राजनीति विज्ञान / Political Science

जिला परिषद | जिला परिषद का कार्यकाल | जिला परिषद का अध्यक्ष | जिला परिषद की स्थायी समितियाँ | जिला परिषद के कार्य | जिला-परिषद् के आय के साधन

जिला परिषद | जिला परिषद का कार्यकाल | जिला परिषद का अध्यक्ष | जिला परिषद की स्थायी समितियाँ | जिला परिषद के कार्य | जिला-परिषद् के आय के साधन

जिला परिषद

जिला-परिषद् भारत के ग्रामीण स्थानीय शासन की पंचायती राज व्यवस्था का शिखर है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, जिला-परिषद् असम तथा तमिलनाडु को छोड़कर शेष सब राज्यों में जिला-स्तर का निकाय है। असम चूंकि पहाड़ी प्रदेश है इसलिए वहाँ शीर्षस्थ संस्था को उपमण्डल के स्तर पर स्थापित किया गया है, इसलिए उसका अधिकार-क्षेत्र जिले से छोटा होता है।

जिला-परिषद् एक निगम निकाय है; उसका शाश्वत उत्तराधिकार है, उसकी अपनी मुहर होती है, वह किसी पर मुकदमा चला सकती है और उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है, और उसे संविदा करने का अधिकार होता है। सब राज्यों में इसका नाम एक ही नहीं है। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में उसे जिला परिषद् कहते हैं, असम में उसे महकमा-परिषद् कहते हैं और तमिलनाडु तथा कर्नाटक में उसका नाम जिला-विकास परिषद् है। उसकी सदस्यता इस ढंग से निर्धारित की गयी है कि उसे पंचायती राज के मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समिति से तथा उच्च स्तर पर राज्य के विधानमण्डल और राष्ट्रीय संसद के साथ अवयवी रूप में सम्बद्ध किया जा सके। जिला परिषद् को समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधि बनाने के उद्देश्य से उसमें स्त्रियों परिगणित जातियों तथा परिगणित जनजातियों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है। चूंकि सहकारी समितियों की ग्रामोत्थान के कार्यक्रम में महत्ववपूर्ण भूमिका है, इसलिए जिला परिषद में उन्हें भी प्रतिनिधित्व दिया गया है। मोटे तौर पर जिला-परिषद् में निम्नलिखित सदस्य होते हैं:

(1) जिले की पंचायत समितियों के अध्यक्ष।

(2) जिले के सभी निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले संसद-सदस्य (लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों के सदस्य)

(3) जिले के समस्त निर्वाचन क्षेत्रों से निर्वाचित विधानमण्डलों के सदस्य (यदि राज्य में उच्च सदन हो तो उसके सदस्य भी)।

(4) सहकारी समितियों का एक प्रतिनिधि, सामान्यतः जिला सहकारी समिति का अध्यक्ष।

(5) एक निश्चित संख्या में परिगणित जातियों और परिगणित जनजातियों के सदस्य।

(6) कुछ सहयोजित सदस्य जिन्हें प्रशासन, सार्वजनिक जीवन अथवा ग्राम-विकास का अनुभव हो।

जिला-परिषद् लोकतान्त्रिक निकाय नहीं है, बल्कि एक सरकारी संस्था है, क्योंकि पदेन तथा सहयोजित सदस्यों की संख्या इसमें अधिक है। इससे नये नेतृत्व के उभरने में बाधा पड़ती है। इसके अतिरिक्त निर्वाचन की अप्रत्यक्ष प्रणाली ने इस संस्था को कम लोकतान्त्रिक बना दिया है।

जिला-परिषद् के सदस्यों की संख्या चालीस और साठ के बीच होती है। महाराष्ट्र, गुजरात तथा उत्तर प्रदेश में जिला परिषद् के कुछ सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा चुने जाते हैं। पंजाब और हरियाणा में सदस्यों के प्रत्यक्ष निर्वाचन का प्रावधान नहीं है, किन्तु वहाँ की पंचायत समिति जिला-परिषद् के चुनाव के लिए निर्वाचक-मण्डल का रूप धारण कर लेती है और प्राथमिक सदस्यों में से पाँच सदस्यों को जिला-परिषद् के लिए चुन लेती है।

जिला परिषद का कार्यकाल

चूंकि जिला परिषद् में अधिकतर सदस्य ऐसे होते हैं जो अन्य संगठनों के लिए निर्वाचित किये जाते हैं, इसलिए उसके सदस्यों का कार्यकाल सदस्यों के मूल कार्यकाल पर निर्भर रहता है। सहयोजित सदस्यों का कार्यकाल तीन से पाँच वर्ष होता है, जबकि पंजाब और हरियाणा में तीन वर्ष है और मध्य प्रदेश में पाँच वर्ष।

