राजनीति विज्ञान / Political Science

बजट क्या है ? अर्थ एवं परिभाषा, विशेषताएं, महत्व, प्रकार, कार्य तथा महत्वपूर्ण सिद्धान्त

बजट क्या है ? अर्थ एवं परिभाषा, विशेषताएं, महत्व, प्रकार, कार्य तथा महत्वपूर्ण सिद्धान्त

बजट क्या है तथा बजट से संबन्धित सभी प्रकार के प्रश्नों के उत्तर यहाँ देने की पूर्ण रूप से कोशिश की है हमारे द्वारा तथा साथ ही यहाँ पर आप को इस पोस्ट की pdf भी उपलब्ध कराई गयी है तो आवश्यकता होने पे उसे भी download करें-

बजट : अर्थ एवं परिभाषा

(BUDGET: MEANING AND DEFINITION)

‘बजट’ शब्द फ्रेंच भाषा के शब्द ‘बूजट’ (Bougette) से निकला है, जिसका अर्थ है ‘चमड़े का थैला या झोला’। सन् ‘1733 में ब्रिटिश वित्त मन्त्री सर रॉबर्ट वालपोल ने अपने वित्तीय प्रस्तावों से सम्वन्धित कागज संसद के सामने पेश करने के लिए एक चमड़े के थैले में से निकाला तो उनका मजाक उड़ाते हुए ‘बजट खोला गया ( The Budget Opened) नामक एक पुरितका प्रकाशित की गयी। उसी समय से ‘बजट’ शब्द का प्रयोग सरकार की वार्षिक आय-व्यय के विवरण के लिए किया जाने लगा है।

कुछ लेखकों ने बजट की परिभाषा अनुमानित आमदनियों तथा खर्चों के विवरण मात्र के रूप में की है। कुछ अन्य लेखकों ने बजट को ‘राजस्व तथा विनियोग अधिनियम ‘ का पर्यायवाची माना है। प्रथम अवधारणा अमरीकन बिद्वानों में सामान्यतया पायी जाती है, जबकि दूसरी अवधारणा यूरोपियन विद्वानों में, विशेषतः फ्रेंच लेखकों में पायी जाती है। उदाहरण के लिए, लेनॉय ब्यूलियो ने बजट की परिभाषा निम्न प्रकार की है, ‘बजट एक निश्चित अवधि के अन्तंर्गत होने वाली अनुमानित प्राप्तियों तथा खर्चों का एक विवरण है।”

रीन स्टोर्म के शब्दों में, “बजट एक लेख पत्र है जिसमें सरकारी आय और व्यय की एक प्रारम्भिक अनुमोदित योजना रहती है।

जी. गीज के अनुसार, “बजट सम्पूर्ण सरकारी प्राप्तियों तथा खर्चों का एक पूर्वानुमान तथा अनुमान है और कुछ प्राप्तियों का संग्रह करने तथा कुछ खर्चों को करने का एक आदेश अथवा प्राधिकरण है।”

उपरोक्त परिभाषाओं की आलोचना करते हुए बिलोबी कहते हैं कि “ये लेखक बजट की आधुनिक अवधारणा से बहुत दूर थे और उन्हें वित्तीय संगठन में बजट की महत्वपूर्ण भूमिका की कोई जानकारी नहीं। थी।” इन परिभाषाओं में कम-से-कम दो दोष हैं। पहला, इनमें स्पष्ट नहीं किया गया है कि बजट में विगत संक्रिया (Post Operation) तथा वर्तमान दशाओं के साथ-ही-साथ भविष्य के प्रस्तावों से सम्बन्धित तथ्यों का उल्लेख होना चाहिए। दूसरे, इनमें ‘बजट’ और ‘राजस्व तथा विनियोग अधिनियम’ में कोई अन्तर नहीं माना गया है। इन दोनों के बीच भेद करना आवश्यक है क्योंकि ये अलग-अलग क्रिया का प्रतिनिधित्व करते हैं। बजट प्रशासन के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि राजस्व तथा विनियोग अधिनियम व्यवस्थापिका कार्य का प्रतिनिधित्व करता है।

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बजट की विशेषताएं

‘बजट’ से सम्बन्धित इन विभिन्न परिभाषाओं के अध्ययन से इसकी निम्न विशेषताएं प्रकट होती हैं :-

