राजनीति विज्ञान / Political Science

तीसरे विश्व के देशों की सामान्य विशेषताएं | THE CHARACTERISTICS OF THE THIRD WORLD COUNTRIES in Hindi

तीसरे विश्व के देशों की सामान्य विशेषताएं | THE CHARACTERISTICS OF THE THIRD WORLD COUNTRIES in Hindi

तीसरे विश्व के देशों की सामान्य विशेषताएं

आज जिस विश्व में हम रह रहे है उस विश्व के 4.4 अरब लोग विकासशील देशों में रह रहे हैं। इस संख्या के एक-चौथाई को जीवन की आधारभूत आवश्यकताएं जैसे शीचादि की भी सुविधा नहीं है, लगभग एक-तिहाई के लिए साफ पीने का पानी नहीं है, एक-चौथाई के पास रहने के लिए मकान नहीं हैं, पांचवे हिस्से के पास चिकित्सीय सुविधाएं नहीं है, पांचवें हिस्से के बच्चे पांचवीं कक्षा से अधिक पढ़ नहीं सकते और इतने ही बच्चे भूखे-नंगे हैं।

आज तीसरे विश्व के देशों की सामान्य विशेषता है विकास के लिए संघर्ष। किन्तु इस आम विशेषता के अतिरिक्त उनमें अधोलिखित सामान्य विशेषताएं भी दिखायी देती हैं :