जिला परिषद का अध्यक्ष

जिला-परिषद् के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष चुन लेते हैं। आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, उड़ीसा, हरियाणा, पंजाब तथा पिश्चम बंगाल में वह सभापति (चेयरमैन) कहलाता है; असम, गुजरात, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में उसे प्रेसीडेण्ट कहते हैं; बिहार तथा उत्तर प्रदेश में वह अध्यक्ष तथा राजस्थान में प्रमुख कहलाता है।’ वह जिला-परिषद् की बैठकों का सभापतित्व करता तथा उनकी कार्रवाई का संचालन करता है। वह पंचायती राज व्यवस्था के निम्नस्तरीय निकायों का निरीक्षण करता तथा जिला परिषद् के समक्ष अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करता है। वह जिला-परिषद् के सचिव के काम के सम्बन्ध में अपनी राय लिखता है जिसे उसकी गोपनीय रिपोर्ट के साथ नत्थी कर दिया जाता है। महाराष्ट्र की भाँति जहाँ जिला-परिषद् को कार्यकारी शक्तियों से विभूषित किया गया है वहाँ अध्यक्ष अनेक प्रशासनिक अधिकारों का प्रयोग करता है। महाराष्ट्र में उसे पारिश्रमिक के रूप में 500 रुपये प्रति मास तथा सरकारी आवास मिलता है। वह जिला-परिषद् के प्रस्तावों तथा आदेशों के कार्यान्वयन के सम्बन्ध में मुख्य कार्यकारी अधिकारी के कामों का प्रशासनिक परिवीक्षण करता है, और मण्डलायुक्त के पास मुख्य  कार्यकारी अधिकारी के काम के सम्बन्ध में अपनी गोपनीय रिपोर्ट भेजता है। वह संकटकाल में कार्रवाई कर सकता है, शर्त यह है कि वह जिला-परिषद् की अगली बैठक में अपने कार्य की रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा। अध्यक्ष का चुनाव पूरी अवधि के लिए होता है। सभी राज्यों में अध्यक्ष को अविश्वास के प्रस्ताव के द्वारा हटाने का प्रावधान है।

जिला परिषद की स्थायी समितियाँ

जिला-परिषद् अनेक समितियों द्वारा कार्य करती है। राजस्थान में जिला परिषद् केवल परामर्शदायी संस्था है, इसलिए वहाँ विधान में किसी संविधिक स्थायी समिति की व्यवस्था नहीं है, केवल एक जिला कार्यालय-समिति है जो जिले के पंचायती राज कर्मचारियों से सम्बन्धित मामलों की देखभाल करती है। किन्तु व्यवहार में राजस्थान की जिला-परिषदों ने अनेक स्थायी समितियों का निर्माण कर लिया है। महाराष्ट्र तथा गुजरात में जहाँ जिला परिषदें कार्यकारी प्रकार की हैं, संविधि में ही समितियों का प्रावधान कर दिया गया है। स्थायी समितियाँ सांविधिक हों अथवा अन्य प्रकार की, सामान्यतः जिला-परिषदों ने निम्नलिखित विषयों के लिए उनका निर्माण किया है:

(1) सामुदायिक विकास।

(2) कृषि, सहकारिता, सिंचाई तथा बिजली और पशु-पालन।

(3) उद्योग, जिनमें कुटीर उद्योग, ग्रामीण तथा अन्य लघु उद्योग भी सम्मिलित हैं।

(4) शिक्षा तथा समाज-कल्याण।

(5) वित्त तथा करारोपण।

(6) लोक-स्वास्थ्य।

मध्य प्रदेश आदि कुछ राज्यों में व्यवस्था है कि जिला परिषद् का अध्यक्ष ही स्थायी समिति के अध्यक्ष का काम करेगा, अन्य राज्यों में हर समिति को अपना अध्यक्ष चुनने का अधिकार है। यदि जिला-परिषद् का अध्यक्ष किसी स्थायी समिति का सदस्य होता है तो वहीं पदेन उसका अध्यक्ष रहता है। किन्तु आन्ध्र प्रदेश में जिला परिषद् का अध्यक्ष प्रत्येक स्थायी समिति का सदस्य है फिर भी प्रत्येक समिति का अध्यक्ष जिलाधीश होता है। आन्ध्र प्रदेश पंचायत समिति तथा जिला-परिषद् अधिनियम, 1959 में लिखा है: “जिलाधीश हर स्थायी समिति का सभापति होगा। जिलाधीश की अनुपस्थिति में जिला-परिषद् का सभापति और जिलाधीश तथा जिला-परिषद् का अध्यक्ष दोनों की अनुपस्थिति में उप-सभापति, यदि वह स्थायी समिति का सदस्य हो और यदि उप-सभापति भी अनुपस्थिति हो तो स्थायी समिति की बैठक में उपस्थित सदस्यों द्वारा चुना हुआ सदस्य सभापति का कार्य करेगा।”1 स्थायी समिति जैसा कि उसकी परिभाषा में ही निहित है, जिला-परिषद् के अधीन होती है, इसलिए उसके निर्वाचित अध्यक्ष को उसकी समितियों में उच्चतम स्थान प्रदान करना अनुचित ही नहीं अपितु असंगत है। स्थायी समितियों के सदस्यों का कार्यकाल वही होता है जो जिला परिषद् के सदस्यों के रूप में उनका कार्यकाल होता है।

जिला परिषद के कार्य

जिला-परिषद् के कार्य सब राज्यों में भिन्न-भिन्न होते हैं। एक ओर महाराष्ट्र और गुजरात हैं। वहाँ परिषद् को विभिन्न क्षेत्रों में कार्यकारी सत्ता प्रदान की गयी है, विशेषकर आयोजन तथा विकास के क्षेत्रों में इसलिए उसे पंचायती युद्ध व्यवस्था के सबसे शक्तिशाली स्तर के रूप में निर्मित किया गया है। दूसरे छोर पर राजस्थान, तमिलनाडु, असम, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और बिहार हैं, जहाँ परिषद् को कोई कार्यकारी काम नहीं करने पड़ते। उसका काम केवल अपने से नीचे के निकायों के कामों का परिवीक्षण करना और उन कामों के बीच समन्वय स्थापित करना है। आन्ध्र प्रदेश में जिला परिषद् के उक्त कामों के अतिरिक्त शिक्षा के क्षेत्र में कार्यकारी उत्तरदायित्व भी सौंपा गया है। गुजरात, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में परिषद् को स्वास्थ्य, शिक्षा तथा समाज-कल्याण आदि के क्षेत्रों में कार्यकारी काम भी करने पड़ते है।

सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र और गुजरात को छोड़कर अधिकतर अन्य राज्यों में जिला-परिषद् एक परिवीक्षणात्मक तथा समन्तयकारी निकाय हैं; केन्द्रीय महत्व पंचायत समिति का है। इसके विपरीत, महाराष्ट्र और गुजरात में जिला परिषद् कार्यकारी संगठन है, पंचायत समिति केवल उसकी अभिकर्ता और पिछलागू है। देश में जिला परिषद् के ये दो मुख्य नमूने हैं। गैर-महाराष्ट्रीय नूने की जिला परिषद् के निम्नलिखित मुख्य काम हैं:

(1) वह पंचायत समितियों के बजटों का परीक्षण तथा अनुमोदन करती है।

(2) वह पंचायत समितियों को कुशलतापूर्वक कार्य करने के सम्बन्ध में निर्देश जारी करती है।

(3) वह पंचायत समितियों द्वारा तैयार की गयी योजनाओं को समन्वित करती है। इसके अतिरिक्त वह अन्तर-खण्डीय कार्यकलाप को भी समन्वित करती है।

(4) वह राज्य सरकार को जिले के विकासात्मक कार्यकलाप से सम्बन्धित सभी मामलों में सलाह देती है।

(5) वह राज्य सरकार द्वारा निर्धारित धनराशि को जिले की पंचायत समितियों में वितरित करती है।

(6) वह जिलाधीश तथा मण्डलायुक्त को जिले की पंचायतों और पंचायत समितियों द्वारा की गयी अनियमितताओं के सम्बन्ध में सूचना देती है।

(7) वह जिले के स्थानीय निकायों के कार्यकलाप के सम्बन्ध में आँकड़े एकत्र करती है।

(8) वह राज्य सरकार को जिले की पंचायतों और पंचायत समितियों के बीच कार्य के बँटवारे के सम्बन्ध में सलाह देती है। इसके अतिरिक्त वह समितयों के बीच तथा विभिन्न पंचायतों के मध्य काम के समन्वय के सम्बन्ध में भी परामर्श देती है।