  1. दजट सरकारी रीति-नीतियों को प्रतिविम्बित करने का एक प्रशासनिक प्रयास होता है;
  2. विगत दर्ष में कार्यपलिका द्वारा सम्पादित प्रशासनिक तथा आर्थिक कार्यों का एक सन्तुलित ब्यौरा होता है;
  3. सस्कारी क्रियाकलापों के संचालन के लिए आवश्यक धनराशि जुटाने तथा इसे खर्च करने का एक व्यवस्थित मसौदा होता है;
  4. व्यवस्थापिका के समक्ष स्वीकृति के लिए पैश किये जाने के कारण बजट नियमित रूप से कार्यपालिका को व्यवस्थापिका के प्रति अपने उत्तरदायित्व का बौध कराते रहने का एक प्रभावी माध्यम है; तथा
  5. व्यवस्थापिका की स्वीकृति मिलने के पश्चात् ही सतत पुष्टि का प्रमाण माना जा सकता है।

इस प्रकार वर्तमान काल में ‘बजट’ एक ऐसा महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया है कि बजट को समस्त वित्तीय प्रशासन-यन्त्र का प्राण तथा लोकोप्रिय शासन-व्यवस्था के अस्तित्व का आधार माना जाता है।

बजट का महत्व

(IMPORTANCE OF BUDGET)

बजट आधुनिक राज्यों में राष्ट्र की आर्थिक नीति को संचालित और नियन्त्रित करने के विशिष्ट साधनों में प्रमुख स्थान रखता है। यदि यह कहा जाये कि वर्तमान राज्यों का संचालन बजट के माध्यम से होता है तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। सरकार बजट की सहायता से अपना कार्य करती है तथा सार्वजनिक आय के विभिन्न स्रोतों का अधिकतम सदुपयोग करने की योजना बनाती है। जो सरकार इस कार्य को जितनी अधिक क्षमता से करती है, वह अपने नागरिकों की आर्थिक और भौतिक समृद्धि को उतनी ही तेजी से बढ़ाती है। ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ग्लैडस्टोन ने एक बार कहा था, “बजट केवल गणित के आंकड़े मात्र नहीं है, किन्तु यह हजारों व्यक्तियों की समृद्धि, विभिन्न वरगों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा राज्यों की शक्ति का मूल है।” एलन विलियम्स ने बजट के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि आजकल बजट सरकार की आर्थिक नीति को प्रस्तुत करने और क्रियान्वित करने का केन्द्रीय बिन्दु है।

द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व बजट राज्य सरकारों के प्रशासन के लिए धन प्राप्त करने का साधन मात्र थे। किन्तु वर्तमान में बजट किसी राष्ट्र के आय-व्यय को सन्तुलित करने का ही कार्य नहीं करते हैं, अपितु वे अर्थव्यवस्था के विकास का साधन हैं और नये आर्थिक चिन्तन और नूतन परीक्षणों का श्रीगणेश करते हैं। इनमें सरकार की नीति एवं देश की आर्थिक परिस्थितियां प्रतिबिम्बित होती हैं। वस्तुतः सार्वजनिक वित्तीय प्रशासन का हृदय है- बजट, जिसमें अनेक लक्ष्य होते हैं और उनके लिए धन निर्धारित किया जाता है, जैसा कि पीटर ए. पायर ने कहा है कि बजट सरकार के लक्ष्यों का आधिकारिक लेखा-जोखा होता है जिसमें उसकी प्राथमिकताओं का वर्णन भी होता है साथ ही खर्च की आबंटन भी होता है। दूसरे शब्दों में, सरकारी बजट समाज में संसाधनों का औपचारिक वितरण है जिससे यह फैसला होता है कि किसे क्या, कब और कैसे मिलेगा।

बजट किसी राष्ट्र की वित्तीय स्थिति के लिए दर्पण, दीपक और दिग्योतक यन्त्र के तीन प्रकार के कार्य करता है। जिस प्रकार दर्पण व्यक्ति की मुखाकृति को वास्तविक रूप में प्रतिविम्बित करता है उसी प्रकार किसी देश का बजट अनुसरण किये जाने वाले वित्तीय पथ को आलोकित करता है। किन्तु बजट का इससे भी बड़ा कार्य उस दिशा को बताना है जिस दिशा की ओर राष्ट्र को अग्रसर होना है। नेहरू के शब्दों में, “बजट को इस दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए कि देश में क्या करना है और किन लक्ष्यों को प्राप्त करना है।”