  1. जीविकोपार्जित कृषि एवं बागबानी प्रधान अर्थव्यवस्था – तकनीकी ज्ञान एवं आधुनिक विज्ञान के अभाव में तीसरी दुनिया के ये अल्प-विकसित देश अधिकांशतः कृषि पर निर्भर हैं। यहां कृषि व्यवसाय नहीं बल्कि जीविकोपार्जन या बागवानी पर आधारित है। बढ़ती जनसंख्या का दबाव या कच्चे माल के निर्यात में ही सभी कृषक लगे हैं। विश्व जनसंख्या में 1.3 बिलियन कृषि पर निर्भर है जिसमें 1 बिलियन इन्हीं देशों में है। व्यावसायिक सरचना में असन्तुलन होने के कारण तथा कृषि पर निर्भरता अधिक होने से राष्ट्रीय आय में कमी होती है।
  2. निर्यातों पर आश्रित – राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अधिक निर्यात नुकसानदायक नहीं होते परन्तु यदि कच्चे माल का अधिकांश भाग विदेशों को जाता है और इसके बदले में उन्हे कम लाभ प्राप्त होता है तो आर्थिक विकास नहीं बढ़ता। तीसरी दुनिया के देश अपने निर्यातों पर अधिक निर्भर रहते हैं। इन्हीं अल्प-विकसित देशों में निर्यात का राष्ट्रीय आय से अनुपात 20% है। यह समस्या तब और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जब निर्यातक देश एक या दो ही वस्तुओं का निर्यात करते हैं। मिस्र, इण्डोनेशिया, मलाया, श्रीलंका, अफ्रीकन क्षेत्र, लैटिन अमरीका, आदि सभी तीसरी दुनिया के देश एक या दो वस्तुओं के निर्यात से ही अधिकांश विदेशी मुद्रा अर्जित करते हैं। निर्यातों पर अधिक आश्रित होने के कारण तथा विदेशी बाजारों की स्थितियों में निर्यात नियम, आदि से विभिन्न वस्तुओं की मांग में जब कभी उच्चावचन होते रहते हैं जिसका प्रभाव इन देशों की अर्थव्यवस्था में होता है। प्राथमिक वस्तुओं की विदेशों में मांग कम हो जाने के कारण इन देशों में राष्ट्रीय आय तथा रोजगार पर प्रभाव पड़ता है। साथ ही सरकारी आय में भी अपेक्षाकृत परिवर्तन होते रहते हैं।
  3. असन्तुलित घटक – उत्पादन में पूर्ण घटकों की गतिशीलता के कारण एक उद्योग से दूसरे उद्योग में सीमान्त प्रतिफल समान रहता है। गतिशील अर्थव्यवस्था में साधनों का अधिकतम उपभोग उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए मिल जाता है, परन्तु अल्प-विकसित देशों में उत्पादन के विभिन्न घटकों में अचलता देखी जाती है। उदाहरण के लिए, श्रमिक एक उद्योग से दूसरे उद्योग में नहीं जाना चाहते यद्यपि वर्तमान में उनका उत्पादन कुछ नहीं है। जाति-प्रथा, सामाजिक व संस्थागत विचार, पूंजी गतिशीलता तथा विनियोग उद्योग को प्रभावित करते हैं।
  4. जनसंख्या वृद्धि – विकासशील देशों में जनाधिक्य है तथा जनसंख्या वृद्धि-दर विकसित देशों की अपेक्षा अधिक है। जनसंख्या में कमी से ही वास्तविक आय में वृद्धि हो सकती है। जनसंख्या वृद्द्धि कई आर्थिक कोठिनाइयां उत्पन्न करती है।
  5. अस्थिर राजनीतिक व्यवस्थाएं – तीसरे विश्व के देशों में लोकतन्त्र अभी तक अस्थायित्व के दौर से गुजर रहा है। इन देशों में राजनीतिक प्रक्रियाएं संक्रमण के दौर में होने के कारण संविधानों में लोकतन्त्र के आधार सुनिश्चित नहीं हो पाए हैं। संविधानों में बार-बार मौलिक संशोधन किए जाते हैं तथा एक मूल्य के स्थान पर दूसरा मूल्य आरोपित कर दिया जाता है। इन राज्यों का लोकतन्त्र समाजवादी लोकतन्त्र के नाम से पुकारा जाने लगा है इन लोकतन्त्रों में राजनीतिक समाजों के मूल्य तो उदारवादी लोकतन्त्र की अवधारणा के समान स्वतन्त्रता, राजनीतिक समानता, सामाजिक व आर्थिक न्याय तथा लोक-कल्याण की साधना के ही है, परन्तु साधनों की दृष्टि से समाजवादी लोकतन्त्र साम्यवादी विचारधारा के समीप लगते हैं क्योंकि इन राज्यों में साम्यवादी संरचनाओं व संख्थागत व्यवस्थाओं के प्रति आस्था बलवती बनती जा रही है।
  6. करिश्माती नेतृत्व – इन देशों में कार्यपालिका अध्यक्ष करिश्मे व चमत्कारिक व्यक्तित्व वाले नेता होने हैं। राष्ट्रीय आन्दोलनों के लम्बे कालों में ऐसे देव तुल्य नेता जनमानस में समा गए थे। इस कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ऐसे नेताओं के कार्यपालिका अध्यक्ष बनने पर उनको आदर व असाधारण प्रतिभा का प्रतीक ही नहीं वरन् राष्ट्र का पिता मान लिया गया था । जोमो केन्याता, सुकान्नो, बोर्गिबा, नासिर, नेहरू, ऐनक्रूमा, न्येरेरे, लुबुम्वा, शेख मुजीब, इत्यादि अनेक कार्यपालिका अध्यक्ष ऐसे ही अद्वितीय व्यक्तित्व के कारण लम्बी अवधि तक राजनीतिक व्यवस्थाओं पर छाए रहे। इन कार्यपालिका अध्यक्षों की शक्तियां असीमित रही हैं।
  7. विधायिका का हास – इन देशों में बहुल समाज परस्पर विरोधी व अधिकतर संघर्षशील शक्तियों के तनावों व खिंचावों से त्रस्त रहते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में विधानमण्डल ऐसी विषम परिस्थितियों के कारण संयोजनकारी भूमिका निभाने में सर्वथा असफल रहते हैं। अतः कार्यपालिका अध्यक्ष तानाशाह की सी स्थिति में आ जाता है।

৪. एक दल प्रणाली – इन देशों में प्रतियोगी दल प्रणाली आवश्यक सहिष्णुता के अभाव में अस्त-व्यस्त होते-होते एक दल पद्धति की परिस्थितियां उत्पन्न कर देती है। एक दल की स्थापना व उसका एकाधिकार कार्यपालिका की प्रवृत्ति में अन्तर ला देता है। इस प्रकार के दल का केवल दिखावा ही रहता है। कार्यपालिका अध्यक्ष अपनी सत्ता की वैधता के लिए चुनावों का ढोंग इसी दल के माध्यम से करने लगे%; किन्तु सभी तीसरी दुनिया के राज्यों के बारे में यह सामान्यीकरण खरे नहीं उतरते हैं। अनेक राज्यों में स्वतन्त्रताएं व दल प्रतियोगिता की वास्तविक परिस्थितियां बनाए रखने के संस्थागत साधन उपलब्ध रहते हैं। मैक्सिको, भारत व श्रीलंका इसके उदाहरण है।