(9) वह उन शक्तियों का प्रयोग करती तथा उन कामों को करती है जो राज्य सरकार द्वारा उसके सुपुर्द कर दिये जाते हैं।

महाराष्ट्र तथा गुजरात में जिला-परिषद् को कृषि, पशुपालन, वन, समाज-कल्याण, शिक्षा, लोक-स्वास्थ्य, संचार-साधन, कुटीर तथा ग्राम उद्योग, आवास तथा सामुदायिक विकास आदि क्षेत्रों में कार्यकारी शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं और पंचायत समिति उसके अभिकर्ता के रूप में काम करती है।

जिला-परिषद् के आय के साधन

जिला-परिषद् को उपलब्ध वित्तीय साधनों के सम्बन्ध में राज्यों के बीच सबसे अधिक अन्तर देखने को मिलता है और यह अन्तर इस बात पर निर्भर है कि परिषद् को किस राज्य में क्या भूमिका प्रदान की गयी है। “एक छोर पर महाराष्ट्र की जिला परिषद् है जिसे बड़े व्यापक पैमाने पर परिकल्पित किया गया है और इस ढंग से निर्मित किया गया है कि वह कानून तथा व्यवस्था, न्याय, राष्ट्रीय तथा राजकीय महामार्ग, कॉलेज तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा तथा सम्पूर्ण राज्य के महत्व की अन्य संस्थाओं को छोड़कर जिला-स्तर पर शासन सम्बन्धी सभी कामों को अपने हाथों में ले सके। दूसरे छोर पर तमिलनाडु की जिला विकास-परिषद् है जो केवल परामर्शदात्री है और जिसका अपना कोई कोष नहीं है।” “जिला-परिषद् का बजट 1961-62  में पंजाब में 6 लाख, उत्तर प्रदेश में 37 लाख, उड़ीसा में 26 लाख, आन्ध्र प्रदेश में 120 लाख और महाराष्ट्र में 213 लाख था। सामान्यतः, जिला-परिषद् के आय के साधनों को निम्नलिखित चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- कर, करों से इतर साधन, राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान तथा विविध साधन। गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश आदि कुछ राज्यों में जिला- परिषद् को कर लगाने की शक्ति भी दे दी गयी है। यह उल्लेखनीय है कि सभी राज्यों में जिला- परिषद् को अपने व्यय की पूर्ति के लिए राज्य सरकार का मुँह ताकना पड़ता है। राज्य सरकार उसे अनुदान देती है, भूमि-उपकर, स्थानीय उपकरों तथा करों का कुछ अंश उसके लिए निर्धारित कर देती है तथा विशिष्ट परियोजनाओं के लिए जिन्हें वह परिषद् के द्वारा पूरा करा सकती है अलग से धनराशियाँ उसे प्रदान करती है। परिषद् को आय के इन साधनों के लिए राज्य सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है। जो आय जिला-परिषद् करों, उपकरों तथा अन्य साधनों से स्वयं जुटाती है वह उसकी सम्पूर्ण आय का महत्वहीन अंश होता है। यह बता देना उपयुक्त होगा कि तमिलनाडु तथा कर्नाटक में जिला परिषद् को आय के कोई साधन प्रदान नहीं किये गये हैं। इन दोनों राज्यों में परिषद् के कोई कार्यकारी काम नहीं हैं इसलिए उसे धन की भी आवश्यकता नहीं है। जिले के प्रशासन-तन्त्र की व्यवस्था स्वयं राज्य सरकार करती है। महाराष्ट्र में जहाँ उसे कार्यकारी उत्तरदायित्व सौंपे गये हैं उसे आय के निम्नलिखित साधन प्रदान कर दिये गये हैं:

(1) वृत्ति, व्यवसाय, व्यापार अथवा नौकरी पर कर।

(2) जल-कर।

(3) सार्वजनिक मनोरंजन के साधनों पर कर।

(4) तीर्थ-यात्रा पर कर।

(5) राज्य से प्राप्त अनुदान।

(6) भू-राज्य अनुदान।

(7) सहकारी अनुदान।

(8) प्रयोजनात्मक अनुदान।

(9) संस्थापना अनुदान।

(10) घाटा-पूर्ति अनुदान।

(11) योजना अनुदान।

(12) समूह अनुदान।

(13) कसाइयों से प्राप्त लाइसेन्स शुल्क।

(14) हाट में बिकने वाले माल अथवा पशुओं पर शुल्क।

(15) परिषद् की सम्पत्ति से आय।

(16) सरकार से ऋण।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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