बजट कई कारणों से प्रशासकों, विधायकों एवं नागरिकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। प्रशासन करने वाले सरकारी अधिकारी बजट की सहायता से ही विभागों का प्रशासन समुचित रीति से कर सकते हैं। बजट विधायिका को देश की अर्थव्यवस्था पर पूरा नियन्त्रण और अंकुश रखने का साधन प्रदान करता है। बजट नागरिकों और करदाताओं के लिए भी अतीव उपयोगी है, क्योंकि इससे नागरिकों को यह पता चलता है। कि सरकार का काम चलाने के लिए कितना रुपया व्यय किया जा रहा है, सरकार को किस स्रोत से कितनी आमदनी होती है और वह इस आमदनी का किस प्रकार व्यय करती है और इनसे कौन-से उद्देश्य पूरे कर रही है। डॉ. बर्कहेड के अनुसार संयुक्त राज्य अमरीका, रूस और ग्रेट ब्रिटेन तथा फ्रांस के आर्थिक उत्कर्ष में वजट पद्धति ने बड़ा सहयोग दिया है और इससे उनकी राजनीतिक शक्ति में वृद्धि हुई है।

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बजट के विभिन्न प्रकार

(VARIOUS TYPES OF BUDGET)

लोक प्रशासन के विद्वानों ने सामान्यतः तीन प्रकार के बजट बतलाये हैं :

(1) व्यवस्थापिका प्रणाली का बजट (Legislative Type Budget) – इस प्रकार की बजट प्रणाली में व्यवस्थापिका की प्रभुता पायी जाती है। कार्यपालिका देश की विधायिका को बजट तैयार करने के लिए प्रार्थना करती है। विधायिका अपनी एक लघु समिति के माध्यम से बजट तैयार करती है। बजट तैयार हो जाने पर उसकी स्वीकृति का अघिकार भी विधायिका के पास होता है। कार्यपालिका का यह कर्तव्य होता है कि वह विधायिका द्वारा तैयार किये गये बजट को क्रियान्वित करे। यह परिपाटी अमरीका में कतिपय राज्यों तथा शहरों में प्रचलन में रही है। किन्तु इस प्रकार से तैयार किये जाने वाले बजट अधिक पुख्ता तथा व्यावहारिक नहीं हो सकते।

(2) कार्यपालिका प्रणाली का बजट (Executive Type Budget )- बजट का सर्वाधिक प्रचलित रूप यही है। इसमें कार्यपालिका ही बजट को तैयार करती है और व्यवस्थापिका की स्वीकृति मिल जाने पर इसे लागू करने की जिम्मेदारी कार्यपालिका के पास ही रहती है। वित्तीय प्रशासन की कुशलता की दृष्टि से आज के विश्व में बजट निर्माण की यह प्रणाली सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी है तथा यह व्यापक स्तर पर प्रचलन में है।

(3) मण्डल या आयोग प्रणाली का बजट (Board or Commission Type Budget)- इस प्रणाली में बजट का निर्माण किसी मण्डल या आयोग द्वारा किया जाता है, जिसमें या तो केवल प्रशासनिक अधिकारी होते हैं, या कुछ प्रशासनिक तथा शेष विधायी अधिकारी रखे जाते हैं। अमरीका के कुछ राज्यों तथा छोटी प्रशासनिक इकाइयों (जैसे, नगरपालिका) में बजट की यह पद्धति प्रचलन में है। बजट निर्माण की इस विकेन्द्रित व्यंवस्था को अपनाने के पीछे मूल उद्देश्य एक ऐसी व्यवस्था विकसित करना है जिसके तहत अधिकारी एक-दूसरे के क्रियाकलापों पर निगरानी रखते हुए लोकहित के संवर्द्धन के लिए अधिक ईमानदारी व निष्ठा से बजट सम्बन्धी क्रियाकलापों को सम्पादित कर सकें।

आज विश्व के अधिकांश देशों में बजट निर्माण की कार्यपालिका प्रणाली ही अधिक लोकप्रिय है क्योंकि यह अधिक व्यावहारिक है तथा बजट प्रस्तावों के क्रियान्वयन की दृष्टि से इस प्रणाली को ही अधिक रचनात्मक माना जा सकता है।

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बजट के कार्य

(BUDGET FUNCTIONS)