संक्षेप में, तीसरी दुनिया के राष्ट्रो मे कार्यपालिका प्रतिमान अभी भी सुस्थिर नहीं हुए हैं। पुराने नेतृत्व के हटाने पर अनेक राज्यों में कार्यपालिका अध्यक्ष, संस्थागत चयन प्रक्रिया की दृढ़ता के अभाव में, सामान्य ढंग से चुनकर नहीं आ पाता है और अधिकतर कार्यपालिका पद तानाशाहों के हाथ में चला जाता है। इस प्रकार तीसरी दुनिया के राष्ट्रो में कार्यपालिका सामान्यतया निय्त्रण मुक्त ही रहती है। व्यवस्थापिकाएं इन देशा में नाम से ही रह गयी हैं न्यायपालिका पर महत्वपूर्ण प्रतिबन्ध लगाकर कार्यपालिका, शक्ति केन्द्रण में वेरोकटीक हो जाती है। अतः विकासशील राषट्रों में कार्यपालिकाएं अधिकतर विशेष व्यक्तित्व-उन्मुखी बन गयी हैं।

  1. भ्रष्टाचार – तीसरी दुनिया के देशों में भ्रष्टाचार की आम शिकायत है। जहां संयुक्त गज्य अमरीका में 90% कर वसूल कर लिए जाते हैं वहां इन देशों में कर वसूली 50% से कम होती है इन देशीं में विकास कार्य सरकारी कोप पर निर्भर करता है और वंचना से प्रभावित होता है। राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर भी भ्रष्टाचार इन देशों में खूब फैला हुआ है।

संयुक्त राष्ट्र बिकास कार्यक्रम (UNDP) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत व पाकिस्तान सहित दक्षिण एशिया क्षेत्र विश्व का भ्रष्टतम एवं निकृष्टतम (Poorly) प्रशासित क्षेत्र है। अकेले पाकिस्तान में प्रतिवर्ष 100 अरब रुपए से अधिक की राशि शभ्रष्टाचार में लिप्त होती है जो कि वहां के सकल घरेलू उत्पाद का 5 प्रतिशत है। भारत के बारे में की गई एक टिप्पणी के अनुसार मुम्बई में एक भवन के निर्माण के लिए विभिन्न विभागों से कम से कम 47 किस्म की स्वीकृतियां लेने की आवश्यकता पड़ती है इसी प्रकार एक लघु उद्यमी को प्रति माह 36 विभिन्न विभागीय इंस्पेक्टरों से निपटना पड़ता है।

  1. विलासितापूर्ण खर्चे – तीसरी दुनिया के देशों में अभिजन वर्ग अनापशनाप खर्च करता है। जो धन विकास के कार्य में खर्च होना चाहिए उसे राजनीतिक और प्रशासनिक अभिजन अपने भोग-विलास के लिए खर्च कर देता है।
  2. सैन्य-सामग्री पर खर्च – सेना और सैन्य-सामग्री पर भी तीसरी दुनिया के देश काफी धन अपव्यय करते हैं। 1964-1973 में विकासशील देशों ने 388 बिलियन डॉलर का सैनिक साज-सामान खरीदा। तीसरा दुनिया को जो धन रोटी पर खर्च करना चाहिए उसे बन्दूक पर खर्च कर दिया जाता है।

आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश है। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा 14% हथियार आयात करता है, जो चीन व पाकिस्तान की तुलना में तीन गुना ज्यादा है। 2006-10 और 2011-15 के बीच इसमें 90% की बढ़ोतरी रही है। भारत सऊदी अरब, चीन, संयुक्त अरब अमीरात और आस्ट्रेलिया-ये पांच देश दुनिया के 34% हथियार आयात करते हैं।

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चतुर्थ अध्याय – कुम्भ की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

पंचम अध्याय – गंगा नदी का पर्यावरणीय प्रवाह और कुम्भ मेले के बीच का सम्बंध

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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