात्मक पद्धति का प्रयोग किया है । इस पद्धति के अन्तर्गत सम्बन्धित विषय के बारे में आँकड़े एकत्रित करके उन ऑकड़ों के आधार पर सामान्य निष्कर्ष निकाले जाते हैं। अरस्तू की यह अध्ययन पद्धति अपने गुरु प्लेटो की अध्ययन पद्धति से पूर्णतः भिन्न है । अरस्तू संसार में किसी भी वस्तु को ध्रुव सत्य नहीं मानता । उसका विचार था कि वास्तविकता ध्रुव सत्यों में निहित नहीं है वरन् यह प्रत्येक अनुभवगत तथा ज्ञान की वस्तुओं में निहित है । इसी सत्य को जानने के लिये उस वस्तु का बड़ी सावधानीपूर्वक परीक्षण किया जाना चांहिये । उसके बाद सामान्य निष्कर्ष निकालना चाहिये।

अरस्तू ने आगमनात्मक पद्धति के दो रूपों का विशेष रूप से प्रयोग किया है वे है- वर्गीकरण की पद्धति एवं ऐतिहासिक पद्धति । वह किसी विषय के गहन ज्ञान के लिए वर्गीकरण की पद्धति को आवश्यक मानता है और उसने इस पद्धति का खुलकर प्रयोग किया हैं। साथ ही अरस्तू ने उद्देश्यमूलक पद्धति का प्रयोग भी किया है। इस पद्धति के माध्यम से वह हमारे समक्ष राजनीति का एक उत्कृष्ट स्वरूप लेकर प्रस्तुत होता है। इसके द्वारा उसन वस्तु की वास्तविक प्रकृति एवं स्वरूप को जानने की कोशिश की है। परन्तु इसके लिए यह अनिवार्य है कि हमें उन वस्तुओं के बारे में पूरी जानकारी हो। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि अरस्तू ने व्याप्तिमूलक एवं आगमनात्मक पद्धतियों में सम्बन्ध किया है जो राजनीति के लिए उसकी अन्य विशिष्ट देन है।

4. शान्ति सम्बन्धी विचार-

अरस्तू ने अपने ‘पॉलिटिक्स’ नामक ग्रन्थ में क्रान्ति सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किए हैं। वह क्रांति के कारणों की व्याख्या करता है और बताता है कि असमानता क्रांतियों का मूल कारण है । उसने विभिन्न शासन प्रणालियों का उल्लेख किया है और यह बताया है कि क्रांतियों का उन पर क्या प्रभाव पडता है। उनकी मान्यता है कि यदि धनी एवं गरीब वर्ग में संतुलन बना रहे तो क्रांति की सम्भावना समाप्त हो जाती है।

5. दासता सम्बन्धी विचार-

अरस्तू दास-प्रथा का समर्थक है। वह यह मानता है कि दासों के बिना मनुष्य अच्छे जीवन की प्राप्ति नहीं कर सकता। परन्तु साथ ही वह दासों के साथ अच्छा व्यवहार करने की वकालत करता है। वह यह भी कहता है कि दास प्रथा वंश परम्परागत नहीं है। यह जरूरी नहीं है कि एक दास का पुत्र दास ही हो। यद्यपि आधुनिक युग में यह प्रथा समाप्त की जा चुकी है और अब उसके दासता सम्बन्धी विचारों की कटु-आलोचना की जाती है। परन्तु हमें यह याद रखना चाहिये कि उसने इस प्रथा का समर्थन उस समय किया जब यह एक सार्वभौम संस्था थी। इसलिये तत्कालीन राजनीति में उसके इन विचारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

6. राज्य की प्रकृति सम्बन्धी विचार-

अरस्तू ने राज्य को सर्वोच्च स्थान दिया है। वह इसे सार्वभौम एवं सर्वव्यापी समुदाय मानता है। इसकी उत्पत्ति के बारे में उसका विचार है कि यह एक स्वाभाविक संस्था है और इसीलिए वह व्यक्ति को राजनीतिक प्राणी कहता है। उसका विचार है कि मानव-जीवन की श्रेष्ठता एवं पूर्णता के लिए राज्य अनिवार्य संस्था है। राज्य की सार्थकता इसमें है कि वह अपने नागरिकों के लिए सद्जीवन की व्यवस्था करें। अरस्तू ने राज्य की प्रकृति का वर्णन करने के साथ-साथ उसके विभिन्न स्वरूपों एवं उसके कार्यों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है।