बजट के माध्यम से ही सरकार अपनी योजनाओं को क्रियात्मक रूप देती है तथा मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य पूरे करती है :

(i) पहला कार्य राष्ट्रीय वित्त का सुव्यवस्थित रूप से सदुपयोग, प्रशासन एव उपयोग करना है।

(ii) दूसरा कार्य सार्वजनिक आय-व्यय की विभिन्न मदों का विस्तृत विवरण वैज्ञानिक एवं सुव्यवस्थित रीति से कार्यपालिका द्वारा तैयार किया जाना है।

(iii) तीसरा कार्य स्वीकृत बजटे के अनुसार कार्यपालिका को इकट्ठा करने और आवश्यक व्यय के लिए बजट के आधार पर अनुमति देना है।

(iv) चौथा कार्य सरकार की आर्थिक नीति को कार्यान्वित करने के लिए बजट का एक साधन के रूप में उपयोग किया जाना है। एक स्वीकृत बजट प्रशासक को यह बताता है  कि उसे किस प्रकारकी वित्तीय परिस्थितियों में कार्य करना है और किन योजनाओं और  उद्देश्यों की पूर्ति के लिएउसे प्रयास करना है।

(v) पांचवां कार्य बजट द्वारा पिछले वित्तीय वर्ष में किये गये कार्य का सिंहावलोकन करना है।

(vi) छठा कार्य बजट द्वारा नवीन नीति का निर्माण करने के लिए पिछले वर्षों में किये गये कार्यों का ऐसा वितरण प्रस्तुत करना है जिसके आधार पर अगले वर्षों के लिए नीति सम्बन्धी निर्णय लिये जा सकते हैं।

(vii) सातवां कार्य बजट द्वारा विभिन्न विभागों पर इस विषय में मार्गदर्शन करना है कि उन्हें इस वर्ष कौन-से कार्य कितनी धनराशि की सीमा के भीतर रहते हुए करने हैं।

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बजट के महत्वपूर्ण सिद्धान्त

(IMPORTANT PRINCIPLES OF THE BUDGET)

बजटे चूंकि वित्तीय और कार्य प्रबन्ध का एक प्रभावकारी साधन है, इसलिए उसे बजट निर्माण के सिद्धान्तों के अनुरूप होना चाहिए। बजट निर्माण के कोई नपे-तुले सिद्धान्त नही हैं किन्तु प्रमुख देशों के लभ्च अनुभव के आधार पर निम्नलिखित सिद्धान्त वनाये गये हैं :

  1. कार्यपालिका के दायित्व का सिद्धान्त- मुख्य कार्यपालिका प्रशासन चलाने के लिए उत्तरदायी मानी जाती है। अतः यह निधियों की आवश्यकता के सम्वन्ध में कहीं अच्छी तरह बता सकती है। इसलिए बजट बनाने का कार्य-बहुत कुछ मुख्य कार्यपालिका पर होना चाहिए। परन्तु बजट बनाने का कार्य एक लम्बा एवं बड़ा कार्य है इसलिए उसे विशिष्ट निकायों द्वारा सलाह व सहायता दी जानी चाहिए। भारत में वित्त विभाग बजट बनाने में मुख्य कार्यपालिका को सहायता देता है। संक्षेप में, सरकार में यह सिद्धान्त कार्यपालिका की सिफारिश के बिना मंजूरी के लिए कोई भी मांग प्रस्तुत नहीं की जा सकती। यह धारणा इस सिद्धान्त को भी स्पष्ट करती है कि बजट बनाना कार्यपालिका का कार्य है और कार्यपालिका को ही बजट तैयार करना चाहिए।
  2. प्रचार अथवा प्रकाशन- बजट जनता के लिए बनता है, जनता उससे प्रभावित होतीं है, अत: यह परमावश्यक है कि बजट को कई चरणों अथवा अवस्थाओं से गुजरना होता है-कार्यपालिका द्वारा बजट बनाया जाना तथा व्यवस्थापिका के समक्ष रखा जाना, व्यवस्थापिका द्वारा कार्यान्वित किया जाना। इन विभिन्न अवस्थाओं का पर्याप्त प्रचार या प्रकाशन होना चाहिए, ताकि जनता दजट में प्रस्तावित योजनाओं तथा कार्यक्रमों के सम्बन्ध में अपने सुझाव दे सकें।
  3. कर लगाने का संसद का एकमात्र अधिकार- कोई भी कर संसद या विधायिका की स्वीकृति के बिना नहीं लगाया जा सकता है। कार्र्पालिका अपनी इच्छा मात्र से या आदेश से कोई कर नहीं लगा सकती है, उसे अपने सभी कर-प्रस्ताव एक विल के रूप में संसद के सामने प्रस्तुत करने होते हैं और इनके स्वीकृत होने पर ही जनता से इन करों की वसूली की जा सकती है।
  4. व्यय पर विधानपालिका का नियन्त्रण- कोई भी राजकीय व्यव विधायिका या संसद की स्वीकृति के बिना नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक सरकारी खर्च के लिए संसद की स्वीकृति आवश्यक है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 में इस सिद्धानत को स्वीकार करते हुए यह कहा गया है कि भारत सरकार को प्राप्त होने वाली सारी आमदनी, सब प्रकार के ऋणों के भुगतान के रूप में प्राप्त समस्त धनराशियां केन्द्र अथवा राज्य सरकार की संचिति निधि में जमा की जायेंगी और इस निधि से कोई भी राशि तब तक नहीं निकाली जा सकती, जब तक किसी कानून द्वारा उसकी स्वीकृति न ली गयी हो।
  5. वार्षिकता का सिद्धान्त- बजट में इस सिद्धान्त का पूरा पालन करते हुए इसे केवल एक वित्तीय वर्ष के लिए स्वीकृत क्रिया जाता है, इसकी समाप्ति पर इस बजट द्वारा स्वीकृत कर-प्रस्ताव समाप्त हो जाते हैं। और अगले वर्ष के लिए नया बजट पास करवाना पड़ता है।
  6. सन्तुलित बजट- बजट का एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि उसमें आय एवं व्यय के मध्य सन्तुलन होना चाहिए। अत्वधिक घाटे का बजट और अत्यचिक लाभ का बजट दोनों ही दोषपूर्ण माने जाते हैं।
  7. लोचशीलता- दर्जट बनाते समय इस बात का पूर्ण रूप से ध्यान रखना आवश्यक है कि बजट का रूप लोचशील होना चाहिए ताकि आवश्यकतानुसार उसमें परिवर्तन किया जा सके।
  8. स्पष्टता- बजट की रूपरेखा स्पष्ट तथा सरल होनी चाहिए जिससे कि प्रत्येक नागरिक उसको समझ सकें। उसकी भाषा सुगम तथा सुवोध होनी चाहिए। यदि भाषा क्लिष्ट हुई तो बजट के क्रियान्वयन में कठिनाई आयेगी।
  9. परिशुद्धता- बजट के अनुमान अथवा प्राक्कलन यथासम्भव विशुद्ध होने चाहिए। वे सूचनाएं जिन पर कि बजट अनुमान आधारित हो, ठीक होनी चाहिए। तथ्यों को छिपाने की, जान- बूझकर राजस्व का कम अनुमान लगाने की, अथवा गलत आंकड़े प्रस्तुत करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।
  10. ब्यापकता का सिद्धान्त– बजट में सरकार की सभी प्रस्तावित योजनाओं तथा कार्यक्रमों पर प्रकाश डाला जाना चाहिए। उसमें सरकार की आमदनियों एवं खर्चों का पूरा-पूरा विवरण दिया जाना चाहिए। साधारणतः वही बजट श्रेष्ठ समझा जाता है और सफल सावित होता है जिसमें व्यापकता का गुण विद्यमान हो।
  11. एकता- इस सिद्धान्त के अनुसार सरकार की सभी आमदनियां एक सामान्य निधि में रखी जानी चाहिए। इससे आशय वह है कि शासन के समस्त विभागों की आय तथा व्यय से सम्बन्धित एक ही बजट होना चाहिए। यदि विभागानुसार अनेक वजट रहेंगे तो उनमें से कुछ मुनाफे का बजट दिखायेंगे और कुछ घाटे का। ऐसी स्थिति में सरकार की निर्वल वित्तीय स्थिति को बिना जटिल हिसाब-किताब लगाये और समंजन किये पता लगाना सम्भव नहीं होगा। भारत में दो बजट तैयार किये जाते हैं- एक तो सामान्य बजट तथा दूसरा रेलवे बजट। अतः यहां बजट की एकता के सिद्धान्त का पालन नहीं किया गया है।
  12. अवसान का नियम- यह वार्षिकता के सिद्धान्त का परिणाम है। इसका यह अभिप्राय है कि एक वित्तीय वर्ष के लिए स्वीकृत अनुदान और वजट इसकी समाप्ति पर खत्म हो जाता है। वर्ष के अन्त में बची हुई राशि को भविष्य में व्यय करने के लिए बचाकर सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। यह नियम इसलिए बनाया गया है कि बजट की राशि का उपयोग एक वर्ष की नियत अवधि में हो जाना चाहिए।
  13. शुद्धता- इसका अर्थ है कि बजट में आय-व्यय के समस्त अनुमानों को अधिकतम शुद्ध रूप में प्रदर्शित किया जाये। विभिन्न विभागों द्वारा आय-व्यय के जो अनुमान दिखाये जायं, उनका वास्तविक आय-व्यय लगभग उसी के अनुसार होना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब ये अनुमान विस्तृत गवेषणा और अनुसन्धान के बाद प्राप्त सूचनाओं पर आधारित हों।
  14. मितव्यय– बजट के सभी अनुमान मितव्यय के सिद्धान्त का पूरा पालन करते हुए बनाये जाने चाहिए, सार्वजनिक द्रव्य के एक पैसे का भी अनावश्यक व्यय, दुरुपयोग या बर्बादी नहीं होनी चाहिए। यदि किसी योजना को क्रियान्वित करने के लिए दो-तीन प्रकार के साधन उपलब्ध हैं तो उनमें मितव्ययी साधन को ही अपनाना चाहिए।
  15. नकद आधार- बजट एक वर्ष के भीतर नकद रूप में प्राप्त होने वाली आमदनी तथा किये जाने वाले व्यय के आधार पर बनाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि अगले वर्ष में होने वाली सम्भावित आय अथवा व्यय को वर्तमान वित्तीय वर्ष के बजट में सम्मिलित कर लिया जाय।