7. नागरिकता सम्बन्धी विचार-

अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचार भी महत्त्वपूर्ण हैं। वह राज्य के लिए नागरिकों को आवश्यक मानता है और साथ ही वह स्वाभाविक एवं राज्य प्रदत्त नागरिक में भेद करता हैं। वह राज्य में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को नागरिक नहीं मानता। उसके अनुसार नागरिक वही है जो शासन के कार्य में भाग ले, राज्य का आवश्यक अंग हो। उसी के शब्दों में-“वह व्यक्ति जो न्याय विभाग अथवा राज्य की सेवा में कार्यरत है, उस राज्य का नागरिक होता है।”

8. राज्यों का वर्गीकरण-

अरस्तू पहला विचारक था जिसने राज्यों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया। उसने राज्यों का वर्गीकरण इस आधार पर किया कि शासन की शत्ति कितने लोगों के हाथों में है। इस आधार पर उसने शासन के निम्नलिखित तीन रूप बताए-

(क) राजतंत्र (Monarchy)- इसमें शासन की शक्ति एक व्यक्ति के हाथ में रहती के

(ख) कुलीनतंत्र (Aristocracy)- इसमें कुछ लोगो का शासन पर अधिकार रहता है।

(ग) पॉलिटी (Polity)- इसमें शासन-शक्ति जनता के हाथ में रहती है।

अरस्तू ने इन्हें अच्छी शासन प्रणाली कहा है। जब ये लोग जनहित को भूल कर शासन अपने हित में करने लगते हैं तो शासन विकृत ‘रूप धारण कर लेता है। इस आधार पर भी शासन के तीन रूप हैं-(1) अत्याचार तंत्र (Tyranny), (2) घनिकरत्र (Oligarchy), (3) भीड़तंत्र (Democracy)।

यद्यपि अरस्तू का यह वर्गीकरण आधुनिक युग में मान्य नही है, परन्तु फिर भी इसका अपना महत्व है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ।

9. सम्पत्ति सम्बन्धी विचार-

अरस्तू सम्पत्ति को स्वाभाविक संस्था मानता है। उसका विचार है कि व्यक्ति के विकास के लिए सम्पत्ति का होना अनिवार्य है। सम्पत्ति से गृहस्थ जीवन सुखमय बनता है और सुखी गृहस्थ जीवन से स्थायी एवं सुदृढ़ राज्य की स्थापना होती है। उसका विश्वास है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति के बिना नैतिक जीवन सम्भव नहीं है। परन्तु साथ ही वह उतनी सम्पत्ति का समर्थन करता है जितनी कि परिवार की आवश्यकताओं के लिए आवश्यक है। आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति का उसने विरोध किया है। इस प्रकार अरस्तू ने व्यक्तिगत सम्पत्ति की संस्था को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया है। वह अति सम्पत्ति का विरोधी है और यह नहीं चाहता कि धन के आधार पर सम्पत्ति में वर्ग-भेद पैदा हो। यद्यपि उसने व्यक्तिगत सम्पत्ति का समर्थन किया है परन्तु उसने सम्पत्ति के सार्वजनिक उपभोग की उपेक्षा नहीं की। यह उसकी मौलिक देन है।

वस्तुतः अरस्तू की राजनीति दर्शन के लिए विशेष देन है । वे प्रथम विचारक थे जिन्होंने राजनीति शास्त्र को स्वतंत्र विज्ञान का दर्जा दिया। प्रोफेसर डनिंग ने अरस्तू को राजनीति शास्त्र का जनक (Father of Political Science) माना है। अरस्तू की एक महत्त्वपूर्ण देन यह भी है। कि उसने राजनीति शास्त्र के अध्ययन के लिए व्याप्तिमूलक तथा ऐतिहासिक अध्ययन पद्धतियों का प्रयोग किया। उसके राज्यों के वर्गीकरण का आज भी महत्त्व है। अरस्तू के बाद के विचारकों ने राज्यों का जो भी वर्गीकरण प्रस्तुत किया है उसका आधार अरस्तू का वर्गीकरण ही रहा है।

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