इन सिद्धान्तों का पालन करते रहने पर कोई भी देश अपनी वित्तीय व्यवस्था को बनाये रख सकता है। कार्यपालिका को आकस्मिक (Extra-Ordinary) अथवा पूरक अनुदान मांगें (Supplementary Demands) रखने की गलत रीति का सहारा नहीं लेना पड़ता तथा देश की अर्थव्यवस्था को किसी आकस्मिक वित्तीय संकट में पड़ने से बचाया जा सकता है। यहां यह बताना युक्तिसंगत होगा कि वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में यंदा-कदा ऐसी व्यावहारिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं जिनके कारण उपर्युक्त सिद्धान्तों का निष्ठापूर्वक पालन करना कार्यपालिका के लिए कठिन हो जाता है। फलतः इनमें से किसी एक अथवा कुछक सिद्धान्तों की उपेक्षा होने के उदाहरण प्रायः देखने को मिलते हैं।

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राजनीतिक शास्त्र से संबन्धित कुछ महत्वपूर्ण लिंक

  1. राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990- आयोग का गठन, महिलाओं के खिलाफ हिंसा की समस्या से निपटने के लिए एक बहु-प्रचारित रणनीति
  2. Renunciation of citizenship
  3. कठोर एवं लचीला संविधान
  4. भारतीयसंविधान के स्रोत (Sources of Indian Constitution)
  5. अरब लीग – 1945 [ARAB LEAGUE – 1945]
  6. लोकतंत्र (Democracy in hindi)
  7. मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties)
  8. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)
  9. गुटनिरपेक्षता की उपलब्धियां (ACHIEVEMENTS OF NON-ALIGNMENT)
  10. तीसरे विश्व के देशों की सामान्य विशेषताएं (THE CHARACTERISTICS OF THE THIRD WORLD COUNTRIES)
  11. भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं
  12. दक्षिण-पूर्वी एशिया सन्धि संगठन – सीटो 1954 (South-East Asia Treaty Organization- SEATO 1954
  13. वार्सा समझौता – 1955-91 (WARSAW PACT)
  14. आर्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड तथा संयुक्त राज्य समझौता – एंज़स 1951 (Australia, New Zealand and United States Pact – ANZUS 1951)
  15. उत्तरी अटलाटिक संधि संगठन : नाटो 1949
  16. Indian Citizenship
  17. लोक प्रशासन के अध्ययन का महत्व The importance of public administration
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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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